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27 दिसम्बर 2013
सैनिकों की बैरक में भरपेट खा-पीकर दोपहर बाद दो बजे मैं रामगढ के लिये निकल पडा। रामगढ यहां से 43 किलोमीटर है। फौजियों ने बता दिया था कि इसमें से आधा रास्ता ऊंचे नीचे धोरों से भरा पडा है जबकि आखिरी आधा समतल है। अर्थात मुझे रामगढ पहुंचने में चार घण्टे लगेंगे।
यहां से निकलते ही एक गांव आता है- कालीभर। मुझे गुजरते देख कुछ लडके अपनी अपनी बकरियों को छोडकर स्टॉप स्टॉप चिल्लाते हुए दौडे लेकिन मैं नहीं रुका। रुककर करना भी क्या था? एक तो वे मुझे विदेशी समझ रहे थे। अपनी अंग्रेजी परखते। जल्दी ही उन्हें पता चल जाता कि हिन्दुस्तानी ही हूं तो वे साइकिल देखने लगते और चलाने की भी फरमाइश करते, पैसे पूछते, मुझे झूठ बोलना पडता। गांव पार हुआ तो चार पांच बुजुर्ग बैठे थे, उन्होंने हाथ उठाकर रुकने का इशारा किया, मैं रुक गया। औपचारिक पूछाताछी करने के बाद उन्होंने पूछा कि खाना खा लिया क्या? मैंने कहा कि हां, खा लिया। बोले कि कहां खाया? लोंगेवाला में। लोंगेवाला में तो खाना मिलता ही नहीं। फौजियों की बैरक में खा लिया था। कहने लगे कि अगर न खाया हो तो हमारे यहां खाकर चले जाओ। मेहमान भगवान होता है। मुझे मना करना पडा।
यह रास्ता तनोट-लोंगेवाला वाले रास्ते से भी ज्यादा ऊंचे नीचे धोरों से भरा पडा है। कई बार मुझे चढाई पर पैदल भी चलना पडा। और चढाई पार करके ढलान भी उतना ही तेज आता। लगता कि आगे बढूंगा तो उड जाऊंगा।
एक घण्टे में मैं पन्द्रह किलोमीटर निकल आया। एक छायादार पेड देखकर रुकने की इच्छा लगी। साइकिल इसी पेड के नीचे खडी कर दी। किनारे पर इसकी छाया में एक पन्नी बिछाकर लेट गया। आधे घण्टे तक पडा रहा, नींद भी ले ली। वैसे तो अच्छी धूप निकली थी, धूप में लेटता तो आलस आ जाता। अब छांव में लेटकर सर्दी लगने लगी। आधे घण्टे बाद उठकर चल दिया। पन्द्रह किलोमीटर बाद फिर रुकूंगा।
यहां भी इस सडक के चौडीकरण का काम चल रहा है। नई सडक को पुरानी सडक के मुकाबले कुछ आसान बनाया जा रहा है। ऊंचे ऊंचे धोरों को पर्याप्त काटकर व नीची जगहों को पर्याप्त भरकर सडक इस तरह बनाई जा रही है कि एक लेवल में रहे, ज्यादा उतराई-चढाई न करनी पडे। जिस हिस्से में सडक बन रही है, वहां भी पुरानी सडक की केवल एक ही लेन को यातायात के लिये खोल रखा है लेकिन यहां रामगढ-तनोट रोड के मुकाबले ट्रैफिक काफी कम रहता है इसलिये ज्यादा परेशानी नहीं होती। इसके अलावा यहां सडक पर नालियां भी नहीं हैं।
एक वीरान चौराहा मिला जहां से बायें सडक रणाऊ जाती है जो रामगढ-तनोट के बीच में है और दाहिने बांधा जाती है, जहां से प्रसिद्ध पर्यटन स्थल सम भी जाया जा सकता है। यहां से रामगढ 22 किलोमीटर रह जाता है। कुछ मजदूरों से पूछा कि यह ऊंची नीची सडक कितनी दूर तक है तो बोले कि बीसवें किलोमीटर तक। यानी मुझे अभी भी दो किलोमीटर और चलना है इस खराब सडक पर। उसके बाद समतल सडक आ जायेगी। और वास्तव में आखिरी बीस किलोमीटर सीधी सडक है। यहां सडक नई बन चुकी है, दोहरी भी है और अनावश्यक ऊंचाई निचाई को हटा दिया गया है जिससे साइकिल चलाने में और आनन्द आने लगा।
जब रामगढ पन्द्रह किलोमीटर रह गया तो मैं फिर रुक गया। रेत पर पन्नी बिछाई और बिस्कुट नमकीन खाने बैठ गया। आते जाते यात्री बडे गौर से देखते मुझे इस वीराने में अकेले बैठे हुए। आधे घण्टे यहां रुककर पौने छह बजे फिर चल पडा।
जल्दी ही दिन छिपने लगा और ठण्ड भी लगने लगी। यहां सूर्यास्त देखने में आनन्द आ रहा था क्योंकि दूर दूर तक बिल्कुल समतल मरुस्थल ही था। रही सही कसर एक छोटी नहर ने पूरी कर दी। यह नहर इन्दिरा गांधी नहर से निकली है। ढलते सूरज और आसमान में फैली लाली का शानदार प्रतिबिम्ब दिख रहा था।
रामगढ से पांच किलोमीटर पहले इन्दिरा गांधी नहर पर पुल है। यहीं दस मिनट साइकिल रोककर मंकी कैप लगा ली और सिर पर हैड लाइट भी लगा ली। मेरा इरादा रामगढ पहुंचकर एक कमरा लेने का था। वैसे तो एक जानकार भी है रामगढ में अरविन्द खत्री लेकिन तीन दिन पहले ही नटवर के मित्र संजय के माध्यम से उससे जान-पहचान हुई है। उसे पता है कि मैं संजय का फेसबुक मित्र हूं। फेसबुक भले ही कितना भी लोकप्रिय हो चुका हो लेकिन फेसबुक मित्र उतने लोकप्रिय नहीं होते। यही सोचकर मैंने अरविन्द को नहीं बताया कि रामगढ आ रहा हूं। लेकिन संजय ने मुझसे पूछ लिया कि कहां हो। मैंने बताया कि रामगढ पहुंचने वाला हूं तो उसने अरविन्द को बता दिया। मुझे रामगढ जाकर अरविन्द के सुझाये एक गेस्ट हाउस में रुकना पडा हालांकि मेरे कोई पैसे नहीं लगे।
अगले दिन यानी 28 दिसम्बर को शाम पांच बजे मेरी दिल्ली की ट्रेन थी। मेरी इच्छा साइकिल से ही रामगढ से जैसलमेर जाने की थी जिसकी दूरी 65 किलोमीटर है। लेकिन संजय का फोन आया कि सुबह बस से जैसलमेर आ जाओ और संजय मुझे जैसलमेर घुमायेगा। उसकी इच्छा थी कि मैं सुबह आठ बजे वाली तनोट-जोधपुर बस पकड लूं। लेकिन मुझे पता था कि मैं ऐसा नहीं करूंगा। फिर अरविन्द से जब पूछा तो उसने बताया कि रामगढ से हर आधे घण्टे में जैसलमेर की बस चलती है। इससे मैं निश्चिन्त हो गया। अब सुबह कोई जल्दबाजी नहीं करूंगा, आराम से उठूंगा।
सुबह ग्यारह बजे उठा। कुछ ही देर में मैं बस अड्डे पर था। जैसलमेर की एक बस खडी थी। पता चला कि यह दो बजे चलेगी। मुझे अरविन्द पर बडा गुस्सा आया। अपने रामगढ की प्रशंसा करने के लिये उसने मुझसे झूठ बोला था कि यहां से हर आधे घण्टे में बस है। अगर वह सच बोल देता तो मैं कुछ जल्दी उठता और इससे पहले वाली बस पकडता। यह एक प्राइवेट बस थी जिसकी छत पर साइकिल रख दी और इसके कोई पैसे नहीं लगे। इस दौरान संजय का फोन आता रहा। वह बडा बेचैन था मुझे अपने शहर में घुमाने के लिये।
लोंगेवाला रामगढ सडक |
विशुद्ध रेत के धोरे |
यहीं आधे घण्टे तक सोया |
सडक के चौडीकरण का काम |
यह है नई बनी सडक |
सूर्यास्त |
रामगढ में |
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अगला भाग: जैसलमेर में दो घण्टे
थार साइकिल यात्रा
1. थार साइकिल यात्रा का आरम्भ
2. थार साइकिल यात्रा- जैसलमेर से सानू
3. थार साइकिल यात्रा- सानू से तनोट
4. तनोट
5. थार साइकिल यात्रा- तनोट से लोंगेवाला
6. लोंगेवाला- एक गौरवशाली युद्धक्षेत्र
7. थार साइकिल यात्रा- लोंगेवाला से जैसलमेर
8. जैसलमेर में दो घण्टे
Dhalte sooraj ki tasveeren tho bahut shaandaar hain. Badhiya yatra varnan..
ReplyDeleteवाह, मेहनत कर पेड़ की छाँह में सोने का आनन्द समझ सकते हैं।
ReplyDeleteनीरज भाई फ़ोटो लाजबाब है। आशा है श्रेस्ठ प्रयास जारी रहेगे।
ReplyDeleteहमें तो पॆड़ के नीचे सोये हुए ही बरसों हो गये
ReplyDeleteमज़ा आया वृतान्त पढ़कर,
ReplyDeleteआगे की क़िस्त का इंतज़ार !!
नीरज जी! नमस्कार, आपकी यात्रा में तस्वीर ही सब कुछ बयां कर रही है। जय हो।
ReplyDeleteनई सड़क पर तुम्हे 'टोल' नहीं लगा क्या ?
ReplyDeleteये रामगढ़ "शोले" वाला है क्या ?
ये प्लास्टिक कि पन्नी नहीं इसे प्लास्टिक का टेबलक्लॉथ कहते है --सूर्यास्त देखने काबिल होता है रेगिस्तान का ---
और रामगढ़ कि मिर्ची कैसी लगी ?