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जैसलमेर में दो घण्टे

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तीन बजे मैं जैसलमेर पहुंचा। संजय बेसब्री से मेरा इंतजार कर रहा था। वह नटवर का फेसबुक मित्र है। मुझसे पहचान तब हुई जब उसे पता चला कि नटवर और मैं साथ साथ यात्रा करेंगे। पिछले दिनों ही वह मेरा भी फेसबुक मित्र बना। उसने मेरा ब्लॉग नहीं पढा है, केवल फेसबुक पृष्ठ ही देखा है। मेरे हर फोटो को लाइक करता था। मैं कई दिनों तक बडा परेशान रहा जब जमकर लाइक के नॉटिफिकेशन आते रहे और सभी के लिये संजय ही जिम्मेदार था। मैं अक्सर लाइक को पसन्द नहीं करता हूं। ब्लॉग न पढने की वजह से उसे मेरे बारे में कुछ भी नहीं पता था। मेरा असली चरित्र मेरे ब्लॉग में है, फेसबुक पर नहीं।
सवा पांच बजे यानी लगभग दो घण्टे बाद मेरी ट्रेन है। इन दो घण्टों में मैं जैसलमेर न तो घूम सकता था और न ही घूमना चाहता था। मेरी इच्छा कुछ खा-पीकर स्टेशन जाकर आराम करने की थी। फिर साइकिल भी पार्सल में बुक करानी थी।
संजय इतना बेसब्र था कि मुझे हनुमान चौक पर प्रतीक्षा करने को कहकर स्वयं वहां से सौ मीटर दूर एक ऊंची लाइट के नीचे खडा हो गया। उस समय मैं एक ऐसी जगह पर खडा था कि मुझे वह ऊंची लाइट नहीं दिख रही थी। मैंने जब उसे अपनी लोकेशन बताई तो निर्देश देने लगा। इस दौरान मैंने दस रुपये के बारह गोलगप्पे भी खा लिये। कई बार फोन आया उसका। एक तो मारवाडी लहजा मेरे कम पल्ले पडा, फिर दूसरी बात कि पन्द्रह मिनट पहले उसने मुझे हनुमान चौक पर पहुंचने को कहा था, खुद पता नहीं कहां है, निर्देश पर निर्देश दिये जा रहा है। जब मैं उसे भाड में भेजकर स्टेशन जाने के लिये साइकिल पर बैठने ही वाला था तो तेज तेज कदमों से मेरे पास आया। पचास कदम चलकर उसने बताया कि वो पिछले बीस मिनट से यहां मेरी प्रतीक्षा कर रहा था।
मैंने कहा कि अब मेरे पास समय नहीं है, मुझे स्टेशन जाना है और साइकिल बुक करानी है। ट्रेन चलने में दो घण्टे भी नहीं बचे हैं। कहने लगा कि आप जैसलमेर आये हैं तो आपको अपना शहर घुमाऊंगा... जैसलमेर ज्यादा बडा नहीं है... डेढ घण्टे में आप सबकुछ देख लोगे। मैंने कहा कि मैं इस तरह भागमभाग में नहीं घूमा करता। कभी फिर आऊंगा और आराम से जैसलमेर देखूंगा। कहने लगा कि आराम से ही देखोगे आप डेढ घण्टे में। आपको मैं किला, हवेलियां, ये, वो सब दिखा दूंगा। अब मैं स्वयं को फंसा हुआ महसूस करने लगा। वाकई फेसबुक मित्र जो आपके असली हुनर को नहीं जानते, सिर्फ एक क्लिक भर करके लाइक या पोक करना ही जानते हैं, आपके लिये सिरदर्द भी बन सकते हैं।
उसकी चाल और जुबान बडी तेज है। तेज तेज चलता रहा और तेज तेज चपर चपर बोलता रहा। कुछ दूर चलकर एक गली में मुड गया- आप दो सेकण्ड यहां रुको, वो सामने मेरा घर है, मैं यह जैकेट उतारकर आ रहा हूं। दो घर छोडकर ही उसका घर था। घर बाहर से अच्छा बना था जैसा कि जैसलमेर में हर घर बना है। कितना अच्छा होता कि वो मेरी मनोदशा समझता। डेढ घण्टे में जैसलमेर घुमाने की अपेक्षा अगर वह अपने घर ही ले जाता। भले ही चाय को भी न पूछता, पानी भी न देता, भले ही फेसबुक खोलकर बैठ जाता लेकिन मुझे अच्छा लगता। एक मारवाडी घर को देखने का मौका मिलता। जैसलमेर में देश के मुकाबले विदेश से ज्यादा लोग आते हैं और वे पागल नहीं हैं कि कई कई दिन यहां रुकते हैं। इधर यह महाराज मुझे डेढ घण्टे में जैसलमेर घुमाने की बात कर रहा है। डेढ घण्टे में भाग-दौड करके पांच-चार हवेलियां और किले की झलक ले लूंगा तो इसका एक नुकसान तो यही होगा कि दोबारा यहां आने का मन नहीं करेगा। पहले देख ही रखा है, अब दोबारा क्यों जाऊं? फिर अगर दोबारा आ भी गया तो इस संजय के बच्चे को बताना भी नहीं है कि मैं आ रहा हूं। और हां, टकले नटवर को भी नहीं।
ये देखो नीरज भाई, जैसलमेर की एक सुपर पतली गली। है तो गन्दी लेकिन यहां कई फिल्मों की शूटिंग हो चुकी है। ऐसी पतली गलियां दुनिया में और कहीं नहीं हैं। उधर खडे होओ, आपका फोटो खींचता हूं। आप हाथ फैलाओगे तो आपकी दोनों हथेलियां दीवारों को स्पर्श करेंगीं। महाराज को क्या पता कि इधर पुरानी दिल्ली के निवासी हैं। उस पुरानी दिल्ली के जहां न केवल इससे भी पतली पतली गलियां हैं, बल्कि उन गलियों में बेहद तंग और भीड भरे बाजार भी हैं।
नथमल की हवेली के सामने पहुंचे। बोला- इस हवेली में कुछ नहीं है। बस बाहर से फोटो खींच लो। इसके बाद आपको पटवों की हवेली में ले जाऊंगा। मैं बुरी तरह खीझ ही रहा था। उसके कहे अनुसार दो तीन फोटो खींचे और पुनः दौड लगा दी। मैं जैसलमेर शहर के हृदय प्रदेश में घूम रहा था, खूब पर्यटक थे और जमकर फोटो खींच रहे थे। मैं संजय के पीछे पीछे दौड लगा रहा था।
पटवों की हवेली के सामने पहुंचे। यहां काफी भीड थी। पलक झपकने की देर थी और फुर्तीला संजय मेरी नजरों से ओझल हो गया। मैं एक तरफ जाकर खडा हो गया। दस मिनट बाद वह सामने आया- नीरज भाई, तुम कहां चले गये थे? अन्दर क्यों नहीं गये? मैं कितनी देर से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूं? मैंने कहा कि मुझे पता ही नहीं चला कि तुम किधर चले गये। बोला कि तुम्हारे सामने ही तो गया था अन्दर।... मतलब मैं झूठ बोल रहा हूं। यानी तुम्हें मैंने अन्दर जाते देखा और जानबूझकर खुद बाहर ही रुक गया?
खैर, पटवों की हवेली के अन्दर पहुंचे। यहां प्रति व्यक्ति सत्तर रुपये लिये जाते हैं और कैमरे के पचास रुपये अलग से। पटवों की हवेलियां एक हवेली-समूह है। यहां कुछ हवेलियों में जाने के पैसे लगते हैं, कुछ में जाने के नहीं लगते। संजय मुझे एक फ्री वाली हवेली में ले गया। यहां भी वही चपलता। सीढियों पर चढकर ऊपर छत पर पहुंचे। कदम कदम पर कहता- नीरज भाई, सिर बचाकर। यहां दरवाजे नीचे होने के कारण सिर में चोट बडी जल्दी लगती है। यहां हम सबसे ऊपर जायेंगे। इतनी सारी सीढियां हैं कि तुम्हें सांस चढ जायेगी। मैं ज्यादातर समय चुप ही रहा।
यह यात्रा तो अच्छी निबट गई लेकिन संजय मेरी भावी जैसलमेर यात्रा का बेडागर्क किये जा रहा है। पता नहीं क्या खुशी मिल रही है उसे? मैं उससे बोल तक नहीं रहा, बात बात पर झुंझला भी उठता था, लेकिन वह समझ ही नहीं रहा।
सबसे ऊपर छत पर पहुंचे। बाकी हवेलियों की छतें भी आपस में मिल रही थीं, बस एक छोटी सी दीवार सबके बीच में थी। चारों ओर का नजारा बेशक शानदार था। सामने ही किला भी अपने पूरे ठाठ-बाट से दिख रहा था।
ज्यादातर पर्यटक पैसे वाली हवेली की छत पर थे। हम फ्री वाली पर थे। बराबर वाली छत पर संजय को दो विदेशी युवतियां दिखाई दीं। बीच में छोटी सी दीवार ही थी। बात करने लगा। वे जर्मन थीं। नाम पूछे, वे भी बता दिये। इसके बाद संजय ने उनसे फेसबुक एकाउण्ट के बारे में पूछा और मित्र बनने की ख्वाहिश जाहिर की जिसपर उन्होंने औपचारिकतावश गर्दन तो हिला दी लेकिन मुझे लग रहा था कि दोनों लडकियां संजय के जबरदस्ती बीच में आ कूदने से खुश नहीं थीं। और वे ही क्या, कोई भी खुश नहीं होगा। जब वे कुछ दूर चली गईं, संजय ने दीवार फांदी और मुझसे कहा- नीरज भाई, बस दो मिनट रुको, मैं अभी आया। वह फिर उन्हीं दोनों लडकियों के बीच में जा घुसा।
मुझे किसी की भी यही हरकत सबसे जलील हरकत लगती है। बिल्कुल नीच हरकत। हम घूमने जाते हैं तो कभी नहीं चाहते कि कोई हमारी आजादी में बाधक बने। सामने वाला सम्मान कर रहा है, कुछ खाने को टोक रहा है, देर सवेर होने पर अपने यहां रुकने को कह रहा है, भाषा न आने पर भी बात करने की कोशिश कर रहा है; यह सब तब तक ही ठीक लगता है जब तक हमारी आजादी में बाधा न बने। अति सर्वत्र वर्जयते।
इन हवेलियों से बाहर निकलते ही मैंने संजय से पूछा कि स्टेशन का रास्ता बताओ। उसने कहा कि बस किला और रह गया है, पन्द्रह मिनट में देख लेंगे। मैंने बिना किसी औपचारिकता के तीखे शब्दों में कहा कि तुम्हारे साथ अब मुझे कुछ नहीं देखना। कभी दोबारा जैसलमेर आऊंगा और इस शानदार शहर को अपने तरीके से देखूंगा। बोला कि क्या कमी रह गई मेरे दिखाने में? मैंने कहा कि तुम मेरी आजादी में बाधक बन रहे हो। ये चीजें मेरे लिये घण्टे भर में देख डालने की नहीं हैं। कुछ हवेलियां मैंने देख ली हैं, तो शायद कभी दोबारा इन्हें देखने न आऊं। मैं नहीं चाहता कि किले के साथ भी ऐसा हो।
उसने स्टेशन का रास्ता बता दिया। मैं सीधा स्टेशन जाकर ही रुका। ट्रेन प्लेटफार्म पर खडी थी। इसके चलने में अभी घण्टा भर शेष था। मैं सीधा पार्सल कार्यालय पहुंचा। बताया कि इस ट्रेन में एक साइकिल बुक करनी है। बोले कि कल आना। मैंने कहा कि जाना तो आज है, कल क्या करूंगा आकर? बोले कि अब कार्यालय बन्द हो गया है। आगे बहस करनी बेकार थी। अच्छा खासा कार्यालय खुला हुआ था, महाराज किसी से फोन पर बतिया रहा था।
लेकिन मेरे लिये निराश होने वाली बात नहीं थी। साइकिल के दोनों पहिये खोले। हैंडल खोलकर बॉडी पर बांध दिया और अपनी सीट के नीचे रख दी। बडी अच्छी तरह साइकिल सीट के नीचे आ गई। इस दौरान संजय फिर स्टेशन पर आ टपका- नीरज भाई, आपके लिये खाना बनवाया था, मैं घर पर ही भूल गया था, ये लो खा लेना। भोजन का मैं कभी अपमान नहीं किया करता, ले लिया। भूख तो लगी ही थी। कुछ उसके सामने खा लिया, कुछ आगे के लिये रख लिया।
दो घण्टे की देरी से जोधपुर-जैसलमेर पैसेंजर आई। इसमें जोधपुर से प्रशान्त आया। कल ही मुझे पता चल गया था इस ट्रेन से प्रशान्त आयेगा और मेरे साथ जोधपुर तक जायेगा। वह आया, आते ही वापस जोधपुर का टिकट ले लिया और मेरे साथ बैठ गया। ट्रेन चलने पर टीटी आया तो प्रशान्त ने उसे अपना जनरल टिकट दिखाकर सीट के लिये पूछा। साल के इन सात-आठ दिनों में यह ट्रेन जैसलमेर से ही भर जाती है, टीटी ने असमर्थता दिखा दी। प्रशान्त ने जब टीटी को बताया कि वह दक्षिण रेलवे में स्टेशन मास्टर है, तो टीटी के पहले शब्द थे- सर, आपने टिकट ही क्यों लिया?
और मुझे पता है कि उसने टिकट क्यों लिया? मेरी तरह वह भी अपनी सभी यात्राओं का रिकार्ड रखता है। उसके पास अपनी सभी यात्राओं के टिकट हैं। इसीलिये उसे रेलवे में स्टेशन मास्टर होने के बावजूद भी टिकट खरीदने पडते हैं। वैसे भी भले ही कोई रेलवे कर्मचारी ही क्यों न हो, वह भी कानूनन बेटिकट यात्रा नहीं कर सकता।
प्रशान्त के आते ही मैं पिछले दो घण्टों का सारा तनाव भूल गया। ये छह घण्टे कैसे कटे, पता ही नहीं चला। संजय की एक एक हरकत को मजे ले-लेकर मैंने उसे सुनाया और हम जमकर हंसे। सहयात्री भी हमारे वार्तालाप में शामिल हो गये। उनके लिये यह कम हैरानी की बात नहीं थी कि प्रशान्त सुबह सवेरे पांच बजे जोधपुर से ट्रेन में बैठा था और अब आधी रात को जोधपुर पहुंचेगा। केवल इसलिये ताकि वह नीरज के साथ कुछ समय बिता सके। प्रशान्त ने उनके सामने मेरे कसीदे पढे और मैंने उसके।
एक सज्जन थे। भोपाल के थे। अब जैसलमेर घूमकर जयपुर जा रहे थे और वहां से कल फ्लाइट से भोपाल जायेंगे। वे बडे नाराज थे। उन्होंने बताया- हमने पच्चीस हजार का एक पैकेज बुक किया था। सम में एक टैंट में रुके। सबकुछ शानदार था। शाम को जब हमारे बच्चे को पेशाब आया तो मैंने मैनेजर से पूछा कि टॉयलेट कहां है, बच्चे को जाना है तो एक तरफ इशारा करके बोला कि उधर जाकर करा लाओ। मैंने तो मैनेजर को बडी सुनाई। आखिर हम पैसा किसलिये दे रहे हैं? खुले में मूतने के लिये हम इतना खर्च कर रहे हैं?
मैं इन सज्जन से सहमत नहीं था- अंकल जी, ठीक है कि आपने इतना पैसा खर्च किया। पैसा खर्च किया है तो उसके अनुरूप सुविधाएं भी मिलनी चाहियें। लेकिन ... लेकिन घूमने का मकसद क्या होता है? हम बाहर घूमने इसलिये जाते हैं ताकि उसी एकरूप दिनचर्या से कुछ समय के लिये हट जायें। आपको टॉयलेट में ही मूतना है तो वो आपके घर में भी है। एक बार बाहर रेत पर खुले में मूतकर देखो, उसका भी अलग आनन्द है। घर में कीडे-मकोडों को दूर रखते हो, बाहर कीडे-मकोडों के साथ खेलकर देखो, उसका भी अलग आनन्द है। दिनचर्या में परिवर्तन के लिये घूमने जाते हो। जो काम घर में करते हो, बाहर जाकर उसका उल्टा करके देखो। हालांकि सज्जन चुप तो हो गये लेकिन मुझसे सहमत नहीं हुए।

एक पतली गली

नथमल की हवेली

नथमल की हवेली



पटवों की हवेली




पटवों की हवेली

पटवों की हवेली

हवेली के अन्दर

हवेली की छत से दिखता किला

छत से दिखता शहर और दाहिने संजय विदेशी लडकियों से मिलकर आ रहा है।


जैसलमेर किले का प्रवेश द्वार

जैसलमेर रेलवे स्टेशन

और सीट के नीचे रखी अपनी साइकिल

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थार साइकिल यात्रा
1. थार साइकिल यात्रा का आरम्भ
2. थार साइकिल यात्रा- जैसलमेर से सानू
3. थार साइकिल यात्रा- सानू से तनोट
4. तनोट
5. थार साइकिल यात्रा- तनोट से लोंगेवाला
6. लोंगेवाला- एक गौरवशाली युद्धक्षेत्र
7. थार साइकिल यात्रा- लोंगेवाला से जैसलमेर
8. जैसलमेर में दो घण्टे




Comments

  1. भड़भड़ में देखा जैसलमेर, हम तो साइकिल को व्यवस्थित रूप से सीट के नीचे समा जाते हुये देखकर प्रसन्न हैं।

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  2. सच है नीरज भाई , जल्दबाजी मे घूमने का आनन्द नही लिया जा सकता ,और जब मन ना हो तो बिलकुल भी नही ,लेकिन आपने अपनी सभ्यता दिखाते हुए और संजय का मन रखने के लिये अपने २ घंटे स्वाहा कर ही दिये। अतिथि देवो भवः ,लेकिन अतिथि की आजादी का भी ध्यान रखना चाहिए। कुल मिलाकर पूरा यात्रा वर्तान्त बहुत अच्छा रहा।

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    1. सर मैं आप की यात्रा की घटनाये पढ़ता रहता हूं मैं केदारनाथ अगस्त्यमुनि से हू

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  3. bahot maza aaya.....purani yaden bhi tazi ho gayeen.......

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  4. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन राष्ट्रीय बालिका दिवस और ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  5. नीरज भाई राम राम, सही कहां हम बाहर घुमने जाते हे एक अलग जिन्दगी जीने व देखने के लिए ओर कोई इसमे ज्यादा ही दखल दे तो वह असहनीय हो जाता है

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  6. इसीलिए कहती हु कि फेसबुक पर भी लिंक डाल दिया करो ----नीरज क्यों बेवकूफ बना रहा है आज के ज़माने में 10 रु के 12 गोलगप्पे कौन खिलाता है--हा हाहा हा हमारे यहाँ तो 20 के सिर्फ 6 गोलगप्पे ही मिलते है ---
    चलो कोई तो मिला नीरज तुम्हे सेर का सवा सेर ----

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  7. तस्‍वीरों के आधार पर कहें तो जम के जैसलमेर देख लिया आपने :)

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  8. नीरज बन्ना आपका मरुभूमि या वीर भूमि का यात्रा वृतान्त सुन्दर है अभी रात के 2 बज रहे तो भी पढ़ रहा हु

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  9. neeraj bhai your travel experience is very best and explanation also.

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46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

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जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब