इस यात्रा पर जाने से पहले दिमाग में क्या-क्या खुराफात आई थी, पढने के लिये
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17 फरवरी, 2012 की सुबह छह बजे हमेशा की तरह मेरी नाइट ड्यूटी खत्म हुई, तो मैंने निजामुद्दीन की तरफ दौड लगा दी। कश्मीरी गेट से मैं सराय काले खां की बस पकडता हूं, दस रुपये लगते हैं, बीस पच्चीस मिनट भी। कश्मीरी गेट से काले खां तक कोई रेड लाइट भी नहीं है, भला हो कॉमनवेल्थ खेलों का। कुल मिलाकर बात ये है कि सवा सात बजे तक मैं निजामुदीन स्टेशन पर पहुंच चुका था। गोल्डन टेम्पल मेल प्लेटफार्म पर आ चुकी थी। रात भर का जगा हुआ, गाडी चली और मैं पडकर सो गया।
कोटा से निकलकर आंख खुली, फिर भी चलते रहे, चलते रहे। आखिरकार अंधेरा होने तक रतलाम पहुंच गये। यहां मुझे उतर जाना था ही। चलने से पहले मैंने अपना यह कार्यक्रम अपने ब्लॉग पर सार्वजनिक कर दिया था। इसी का नतीजा था कि मेरे रतलाम पहुंचने से पहले ही रतलाम में रहने वाली ब्लॉगर
लक्ष्मी परमार जी का फोन आ गया कि तुम तीन घण्टे तक रतलाम में रहोगे, हमारा घर स्टेशन के पास ही है, चले आना। तो जी, स्टेशन पर उतरकर मुझे उनके घर तक जाने में ज्यादा टाइम नहीं लगा।
रात साढे दस बजे रतलाम से अकोला पैसेंजर चलती है। यह मीटर गेज की ट्रेन है। रतलाम से अकोला करीब साढे चार सौ किलोमीटर दूर है और इसमें 18 घण्टे के करीब लगते हैं। मैंने इसमें पहले से रिजर्वेशन करा रखा था। इसमें तीन डिब्बे होते हैं स्लीपर के। मैंने एक बार पहले दिन में रतलाम से इन्दौर होते हुए खण्डवा तक यात्रा कर रखी थी। इस यात्रा में पडने वाले सबसे रोमांचक खण्ड
कालाकुण्ड-पातालपानी के बारे में मैं पहले भी लिख चुका हूं। चूंकि पहले मैंने रतलाम से खण्डवा तक दिन में सफर किया था तो इस बार रात में सफर करने का कोई नुकसान भी नहीं था। सुबह छह बजे के करीब यह ट्रेन खण्डवा पहुंच जाती है। खण्डवा से अकोला वाला सेक्शन देखना मेरा मुख्य लक्ष्य था। इसका अकोला पहुंचने का टाइम था शाम चार बजे।
मैंने पहली बार मीटर गेज की ट्रेन के स्लीपर डिब्बे में रिजर्वेशन कराया था। हालांकि पहले भी एक बार इन्दौर से ओंकारेश्वर रोड तक इसी ट्रेन से यात्रा की थी, टीटी को पचास रुपये देकर एक स्लीपर ले ली थी, तीन साढे तीन घण्टे की यात्रा थी वो। बडी लाइन की ट्रेन में मैं हमेशा ऊपरी बर्थ को प्राथमिकता देता हूं, रिजर्वेशन कराते समय ही कह देता हूं कि अगर ऊपरी बर्थ हो तो दे देना, मिल जाती है। उसी की देखा देखी यहां भी मैंने ऊपरी बर्थ की मांग की और मिल गई। लेकिन मेरा यह फैसला गलत साबित हुआ। मीटर गेज में ऊपरी बर्थ का मतलब है दो फीट चौडे पाइप में सोना। इस पर बैठ ही नहीं सकते। इसमें लेटा ही जा सकता है और लेटकर ही घुसना पडता है। अगर आपने करवट ले ली तो आपका ऊपर वाला कंधा ट्रेन की छत से टकराएगा। सीधे पडे हैं तो पेट से मात्र पांच छह इंच ऊपर छत रहेगी। चादर ओढनी है तो महान कसरत का काम है। बिना हिले डुले ही ओढनी पडती है। तो जी, ऐसी परिस्थिति में मैंने रतलाम से खण्डवा तक की यात्रा की।
खण्डवा पहुंचकर डिब्बा खाली हो गया। गिनी चुनी सवारियां ही थीं। जबकि जनरल डिब्बे में भीड थी। अब मेरा काम शुरू होता है- भारत के एक नये रूट पर घूमने का। खण्डवा में पहले से ही बडी लाइन भी है- मुम्बई-इटारसी वाली। छोटी लाइन इसे काटती है। बडी लाइन भयंकर ट्रैफिक वाली है, इसलिये छोटी लाइन के लिये पुल बनाया हुआ है। छोटी लाइन बडी वाली के ऊपर से निकल जाती है।
एक अंग्रेजी फिल्म देखी थी। हिन्दी अनुवाद देखा था, शायद चार भागों में थी। उसमें एक शैतानी अंगूठी की कहानी है कि किस तरह वो अपने धारक को अपने प्रभाव में लेती है। और एक दिन उसे एक ऐसा धारक मिला जो उसे नष्ट करने चला। उस अंगूठी पर पहले से ही कुछ दूसरे भयानक शक्तियों वाले राजाओं की नजर थी। उन्हीं राजाओं में एक था मोर्डार (Mordar) का राजा। खण्डवा से निकलते ही मोर्डार याद आ गया। मोरदड (Mordar) के नाम से एक स्टेशन था।
फिर तो चलते रहे जीरवन, टाकल, गुडी, आमला खुर्द। आमला के नाम से एक स्टेशन और भी है- आमला जंक्शन जो इटारसी-नागपुर के बीच में पडता है। आमला जंक्शन से एक लाइन
छिंदवाडा जाती है। इसी से मिलता-जुलता एक नाम और याद आ रहा है- आंवला। यह बरेली-अलीगढ लाइन पर बरेली-चन्दौसी के बीच में है।
इसके बाद रत्नापुर और तुकईथड। तुकईथड में अब तक की सबसे ज्यादा भीड मिली। चूंकि मैं स्लीपर डिब्बे में था, इसलिये कोई फालतू सवारी नहीं आई। तुकईथड से मेरे साथ एक दम्पति और आ बैठे। उन्हें भी अकोला जाना था, जनरल टिकट धारक थे, टीटी से कहा तो स्लीपर का टिकट भी बन गया। तुकईथड के बाद आते हैं डाबका और धूलघाट।
धूलघाट से निकलकर इस सेक्शन का सबसे रोमांचक क्षण आता है। एक ऐसा पुल आता है जब ट्रेन अपने ही ऊपर से गुजरती है। इसका मतलब यह नहीं है कि पांच डिब्बे नीचे और पांच ऊपर हो गये होंगे। यहां एक स्पाइरल बैण्ड है। यानी ट्रेन काफी बडा चक्कर काटकर आती है और एक जगह ऐसे पुल से गुजरती है जिसके नीचे से वो अभी थोडी देर पहले निकली थी। अभी भी बात पल्ले ना पडी हो तो नीचे फोटू हैं, देख लेना। ऐसा स्पाइरल भारत में शायद ही मिले। यहां छोटी छोटी पहाडियां हैं, कम जगह में ऊंचाई बढाने के लिये ऐसा किया गया होगा। इसके बाद स्टेशन आता है वान रोड। यहां पांच रुपये के दस बारह सन्तरे मिलते रहते हैं। मैंने भी पांच रुपये के दस सन्तरे लिये थे और बहुत दूर तक खाता गया था। पांच रुपये में आता ही क्या है। हमारे यहां तो दस रुपये के पांच सन्तरे भी मिल जाये तो चुपचाप खा लेने पडते हैं कि गलती से तो नहीं दे दिये।
अच्छा हां, ट्रेन धूलघाट से पहले ही मध्य प्रदेश छोडकर महाराष्ट्र में प्रवेश कर जाती है। मध्य प्रदेश से महाराष्ट्र में जाने के लिये कुल मिलाकर पांच रेलमार्ग हैं जिनमें से तीन बडी लाइन, एक नैरो गेज और एक मीटर गेज हैं। बडी लाइन हैं इटारसी-नागपुर, इटारसी-खण्डवा-भुसावल और बालाघाट-गोंदिया। नैरो गेज है छिंदवाडा-नागपुर और मीटर गेज तो यही है खण्डवा-अकोला। इनमें से मैंने छिंदवाडा-नागपुर को छोडकर सभी पर यात्रा कर रखी है। एक अजीब बात और देखने को मिलती है कि जब हम किसी पैसेंजर ट्रेन से यात्रा कर रहे होते हैं और गाडी एक राज्य से दूसरे राज्य में प्रवेश करती है तो गाडी के अन्दर का माहौल भी बडी शालीनता से बदल जाता है। भाषा बदल जाती है, पहनावा बदल जाता है। एक बार मैं रेवाडी से बठिण्डा वाली लाइन पर था तो सिरसा से काफी भीड हो गई। यहां तक तो ठीक था, हरियाणवी भाषा बोली जा रही थी। जैसे ही गाडी ने हरियाणा छोडकर पंजाब की सीमा में प्रवेश किया, तो ज्यादा भीड इधर उधर नहीं हुई लेकिन फिर भी गाडी में पंजाबी भाषा छा गई। एक्सप्रेस ट्रेनों में ऐसा देखने को नहीं मिलता।
वान रोड के बाद हिवरखेड, अडगांव बुजुर्ग के बाद है आकोट। आकोट अकोला जिले में ही है। यहा से भयंकर भीड चढी, यहां तक कि छत पर भी लेकिन अपन तो स्लीपर में बैठे थे, कोई असर नहीं पडा। आकोट के बाद भी हालांकि पतसुल, गांधी स्मारक रोड और उगवे नामक स्टेशन पडते हैं लेकिन गाडी यहां नहीं रुकती। गांधी स्मारक रोड तो अब बन्द हो चुका है। मात्र नाम प्लेट और झाडियों से ढका प्लेटफार्म ही दिखता है। उगवे के बाद अकोला जंक्शन आ जाता है। अकोला नागपुर-भुसावल या कहिये कि नागपुर-मुम्बई में बीच में एक मुख्य स्टेशन है। अकोला जिला मुख्यालय भी है। यहां से एक चौथी लाइन पूर्णा भी जाती है। पूर्णा मनमाड-नान्देड लाइन पर पडता है।
किसी जमाने में अकोला सीधे मीटर गेज से दिल्ली, जयपुर, अजमेर, चित्तौडगढ, नान्देड, सिकन्दराबाद और यहां तक कि चेन्नई, रामेश्वरम तक से जुडा हुआ था। इस पूरे मार्ग को बडी लाइन में बदल दिया गया है, बस रतलाम-अकोला ही बचा हुआ है। यह भी खत्म हो जायेगा किसी दिन।
अकोला पहुंचकर मेरे कान में ऐसी आवाज पडी कि मैं जाना तो नागपुर चाह रहा था और चला गया भुसावल- यात्रीगण कृपया ध्यान दें... अमरावती से चलकर भुसावल को जाने वाली गाडी संख्या फलाना फलाना अमरावती भुसावल पैसेंजर थोडी ही देर में प्लेटफार्म संख्या एक पर आने वाली है। यानी यह गाडी लेट चल रही है। फिर तो भुसावल का टिकट लिया और अकोला-भुसावल सेक्शन को भी अपने
नक्शे में अपडेट कर दिया।
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खण्डवा से निकलते ही |
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खण्डवा से निकलकर ऊपर से मीटर गेज और नीचे से बडी लाइन का पुल है। |
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मोरदड स्टेशन |
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खेतों में काम करने के लिये सुबह का टाइम सर्वोत्तम है। |
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मीटर गेज लाइन और मध्य प्रदेश के खेत |
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गुडी रेलवे स्टेशन |
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घुमक्कडी जिन्दाबाद |
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रत्नापुर स्टेशन |
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ताप्ती नदी- मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र की सीमा रेखा |
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तुकईथड स्टेशन |
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मीटर गेज ट्रेन भारत में जल्द ही इतिहास बनने वाली है} |
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मीटर गेज लाइन |
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धूलघाट स्टेशन |
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एक पुल दिख रहा है ना? थोडी देर बाद यही ट्रेन घूमकर उसी पुल से होकर गुजरेगी। |
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ट्रेन ने घूमना शुरू कर दिया है। |
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स्पाइरल पुल |
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ऊपर से गुजरते हुए नीचे वाली लाइन दिख रही है। थोडी देर पहले ट्रेन वहीं से निकली थी। |
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वान रोड स्टेशन |
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आकोट स्टेशन का मुत्री घर। इसे शौचालय भी कहते हैं। मैंने जबलपुर की तरफ संडास लिखा हुआ भी देखा है। |
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मीटर गेज का इंजन। इस पर YDM4 लिखा है ना। इसमें Y का मतलब है मीटर गेज, D का मतलब है डीजल इंजन और M का मतलब है मिक्स यानी मालगाडी और सवारी गाडी दोनों को खींचने के लिये। |
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गांधी स्मारक स्टेशन। इस पर आजकल कोई ट्रेन नहीं रुकती। |
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और आखिर में अकोला स्टेशन। |
मुम्बई यात्रा श्रंखला
1. मुम्बई यात्रा की तैयारी
2. रतलाम - अकोला मीटर गेज रेल यात्रा
3. मुम्बई- गेटवे ऑफ इण्डिया और एलीफेण्टा गुफाएं
4. मुम्बई यात्रा और कुछ संस्मरण
5. मुम्बई से भुसावल पैसेंजर ट्रेन यात्रा
6. भुसावल से इटारसी पैसेंजर ट्रेन यात्रा
घूम ले भाई घूम ले ट्रेन में भी अलग मजा है घूमने का,
ReplyDeleteनीरज जी , कहीं आपने लार्ड आफ द रिंग्स तो नही देखी ? और नीरज जी हाथ जोडकर रिक्वेस्ट लोगो की प्राइवेसी रहने दो ? ऐसे ऐसे फोटो खीचोंगे तो क्या होगा
ReplyDeleteजय हो घुमक्कड़ी। कोटा निकल गया सोते सोते।
ReplyDeleteहां हा, लॉर्ड ऑफ द रिंग्स ही थी। और रही बात प्राइवेसी की तो मेरे क्या हाथ में है ऐसे फोटो खींचना।
ReplyDeleteमेरे एक दोस्त कहा करते थे मेरे शुरूआती दिनों में कि नीरज, तेरे खींचे फोटुओं में जान नहीं होती। तो त्यागी जी, मैं कभी कभी ‘जान’ डाल देता हूं ऐसे फोटू खींचकर। जान मतलब जीव जन्तु।
चलो जी, ऐसे ही घुमाते रहो हमें.
ReplyDelete’जान’ वाले फोटो में ऑब्जेक्ट को साईड कर दिया गया है। यानि फोटो की जान को बीच में रखते :)
ReplyDeleteअन्तर साहब, मैंने उसे साइड नहीं किया है। वो पहले से ही हटकर साइड में बैठा है। मेरी गलती कोनी।
ReplyDeleteनीरज भाई,
ReplyDeleteआखिर घुम ही लिए रतलाम से अकोला. भाई हमारा तो ये सफ़र बड़ा दुखदाई था, लेकिन आपने एन्जॉय किया ख़ुशी की बात है. इस पोस्ट में बड़ी अपनेपन वाली बात लगी, हमारे एरिये की जो थी.
ऐसे ही घूमते रहिये और घुमाते रहिये.
धन्यवाद.
behad umda post
ReplyDeleteखण्डवा से निकलते ही भारतपर्व शुरू हो गया
ReplyDeleteआपके बहाने हम भी सारे स्थान देख लेते हैं।
ReplyDeleteआपने जो स्पाइरल पुल की चर्चा की है वैसा पुल कुछ समय पूर्व तक रतलाम में भी था पर रतलाम चित्तोड़ रेलखंड के broad-gaze होने के बाद ख़त्म कर दिया गया.
ReplyDeleteHi like ur blog very much... I too wish to travel like u
ReplyDeleteHI HOW R U? I Also like ur journey... may i know i go DHULKHAAT by train from AKOLA staion??
ReplyDeletesorry..... may i know how can i go to DHULGHAAT??? from AKOLA Station ?
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