नवम्बर में एक ऐसा अदभुत योग बन रहा था कि मुझे अपने खाते से मात्र दो छुट्टियां खर्च करके उनके बदले में आठ छुट्टियां मिल रही थीं। यह योग बीस से सत्ताईस नवम्बर के बीच था। उधर चार दिसम्बर से बीस दिसम्बर तक सरकारी खर्चे से राजधानी एक्सप्रेस से कर्नाटक की यात्रा भी प्रस्तावित थी। राजधानी से जाने और आने के टिकट बुक हो चुके थे।
मन तो नहीं था नवम्बर में कहीं जाने का लेकिन जब दो के बदले आठ छुट्टियां मिल रही हों तो ऐसा करना पडा। एक साइकिल यात्रा का विचार होने लगा। पिछली नीलकण्ठ वाली साइकिल यात्रा से उत्साहित होकर सोच लिया कि ये आठों दिन साइकिल को ही समर्पित कर देने हैं। इसका दूसरा फायदा है कि सप्ताह भर बाद होने वाली कर्नाटक यात्रा की दिशा तय हो जायेगी- साइकिल ले जानी है या नहीं।
खूब सोच विचार करके भुज जाना पक्का हो गया। कहां ट्रेन से साइकिल लेकर उतरना है, कब कब कहां कहां जाना है, सब सोच लिया गया। एक दिन में 100 किलोमीटर साइकिल चलाने का लक्ष्य रखा गया।
लेकिन भुज जाने में अजमेर आडे आ गया। उन दिनों एक तो पुष्कर में मेला था और दूसरे अजमेर में भी मुसलमानों का कुछ बडा मौका था। तो अजमेर तक तो सीटें मिल रही थीं लेकिन उसके बाद सैंकडों वेटिंग। हां, भुज से वापस आने के लिये आला हजरत ट्रेन में पक्की बर्थ मिल गई।
भुज कैसे जायें? यह प्रश्न एक बडी उलझाऊ पहेली बन गया। सीधे अजमेर वाले रूट से जब हर तरह का जोड-तोड करके देख लिया तो इधर उधर के रूटों पर ताकझांक शुरू हुई। रतलाम-वडोदरा वाला रूट अजमेर का भी गुरू निकला।
जोधपुर से रात ग्यारह बजे के आसपास गांधीधाम के लिये एक ट्रेन चलती है। यह मंगलवार को तो चलती है लेकिन बुधवार को नहीं चलती। उधर दिल्ली से मंगल की सुबह चलकर शाम तक जोधपुर पहुंचना भी दुष्कर हो गया, कोई ट्रेन नहीं।
आखिरकार भुज का मामला रद्द करके कहीं और की सोच हावी होने लगी। उदयपुर की सीट मिल रही थी। भुज से वापसी का आरक्षण हो ही चुका था, सोचा कि उदयपुर से भुज तक जायेंगे साइकिल से। तभी दिखा कि जैसलमेर की सीटें भी हैं। सोचा कि चलो जैसलमेर से भुज चलते हैं। कभी सोचा कि उदयपुर से जैसलमेर तक साइकिल चलाते हैं। आठ दिनों में 800 किलोमीटर साइकिल चलाने का लक्ष्य था- अनुभवहीन सोच।
चलने से दो दिन पहले तक जब कुछ भी तय नहीं हुआ, मैं ऐसे ही ट्रेनों में माथापच्ची कर रहा था। दिल्ली से बीकानेर तक हावडा-जैसलमेर एक्सप्रेस में जाना तय हुआ- जनरल डिब्बे में। बीकानेर से भिलडी तक भी एक ट्रेन दिखी- यह दरअसल एक स्पेशल ट्रेन थी जो श्रीगंगानगर से सूरत तक जाती थी- सूरतगढ, बीकानेर, जोधपुर, समदडी, भिलडी, पालनपुर, अहमदाबाद होते हुए। एक बार फिर से कच्छ का रण देखने की चाहत बलवती हो गई- बीकानेर से भिलडी का आरक्षण करा लिया। भिलडी से ही साइकिल यात्रा तय हो गई- पक्की मोहर लग गई- रोजाना सौ किलोमीटर से भी ज्यादा साइकिल।
कम से कम सामान बैग में रखकर जब नौ बजे कमरे से निकला तो ध्यान आया कि ट्रेन की स्थिति देख ली जाये। यह ट्रेन हावडा से आती है और बीकानेर के रास्ते जैसलमेर जाती है। जैसे ही स्थिति देखी तो तीन घण्टे और मिल गये मुझे। ट्रेन तीन घण्टे लेट थी। यानी अब यह दोपहर एक बजे दिल्ली आयेगी।
बारह बजे दोबारा निकल पडा यह देखकर कि ट्रेन गाजियाबाद से चल चुकी है। शास्त्री पार्क से निकलते ही लोहे के पुल पर भयंकर जाम में फंस गया। साइकिल होने के बावजूद भी फंसा रह गया। पुल पार करने में आधा घण्टा लग गया। पौने एक बजे पुरानी दिल्ली स्टेशन पहुंचा। अब बारी थी साइकिल को लगेज में बुक कराने की। मैं रेलवे की अच्छी खासी जानकारी रखता हूं लेकिन लगेज बुक कराने की कला में शून्य था अब तक।
जैसे ही साइकिल लेकर लगेज वालों के यहां पहुंचा तो सलाह मिलने लगी कि सराय रोहिल्ला जाओ, वहां से बीकानेर की ट्रेन मिलेगी। मैंने जब विश्वास दिलाया कि एक ट्रेन है जो लेट आ रही है, तब जाकर कुछ सकारात्मक रास्ता दिखता हुआ लगने लगा। एक महिला थी लगेज ऑफिस में, उन्होंने कहा कि पहले साइकिल की पैकिंग कराकर लाओ, तभी बुकिंग हो सकती है। पैकिंग कहां कराऊं? सामने सडक पर।
ट्रेन शायद स्टेशन पर आ चुकी थी। घण्टे भर पहले वो गाजियाबाद छोड चुकी थी- जेब में 112 रुपये का टिकट भी पडा था। पैकिंग कराने जब लगेज वालों के यहां से बाहर निकला तो एक अजीब सी सलाह मिली कि साइकिल खुलवा लो, तो यह सस्ते में चली जायेगी नहीं तो पांच सौ रुपये लगेंगे। मैंने कहा कि कोई बात नहीं, लगने दो पांच सौ रुपये, बिना खुले ही पैक कर दो जैसे भी होती हो। बोले कि पैकिंग के डेढ सौ रुपये लगेंगे।
इस तरह साइकिल बुक कराना मेरे लिये बिल्कुल अनपेक्षित था। मैंने सोचा था कि लगेज ऑफिस में जाकर फार्म भरकर निर्धारित पैसे देकर साइकिल को प्लेटफार्म पर ले जाना है। असल में यहां बाहरी तत्वों की ज्यादा घुसपैठ है क्योंकि साइकिल को ले जाने का खर्चा मुझे रेलवे वालों ने नहीं बल्कि बाहरी तत्वों ने ही बताया। अब बुकिंग का कोई फायदा नहीं दिख रहा था। इसलिये सबसे पहले यहां से पिण्ड छुटाकर टिकट रद्द कराया।
इससे एक सबक मिला कि अगर कोई भी सामान बुक कराना हो कम से कम एक घण्टे पहले स्टेशन पहुंचो, सामान की खुद पैकिंग कर सको तो और भी अच्छा। लेकिन साइकिल की खुद पैकिंग कैसे हो सकती है। शायद सीट पर सफेद कपडा बांध देने से काम चल जायेगा, अगली बार आजमाकर देखूंगा इसे।
भुज यात्रा धरी रह गई।
अब कहां?
चलो, काले खां चलते हैं, वहां से जो भी पहली बस दिखेगी, उसी पर साइकिल चढा दूंगा।
कोई ‘अच्छी’ बस नहीं दिखी। ज्यादातर बसें आगरा मथुरा की थी, वहां जाने का मन नहीं था।
झख मारकर बाहर फ्लाईओवर के नीचे पहुंचा जहां से जयपुर जाने वाली बस पकड ली। रात बारह बजे जयपुर पहुंचा।
इन आठ दिनों के लिये मैंने कई योजनाएं बनाई थीं। सभी में जयपुर नदारद था- भुज, उदयपुर, जैसलमेर ही मुख्य केन्द्र थे।
बस अड्डे के पास एक कमरा ले लिया। रात के अन्धेरे में साइकिल चलाने का बिल्कुल भी मन नहीं है। कमरे में बैठा बैठा सोच रहा हूं कि सुबह कहां के लिये निकलूंगा।
घुमक्कड होने का एक नुकसान यह है कि घुमक्कड जानता है कि अभी तक कितनी दुनिया नहीं देखी है। जयपुर में हूं तो चारों तरफ एक अनजान दुनिया दिखाई पड रही है- शेखावाटी, अलवर, भरतपुर, हाडौती, अजमेर, उदयपुर, जोधपुर...। एक के बारे में सोचता हूं तो दूसरा ज्यादा आकर्षित दिखाई पड रहा है, दूसरे के बारे में सोचता हूं तो तीसरा और भी ज्यादा। पता नहीं कल क्या होगा?
अगला भाग: पुष्कर
अगला भाग: पुष्कर
जयपुर पुष्कर यात्रा
1. और ट्रेन छूट गई
2. पुष्कर
3. पुष्कर- ऊंट नृत्य और सावित्री मन्दिर
4. साम्भर झील और शाकुम्भरी माता
5. भानगढ- एक शापित स्थान
6. नीलकण्ठ महादेव मन्दिर- राजस्थान का खजुराहो
7. टहला बांध और अजबगढ
8. एक साइकिल यात्रा- जयपुर- किशनगढ- पुष्कर- साम्भर- जयपुर
बडी हिम्म्त है नीरज जी आपकी.... मैं तो बिना रिजर्वेशन के बिल्कुल ना हिलुं.... और रोडवेज में सफर करने की तो तौबा कर रखी है.....
ReplyDeleteहमने भी पहली बार यात्रा वर्णन लिखने की कोशिश की :)
ReplyDeleteभानगढ़ यात्रा : सच का सामना
ट्रेन छूट गयी तो क्या हुआ घूमने जाना हैं तो जाना हैं.चाहे कैसे भी जाए........यही सच्ची घुमक्कड़ी ! अच्छा लेख नीरज जी....फोटो नहीं लगाए?
ReplyDeleteझाँसी बाँदा मार्ग में देखिये कि साइकिल कैसे बाँधी जाती है..
ReplyDeleteभाई वाह 😲 काफी ऊधेडबीन ।
ReplyDelete