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8 अगस्त 2013 की सुबह हम गोवा में थे। स्टेशन के पास ही एक कमरा ले रखा था। आज का पूरा दिन गोवा के नाम था। लेकिन मैंने सोच रखा था कि गोवा नहीं घूमूंगा। गोवा से मेरा पहला परिचय बडा ही भयानक हुआ जब मोटरसाइकिल टैक्सी वालों ने हमसे कल कहा था कि जेब में पैसे नहीं हैं तो गोवा घूमने क्यों आये? पैसे निकालो और मनपसन्द कमरा लो। तभी मन बना लिया था कि गोवा नहीं घूमना है। जहां पैसे का खेल होता हो, वहां मेरा दम घुटता है।
प्रशान्त और कमल ने एक टूर बुक कर लिया। वे आज पूरे दिन टूर वालों की बस में घूमेंगे, मैं यहीं होटल में पडा रहूंगा। वैसे भी बाहर धूप बहुत तेज है। धूप में निकलते ही जलन हो रही है।
जब वे चले गये तो ध्यान आया कि अगर इसी तरह चलता रहा हो मैं मडगांव-वास्को रेल लाइन पर नही घूम सकूंगा। आज मौका है। जेब में नेट है, नेट पर समय सारणी है। मडगांव से वास्को के लिये सवा एक बजे पैसेंजर जाती है। उससे वास्को जाकर वापस लौट आऊंगा। आज के लिये इतना काफी। अभी ग्यारह बजे हैं।
ठीक समय पर गाडी आई। यह पीछे कुलेम से आती है। दक्षिण पश्चिम रेलवे की गाडी है। रास्ते में सांकवाल में समुद्र के दर्शन भी होते हैं। मडगांव से सूरावली, माजोर्डा जं, कनसोलिम, सांकवाल, दाबोलीम के बाद वास्को-द-गामा स्टेशन आता है। स्टेशन पर वापस मडगांव जाने के लिये गोवा एक्सप्रेस तैयार खडी थी। यह एक सुपरफास्ट ट्रेन है। मडगांव से यहां पैसेंजर से आया, पांच रुपये लगे। वापसी में चालीस रुपये लग गये।
शाम को जब तीनों पुनः मिले तो कमल खुश नजर आ रहा था, प्रशान्त खुश भी और उदास भी। कहने को तो टूर दो ढाई सौ का था लेकिन हजार से ज्यादा लग गये। बताया कि जहां भी जाते, सौ डेढ सौ से कम प्रवेश शुल्क था ही नहीं। दूसरे प्रवेश करते तो हमें भी जाना पडता। कमल के खुश होने का दूसरा कारण और था कि उसे बीयर मिल गई थी।
अगले दिन। आज फिर से मेरा दिन शुरू होने वाला है। आज दूधसागर जायेंगे। सवा आठ बजे मडगांव से कुलेम के लिये पैसेंजर जाती है। कुलेम के बाद बारह किलोमीटर तक पैदल जाना है। प्रशान्त ने पैदल का नाम सुनते ही मना कर दिया। उसका शरीर पैदल चलना मंजूर नहीं करता। कमल तैयार हो गया। दूधसागर से शाम को गोवा एक्सप्रेस पकडकर लोंडा जाना है, फिर शिमोगा। प्रशान्त दोपहर बाद मडगांव से गोवा एक्सप्रेस पकडेगा और हमें लोंडा में मिल जायेगा।
मडगांव से निकलकर सं. जुजे. द. अरेयाल, चान्दर गोवा, कुडचडे सांवर्डे, कालें और फिर कुलेम आते हैं। कुलेम के बाद चढाई शुरू हो जाती है। इसलिये हर ट्रेन में कई कई इंजन लगते हैं। मालगाडियों में तो पांच पांच छह छह इंजन लगते ही हैं। ऊपर केसल रॉक पर इंजन आजाद हो जाते हैं। कुलेम और केसल रॉक के बीच में दूधसागर है। कुलेम से केसल रॉक के बीच कोई पैसेंजर नहीं चलती।
कुलेम उतरते ही मेरा शानदार स्वागत हुआ। धडाम से गिर पडा। बारिश होते रहने से प्लेटफार्म पर काई जमी हुई थी। जूतों पर अन्ध-भरोसा था। अन्ध-भरोसा खतरनाक होता है। गिर पडा। गनीमत कि कोई चोट-खरोंच नहीं आई।
कुलेम की जगह कुळें लिखा था लेकिन हिन्दी में कुलेम ही कहा जायेगा। कुळें कोंकणी शब्द हो गया। ‘ळ’ अक्षर का उच्चारण उत्तर भारत में खूब होता है लेकिन कभी भी इसे हिन्दी में लिखा नहीं जाता। इसलिये कुळें को कुलेम पढेंगे।
इसी गाडी से बहुत से ऐसे यात्री उतरे जो हमारी ही तरह पैदल दूधसागर जायेंगे। ज्यादातर चले भी गये लेकिन सबसे पहले भोजन करना था। स्टेशन से बाहर निकलकर भोजन की तलाश में निकल पडे।
हमें होटल में दूधसागर जाने के लिये हतोत्साहित किया गया था। मैं तो खैर किसी से पूछाताछी नहीं किया करता लेकिन प्रशान्त और कमल ने वहां जाने की बाबत जानकारी जुटाने की कोशिश की थी। वे पैदल नहीं जाना चाहते थे बल्कि किसी विकल्प की तलाश में थे। सुना था कि वहां टैक्सी और जीप से भी जाया जा सकता है। लेकिन उन स्थानीय लोगों ने यह कहकर जाने से रोकने की कोशिश की कि बारिश ज्यादा होने की वजह से पुलिस कुलेम से आगे किसी को नहीं जाने दे रही। मुझे उनकी इस बात पर कतई यकीन नहीं था। वहां जाने का एकमात्र रास्ता रेलवे लाइन है। जीप व टैक्सी भी प्रपात से कुछ पहले छोड देती हैं, फिर रेलवे लाइन के साथ साथ जाना होता है। कोई किसी रेलयात्री को कैसे रोक सकता है। फिर भी सोच लिया था कि अगर किसी ने रोकने की कोशिश की तो स्टेशन से किसी मालगाडी में चढ लेंगे और दूधसागर उतर जायेंगे। ऐसा करना यहां जायज है।
लेकिन ऐसा कुछ नहीं था। कुलेम में ही एक दोमडा पडा। अब ऐसे दोमडे रुक रुक कर होते रहेंगे। बचने के लिये हमारे पास रेनकोट थे ही।
मैं इस यात्रा पर जूते पहनकर आया था। अगर दूधसागर ट्रेक ना करना होता तो चप्पल पहनकर आता। जोंक का तो मुझे पता नहीं कि यहां होती है या नहीं लेकिन सांप तो सर्वसुलभ है, बरसात में विशेषकर। रेलवे लाइन घने जंगलों से गुजरती है, इसलिये जूते अच्छे हैं। यह सलाह कमल को भी दी थी, उसने मानी। वो चप्पल व जूते दोनों लाया।
बहुत से लोग इसे कोंकण रेलवे मान बैठते हैं। लेकिन ऐसा है नहीं। यह लाइन कोंकण रेलवे नहीं है। यह दक्षिण पश्चिम रेलवे के अन्तर्गत आती है। इसका निर्माण 1890 के आसपास हुआ था। गोवा पुर्तगाल का उपनिवेश था। अंग्रेजों और पुर्तगालियों के मध्य कोई सन्धि हुई होगी, तभी इस लाइन का निर्माण हुआ। यह वास्को-द-गामा बन्दरगाह तक जाती है। यह लाइन मीटर गेज थी। आजाद भारत में जब यूनीगेज की योजना बनी तो इसे भी ब्रॉड गेज में बदल दिया गया।
कुलेम 72.54 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। इसके बाद चढाई है। पैदल चलते हुए यह चढाई महसूस नहीं होती। सबसे बडी परेशानी है गिट्टी। बारह किलोमीटर तक गिट्टियों पर चलना आसान नहीं है। मुझे गिट्टियों पर चलने का अनुभव है लेकिन हद से हद चार किलोमीटर तक। उन्हीं चार किलोमीटर में पैरों की बडी खराब हालत हो जाती है। इसलिये जहां भी सम्भव हुआ, हम रेलवे ट्रैक छोडकर नीचे उतर जाते थे और बराबर में भरे पानी में छप छप करते निकल जाते थे।
दोपहिया टैक्सियां भी जाती हैं। ये लोग कुछ दूर तक तो लाइन के साथ साथ चलते हैं फिर कच्चा रास्ता पकड लेते हैं। पता नहीं कुलेम से ही ये रास्ते से क्यों नहीं आते?
यह इलाका महावीर स्वामी अभयारण्य के अन्तर्गत आता है। अभयारण्य के कर्मचारी एक जगह रेलवे लाइन पर बैठे थे, ताकि प्रवेश करने वालों से शुल्क वसूला जा सके। कैमरे का भी शुल्क लिया। हालांकि मैंने कमल के पास कैमरा होने से इंकार कर दिया, पच्चीस रुपये बच गये।
और भी कुछ लोग यात्रा कर रहे थे। कुछ हमारे आगे थे, कुछ पीछे। लेकिन सभी छाता लिये थे, शायद रेनकोट वाले हम ही थे। जब भी बारिश होती, हमें रुककर रेनकोट पहनना पडता। बारिश रुकते ही रेनकोट उतारना पडता। यह हिमालय थोडे ही था कि बारिश होते ही ठण्ड हो जाये और रेनकोट को जैकेट की तरह पहने रखा जा सके। बारिश रुकते ही उमस वाली गर्मी लगने लगती।
इसी दौरान एक मालगाडी निकली जिसमें पांच इंजन लगे थे। यह ऊपर केसल रॉक से आई थी, एक ही इंजन इसे नीचे उतार सकता था लेकिन कुलेम में अनवरत आपूर्ति के लिये ऊपर से आने वाली हर गाडी में इंजन जोड दिये जाते हैं। कुछ देर बाद चेन्नई-वास्को एक्सप्रेस निकली।
एक सुरंग मिली। वैसे तो यह छोटी ही थी, फिर भी बाहर से जब इसमें घुसे तो घुप्प अन्धेरे से सामना करना पडा। हालांकि कुछ देर बाद सब सामान्य दिखने लगा। इसमें करीब आधे घण्टे तब बैठे रहे। मैं तो थक ही गया था लेकिन कमल मुझसे भी ज्यादा थका था। इसमें बारिश का कोई खतरा नहीं था और हवा भी बडी मस्त लग रही थी। ठण्डी ठण्डी।
सुरंग से निकलते ही सोनालियम स्टेशन आया। कुलेम से केसल रॉक 25 किलोमीटर दूर है। बीच में तीन स्टेशन हैं- सोनालियम, दूधसागर और करंजोल। यहां कोई गांव नहीं है, कोई मानव आबादी नहीं है, घनघोर जंगल है। फिर स्टेशन क्यों? असल में ये तकनीकी स्टेशन हैं। ट्रेनों की क्रॉसिंग के लिये बनाये गये हैं। यहां ट्रैफिक अच्छा खासा रहता है, ज्यादातर मालगाडियां चलती हैं। इस पच्चीस किलोमीटर को पार करने में घण्टा भर लग जाता है। तो बीच के ये स्टेशन एक ट्रेन को एक लाइन पर रोककर दूसरी ट्रेन को दूसरी लाइन से निकालने के काम आते हैं। अगर ये न होते तो दिनभर में दोनों तरफ से मात्र बीस ट्रेनें भी नहीं निकल सकतीं। इन स्टेशनों पर कोई टिकट खिडकी नहीं है। क्योंकि ये स्टेशन यात्रियों के लिये नहीं बनाये गये हैं। दूधसागर भी यात्रियों के लिये नहीं है, हालांकि वहां से बहुत से यात्री चढते उतरते हैं।
सोनालियम से जब हम निकले तो हावडा-वास्को अमरावती एक्सप्रेस आई और इसे साइड में खडा कर दिया गया। अब सामने से एक मालगाडी आयेगी, उसके बाद अमरावती एक्सप्रेस को रवाना किया जायेगा। यह बात मैंने एक रेलवे कर्मचारी के वॉकी-टॉकी पर सुन ली थी। यह भी पता था कि दूधसागर से पहले एक जगह ऐसी है कि पूरे प्रपात को सामने से देखा जा सकता है। चूंकि सोनालियम से दूधसागर चार किलोमीटर है, इसलिये वो जगह कम से कम तीन किलोमीटर दूर तो होगी ही। तुरन्त कमल से कहा कि जल्दी जल्दी चलो, हमें उस मालगाडी के फोटो खींचने हैं जब वह प्रपात के नीचे से गुजरेगी।
शीघ्र ही हम उस स्थान पर थे। सामने समूचा प्रपात ऊपर से नीचे दिख रहा था। बीच में एक पुल भी था जिससे ट्रेन गुजरती है। पुल पर बहुत से लोग चींटी जैसे दिख रहे थे। यहां भी काफी भीड थी। अब इंतजार था उस मालगाडी के आने का।
ज्यादा इंतजार नहीं करना पडा। इसके इंजन पर भी बहुत से लोग सवार थे। नीचे खडे और उन यात्रियों में औपचारिक तौर पर हाय-हेलो हुई। दो मिनट भी नहीं बीते कि मालगाडी पुल पर पहुंच गई। इसमें दो इंजन आगे लगे थे, तीन पीछे। जमकर फोटो खींचे। अगर मालगाडी न आती तो मेरा इरादा घण्टे दो घण्टे के लिये यहीं रुकने का था, ताकि कोई न कोई गाडी आये और यहां से फोटो खींचूं। समूचे प्रपात के नीचे से गुजरती ट्रेन नन्हीं सी दिख रही थी और बडा ही रोमांचक नजारा था वह।
आगे बढे तो भीड भी बढती गई। चट्टानों से पानी गिर रहा था, तो लोगबाग उनमें नहा रहे थे। छोटी छोटी दो सुरंगों को पार करके जब एक खुली सी जगह पर पहुंचे तो भीड बेहिसाब थी। यहां पुल पर खडे होकर ऊपर प्रपात को देखना रोंगटे खडे कर देता है।
अभी तीन बजे थे। अब हमें पांच बजे का इंतजार करना है। गोवा एक्सप्रेस आयेगी। प्रशान्त भी उसी में होगा और हम लोण्डा जायेंगे। अपने साथ कुछ खाने को लाये थे, निपटा दिया।
प्रपात से करीब आधा किलोमीटर दूर दूधसागर स्टेशन है। सभी यात्री वहीं जा रहे थे, हम भी चल दिये। स्टेशन पर भयंकर भीड। पांच इंजन वाली एक मालगाडी खडी थी, सभी के इंजन पूरे भरे हुए। यह मालगाडी गोवा जायेगी। बाकी जो यात्री नीचे खडे हैं, वे सभी गोवा से आने वाली गोवा एक्सप्रेस की प्रतीक्षा कर रहे हैं, वे सभी कर्नाटक या महाराष्ट्र जायेंगे।
साढे पांच बजे नीचे सोनालियम स्टेशन पर ट्रेन दिखाई पडी। कुछ देर वहां रुककर फिर चल दी। दस मिनट भी नहीं लगे इसे यहां तक आने में। इसमें एक इंजन आगे और दो इंजन पीछे लगे थे। कमल को मैंने पहले ही आगाह कर दिया था कि गाडी का यहां ठहराव नहीं है, केवल तकनीकी कारणों से ही रुकती है, इसलिये हो सकता है कि यह यहां न रुके, इसलिये चलती ट्रेन में चढने को तैयार रहना। यहां ट्रेन कितनी रफ्तार से चलती है, हमें अच्छी तरह पता था। जब आखिरी डिब्बा भी पार होने लगा और गाडी के रुकने की कोई सम्भावना नहीं लगी तो कमल को इशारा करके मैं चढ गया, पीछे वाली खिडकी पर कमल भी चढ गया। हालांकि थोडा आगे जाकर गाडी रुक गई और प्रत्येक यात्री को चढाकर पुनः चल पडी। सामान्य डिब्बे में पैर रखने की जगह नहीं थी। गार्ड यात्रियों से स्वयं कहता रहा कि आगे जाओ और स्लीपर डिब्बे में चढ जाओ। उसका यह रोज का काम था, उसे अच्छी तरह पता था कि पचास किलोमीटर आगे लोण्डा जंक्शन पर हर यात्री का किसी न किसी गाडी में आरक्षण है।
हमारा भी आरक्षण था रानी चेन्नम्मा एक्सप्रेस में।
मडगांव जहां 8.825 मीटर की ऊंचाई पर है, वहीं कुलेम 72.54 मीटर, दूधसागर स्टेशन 258.59 मीटर, केसल रॉक 581.25 मीटर और लोण्डा जंक्शन 634.64 मीटर की ऊंचाई पर हैं।
दाबोलीम में विमानपत्तन है। |
वास्को की ओर |
वास्को-द-गामा स्टेशन |
अब चलते हैं दूधसागर की ओर |
अंग्रेजी में कुछ लिखा है, हिन्दी में कुछ और। यह सब पुर्तगाली भाषा का असर है। गोवा में अंग्रेज नहीं थे, बल्कि पुर्तलागी थे। |
कमल का यात्रा करने का पसन्दीदा स्टाइल |
यहां से हम पैदल जायेंगे |
कुलेम कस्बा |
रेलवे लाइन के साथ साथ पैदल यात्रा शुरू |
ज्यादातर लोग पैदल ही जाते हैं। कुछ कुलेम की तरफ से तो कुछ केसल रॉक की तरफ से। |
चेन्नई-वास्को एक्सप्रेस |
एक सुरंग के अन्दर |
सोनालियम स्टेशन |
हावडा-वास्को अमरावती एक्सप्रेस |
पूर्वी भारत में ‘व’ की जगह ‘भ’ लिखने का रिवाज है। बंगालियों ने वास्को का भास्को कर दिया। |
दूधसागर के प्रथम दर्शन |
अपने पूर्ण रूप में दूधसागर |
आ गई मालगाडी। अब यही कुछ देर बाद प्रपात के नीचे से गुजरेगी। |
दूधसागर जलप्रपात के नीचे से गुजरती एक मालगाडी |
यह एक ऐसा स्थान है जहां जाने का एकमात्र रास्ता रेलवे लाइन ही है। |
रेलवे लाइन के किनारे ही मौजमस्ती होती है। |
दूधसागर जलप्रपात से स्टेशन करीब आधा किलोमीटर दूर है। |
गोवा एक्सप्रेस की प्रतीक्षा करते हुए |
दूर से गोवा एक्सप्रेस आती दिख रही है |
आ गई ट्रेन |
दूधसागर जहां गोवा में है, वहीं केसल रॉक कर्नाटक में |
लोंडा जंक्शन- यहां से एक लाइन पुणे जाती है, एक हुबली। |
अगला भाग: लोण्डा से तालगुप्पा रेल यात्रा और जोग प्रपात
पश्चिमी घाट यात्रा
1. अजन्ता गुफाएं
2. जामनेर-पाचोरा नैरो गेज ट्रेन यात्रा
3. कोंकण रेलवे
4. दूधसागर जलप्रपात
5. लोण्डा से तालगुप्पा रेल यात्रा और जोग प्रपात
6. शिमोगा से मंगलुरू रेल यात्रा
7. गोकर्ण, कर्नाटक
8. एक लाख किलोमीटर की रेल यात्रा
इंतज़ार, इनके बारे में पढ़ा है मगर देखा नहीं है, आपके साथ दुधसागर की सैर कर लेंगे
ReplyDeleteआपको तो दूधसागर पूरे शबाब में देखने को मिल गया, वाह।
ReplyDeleteअद्वितीय, दुग्ध-सागर देखने ऐसा जाना पड़ता है, मुझे नहीं पता था। बहुत काम की जानकारी। धन्यवाद
ReplyDelete- Anilkv
कमाल के फोटो हैं नीरज भाई
ReplyDeleteकमाल कमाल कमाल.... हिमालयी यात्राओं के अलावा ये पहली यात्रा है जिसने मेरा मन मोह लिया... अब तो जब भारत आये दूधसागर अवश्य जाना पड़ेगा... आपका सोनी कैमरा कमाल के चित्र दे रहा है
ReplyDeleteबहुत सुँदर दृश्य कैद किये हैं
ReplyDeleteएक शानदार यात्रा किसी भी रेलप्रेमी के लिए तो तीर्थ जैसा हुआ... ऐसी जगह जहॉं रेल ने सड़क को पछाड़ दिया हो। :)
ReplyDelete''अंग्रेजी में कुछ लिखा है, हिन्दी में कुछ और। यह सब डच भाषा का असर है। गोवा में अंग्रेज नहीं थे, बल्कि डच थे।''
... थोड़ा सुधार करना पड़ेगा क्योंकि गोवा पुर्तगाल के कब्जे में था डच (नीदरलैंड/हालैंड) के नहीं। मजेदार बात ये है कि वाकई एक डच ईस्ट इंडिया कंपनी नाम से कंपनी थी तथा इसके भारत में कारेाबारी रिश्ते भी थे किंतु इसका भारत पर सैनिक या प्रशासनिक कब्जा नहीं था, गोवा 1960-61 तक पुर्तगाल के अधीन था। (कुछ जानकारियॉं विकीपीडिया से हासिल हैं ताकि आपकी ये शिकायत कम हो जाए कि पाठक पढ़ते हैं तथा आह वाह हे हे हे करके आगे चल देते हैं कोई मूल्यवर्धन नहंी करते पोस्ट में) :)
कर दिया जी ठीक। आपका बहुत बहुत धन्यवाद।
Deleteसबसे बढ़िया तो आख़िरी फ़ोटो है :-)
ReplyDeleteअदभुत है दूधसागर
ReplyDeleteबहुत सही मौसम में गए .... फुल मूड में था मौसम... बेहतरीन वर्णन एवं चित्र.......
ReplyDeleteनीरज फोटो तो इतने सुन्दर है कि कुछ कहा ही नही जा सकता है और प्राकृतिक सौन्दर्य तो अपनी चरम सीमा पर है बहुत. . .बहुत. . .बहुत. . . ही अच्छी यात्रा है।
ReplyDeleteअद्भुत ...। दूधसागर , वहाँ का रास्ता और आपका उत्साह...।
ReplyDeleteबंगालियों ने वास्को को भास्को तो कर दिया , क्योंकि वो व को भ उच्चारण करते हैं , मगर गुरु एक बात तो बतावो इन बंगालियों ने हावड़ा का व को बदल करके हभाडा क्यों नहीं किया।
ReplyDeleteNeeraj ji kya yeh wahi jagah hai ji chennai express main dikhayi gayi thi?
ReplyDeletedhudh sager ke photo bahut ache aye h.channai exp movie me isa channai dekhaya h movie banane wale bhi kuch ka kuch dekhate ha
ReplyDeleteDUDH SAGAR KO JAANE KA KON MMONTH JAANA THIK HOTA H
ReplyDeleteदूधसागर जाने का सर्वोत्तम समय होता है मानसून। फिर भी दिसंबर में वहां जाना अच्छा रहेगा।
DeleteM DECMBER KO GOA JAA REHE H ISLIYE JALDI REPLY KERNA
ReplyDeleteनीरज जी...वाकई पोस्ट शानदार है। अद्भुत, अतुलनीय भारत। दूधसागर जल-प्रपात के दृश्य शानदार हैं।
ReplyDeleteकोशिश रहेगी अगले वर्ष हमारी भी कोंकण रेलवे के जरिये प्रकृति के नज़ारे देखने की।
आपको बहुत-2 साधुवाद।