Skip to main content

एक साइकिल यात्रा- जयपुर- किशनगढ- पुष्कर- साम्भर- जयपुर

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें
नवम्बर 2012 में की गई इस यात्रा की सम्पूर्ण जानकारी पहले लिखी जा चुकी है। यह भी बताया जा चुका है कि किस तरह अचानक कच्छ दर्शन को छोडकर राजस्थान के इस इलाके में आना हुआ। पुष्कर, साम्भर लेक, शाकुम्भरी माता, भानगढ, नीलकण्ठ महादेव और अजबगढ के वृत्तान्त भी लिखे जा चुके हैं। आज देखिये सम्पूर्ण साइकिल यात्रा का वृत्तान्त:
21 नवम्बर की सुबह जयपुर से निकला तो दिमाग में बूंदी था। साइकिल चलाने का अनुभव नहीं था, इसलिये मालूम भी नहीं था कि एक दिन में कितना चला लूंगा। फिर भी प्रथम-दृष्ट्या 100 किलोमीटर रोजाना का लक्ष्य रखा गया। बूंदी जाने के लिये जयपुर से इतनी दूरी पर टोंक पडता है, इसलिये आज का विश्राम टोंक में करना तय हुआ।
लेकिन विधि को टोंक और बूंदी मंजूर नहीं था, तभी तो कुछ दूर चलते ही साइकिल अजमेर की तरफ मोड दी- पुष्कर का मेला देखेंगे।
अजमेर जयपुर से करीब 130 किलोमीटर दूर है। आज अन्धेरा होने तक अजमेर पहुंचना था। ताजा-ताजा शौक था, थकान नहीं हुई थी, इसलिये ले लिया ऐसा निर्णय।
आठ किलोमीटर दूर बाइपास आने तक सडक पर कोई ज्यादा भीड नहीं मिली, लेकिन उसके बाद भारी वाहन मिलने शुरू हो गये। हालांकि सडक काफी चौडी है, बिल्कुल बायें किनारे पर साइकिल चलाता रहा। कोई परेशानी नहीं हुई। मेरठ गया था एक बार दिल्ली से। तो गाजियाबाद से निकलते ही जो मौत से आंखमिचौली शुरू हुई, बडी रौंगटे खडे करने वाली थी। पतली सी सडक और उस पर भयंकर ट्रैफिक। जब इंच भर की दूरी से बराबर में साठ की स्पीड से दौडती बस आगे निकलती तो लगता कि पुनर्जन्म हो गया। आज यहां ऐसा नहीं था।
65 किलोमीटर बाद दूदू तक हकीकत पता चलने लगी। सडक किनारे होटलों की कोई कमी नहीं है, यहीं कहीं बैठकर लंच किया गया। होटलों की तारीफ करता हूं मैं यहां, क्योंकि मैंने आज तक हरिद्वार रोड और चण्डीगढ रोड के होटल व ढाबे ही देखे थे। यहां खाने की क्वालिटी तो जानदार है ही, लगता है कि होटल वालों को जमीन थोक में मिली है।
दूदू में ही घोषित हो गया कि किशनगढ से आगे नहीं जाना है। किशनगढ अभी भी करीब 40 किलोमीटर और है। मैं साढे बारह किलोमीटर प्रति घण्टे की स्पीड से साइकिल चला रहा था। इसी स्पीड में बार-बार रुकना और चाय-लंच करना भी शामिल था।
दिल्ली से चलते समय मैंने साइकिल में कैरियर लगवाया था। पीछे वाले पहिये में एक तरफ गियर असेम्बली है और दूसरी तरफ डिस्क ब्रेक, तो कैरियर लगाने के लिये बिल्कुल भी फालतू जगह नहीं थी। साइकिल का ऑरिजिनल डिटैचेबल एक्सेल निकालकर उसकी जगह दूसरा एक्सेल डाला गया, जो पहले वाले से ज्यादा लम्बा था। इसके बावजूद भी एक्सेल पर कैरियर लगाने की जगह नहीं बनी। लेकिन कैरियर लगाना जरूरी था। साइकिल वाले ने हाथ खडे कर दिये कि असम्भव। लेकिन यहां भी मैकेनिकल इंजीनियर हैं, उसके साथ खुद लगकर ‘इंजीनियरिंग’ की, तब जाकर कैरियर लग पाया। लेकिन इस पर कोई आदमी नहीं बैठाया जा सकता, केवल थोडा बहुत सामान ही रखा जा सकता है।
इसका एक नुकसान और हुआ कि कैरियर की ब्रेक की तरफ वाली डण्डी ने ब्रेक पर अनावश्यक दबाव देना शुरू कर दिया, जिससे ब्रेक का सन्तुलन बिगड गया। हालांकि इसके लिये भी जी-तोड ‘इंजीनियरिंग’ की गई, लेकिन पूरी तरह यह समस्या खत्म नहीं हुई। नतीजा? पिछला ब्रेक हर समय मामूली सा लगा रहने लगा। यह इतना मामूली था कि ना के बराबर समझा जाये।
जयपुर से अजमेर जाते हैं तो देखने में तो सडक समतल में ही लगती है, लेकिन कुल मिलाकर चढाई है। सडक बिल्कुल समतल दिखाई देती है, लेकिन साइकिल चलाते समय तुरन्त पता चल जाता है कि मामूली सी चढाई है। चूंकि आंखे समतल सडक की सूचना भेज रही थीं, इसलिये दिमाग ने आंखों का पक्ष लिया और निर्देश दे दिया कि ब्रेक गडबड कर रहे हैं। ब्रेक लग रहे हैं, इसलिये साइकिल चलाने में मेहनत ज्यादा लगानी पड रही है। एक जगह साइकिल लिटाकर आधा पौना घण्टा लगाकर पिछले ब्रेक में ‘ठोका-पीटी’ भी की गई।
किशनगढ से दस किलोमीटर पहले पूरी तरह चित्त हो गया। फिर भी किसी तरह अन्धेरा होने तक किशनगढ पहुंच गया। आज पहले ही दिन मामूली चढाई पर 105 किलोमीटर साइकिल चलाई।
दो सौ रुपये में कमरा ले लिया। साइकिल देखते ही होटल वाले को भी हुडक लग गई, बोला कि भाई, मैंने जिन्दगी में कभी गियर वाली साइकिल नहीं चलाई। मैं उसका इशारा समझ गया और बोला कि जा चला ले। साइकिल की बडी तारीफ हुई, जब यह किशनगढ के बाजार में तीव्र चढाई पर आसानी से चढ गई। और उतराई में डिस्क ब्रेक की महिमा का बखान हुआ।

22 नवम्बर 2012
कल से सबक लेकर आज मात्र पुष्कर तक ही जाने का लक्ष्य रखा। यहां से पुष्कर 40 किलोमीटर है। मैंने पुष्कर जाने के लिये अजमेर बाइपास का इस्तेमाल किया, इससे अजमेर शहर में नहीं घुस पाया।
कल की थकान के कारण आज मात्र 40 किलोमीटर ही साइकिल चलाई, अगले दिन तो हाथ भी नहीं लगाया। तीसरे दिन तक यानी 24 नवम्बर तक मैं फिर से लम्बी दूरी के लिये तैयार हो चुका था।
पुष्कर वर्णन पढने के लिये यहां क्लिक करें

अजमेर के रास्ते में



सडक पर पानी नहीं बिखरा है, बल्कि यह मृगमरीचिका है।

अजमेर बाइपास

अजमेर बाइपास

पुष्कर की ओर

पुष्कर की ओर

पुष्कर की ओर

View Larger Map



24 नवम्बर 2012
कल जब मैं पुष्कर में सोने की तैयारी कर रहा था, तो सोच रखा था कि अगले दिन यानी आज चित्तौडगढ की तरफ निकलूंगा। रात भीलवाडा में गुजारूंगा। तभी डॉ करण का फोन आया। मेरी योजना पता चलते ही उन्होंने मुझे धिक्कारा। बोले कि साइकिल होते हुए भी तू हाइवे पर यात्रा कर रहा है। तेरे पास अपनी सवारी है, इसका इस्तेमाल उन जगहों के लिये कर, जहां तू बिना इसके नहीं जा सकता था। गांवों और स्थानीय रास्तों पर निकल। बात मुझे जंच गई।
आज साम्भर लेक की तरफ मुंह उठ गया। पहले तो उसी रास्ते पर 15 किलोमीटर वापस चला, जिससे परसों आया था। अजमेर इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के तिराहे से अजमेर की तरफ मुडने के बजाय दूसरी तरफ मुड गया। यह मुख्य जिला रोड नम्बर 85 है, जो रूपनगढ जाती है। सिंगल रोड, दोनों तरफ रेत और यदा-कदा आते वाहन। अब लगने लगा कि राजस्थान में हूं।
34 किलोमीटर बाद एक गांव आया, नाम ध्यान नहीं। यहां से यह जिला सडक कुछ घूमकर सलेमाबाद जाती है, जबकि एक ग्रामीण सडक सीधी भी जाती है। मैंने ग्रामीण सडक से चलना तय किया।
यह ग्रामीण सडक बिल्कुल पतली सी और दोनों तरफ बबूल के कांटेदार पेड। करीब दो किलोमीटर चलने के बाद एक गांव आया। सडक के किनारे ही एक प्राइमरी स्कूल था, जिसमें बच्चे पढ रहे थे। स्कूल के सामने नल था। पानी पीने मैं रुका, तो एक ग्रामीण ने पूछना शुरू कर दिया। वाहवाही भी बढिया मिली।
चूंकि यह पतली सी और रेत से घिरी सडक थी, इसलिये कहीं कहीं सडक पर भी रेत फैल गई थी। ग्रामीण सडक होने के कारण मोड भी काफी थे। इसी तरह के एक मोड पर मैं मुडना भूल गया और सीधा चलता चला गया। थोडी दूर जाकर शक हुआ कि कुछ गडबड हो गई है। खालिस रेत और उस पर ऊंटगाडी के पहियों के निशान। रेत में साइकिल ने चलने से मना कर दिया। नीचे उतरकर पैदल चलना पडा। दिशा का कुछ नहीं पता था कि किस दिशा में जाना है और किस दिशा में जा रहा हूं।
जब शक की चरम स्थिति हो गई तो मोबाइल निकालकर अपनी लोकेशन देखी, तो होश उड गये। मुझे उत्तर-पूर्व में जाना था और मैं दक्षिण में जा रहा हूं। बिल्कुल विपरीत। हालांकि इसमें घबराने की कोई बात नहीं थी क्योंकि दक्षिण में कुछ किलोमीटर और चलने के बाद मैं उसी जिला सडक पर पहुंच जाता, लेकिन खालिस रेत में साइकिल चलाना बडा श्रमसाध्य और समयसाध्य कार्य है। दूसरी बात कि अब मुझे कम से कम 10 किलोमीटर अतिरिक्त चलना पडेगा। इसका असर यात्रा के आखिर में पडेगा, जब मुझे अन्धेरे में चलना होगा। मैं कभी भी दिन छिपने के बाद नहीं चलना चाहता।


रूपनगढ की ओर


रास्ता भटकने से पहले

रास्ता भटकने के बाद

View Larger Map
ऊपर वाले नक्शे में B वह स्थान है, जहां से मैं रास्ता भटक गया। जूम करके इसे और गौर से देखा जा सकता है। B के उत्तर पूर्व में MDR 85 पर एक गांव है सलेमाबाद। जबकि सीधे नीचे दक्षिण में MDR 85 पर ही कोई दूसरा गांव है। मैं रास्ता भटका और सलेमाबाद पहुंचने की बजाय दक्षिण की ओर बढ गया। नीचे वाले चित्र में यही दिखाया गया है। B से गलत रास्ता नीचे की ओर चलता है। एक सूखी नदी को पार करते ही रेत और ज्यादा बढ जाती है। यहीं मुझे शक हुआ था। लेकिन वापस लौटने की बजाय मैंने सीधे दक्षिण की ओर चलना ही पसन्द किया।




View Larger Map

खैर, आज देव उठनी एकादशी थी। जहां दोबारा जिला सडक पर पहुंचा तो उसी गांव में एक बारात भी आई हुई थी।
मैं पूरी तरह गूगल मैप पर आश्रित होकर चल रहा था। इसमें रूपनगढ के स्थान पर रूपनगर लिखा हुआ था। मैंने एक लडके से रूपनगर के बारे में पूछा, तो उसने मना कर दिया कि यहां कोई रूपनगर नहीं है। आखिरकार जब पूछा कि यह सडक कहां जा रही है, तो बोला कि रूपनगढ, तब गूगल की गलती का पता चला।
यहां से रूपनगढ बीस किलोमीटर है। रास्ता बहुत अच्छा है, बस रूपनगढ से कुछ पहले दो-तीन किलोमीटर के लिये टूटा हुआ था।
रूपनगढ में किशनगढ से आने वाला स्टेट हाइवे नम्बर सात मिल जाता है। दोपहर बाद तीन बजे मैं रूपनगढ में था।
यहां से साम्भर लेक करीब चालीस किलोमीटर दूर है। अगर मैं जी-तोड मेहनत करके 15 की स्पीड से चलूंगा तो छह बजे तक पहुचूंगा। लेकिन तीन घण्टे तक 15 की स्पीड से चलना काफी मुश्किल है, इसलिये साम्भर लेक पहुंचने में सात साढे सात बजने तय हैं।
रूपनगढ से नरैना वाली जिला सडक पकड ली। बीस किलोमीटर बाद ममाना गांव पहुंचकर जब सांस लेने के लिये रुका तो नक्शा देख बैठा। नक्शे ने बताया कि नरैना जाने की कोई जरुरत नहीं है। एक ग्रामीण सडक सीधे साम्भर लेक जाती है। पांच चार किलोमीटर बच जाये तो क्या हर्ज है? फिर दोपहर पकडी गई ग्रामीण सडक याद आ गई। तब तो उजाला था, अब अगर टंग गया तो भारी मुसीबत हो जायेगी।
एक से पूछा तो पता चला कि वह सदाबहार सडक है। और जब चलना शुरू किया तो वाकई आनन्द आ गया। चूंकि जयपुर से अजमेर की तरफ चढाई है, तो अजमेर से इस तरफ ढलान है, इसलिये साइकिल बडी हल्की दौडी जा रही थी।
जल्दी ही अन्धेरा हो गया, लेकिन सडक पर इतना यकीन था कि कहीं भी गड्ढा नहीं मिला। टॉप गियर में चली इस पर साइकिल।
रास्ते में नलियासर लेक भी मिली। उसे पार करके जब साम्भर लेक पहुंचा, तो काफी थकान चढ चुकी थी। यहां एक धर्मशाला में जगह मिली।
आज करीब 110 किलोमीटर साइकिल चलाई।

25 नवम्बर 2012
आज सुबह उठकर सबसे पहले शाकुम्भरी माता की तरफ चल दिया। यह साम्भर लेक कस्बे से 23 किलोमीटर दूर है। पूरा रास्ता झील के किनारे किनारे होकर जाता है।


View Larger Map
B पर शाकुम्भरी माता मन्दिर है।

दोपहर बाद दो बजे तक शाकुम्भरी माता से वापस साम्भर लेक लौट आया। अब मन में आया कि चलो, जयपुर चलते हैं। यहां से जयपुर करीब 70 किलोमीटर है। 46 किलोमीटर मैं आज अभी तक चल चुका हूं, 70 और जोडने पर 116 किलोमीटर हो जायेगा। रात आठ बजे का लक्ष्य रख लिया। जयपुर में विधान के यहां जाना था। देर-सवेर की कोई चिन्ता नहीं थी।
फुलेरा से निकलते ही सडक पर बबूल की कई टहनियां पडी थीं। उन्हीं में से एक पर साइकिल चढा दी। चढाते ही उसके लम्बे लम्बे कांटे दिख गये। हालांकि साइकिल के टायर काफी मोटे हैं, तो शायद झेल गये होंगे इन कांटों को, इसलिये देखने की जहमत नहीं उठाई। यहीं पर इसमें पंक्चर हो गया। पता चला जोबनेर से पांच किलोमीटर पहले, जब काफी ढलान पर टॉप गियर में भी पर्याप्त स्पीड नहीं मिल पा रही थी। अगला टायर बिल्कुल पिचक गया था। जोबनेर में पंक्चर लगवाया गया।
जोबनेर के बाद बिल्कुल सत्यानाशी सडक मिली। यह हाल कालवन तक रहा। कालवन से आगे सडक फिर से चकाचक आ गई।
बाइपास होते हुए बेनाड रोड पर विधान के घर पहुंचने में साढे आठ बज गये।
पिछले दो दिनों में 200 किलोमीटर से भी ज्यादा साइकिल चलाई गई। जी भरकर थका हुआ था। हालांकि अगले दिन विधान ने मोटरसाइकिल उठा ली और हम भानगढ चले गये।



अजमेर जिला खत्म, अब जयपुर जिला शुरू

साम्भर लेक की ओर



साम्भर लेक से शाकुम्भरी माता की ओर

शाकुम्भरी माता की ओर

View Larger Map

इस यात्रा में कुल 380 किलोमीटर साइकिल चलाई गई।




जयपुर पुष्कर यात्रा
1. और ट्रेन छूट गई
2. पुष्कर
3. पुष्कर- ऊंट नृत्य और सावित्री मन्दिर
4. साम्भर झील और शाकुम्भरी माता
5. भानगढ- एक शापित स्थान
6. नीलकण्ठ महादेव मन्दिर- राजस्थान का खजुराहो
7. टहला बांध और अजबगढ
8. एक साइकिल यात्रा- जयपुर- किशनगढ- पुष्कर- साम्भर- जयपुर

Comments

  1. फोटो सुन्दर है , सायकिल यात्रा में आई कठिनाइयों का रोचक वर्णन !!

    ReplyDelete
  2. आनन्‍द आ गया पढ़कर

    ReplyDelete
  3. जब राह बिगड़े तो भटकना निश्चय है।

    ReplyDelete
  4. बहुत खूब ! यात्रा का आन्नद आ गया ....इस पोस्ट में साईकिल पुराण पसंद आया ...हिरोइन की तरह कभी लेटी हुई ? कभी बैठी हुई ? कभी सुस्ताते हुए ? कभी भागते हुए ? साइकिल हिरोइन ने जमकर काम किया ...

    ReplyDelete
  5. बहुत खूब! अपनी साइकिल यात्रा के किस्से याद आ गये।

    ReplyDelete
  6. मजेदार यात्रा रही. वो जोबनेर से आगे "कालवन" नहीं "कालवाड़" है. अजीब नाम है क्या करें....

    ReplyDelete
  7. हमने किशनगढ़ में खाना खाया था, थोडा तीखा था मगर था बढ़िया, सबसे ज्यादा पसंद आये वहा के पापड़,

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

लद्दाख बाइक यात्रा-5 (पारना-सिंथन टॉप-श्रीनगर)

10 जून 2015 सात बजे सोकर उठे। हम चाहते तो बडी आसानी से गर्म पानी उपलब्ध हो जाता लेकिन हमने नहीं चाहा। नहाने से बच गये। ताजा पानी बेहद ठण्डा था। जहां हमने टैंट लगाया था, वहां बल्ब नहीं जल रहा था। रात पुजारीजी ने बहुत कोशिश कर ली लेकिन सफल नहीं हुए। अब हमने उसे देखा। पाया कि तार बहुत पुराना हो चुका था और एक जगह हमें लगा कि वहां से टूट गया है। वहां एक जोड था और उसे पन्नी से बांधा हुआ था। उसे ठीक करने की जिम्मेदारी मैंने ली। वहीं रखे एक ड्रम पर चढकर तार ठीक किया लेकिन फिर भी बल्ब नहीं जला। बल्ब खराब है- यह सोचकर उसे भी बदला, फिर भी नहीं जला। और गौर की तो पाया कि बल्ब का होल्डर अन्दर से टूटा है। उसे उसी समय बदलना उपयुक्त नहीं लगा और बिजली मरम्मत का काम जैसा था, वैसा ही छोड दिया।