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3 अप्रैल 2013
शलभ की वेबसाइट पर मैंने पहले पहल पुरानी चामुण्डा का नाम देखा था। बाद में केवलराम से भी बात हुई जिससे इसकी और ज्यादा पुष्टि हो गई। कल रात होटल के कर्मचारियों ने बताया कि चामुण्डा जाने वाली किसी भी बस में बैठकर कंडक्टर से कह देना कि पुरानी चामुण्डा जाना है, वो उतार देगा।
मेरी और नटवर के विचारों में एक बडी जबरदस्त समानता है कि दोनों एक नम्बर के सोतडू हैं। रात तय हुआ था कि सुबह छह या सात बजे यहां से चल पडेंगे। दोपहर बाद तक पुरानी चामुण्डा घूमकर आ जायेंगे और शाम को चिडियाघर देखेंगे। तब पता नहीं था कि पुरानी चामुण्डा की एक तरफ की पैदल दूरी सोलह किलोमीटर है। मैं पांच-छह किलोमीटर मान रहा था।
सूरज सिर पर चढ आया, जब हम उठे। पानी ठण्डा था, इसलिये नहाये नहीं। सीधे बस अड्डे पर पहुंचे। सबसे पहले नाश्ता किया। नगरोटा जाने वाली एक बस में बैठ गये और कंडक्टर से कह दिया कि पुरानी चामुण्डा जाना है। उसने दोनों के पैंतीस रुपये लिये और उतारने का वादा कर लिया। वर्तमान चामुण्डा से डेढ दो किलोमीटर पहले एक पुलिया के पास हमें उतार दिया गया और रास्ता भी बता दिया कि इस पर सीधे चले जाना।
यहीं एक बोर्ड लगा था जिस पर दूरी लिखी थी सोलह किलोमीटर। जीपीएस से ऊंचाई देखी- 1040 मीटर। मुझे कुछ कुछ ध्यान था कि शलभ ने पुरानी चामुण्डा की ऊंचाई 2700 मीटर लिखी है। इसलिये मैं 2700 मीटर का ही लक्ष्य मानने लगा। यानी हमें 16 किलोमीटर में 1660 मीटर भी चढना है। यानी प्रति किलोमीटर 104 मीटर। अगर प्रति किलोमीटर 100 मीटर से ज्यादा चढाई का औसत आता है तो मैं इसे कठिन चढाई का दर्जा देता हूं। उस पर भी करीब तीन किलोमीटर दूर कण्ड करडियाणा गांव तक पक्की सडक बनी है, जो ज्यादा चढाई वाली नहीं है।
खैर, एक ग्रामीण से पूछा कि क्या यहां से पुरानी चामुण्डा दिखती है? पता चला सामने जो ऊंची चोटी दिख रही है, उसे पार करके दो-तीन किलोमीटर और आगे है। यह सुनते ही मैंने और नटवर ने एक-दूसरे को देखा। कहां तो हम आज ही वापस लौटकर शाम को चिडियाघर भी देखने की योजना बना रहे थे, कहां अब मन्दिर तक पहुंचना भी मुश्किल लगने लगा। ये ले नटवर, शिकारी देवी न जाने का तुझे मलाल था कि ट्रेकिंग नहीं करने को मिलेगी। अब जी भरकर ट्रेकिंग करना।
कण्ड करडियाणा गांव तक सडक बनी है। शलभ के अनुसार कण्ड तक दिन भर में तीन बसें भी चलती हैं। यहां पता चला कि कोई बस नहीं चलती। हो सकता है कुछ साल पहले जब शलभ गया था तो बसें चलती हों।
नटवर को चीड का फूल मिल गया। उसने उसे बडे जतन से उठाकर सडक के किनारे एक पत्थर पर रख दिया कि वापस लौटते समय उठा लेंगे। अगले दिन जब हम वापस आये तो वह पत्थर से नीचे लुढक गया था लेकिन सुरक्षित था और अगले कुछ ही दिनों में उसने हिमालय की ठण्डक से राजस्थान की गर्मी तक का सफर कर डाला।
एक ग्रामीण के साथ साथ चलते चलते हम शॉर्ट कट भी मारने लगे और सडक छोडकर सीधे कण्ड गांव में जा पहुंचे। खेतों में गेहूं लहलहा रहा था। मैदानों में जहां गेहूं पक चुका है और कटने की कगार पर खडा है, वहीं अभी यहां हरा था। पकने में कम से कम महीना भर लगेगा।
गांव पार करके सबसे आखिर में एक दुकान मिली। यह दुकान 1440 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यहां कुछ श्रद्धालु भी रुके थे। लडके थे, ताश खेल रहे थे। ये लोग कल ऊपर गये थे, आज लौट रहे हैं। यहां हमने चाय पी। पता चला कि यहां रुकने का इंतजाम भी हो जाता है, वो भी चालीस रुपये प्रति बिस्तर के हिसाब से। अभी चूंकि भीड नहीं थी, नवरात्रों में भीड चरम पर होती है तो श्रद्धालु इन चालीस रुपये पर भी मोलभाव करते दिखते हैं। कण्ड तक बिजली है, उसके बाद बिजली नहीं है। हां, सोलर पैनल युक्त दुकानें रास्ते में मिल जाती हैं। ऊपर मन्दिर में भी सोलर पैनल की ही बिजली जलती है।
लडकों ने इशारा करके दूर पहाड पर तीन झण्डे दिखाये। ये झण्डे इतने नन्हें दिख रहे थे कि आंख दुखने लगीं। बताया कि वो जगह आधे रास्ते में है और वहां रुकने-खाने का ठिकाना भी है।
ऊबड-खाबड और पथरीले रास्ते से चलते रहे। रास्ता बिल्कुल खराब है लेकिन स्पष्ट है। पत्थरों पर तीर के निशान भी बने हैं जिससे भटकने का डर नहीं रहता। अक्सर कई कई रास्ते हो जाते हैं लेकिन जाते सभी ऊपर ही हैं। किसी भी रास्ते पर चलो, आगे जाकर सभी एक हो जाते हैं।
छह किलोमीटर दूर और 1640 मीटर की ऊंचाई पर एक मैदान मिला। इसमें अनगिनत भेड-बकरियां थीं। कुछ गायें भी थीं। ये सब गद्दियों की हैं। गद्दी ही हिमालय के इस इलाके के असली मालिक हैं। भेडपालकों को यहां गद्दी कहते हैं और ये मुसलमान हैं। विभाजन के समय इन पर भी पाकिस्तान जाने का दबाव आया लेकिन इन्होंने कहा कि हम धौलाधार कैसे छोड सकते हैं। बात भी सही है। जो लोग बडे पैमाने पर घुमन्तू जीवन बिताते हैं। दुर्गम से दुर्गम स्थानों पर जिनके घर होते हैं। जो लोग सर्दियों में कांगडा और गर्मियों में 4000 मीटर की ऊंचाई पर रहते हैं और लाहौल तक धावा मारते हैं, वे भला पाकिस्तान कैसे जा सकते थे? आज भी धौलाधार के दोनों तरफ यानी कांगडा घाटी और चम्बा घाटी तथा लाहौल तक अगर घुमक्कडी करनी है तो गद्दियों के बिना असम्भव है।
गद्दी अपने पशुओं के साथ तैयार बैठे हैं धौलाधार को लांघने के लिये। जैसे जैसे बर्फ पिघलती जायेगी, ये लोग आगे बढते जायेंगे।
इस मैदान के पास भी एक दुकान है जहां शीतोष्ण दोनों पेय मिल जाते हैं।
अब एक मुश्किल रास्ता शुरू होता है। असली रास्ता कहीं खो गया और हम स्वयं ही सीधे रास्ते से चल पडे। यह इतना तीव्र है कि कभी तो लगता कि ऊपर से पत्थर अपने ऊपर गिरेगा और कभी लगता कि हम ही गिरेंगे। हमने वापसी में इस शॉर्ट कट से न आने की प्रतिज्ञा की।
1800 मीटर की ऊंचाई पर एक छोटे से पेड के नीचे पानी का नल लगा देखकर खुशी मिली। पूरा रास्ता चूंकि पर्वतीय धार के साथ-साथ है, इसलिये पानी की भारी कमी है। इस कमी को पाइप लगाकर पूरा किया गया है। यहां जमीन का छोटा सा समतल टुकडा भी है, इसलिये बैठ गये और आधे घण्टे से ज्यादा बैठे रहे। मैं अपने साथ नमकीन-बिस्कुट और काजू-किशमिश लाया था जबकि नटवर बादाम। वो अगर बादाम की गिरी ले आता तो अच्छा रहता। ये बादाम फोडने पडे। दो पत्थर उठाकर सिल-बट्टा बनाया और ठकाठक फोडने का काम शुरू कर दिया।
कांगडा कदमों के नीचे दिखता है। लगता है जैसे हम हवाई यात्रा कर रहे हों और नीचे धरती पर जैसा नजारा दिखता है, वैसा ही नजारा दिख रहा था। अति दूर स्थित पोंग बांध भी दिख रहा था। नटवर को सुदूर क्षितिज में बांध नहीं दिखा, मुझे स्पष्ट दिख गया।
कण्ड गांव में ही पता चल गया था कि ऊपर मन्दिर में रुकने के लिये कम्बल मिल जायेंगे। इसलिये हमारा लक्ष्य मन्दिर ही था और नातिदूर होने के कारण हम निश्चिन्त भी थे।
हम नल के पास बैठे बादाम फोड रहे थे कि एक लडका आया। वो अकेला था और दिल्ली से आया था। उत्तम नगर में कॉल सेंटर की गाडी चलाता है। माता पर अगाध श्रद्धा है और आज तीसरी बार यहां आया है। पहली बार जब अविवाहित था, दूसरी बार घरवाली के साथ और अब अकेला। उसे जब पता चला कि हम यहां पहली बार आये हैं तो कथा सुनाने लगा। जबरदस्ती गले पड गया, हमेशा माता का महात्म्य सुनाता रहा। भला यहां कहां पौराणिक कथाओं में श्रद्धा है?
इसके बाद रास्ते के बारे में बताने लगा। बात बात में कहता कि आप पहली बार आये हो, आपको पता नहीं है। वहां बर्फीले पहाडों (धौलाधार के पर्वत) पर तो हवा भी नहीं है। आज तक वहां कोई नहीं जा पाया। मैंने कहा कि महीने भर की बात है, ये पर्वत मनुष्य के लिये अलंघ्य नहीं रह जायेंगे तो ‘भाईसाहब, आपको पता नहीं है’ कहकर मेरी बात काट दी। आखिरकार हम भी उसकी हां में हां मिलाने लगे।
लगभग 2100 मीटर की ऊंचाई पर वो जगह आई जहां तीन झण्डे थे। यहां एक काफी बडी झौंपडी है। चाय मिल गई जो दस रुपये की थी। रुकने का इंतजाम भी यहां हो जाता है। यहां काफी समतल जमीन है, तम्बू भी लगाया जा सकता है।
तीनों जने यहां से चले ही थे कि बूंदाबांदी शुरू हो गई। नीचे कांगडा घाटी में बादलों ने अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया था। धूप और बादलों का खेल यहां से अच्छा लग रहा था। नीचे बिजली भी गिर रही थी। धीरे धीरे यह बिजली ऊपर की तरफ आने लगी। बिजली के साथ साथ बारिश भी तेज हो गई। मैंने और नटवर ने रेनकोट निकाल लिये। रेनकोट का खाली कवर ‘उत्तम नगर’ को दे दिया ताकि उसका सिर भीगने से बच जाये। जब बिजली सिर के ऊपर गडगडाने लगी तो एक खाली झौंपडी में शरण ले ली। यह चू रही थी, फिर भी भीगने और बिजली का डर तो नहीं था।
बिजली से मुझे डर लगता है। जैसे ही बिजली चमकती है, तो दिल कांप उठता और जब कुछ समय बाद गडगडाहट होती तो बिल्कुल निर्जीव सा हो जाता। वैसे यह एक बडी मजेदार बात है कि बिजली चमकते समय उतना डर नहीं लगता जितना कि गडगडाहट के समय। मजेदार बात इसलिये है क्योंकि बिजली उसी समय गिर जाती है, जब चमकती है। गडगडाहट चूंकि बिजली उत्पन्न होने व गिरने के कुछ समय बाद सुनाई देती है इसलिये यह सूचना देती है कि खतरा कुछ समय पहले टल गया। लेकिन खतरा टलने की सूचना ही मुझे निर्जीव करने के लिये काफी है। जब सिर के ऊपर गडगडाहट होती तो लगता कि अब गिरी बिजली सिर पर लेकिन वास्तव में बिजली कुछ समय पहले गिर चुकी होती है। कैसी अनोखी बात है!
शायद उसका नाम सोनू था। जब बाहर मूसलाधार बारिश हो रही थी तो सोनू को लगने लगा कि दोनों भाई खेले-खाये हैं। उसने जाहिर भी किया। अप्रैल के महीने में जब दूर-दूर तक बारिश नहीं होती, हमारा रेनकोट लेकर चलना उसके इस विश्वास का आधार था।
बारिश थम गई लेकिन जब तक सिर के ऊपर से बादल नहीं चले गये, हम बाहर नहीं निकले। सोनू छटपटा रहा था अतिशीघ्र जाने के लिये लेकिन हमने अपना फैसला सुना दिया कि चाहे घण्टा भर हो जाये बारिश रुके हुए लेकिन जब तक ऊपर से बादल नहीं हट जायेंगे तब तक हम नहीं हिलेंगे।
अक्सर कहा जाता है कि पहाडों पर मौसम का भरोसा नहीं होता। लेकिन दो-चार बार मौसम का सामना होने पर मौसम को पहचानना ज्यादा मुश्किल भी नहीं होता। हवाओं की दिशा मौसम में अहम भूमिका निभाती हैं। इस समय हवा बादलों को तेजी से धौलाधार पार करा रही थी, कांगडा घाटी पूरी तरह धूपमय हो गई थी, इसलिये हम निश्चिन्त थे कि जल्द ही हम भी धूपमय हो जायेंगे। हमारा अनुमान गलत नहीं था।
कण्ड के बाद कभी भी चढाई में आराम नहीं मिला। तेज चढाई जारी रही। बारिश होने से हवाओं में नमी बढ गई। 2500 मीटर तक तो हवाएं असह्य होने लगी थीं। दूसरे, चढाई के कारण पसीना लगातार आ रहा था, जिससे कपडों के अन्दर भी राहत नहीं थी। भूख लगने लगी तो मैंने घोषणा कर दी कि अब जहां भी जैसी भी झौंपडी मिलेगी, वहीं रुककर काजू-किशमिश और नमकीन बिस्कुट खाये जायेंगे।
2520 मीटर की ऊंचाई पर मन्दिर से लगभग दो किलोमीटर पहले एक झौंपडी मिल गई। सोनू कभी का हमसे आगे निकल चुका था। जब हम इस झौंपडी के सामने बिछे पत्थरों पर बैठने लगे तो अन्दर से आवाज आई। झांककर देखा तो एक आदमी था। हमने चाय के बारे में पूछा तो चाय बनने लगी। इस झौंपडी में दो कमरे थे, अन्दर वाले अन्धेरे कमरे में आग के पास बैठकर जन्नत का अनुभव होना ही था। चाय पीने और बिस्कुट नमकीन खाने के बहाने आग का भरपूर लाभ उठाया।
हर ट्रेक की तरह इस ट्रेक में भी कैमरे ने बडा साथ दिया। इसलिये नहीं कि फोटो खींचे इसने। बल्कि इसलिये कि इसके बहाने रुकना पडता। चढाईयों पर आधे मिनट रुकना भी बडे सुकून की बात होती है।
यहां से चले तो सूरज क्षितिज में पहुंच चुका था। डूबते ही दस मिनट के अन्दर अन्धेरा हो जाना था, इसलिये तेज कदमों से आगे बढे। मन्दिर से साढे छह सौ मीटर पहले एक दुकान और मिली। बाहर एक चबूतरे पर कुछ बर्तन फैले थे। मैंने सुझाव दिया कि यहीं खाना-पीना कर लेते हैं लेकिन नटवर के कहे अनुसार बढते रहे। बताया गया था कि मन्दिर के पास भी खाने को मिल जायेगा।
बिल्कुल अन्धेरा हो गया था, जब हम मन्दिर पर पहुंचे। यहां चहल-पहल थी। बाबाजी से बात की तो पता चला कि खाने का इंतजाम अपनी तरफ से करना पडेगा, मन्दिर समिति सोने के लिये कम्बल दे देगी। अपनी तरफ से तो हम खाने का इंतजाम करने से रहे, उन्होंने सुझाव दिया कि आधा किलोमीटर पीछे जो दुकान है, वहीं खाकर आ जाओ।
मजबूरीवश आधा किलोमीटर पीछे उसी दुकान पर जाना पडा, जहां पर बर्तन रखे थे। गये तो मालिक सोया पडा था और अन्धेरा था। किवाड खुले थे। हमने आवाज दी, लेकिन कोई हलचल नहीं हुई। मालिक को हिलाकर उठाना उचित नहीं समझा। अगले दिन जब हम लौटते समय पुनः उस दुकान पर गये तो मालिक ने बताया कि जबरदस्ती उठा देना चाहिये था। खाना उपलब्ध था।
खैर, भूखे निराश हम पुनः 2770 मीटर पर बने मन्दिर में पहुंचे तो आरती हो रही थी। कडाके की ठण्ड में जूते उतारने का मन तो नहीं था, लेकिन उतारने पडे। आरती के बाद प्रसाद से निपटकर बाबाजी के पास गये, अपनी व्यथा सुनाई तो खाने का इंतजाम हो गया। साधुओं के लिये जो रसोईया भोजन बनाता है, वही हमारे लिये भी बनाने को राजी हो गया।
कम से कम तीस कम्बल लिये। मन्दिर के सामने धर्मशाला है। सौ रुपये जमा कने पर कम्बल मिल जाते हैं। सुबह कम्बल वापस करने पर पैसे भी वापस मिल जाते हैं। कुछ बिछाये, कुछ ओढे, तब भी ठण्ड गई नहीं। यहां तक कि जब खाने का बुलावा आया तो नटवर के अलावा कोई भी उठने को राजी नहीं हुआ- ना मै और ना ही सोनू। जबरदस्ती करके सोनू को उठाया गया लेकिन मैं नहीं उठ सका। भीगे कपडों के कारण ठण्ड लगती रही, कम्बलों से मुंह बाहर निकालने की भी हिम्मत नहीं पडी। उम्मीद थी कि सोते समय शरीर की गर्मी से पसीना सूख जायेगा लेकिन जब आधे घण्टे तक ठिठुरता रहा तो हिम्मत करके उठा, कपडे बदले, कुछ काजू-किशमिश खाये, तब जाकर सर्दी से राहत मिली।
यहां से पैदल यात्रा शुरू होती है। |
कण्ड तक सडक बनी है। |
फोटो के बीच में मुख्य सडक की एक पुलिया है। इसी के बराबर से एक पतली सी सडक निकलती है, जो कण्ड जाती है। ऊपर मन्दिर तक यह दृश्य दिखता रहता है। |
नटवर लाल भार्गव। भृगु ऋषि की सन्तान। |
एक छोटा सा चरागाह |
ऊपर से चरागाह और उसमें विचरतीं भेडें ऐसी दिखती हैं। |
यह है रास्ता |
कांगडा घाटी का विहंगम दृश्य दिखता है। |
पत्थरों पर तीर के निशान |
और ऊपर से दिखता चरागाह |
थोडा जूम कर लेते हैं। |
दूर पालमपुर की तरफ दिखता एक गोनपा। |
इन फूलों की चटनी बनती है, जो बडी स्वादिष्ट लगती है। |
कांगडा घाटी के ऊपर बादलों और धूप का खेल |
कांगडा में जोरों की बारिश हो रही है। |
2100 मीटर की ऊंचाई पर एक दुकान जहां खाना-रुकना हो जाता है। |
बारिश में बस चाय मिलती रहे। |
सूर्यास्त हो रहा है। |
इस जगह का नाम हमने रखा- हडप्पा संस्कृति। सब गद्दियों की करामात है। |
मन्दिर से आधा किलोमीटर पहले और दूर दूर तक दिखती कांगडा घाटी। |
अगला भाग: हिमानी चामुण्डा से वापसी
कांगडा यात्रा
1. एक बार फिर धर्मशाला
2. हिमानी चामुण्डा ट्रेक
3. हिमानी चामुण्डा से वापसी
4. एक बार फिर बैजनाथ
5. बरोट यात्रा
6. पालमपुर का चिडियाघर और दिल्ली वापसी
अति सुंदर !
ReplyDeleteखूबसूरत फोटोज
ReplyDeleteनीरज भाई बहुत खूब यात्रा चल रही हैं आपकी, एक नए स्थान का पता चला हैं. चित्र और यात्रा विवरण बहुत शानदार हैं. रही बात भार्गव जी की, केवल वे ही ऋषि मुनियों की संतान नहीं हैं, अपितु समुचि मानव जाती ही ऋषियों की संताने हैं. धन्यवाद, वन्देमातरम...
ReplyDeleteसत्य वचन .गुप्ता जी
Deletemanmohak
ReplyDeleteNice..last year i had visited Chamunda, then people told me about himani chamunda and its route...but due to lack of time i could not visit it....Thanks for sharing...
ReplyDeleteअति सुंदर
ReplyDeleteअति सुंदर
ReplyDeleteयह मेरी पहली ट्रैकिंग थी और नीरज से मुझे काफी कुछ सिखने को मिला .. मैं हमेशा नीरज का शुक्रगुजार रहूँगा कि उसने मुझे इस यात्रा में शामिल किया .. नीरज की यात्राओ से में हमेशा प्रभावित रहा हूँ .. और मेरी नीरज के साथ ट्रैकिंग पे चलने की इच्छा थी जो मैंने उसे ट्रेन यात्रा में बताई थी .. नीरज ने समय भी बता दिया , लेकिन साइकिल से जाने वाला पंगा था .. और मैं साइकिल के बजाय पैदल चलने के मूड में था .. लेकिन भगवन ने मेरी सुनी और .. बस और पैदल से चलना तय हुआ ..
ReplyDeleteभाई जी , हिमाचल प्रदेश में गद्दी लोग हिन्दू होते हैं
ReplyDeleteभाई जी , हिमाचल प्रदेश में गद्दी लोग हिन्दू होते हैं
ReplyDeleteपहाड़ो से शुरू से प्रेम है मेरा ---कितना भी जटिल पहाड़ हो मुझे देखकर अच्छा लगता है --शानदार यात्रा ---
ReplyDeletegood .nice with nature
ReplyDeleteबहुत अच्छा विवरण दिया है, अैसे लग रहा है जैसे हम भी साथ में घूम अाए हों
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