8 अगस्त की सुबह सुबह कल्याण उतरे हम तीनों। यहां से हमें दिवा जाना था जहां से मडगांव की पैसेंजर मिलेगी। हल्की हल्की बूंदाबांदी हो रही थी। प्रशान्त और कमल को यह कहकर चल दिया कि तुम पता करो धीमी लोकल किस प्लेटफार्म पर मिलेगी, मैं टिकट लेकर आता हूं।
टिकट काउण्टर पर बैठी महिला से मैंने सिन्धुदुर्ग के तीन टिकट मांगे। उसने खटर पटर की, फिर कहने लगी कि सिन्धुदुर्ग का टिकट तो नहीं मिलेगा। उससे अगला स्टेशन कौन सा है? मैंने कहा सावन्तवाडी। तुरन्त मिल गये पैसेंजर के तीन टिकट। दूरी 600 किलोमीटर से भी ज्यादा।
सुबह सवेरे जबकि दिन निकलना तो दूर, ढंग से उजाला भी नहीं हुआ था, लोकल में भीड बिल्कुल नहीं थी। आराम से सीटें मिल गई। पन्द्रह मिनट का भी सफर नहीं है कल्याण से दिवा का। सबसे आखिर वाले प्लेटफार्म पर नीले डिब्बों और डीजल इंजन लगी हमारी गाडी तैयार खडी थी।
गाडी में उम्मीद से ज्यादा भीड थी। फिर भी तीनों को सीटें मिल गईं, वो भी मेरे पसन्दीदा डिब्बे में- सबसे पीछे वाले में। मैं पैसेंजर ट्रेन यात्राओं में सबसे पीछे वाले डिब्बे में ही बैठना पसन्द करता हूं। इसके कई फायदे हैं। एक तो इसमें बाकी डिब्बों के मुकाबले भीड कम होती है। कभी कभी जब ट्रेन रुकती है तो सबसे पीछे वाला डिब्बा प्लेटफार्म से बाहर ही रुक जाता है। ऐसे में भला कौन चढेगा इसमें? दूसरा फायदा है इसका कि किसी मोड पर इंजन समेत पूरी ट्रेन दिखाई देती है। इससे ट्रेन व आसपास की दृश्यावली का अच्छा फोटो आता है।
प्रशान्त मेरे विपरीत एक मिलनसार व्यक्ति है। ट्रेन चलने से पहले ही उसने इस कूपे में बैठे हर यात्री से मित्रता कर ली। अगर मैं अकेला होता तो शायद किसी से बोल भी न पाता। वे स्थानीय यात्री थे, जो हमें काम की जानकारी बिना पूछे ही दे रहे थे। इस कूपे में तकरीबन एक ही परिवार बैठा था जो मुम्बई में रहता है, वहीं काम-धाम करता है और कभी कभी सिन्धुदुर्ग की तरफ अपने गांव चले जाते हैं। आज भी वे अपने गांव जा रहे थे। इनमें से एक साहब चित्रकार थे। जेब से एक कागज निकालकर पेन से कमल का चित्र बना दिया। हालांकि ट्रेन गतिमान थी, लगातार हिल रही थी, पेंसिल की बजाय पेन का इस्तेमाल कर रहे थे, फिर भी अच्छा चित्र बना। फिर प्रशान्त से कहा तो थोडी ना-नुकुर के बाद राजी हो गया। प्रशान्त है तो थुलथुल लेकिन एक जगह बैठना उसे शोभा नहीं देता। नाम भले ही प्रशान्त हो लेकिन शान्त बैठना आता नहीं। पन्द्रह मिनट तक कैसे बिना हिले-डुले बैठा रहा, यह आश्चर्य है।
कुछ स्टेशनों पर रुकते हुए पनवेल पहुंचे। मुम्बई से पनवेल जाने के लिये दो लाइनें हैं। एक तो यही दिवा वाली और दूसरी है सीएसटी से हार्बर लोकल लाइन। दिवा से पनवेल के बीच लोकल ट्रेनें नहीं चलतीं, बल्कि एक्सप्रेस ट्रेनें चलती हैं।
पनवेल के बाद सोमटने आया, फिर रसायनी, आपटा, जिते, हमरापुर, पेन, कासु, नागोठने और फिर रोहा। रोहा पहुंचते पहुंचते हम सौ किलोमीटर आ चुके थे। पूरे रास्ते पहाड मिलते-दिखते आ रहे थे, शायद एकाध सुरंगें भी आईं लेकिन अभी तक कोंकण रेलवे शुरू नहीं हुई थी। अभी तक मध्य रेलवे ही थी। रोहा के बाद कोंकण रेलवे शुरू होगी।
स्टेशन से निकलते ही हमारा स्वागत हुआ- कोंकण रेलवे में आपका स्वागत है। हालांकि बाहरी तौर पर कुछ भी परिवर्तन नहीं हुआ लेकिन मानसिक तौर पर परिवर्तन हो गया। अब हम कोंकण रेलवे पर यात्रा कर रहे हैं। इस लाइन पर यात्रा करना मेरा बहुत दिनों से स्वप्न था, पिछले साल भी योजना बनी थी, लेकिन नहीं आ पाया था। हर भारतीय को इस लाइन पर एक बार यात्रा अवश्य करनी चाहिये। यह एक ऐसी लाइन है जो बेहद दुर्गम और विपरीत परिस्थितियों में बनी; वो भी आजादी के बाद। देश विरोधी लोग इस देश की टांग खिंचाई करते हैं कि अंग्रेज बनाकर चले गये जितनी भी लाइनें, आजाद भारत में कुछ नहीं बना। उन्हें इधर अवश्य आकर झांकना चाहिये।
19 जुलाई 1990 को कोंकण रेलवे कॉरपोरेशन लिमिटेड की स्थापना हुई। ई. श्रीधरन साहब इसके पहले चेयरमैन और मैनेजिंग डायरेक्टर थे। 15 सितम्बर 1990 को रोहा में कोंकण रेलवे प्रोजेक्ट की विधिवत शुरूआत हो गई। इससे पहले दीवा से पनवेल तक 1966 में और पनवेल से रोहा तक 1986 में रेल की शुरूआत हो चुकी थी। गोवा भी रेल से जुडा हुआ था लेकिन हुबली की तरफ से। मंगलौर भी हासन और केरल की तरफ से रेल से जुडा था। गोवा और मंगलौर उस समय मीटर गेज हुआ करते थे। जरुरत थी मंगलौर को सीधे मुम्बई से जोडने की।
इसमें पहली समस्या तो भू-भाग ही था। कोंकण पश्चिमी घाट का महाराष्ट, गोवा व कर्नाटक में पडने वाला समुद्रतटीय भूभाग है। इसमें पहाडियां भी बहुत हैं। सालभर यहां बारिश का मौसम बना रहता है। चट्टानों की अधिकता है।
खैर, काम शुरू हुआ और एक के बाद एक सेक्शन खुलते चले गये। जून 1993 में रोहा-वीर, मार्च 1995 में वीर-खेड, दिसम्बर 1996 में खेड-सावन्तवाडी रोड सेक्शन खुल गये। पेडणे के पास एक सुरंग बनाने में बडी कठिनाईयों का सामना करना पडा, वह बनाते ही ढह जाती थी नरम मिट्टी के कारण। फिर भी 26 जनवरी 1998 को पहली बार रोहा से तोकूर यानी मुम्बई से मंगलौर यानी कोंकण रूट पर ट्रेन चलाई गई।
मानसून में अत्यधिक बारिश के कारण रेलवे लाइन बह जाती थी, इसलिये तय हुआ कि इस दौरान गाडियों की गति कम रखी जाए। यही वजह है कि 10 जून से 31 अक्टूबर तक हर साल कोंकण रेलवे की ट्रेनों की समय सारणी बाकी साल की समय सारणी से अलग होती है। इस दौरान यहां मानसून टाइम टेबल के अनुसार ट्रेनें चलती हैं।
एक बात और, मडगांव और वास्को-द-गामा पहले से ही रेल से जुडे थे। अब मडगांव कोंकण रेलवे से भी जुड गया। मडगांव-वास्को के बीच में माजोर्डा स्टेशन पर मुम्बई से आने वाली कोंकण रेलवे इस लाइन में जुडी और ग्यारह किलोमीटर दूर मडगांव तक दोनों लाइनें साथ साथ चलीं। इनमें से एक मीटर गेज थी दक्षिण पश्चिम रेलवे की, दूसरी ब्रॉड गेज कोंकण रेलवे की। मीटर गेज भी बाद में परिवर्तित होकर ब्रॉड गेज बन गई। अब इनमें से एक लाइन का संचालन कोंकण रेलवे के हाथ में है और दूसरी का दक्षिण पश्चिम रेलवे के। अक्सर ऐसा देखने को नहीं मिलता कि दो अलग अलग जोनों की लाइनें कई किलोमीटर तक एक साथ चलती हों। बरेली में अवश्य है ऐसा जब उत्तर रेलवे की बडी लाइन और पूर्वोत्तर रेलवे की मीटर गेज लाइन साथ साथ रामगंगा पुल तक आती हैं 7 किलोमीटर तक। अन्यत्र ऐसा नहीं दिख रहा।
बहुत हो गया, अब रोहा से आगे चलते हैं। कोलाड, इन्दापुर, माणगांव, गोरेगांव रोड, वीर, सापे-वामने, करंजाडी, विन्हेरे, दिवाणखवटी, खेड, अंजणी, चिपलूण, कामथे, सावर्डा, आरवली रोड, संगमेश्वर रोड, उक्शी...। उक्शी में एक ऐसी सुरंग है जिसमें दो ट्रैक हैं। पूरे रूट में ऐसी कोई दूसरी सुरंग नहीं। असल में उक्शी स्टेशन बेहद तंग जगह पर बना है। यहां एक के बाद एक कई सुरंगें हैं। आधा स्टेशन सुरंग के अन्दर है, जिस वजह से सुरंग में दो रेलवे ट्रैक हैं। यहां झरनों की भी भरमार है।
उक्शी से आगे भोके है जहां हमारे मुम्बई से साथ आते सहयात्री उतर गये। उन्होंने हमें साथ घर भी चलने को कहा लेकिन हमें मना करना पडा।
इसके बाद रत्नागिरी है। यह इसी नाम के जिले का मुख्यालय भी है। समुद्र के पास है। पहली बार नारियल के दर्शन हुए। रत्नागिरी के बाद बडा तेज मोड है और ट्रेन पुनः समुद्र से दूर होती चली जाती है लेकिन नारियल अब कभी पीछा नहीं छोडने वाले।
शायद निवसर वो स्टेशन है जहां कभी भू-स्खलन हुआ था। अब उसकी वजह से लाइन में थोडा घुमाव दे दिया है। यह सब स्पष्ट दिखता है।
इसके बाद स्टेशन हैं- आडवली, विलवडे, राजापुर रोड..। हां, राजापुर रोड पर बडी मजेदार घटना घटी। यहां जब हमारी ट्रेन पहुंची, दूसरी लाइन पर एक ट्रेन खडी थी। वह मडगांव की तरफ से आ रही थी और मुम्बई की तरफ जा रही थी। हमारे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब यह दूरोन्तो एक्सप्रेस निकली- एर्णाकुलम-लोकमान्य दूरोन्तो। एक पैसेंजर के लिये दूरोन्तो को रोक देना केवल कोंकण रेलवे में ही सम्भव है। ऐसा नहीं है कि इससे दूरोन्तो लेट हो गई होगी। ना, कभी नहीं।
राजापुर रोड के बाद वैभववाडी रोड, नांदगांव रोड, कणकवली और सिन्धुदुर्ग। शुरू में हमारी योजना सिन्धुदुर्ग तक ही आने की थी। यहां उतरकर हम मालवण जाते और वहां का प्रसिद्ध किला देखते। लेकिन मानसून की वजह से वहां जाना रद्द करना पडा। यह मौसम घुमक्कडी का ऑफ सीजन है। मालवण किले तक जाने के लिये नाव का सहारा लेना पडता है। पता नहीं कोई नाववाला मिलता भी या नहीं। अब हम गोवा जायेंगे और मालवण वाला एक दिन गोवा में गुजारेंगे।
यहां रो-रो यानी रोल ऑन-रोल ऑफ ट्रेन चलती है। यह एक मालगाडी होती है जिसमें ट्रक लदे रहते हैं। यहां मुम्बई से मंगलौर आने जाने के लिये ट्रकों को पहाडी मार्ग पर कई सौ किलोमीटर की खतरनाक यात्रा नहीं करनी पडती। इस काम को ट्रेन कर देती है। इससे डीजल तो बचता ही है, साथ ही पर्यावरणीय लाभ भी है।
सिन्धुदुर्ग के बाद हैं कुडाल, झाराप और सावन्तवाडी रोड। यह ट्रेन यहीं तक है। गाडी संख्या 50105 दीवा-सावन्तवाडी रोड पैसेंजर है। जब यह गाडी यहां पहुंचती है तो दस मिनट बाद ही यहीं डिब्बे 50107 सावन्तवाडी रोड-मडगांव पैसेंजर के नाम से आगे मडगांव तक जाते हैं। 50105 में जहां सेकण्ड सीटिंग का आरक्षण होता है, वहीं 50107 में कोई आरक्षण नहीं होता।
हमारा टिकट यहीं तक था। जब टिकट लिया था, तब सिन्धुदुर्ग उतरने की योजना थी, योजना बदल गई तो अब मडगांव का टिकट लेना पडेगा। इस काम के लिये कमल को भेजा। बडा स्टेशन है, पांच दस मिनट तो रुकेगी ही गाडी यहां।
लेकिन एक मिनट भी नहीं रुकी और चल दी। हम चूंकि सबसे पीछे वाले डिब्बे में थे, इसलिये पक्का पता था कि कमल टिकट खिडकी तक पहुंचा भी नहीं होगा। पता नहीं वो ट्रेन में चढ भी सका या नहीं। हमें पूरी उम्मीद थी कि वो ट्रेन में नहीं चढ सका होगा। वो बच्चा नहीं है, बाद में आने वाली किसी ट्रेन से मडगांव आ जायेगा।
मडूरे पहुंचे। हम अब बेटिकट थे। हमारी उम्मीद के अनुसार कमल पीछे सावन्तवाडी स्टेशन पर रह गया था, अब मुझे ही दौड लगानी पडेगी टिकट के लिये। ट्रेन रुकने से पहले ही मैंने दौड लगा दी। देखा, सामने कुछ दूर कमल भी दौडा जा रहा है। देखकर खुशी मिली कि कमल इसी गाडी में था। मेरी निगाह सामने सिग्नल पर थी। जब हमारे स्टेशन के मध्य तक पहुंचने तक वो हरा नहीं हुआ तो लगने लगा कि शायद यहां कोई क्रॉसिंग है। आराम से मडगांव के टिकट ले लिये। क्रॉसिंग ही था। पता नहीं कौन सी गाडी मडगांव की तरफ से आई और धडधडाती हुई मुम्बई की तरफ चली गई।
मडूरे महाराष्ट्र का आखिरी स्टेशन है। इसके बाद गोवा राज्य शुरू हो जाता है। गोवा का पहला स्टेशन है पेडणे (Pernem)। यहां से मडगांव पहुंचने तक दो बडी बडी नदियां पार करनी पडी। साथ ही थिविम, करमली, वेरना स्टेशनों को भी पीछे छोडा। स्टेशन तो दो तीन और भी आये थे लेकिन अन्धेरा हो जाने के कारण उनके नाम पल्ले नहीं पडे। अगले दिन पता चला कि वे माजोर्डा जंक्शन और सूरावली थे।
इस छह सौ किलोमीटर से भी लम्बी पैसेंजर यात्रा में एक और मजेदार बात हुई। कोई भी गाडी हमारी गाडी से आगे नहीं निकली। जितनी भी ट्रेनों से आमना सामना हुआ, सभी मडगांव की तरफ से आईं और मुम्बई की तरफ गईं। यह एक व्यस्त रूट है। इस पर राजधानी, गरीब रथ, दूरोन्तो से लेकर सुपरफास्ट-एक्सप्रेस हर तरह की गाडियां चलती हैं, लेकिन कोई भी हमसे आगे नहीं निकली। समय सारणी ही ऐसी है।
अन्धेरा हो गया था जब हम मडगांव पहुंचे। स्टेशन से बाहर निकलते ही मैंने कमल से कह दिया कि पिछले दो दिनों से तुम हमें भुगतते आ रहे हो, अब तुम्हारा दिन शुरू होता है। जहां मन चाहे, जैसे होटल में मन करे, चलो। भले ही कितना भी महंगा हो, हम ऐतराज नहीं करेंगे। आखिर परसों जब यहां से निकलेंगे तो फिर से आपको हमारे जैसा बनना पडेगा।
दो मोटरसाइकिल टैक्सी वालों से बात की। वे तीस तीस रुपये में हमें होटल दिखाने ले चले। मैं नीचे रिसेप्शन में बैठा रहा, कमल और प्रशान्त कमरा देखने गये। पहला होटल पसन्द नहीं आया। दूसरे होटल में गये। दूसरा भी पसन्द नहीं आया। मन तो था विद्रोह करने का। ये लोग क्यों सौ पचास का मुंह देख रहे हैं? गोवा में छह सौ से कम भला कहां मिलेगा? मैं होता तो पहले ही होटल में जम जाता। लेकिन कठोरतापूर्वक चुप रहा।
भला मोटरसाइकिल वाले तीस रुपये में हमें और कितने होटल दिखाते? उन्होंने कहा- जेब में पैसे नहीं हैं तो गोवा घूमने क्यों आये? पैसे निकालो जेब से, फिर देखो आपनी पसन्द का होटल। पैसे निकाल नहीं रहे हो, कमरा मनपसन्द चाहिये। और कहीं नहीं दिखायेंगे। चलो, स्टेशन छोड देते हैं। आखिरकार इसी होटल में छह सौ के कमरे में रुकना पडा। इससे पहले मडगांव स्टेशन पर भी कमरा लेने की सोची थी, लेकिन कोई कमरा खाली नहीं था। कमल नहीं होता तो मैं और प्रशान्त साफ सुथरे स्टेशन पर ही पसर जाते। इसका हमें बहुत अनुभव है।
कोंकण रेलवे- मंगलौर से मडगांव
बात चल रही थी कोंकण रेलवे की। रोहा से मडगांव का उत्तरी खण्ड हमने देख लिया, अब दक्षिणी खण्ड भी देखना था। कुछ दिन बाद हम मंगलौर स्टेशन पर थे। इस बार प्रशान्त साथ नहीं था। केवल मैं और कमल ही थे।
मार्च 1993 में तोकूर से उदुपि लाइन खुली। मंगलौर से निकलते ही तोकूर है। 20 मार्च 1993 को मंगलौर से उदुपि तक पहली रेल चली। जनवरी 1995 में उदुपि- कुन्दापुरा और अगस्त 1997 में कुन्दापुरा-पेडणे सेक्शन खुले।
सुबह छह बजे मंगलुरू सेण्ट्रल स्टेशन से मडगांव पैसेंजर चलती है। जब हम गाडी में पहुंचे, बिल्कुल खाली थी। मंगलुरू सेंट्रल के बाद मंगलुरू जंक्शन है जहां से एक लाइन हासन जाती है। हासन से पुनः दो भागों के विभक्त होकर एक भाग मैसुरू जाता है, दूसरा अरसीकेरे। यह लाइन पहले मीटर गेज होती थी, अब ब्रॉड गेज है। जंक्शन से निकलते ही एक स्वागत पट्ट लगा है- कोंकण रेलवे में आपका स्वागत है।
पहला ही स्टेशन तोकूर है। इसके बाद सुरतकल, मुल्की, नंदिकूर, पडूबिद्री, इन्नंजे और उडुपि हैं। नंदिकूर में एक थर्मल पावर प्लांट है जिसके बडे बडे कूलिंग टावर दूर से ही दिखने लगते हैं। उडुपि जिला मुख्यालय भी है। यहां बारिश हो रही थी, जिसके कारण यहां से निकलते ही मिलने वाली बडी सी नदी का ढंग का फोटो नहीं ले सके।
उडुपि के बाद बारकूर, कुन्दापुरा, सेनापुर, बिजूर, मूकाम्बिका रोड बैन्दूर, शिरूर, भटकल, चित्रापुर, मुर्डेश्वर, मंकी और होन्नावर आते हैं। कुन्दापुरा के बाद आने वाली नदी और होन्नावर से पहले आने वाली शरावती नदी के अच्छे फोटो आये। शरावती नदी जोग प्रपात से आती है जहां हम परसों थे। शायद होन्नावर ही था जहां आज कई दिन बाद वडापाव मिले। यह मेरा पसन्दीदा भोजन है चाय के साथ। रोटी को कभी याद नहीं किया इस पूरी यात्रा में। बस वडापाव और इडली। यह मेरी मजबूरी नहीं थी बल्कि स्वाद था जो हर बार वडापाव व इडली दिखते ही खाने को मन करने लगता था।
कुन्दापुरा के बाद कुमटा और फिर आता है गोकर्ण रोड। अपने पास पूरे एक दिन का समय था इसलिये यहीं उतर गये। कल यानी ठीक चौबीस घण्टे बाद इसी गाडी को पकडकर मडगांव जायेंगे जहां से हमें दिल्ली जाने के लिये गोवा एक्सप्रेस पकडनी है। स्टेशन से गोकर्ण ग्यारह किलोमीटर है। एक किलोमीटर दूर मुख्य सडक है जहां से बसें मिल जाती हैं। ऑटो स्टेशन के सामने ही खडे रहते हैं। इन चौबीस घण्टों की बाकी कथा बाद में सुनायेंगे। अभी कोंकण रेलवे का पाठ पूरा नहीं हुआ है।
गोकर्ण रोड के बाद अंकोला, फिर हारवाड और फिर कारवार है। कारवार उत्तर कन्नड जिले का मुख्यालय है। जबकि दक्षिण कन्नड जिले का मुख्यालय मंगलुरू है। अब तक वडापाव इफरात में मिलने लगा था, जमकर खाया। कारवार के बाद एक बडी सी नदी है, जिसके कई फोटो खींचे, अच्छे आये।
कारवार के बाद अस्नोटी है जो कर्नाटक का आखिरी स्टेशन है। फिर एक सुरंग के मुहाने के पास एक स्वागत पट्ट लिखा दिखा- गोवा राज्य में आपका स्वागत है। स्वागत करते ही गाडी सुरंग में घुस गई। मैंने कमल से कहा कि अब हम फिर से गोवा में आ गये हैं। कमल को पता नहीं मेरी बात पर यकीन हुआ या नहीं। सुरंग से निकलने के कुछ देर बाद उसने कहा- नीरज, अब हम गोवा में आ गये हैं। मैंने कहा- यह बात तो दस मिनट पहले मैंने तुझे बताई थी, अब क्यों तू मुझे बता रहा है। बोला कि वो देख सामने। बार।
गोवा दो तरह के लोगों के लिये सर्वोत्तम जगह है- एक शादीशुदाओं के लिये और दो, पियक्कडों के लिये। मैं इनमें से किसी भी शर्त को पूरा नहीं करता हूं, इसलिये मुझे गोवा अच्छा नहीं लगा।
गोवा का पहला स्टेशन है लोलयें, फिर काणकोण, फिर बाल्ली और फिर मडगांव।
मडगांव पहुंचते ही मेरा कई सालों का सपना पूरा हो गया- कोंकण रेलवे पर पैसेंजर ट्रेन से घूमने का। वैसे तो पिछले साल भारत परिक्रमा के दौरान भी इस रूट से गुजरा था लेकिन रात को। असली मजा इस यात्रा में आया।
यह पूरी लाइन अरब सागर के साथ साथ है, साथ ही पश्चिमी घाट की पहाडियों के साथ साथ भी। उतार चढाव खूब देखने को मिलते हैं। सभी स्टेशनों की ऊंचाई नोट नहीं कर सका, फिर भी जिनकी ऊंचाई नोट की, उनमें रत्नागिरी समुद्र तल से सबसे ऊंचा स्टेशन है- 125 मीटर और होन्नावर सबसे नीचा है- 5.187 मीटर।
सुरंगों ने जमकर परेशान किया। जब ट्रेन सुरंग में घुसती है तो ज्यादातर यात्री चीखने चिल्लाने लगते हैं खुशी के मारे। मैं चीखने वालों में नहीं हूं। परेशानी की वजह है सुरंगों की लम्बाई। महाराष्ट्र में ज्यादातर सुरंगें तीन तीन चार चार किलोमीटर लम्बी हैं। कई तो पांच छह किलोमीटर की भी हैं। एक महारानी आठ किलोमीटर की है। एक बार ट्रेन इनमें घुस जाये तो देर तक निकलने का नाम नहीं लेती थी। धुआं, अन्धेरा और सामान्य से ज्यादा घडघडाहट मानसिक विचलन पैदा कर देती है। जिस समय ट्रेन सुरंग में घुसती, जान सूख जाती। जब बाहर निकलती तो ताजी ठण्डी हवा का झौंका आता, जान फिर से हरी भरी हो जाती।
जहां महाराष्ट्र में ज्यादातर लम्बी सुरंगें हैं, वहीं कर्नाटक में लम्बे पुल हैं। शरावती का पुल हो या काली नदी का, एक से एक बढकर हैं। मेरी इच्छा है किसी दिन किसी नदी के किनारे मटरगश्ती करूं और पुल से गुजरती ट्रेन का फोटो खींचूं।
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दिवा जंक्शन स्टेशन- यात्रा यहीं से शुरू होती है। |
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पनवेल स्टेशन |
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पनवेल स्टेशन से निकलती तेलगाडी |
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निद्रा का ढोंग |
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प्रशान्त |
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गार्ड सोमटने से ट्रेन को चलने की झण्डी दिखाता हुआ। |
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आपटा स्टेशन |
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नागोठने और रोहा के बीच में एक पुल |
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रोहा- कोंकण रेलवे यहां से शुरू होती है। |
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रोहा स्टेशन पर |
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कोंकण रेलवे अब शुरू होता है। |
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चित्रकार साहब चित्र बनाते हुए। |
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अच्छा बना है ना? |
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इस पर कोई कैप्शन नहीं। |
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यह कमल का पसन्दीदा स्टाइल था। |
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चिपलूण पुल |
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आरवली रोड पर खडी एक रो-रो ट्रेन |
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आरवली रोड स्टेशन- क्यों ना इसे अरावली रोड पढें? |
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संगमेश्वर रोड और उक्शी के बीच में एक नदी |
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उक्शी सुरंग पूरे मार्ग की एकमात्र ऐसी सुरंग है जिसमें दो ट्रैक हैं। |
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उक्शी स्टेशन पर |
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उक्शी-भोके के बीच में कई झरने हैं। |
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भोके स्टेशन |
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रत्नागिरी के दोनों तरफ महा-मोड हैं। एक में ट्रेन पलटी मारकर समुद्र किनारे बसे रत्नागिरी आती है, फिर पुनः पलटी मारकर दूर चली जाती है। |
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रत्नागिरी |
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निवसर स्टेशन |
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निवसर पर एक क्रॉसिंग था। |
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गाडी काफी देर तक खडी रही, मैं और प्रशान्त अपना काम करते रहे। मेरे सामने ही खिडकी वाली सीट पर कमल बैठा है। शर्तिया बुरी तरह पक रहा होगा आज पैसेंजर में यात्रा करके। |
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राजापुर रोड स्टेशन पर दूरोन्तो रोकी एक पैसेंजर के लिये। |
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कणकवली स्टेशन पर खडी एक और रो-रो ट्रेन |
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हमारे आते ही रो-रो को सिग्नल मिल गया। |
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ट्रकों के ड्राइवर और क्लीनर सब साथ यात्रा करते हैं। |
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झाराप स्टेशन |
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मडूरे- महाराष्ट्र का आखिरी स्टेशन |
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पेडणे- गोवा का पहला स्टेशन। आज से पहले मैं इसे पेरनेम पढा करता था। |
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पेडणे-थिविम के बीच में एक नदी |
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मडगांव स्टेशन गोवा का मुख्य स्टेशन है। |
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यहां स्काई बस चलती थी जो अब बन्द है। स्काई बस का ट्रैक दिख रहा है। |
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अब मंगलुरू से मडगांव की तरफ यात्रा करते हैं। |
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आह! कमल का पसन्दीदा स्टाइल। यह इंसान 35 साल का है। एक प्रतिष्ठित कम्पनी में प्रबन्धक है। कभी राजधानी के अलावा दूसरी गाडी में कदम नहीं रखा। सोचो, सोचो, आज इस पर क्या बीत रही होगी। |
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नंदिकूर स्टेशन और पावर प्लांट |
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पडूबिद्री स्टेशन से गाडी की रवानगी करते हुए |
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इन्नंजे स्टेशन |
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इन्नंजे-उडुपि के बीच एक नदी |
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बारकूर स्टेशन पर गरीब रथ |
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कुन्दापुरा- सेनापुर के बीच एक नदी |
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मुर्डेश्वर- एक शिव तीर्थ स्थान |
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मंकी- छोटी ‘इ’ की मात्रा चढा दी। फिर भी मैं इसे मंकि न पढकर मंकी ही पढूंगा। मंकी माने बन्दर। |
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होन्नावर के पास शरावती नदी |
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शरावती नदी |
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शरावती |
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गोकर्ण रोड |
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गोकर्ण रोड- अंकोला के बीच में एक नदी |
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महाराष्ट्र में जहां सुरंगों की भरमार है, वही कर्नाटक में नदियों की। |
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अस्नोटी- कर्नाटक का आखिरी स्टेशन। |
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लोलयें- गोवा का पहला स्टेशन |
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काणकोण |
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और यह है मडगांव स्टेशन। दिल्ली जाने के लिये गोवा एक्सप्रेस प्लेटफार्म नम्बर एक पर आ रही है। |
अगला भाग: दूधसागर जलप्रपात
पश्चिमी घाट यात्रा
1.
अजन्ता गुफाएं
2.
जामनेर-पाचोरा नैरो गेज ट्रेन यात्रा
3. कोंकण रेलवे
4.
दूधसागर जलप्रपात
5.
लोण्डा से तालगुप्पा रेल यात्रा और जोग प्रपात
6.
शिमोगा से मंगलुरू रेल यात्रा
7.
गोकर्ण, कर्नाटक
8.
एक लाख किलोमीटर की रेल यात्रा
आपकी पोस्ट और चित्रों को देखकर वर्षों से मन में दबी इच्छा कि ट्रेन के स्लीपर क्लास में कोंकण रेलवे की यात्रा करनी है और बलवती हो गयी ...
ReplyDeleteकितना सुन्दर देश है न अपना। बहुत सुन्दर. नीरज भाई आपसे इर्ष्या भी होती है. एक यात्रा आपके साथ करेंगे कभी।
ReplyDeletebahut sunder chitr ///
ReplyDeleteपहले बापला जी के साथ, अब आपके साथ bombay to goa की यात्रा कर लिये.......
ReplyDeleteबापला???? ये कौन हैं?
Deleteकहीं पाबला जी तो नहीं थे...
Wah bhai jaat
ReplyDeleteयहां एनसीआर में बैठे-ठाले ही यात्रा करवा रहे हैं आप मेरी।
ReplyDeleteनीरज जी कृतज्ञ हैं हम । इतने सुन्दर स्थानों की साकार सैर करवाने के लिये । लगता है कि पाठ्यक्रम की तरह याद करलें आपके संस्मरणों को । बडे महत्त्वपूर्ण आँकडे भी साथ में देते चलते हैं । आप न केवल खुद यात्रा का आनन्द लेते हैं बल्कि पाठकों के लिये भी प्रभूतमात्रा में आनन्द बिखरा पडा है । कोंकण तट की यात्रा की खूबसूरती के बारे में काका कालेलकर के एक निबन्ध में पढा था पर अब लग रहा है कि वह कुछ भी नही था । और नदियाँ ...वाह..।
ReplyDelete"देश विरोधी लोग इस देश की टांग खिंचाई करते हैं कि अंग्रेज बनाकर चले गये जितनी भी लाइनें, आजाद भारत में कुछ नहीं बना। उन्हें इधर अवश्य आकर झांकना चाहिये।"
ReplyDeleteभाई लाख रूपये की बात कह गए.......
bhai sahab, aap ki delhi main sastey main thaharney ke liye hotel kahan par mileyga, jo thora thik-thak bhi ho aur paise bhi kam lagey............. aap bharat ki yatra kartey hain aur main soch raha hun ki ek baar delhi hi dekh li jaiy. sukriya.............
ReplyDeleteye to neeraj bhai hi bata payenge
Deleteहोटल तो नहीं बता सकता लेकिन आपके ठहरने का इंतजाम अवश्य कर सकता हूं। आंख मीचकर शास्त्री पार्क मेट्रो स्टेशन आ जाना और एक फोन कर देना। पास में ही अपना ठिकाना है।
DeleteShashtri park me aakar metro ke aeparment me jat dharmshala he bilkul free me .aapka dost Umesh joshi
Deleteभारतीय क्षमताओं का सशक्त उदाहरण है कोंकण रेलवे, सुन्दर वर्णन
ReplyDeleteNeeraj ji,
ReplyDeletemazaa aa gaya ye series padhkar. Bahut sundar photos aur usse bhi badhkar jaankari purna lekh.
Bahut bahut dhanyawaan.