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20 फरवरी 2012 की सुबह साढे पांच बजे मुम्बई सीएसटी से भुसावल पैसेंजर चलती है। मैंने कल रात पांच बजे का अलार्म लगाया था और वही कसाब की कार्यस्थली जनरल क्लास वेटिंग रूम में सो गया था। सुबह सवेरे अच्छी खासी ठण्ड थी और नींद भी बढिया आ रही थी लेकिन उठना तो था ही। अब बारी आई टिकट लेने की। मैं लग लिया एक लाइन में। अच्छा हां, उठकर पता चला कि ट्रेन साढे पांच ना होकर पांच बीस की है। अब मेरे सामने और ज्यादा मुसीबत आ गई टिकट लेने की। तो जी, जिस लाइन में लगा हुआ था वो लोकल की लाइन थी। काफी लम्बी थी, लेकिन जल्दी ही नम्बर आ गया। लोकल वाली लाइन पर केवल लोकल ट्रेन के रूट की ही टिकट मिलती हैं। भुसावल लोकल के रूट पर नहीं है, इसलिये मुझसे कह दिया गया कि उधर जाओ, वहां से मिलेंगी टिकट। मैं फिर दूसरी तरफ गया, दोबारा लाइन में लगा, लेकिन दुर्योग की बात कि वह भी लोकल की ही लाइन थी। फिर से तीसरी बार लाइन बदलनी पडी। तब जाकर गाडी चलने से मात्र कुछ मिनट पहले टिकट मिल सका।
मुझे मुम्बई की इस बात ने बहुत प्रभावित किया। पूरे भारत में कहीं भी चले जाओ, आपके सामने अगर लाइन में दस आदमी खडे हैं, तो आपका नम्बर आने में दस मिनट लगने ही लगने हैं। यहां टिकट क्लर्क का एक हाथ कम्प्यूटर पर टाइपिंग में चलता है, तो इतनी देर में दूसरा हाथ यात्री से पैसे लेकर छुट्टे पैसे लौटा देता है। बाकी जगह उल्टा है। क्लर्क पहले तो यात्री से दो बार पूछेगा कि हां, कहां जाना है। फिर पैसों के मामले में जो खलबली मचती है, वो जगजाहिर है।
खैर, अन्धेरा था इतनी सुबह। अपनी भुसावल पैसेंजर खाली पडी थी। मजे से एक घण्टे बाद यानी साढे छह बजे का अलार्म लगाया और फिर सो गया। साढे छह बजे यह ट्रेन कल्याण पहुंचती है और उजाला भी होने लगता है। कल्याण जाकर वडापाव खाया। मुम्बई से भुसावल तक वडापाव की ही धूम है। दस रुपये में बढिया लगता है।
कल्याण एक जंक्शन स्टेशन है। यहां से एक लाइन पुणे चली जाती है। जाती तो मडगांव की तरफ भी है, लेकिन उस लाइन का रूट मुझे अभी तक क्लियर नहीं हुआ है। उधर जाने वाली ट्रेनें शायद कल्याण नहीं जातीं। ठाणे के बाद अलग लाइन पकड लेती हैं। एक लाइन पश्चिम रेलवे के वसई रोड स्टेशन से भी आती है और इस मध्य रेलवे के दिवा स्टेशन पर जंक्शन बनाती हुई नीचे मडगांव की तरफ निकल जाती है। पनवेल इसी मडगांव वाली लाइन पर पडता है। मडगांव वाली लाइन रोहा के बाद मंगलौर तक कोंकण रेलवे कहलाती है। जाना है मुझे इस कोंकण रेलवे पर किसी दिन।
कल्याण से अगला स्टेशन है शहद। मैं यहां आकर धर्मसंकट में फंस गया कि इसे शहड लिखूं या शहद। आखिरकार फैसला हुआ कि इसे शहद लिखा जायेगा। भारत में स्टेशनों के नाम तीन भाषाओं में लिखे जाते हैं- हिन्दी, अंग्रेजी और स्थानीय भाषा। जिन राज्यों में हिन्दी ही स्थानीय भाषा है वहां दो ही भाषाएं लिखी जाती हैं। उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड और बिहार में हिन्दी-इंग्लिश के साथ साथ उर्दू भी लिखी जाती है। इधर मैं अपने रिकार्ड में केवल हिन्दी ही लिखता हूं। स्टेशन का नाम हिन्दी में क्या लिखा हुआ है, अपने रिकार्ड में मैं केवल वही नाम लिखता हूं। मराठी भाषा की लिपि भले ही देवनागरी हो लेकिन भाषा हिन्दी से काफी अलग है। उस स्टेशन का नाम मराठी में शहड लिखा है जबकि हिन्दी में शहद। इसलिये इसे मैंने शहद लिखा।
सुना है कि पहले कभी मराठी भाषा गुजराती लिपि में लिखी जाती थी, लेकिन बाद में पता नहीं किसके प्रयासों से देवनागरी अपनाई गई। आज स्टेशन का जो नाम बोर्ड होता है, उस पर सबसे ऊपर सबसे बडे अक्षरों में स्थानीय भाषा में लिखा होता है, उसके नीचे वाली लाइन में अपेक्षाकृत छोटे अक्षरों में हिन्दी और अंग्रेजी में होता है। अंग्रेजों के शासनकाल में अंग्रेजी मुख्य थी, बाकी भाषाएं गौण। इसका सबूत है आज भी लगे हुए अंग्रेजी काल के कंक्रीट के बने हुए बडे बडे बोर्ड। उस पर शुरू से ही कास्टिंग की होती थी स्टेशनों के नाम की। बाद में भले ही उन्हें पीले रंग से पोत कर काले रंग से नाम लिख दिये गये हों, लेकिन कास्टिंग को मिटाना आसान नहीं होता। देखना अपने यहां भी किसी दिन अगर कंक्रीट की कास्टिंग मिल जाये तो।
शहद के बाद आंबिवली, टिटवाला, खडवली, वासिंद, आसनगांव, आटगांव, खर्डी और कसारा। कसारा में मुम्बई लोकल का नेटवर्क खत्म हो जाता है। आसनगांव में एक कसारा लोकल भुसावल पैसेंजर को पीछे छोडकर आगे निकल गई। जब पैसेंजर लेट चलेगी तो ऐसा ही होगा। लोकल अपनी समय की पाबन्दी के लिये जानी जाती है। अब समुद्र तल से ऊंचाई भी तेजी से बढने लगी थी। वासिंद में जहां ऊंचाई 29.52 मीटर थी, वही आटगांव में 174 मीटर, खर्डी में 238.52 मीटर और कसारा में 308.42 मीटर हो गई। मैं पहले से ही सोच रहा था कि कसारा तक ही लोकल क्यों चलती है। हर चीज का कोई कारण होता है। इसका भी कारण होगा। मेरे दिमाग ने सोचा कि कसारा से आगे घाट शुरू हो जाता है, इसलिये इससे आगे लोकल नहीं चलती। ऐसा नहीं है कि घाट में लोकल नहीं चल सकती। घाट सेक्शन में ज्यादा ट्रैफिक करना भी आफत लेना ही है। इसलिये आगे लोकल नहीं चलती। फिर कसारा तक आते आते यह भी नहीं लगता कि हम मुम्बई महानगर की सीमा में हैं। दूर दूर तक कोई बसावट नहीं दिखती, फिर भी लोकल चलती है।
घाट यानी पश्चिमी घाट की पहाडियां। कसारा से इगतपुरी तक ट्रेन को इन्हीं पहाडियों से होकर गुजरना था। अब थोडी देर तक घाट के बारे में चर्चा करते हैं। भारत में पूर्वी समुद्र यानी बंगाल की खाडी और पश्चिमी समुद्र यानी अरब सागर दोनों के समान्तर पहाडियों की लम्बी श्रंखला चली जाती है। इन्हें क्रमशः पूर्वी घाट और पश्चिमी घाट कहते हैं। कन्याकुमारी में ये दोनों घाट मिल जाते हैं। कोंकण और केरल दोनों पश्चिमी घाट में आते हैं। अब मुझे यह समझ नहीं आता कि इन पहाडियों को घाट क्यों कहते हैं। हिन्दी में घाट किसी पनियाली जगह के किनारे को कहा जाता है। लेकिन भारत में जहां जहां भी समुद्र है, वहां हिन्दी नहीं है। हर राज्य की अपनी अलग अलग भाषा है। तो क्या यह घाट शब्द अंग्रेजों की देन है? क्या यहां घाट का अर्थ वही लगना चाहिये जो हिन्दी में होता है- पनियाली जगह का किनारा। यह समुद्री किनारा है, शायद इसीलिये घाट कह देते होंगे।
इसी की देखा देखी अन्य पहाडी जगहों को भी घाट कहा जाने लगा है। मध्य प्रदेश में इन्दौर-खण्डवा मीटर गेज लाइन पर पातालपानी-कालाकुण्ड सेक्शन को भी घाट सेक्शन कहा जाता है, राजस्थान में मावली-मारवाड मीटर गेज लाइन पर खामली घाट से गोरम घाट होते हुए फुलाद तक के सेक्शन को भी घाट सेक्शन कहते हैं। यहां तक कि महाराष्ट्र में अकोला-खण्डवा मीटर गेज लाइन पर एक स्टेशन है- धूलघाट। यहां भी बहुत सी पहाडियां हैं। हद तो एक दिन तब हो गई जब किसी मुम्बई वाले ने इ्ण्डियामाइक पर पूछा कि दिल्ली से धनोल्टी के बीच घाट सेक्शन कितने किलोमीटर का पडता है। यानी ऋषिकेश से चम्बा होते हुए धनोल्टी तक घाट सेक्शन हो गया। यानी फिर तो पूरा हिमालय ही घाट हो गया। घाट पर रिसर्च जरूरी है। मुझे हिमालय को घाट कहा जाना बिल्कुल भी नहीं रुचता।
कसारा से इगतपुरी तक अच्छी खासी पहाडियां हैं। रेलवे लाइन के साथ साथ एक मार्ग भी चलता है। पहले यह राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 3 था जो आगरा से मुम्बई तक जाता था। अब नई प्रणाली में इसका क्या नम्बर हो गया है, ध्यान नहीं। कसारा की समुद्र तल से ऊंचाई 308.42 मीटर है, जबकि इगतपुरी 599.4 मीटर पर है। रास्ते में आधे आधे किलोमीटर की दो सुरंगें भी पडती हैं। डबल लाइन ब्रॉड गेज और फिर विद्युतीकृत, इस घाट सेक्शन में बडी इंजीनियरिंग का काम है। इगतपुरी में ट्रेन आधे घण्टे तक खडी रही। दस रुपये के वडापाव का फिर से कल्याण हो गया।
इगतपुरी से घोटी, पादली, अस्वली, लहाविट, देवलाली और नासिक रोड। नासिक रोड से याद आया कि आज महाशिवरात्रि थी। मुझे उम्मीद थी कि इसी कारण मुम्बई से यहां तक काफी भीड मिलेगी, साथ ही यह भी उम्मीद थी कि नासिक रोड से आगे शायद भीड ना मिले। लेकिन गाडी में भीड मिली ही नहीं, ना नासिक रोड से पहले ना बाद में। नासिक में शिव के दो ज्योतिर्लिंग हैं।
एक दिन पहले तक इस इलाके में गर्मी बहुत थी। लेकिन भला हो पश्चिमी विक्षोभ का कि वो भारत पर बार बार हमले कर रहा है और तापमान बढ ही नहीं रहा, यहां भी गर्मी कुछ कम हो गई थी, इसलिये यात्रा करने में आनन्द आ रहा था। गर्मी होती है तो उतना मजा नहीं आता। दोपहर को नींद भी आ जाती है। आज मार्च की सोलह तारीख है, आज भी मैं दिल्ली में रजाई में बैठा हुआ हूं। वैसे पश्चिमी विक्षोभ भारत के लिये बडे मजे की चीज है। हिमालय पर इसी के कारण बर्फ पडती है। इस बार तो गैर हिमालयी पठानकोट तक में बर्फ पड गई। अब मैं इससे बोर भी हो गया हूं। तीन हीने हो गये मुझे हिमालय की शक्ल देखे हुए। जब तक यह पश्चिमी विक्षोभ रहेगा, तब तक हिमालय पर जाऊंगा भी नहीं।
नासिक रोड से आगे चलते हैं- ओढा, खेरवाडी, कसबे सुकेने, निफाड, उगांव, लासलगांव, समिट और मनमाड जंक्शन। लासलगांव से निकलते ही थम्ब हिल दिखाई देने लगी थी। यह थम्ब हिल मनमाड की पहचान है। मनमाड के आसपास कई अजीब अजीब रूपों वाली पहाडियां है। इनमें से एक पहाडी ऐसी है जैसे किसी ने मुट्ठी बन्द करके अंगूठा ऊपर उठा रखा हो- थम्स अप की तरह। मनमाड से दो लाइनें निकलती हैं- एक जाती है अहमदनगर होते हुए दौंड यानी पुणे और दूसरी जाती है औरंगाबाद, पूर्णा, नान्देड होते हुए सिकन्दराबाद। पहले कभी यह सिकन्दराबाद वाली लाइन मीटर गेज हुआ करती थी। अब पूरी तरह ब्रॉड गेज है।
यहां अंगूर बहुत होते हैं। दिल्ली में मैं शाहदरा के पास रहता हूं। स्टेशन के पास का इलाका सस्ती चीजों के कारण प्रसिद्ध है। जहां बाकी जगह अंगूर साठ और अस्सी रुपये किलो तक हो रहे थे, शाहदरा में चालीस के भाव में मिल रहे थे। जबकि यहां बीस रुपये के किलो मिल रहे थे। काले अंगूर टोकरी में अलग अलग किये हुए बिल्कुल जामुन की तरह लगते हैं। मैंने तो पहले यही सोचा कि यहां फरवरी में जामुन कहां से आ गये? यह तो गर्मियों का फल है। और मराठी भाषा में मेरे पल्ले नहीं पडा कि वो कह क्या रहा है। वो इन्हें द्राक्षे कह रहा था। हो सकता है कि मराठी में जामुन को द्राक्षे कहा जाता हो। लेकिन इस महीने में जामुन मिलने की बात मुझे हजम नहीं हो रही थी। इसलिये मैंने पांच रुपये के द्राक्षे ले लिये। खाकर देखे तब पता चला कि काले अंगूर हैं।
द्राक्षे से एक बात ध्यान आ रही है। पाकिस्तान में एक जगह है स्वात घाटी। आजकल इसका नियन्त्रण पाकिस्तान सरकार के हाथों से निकल चुका है और तालिबान वहां के शासक हैं। स्वात घाटी और अफगानिस्तान का उत्तरी इलाका अंगूरों का गढ है। इस बात को अपने गुरू राहुल सांकृत्यायन कहते हैं। उन्होंने उस इलाके की अच्छी तरह खाक छान रखी है। तब स्वात भारत का हिस्सा हुआ करता था और वहां तालिबान नाम की कोई चीज नहीं थी। उनके अनुसार वहां भी अंगूर को द्राक्षा कहा जाता है। सीधी सी बात है कि इस शब्द की जननी संस्कृत है। इसी कारण आज महाराष्ट के इस हिस्से में द्राक्षे शब्द सुनकर बडी खुशी हुई।
मनमाड से आगे पानेवाडी, हिसवहल, पांझन, नांदगांव, पिंपरखेड, नायडोंगरी, रोहीनी, हीरापुर और चालीसगांव जंक्शन। चालीसगांव से एक बडी लाइन धुले की तरफ चली जाती है। चालीसगांव से धुले के लिये पैसेंजर ट्रेनें चलती हैं। अगर किसी को एलोरा की गुफाएं देखनी हो तो चालीसगांव उपयुक्त स्टेशन है। यहां से आगे वाघली, कजगांव, नगरदेवला, गालन और पाचोरा जंक्शन। पाचोरा से एक नैरो गेज की लाइन जामनेर चली जाती है। पाचोरा से परधाडे, माहेजी, म्हसावद, शिरसौली और जलगांव जंक्शन। जलगांव से एक बडी लाइन नम्दुरबार होते हुए सूरत चली जाती है। अगर अजन्ता की गुफाएं देखनी हों, तो जलगांव से बेहतर कुछ नहीं है।
जलगांव से आगे भादली और भुसावल जंक्शन। यहां से आगे एक लाइन खण्डवा होते हुए इटारसी जाती है दूसरी अकोला, वर्धा होते हुए नागपुर। मुझे आज भुसावल में ही रुकना था। स्टेशन के पास डेढ सौ रुपये का एक कमरा लिया। मैं सो तो स्टेशन पर भी सकता था लेकिन यहां तक आते आते एक तो नहाने की तलब लग गई और दूसरी बात कि मैं आज जी-भरकर सोना चाहता था। दिल्ली से चला था तो नाइट ड्यूटी करके चला था, अगली रात रतलाम से खण्डवा के बीच में मीटर गेज की ट्रेन में काटी, अगली रात भुसावल से मुम्बई के बीच चार घण्टे सोकर काटी और उससे अगली सीएसटी स्टेशन पर। कुल मिलाकर चार रातों से मैं जी भरकर नहीं सो सका था। आज इसी इच्छा से एक कमरा लिया और खूब सोया। सुबह नौ बजे यहां से इटारसी वाली पैसेंजर से इटारसी जाऊंगा। मुम्बई से भुसावल की दूरी 440 किलोमीटर जबकि भुसावल से इटारसी की दूरी 300 किलोमीटर के करीब है।
कसारा स्टेशन |
घाट सेक्शन में सुरंग |
घाट सेक्शन मे सुरंग और साइडिंग |
घाट सेक्शन |
घाट सेक्शन |
इगतपुरी स्टेशन |
इगतपुरी |
वडा पाव और समोसे |
रेलवे लाइन |
रेलवे लाइन |
देवलाली |
नासिक रोड |
सबसे बायें वाली पहाडी थम्ब हिल है। |
थम्ब हिल |
मनमाड |
नायडोंगरी
|
पाचोरा |
एक यात्री |
भुसावल |
मुम्बई यात्रा श्रंखला
1. मुम्बई यात्रा की तैयारी
2. रतलाम - अकोला मीटर गेज रेल यात्रा
3. मुम्बई- गेटवे ऑफ इण्डिया तथा एलीफेण्टा गुफाएं
4. मुम्बई यात्रा और कुछ संस्मरण
5. मुम्बई से भुसावल पैसेंजर ट्रेन यात्रा
6. भुसावल से इटारसी पैसेंजर ट्रेन यात्रा
भटकनों में अर्थ होता है,
ReplyDeleteभटकना कब व्यर्थ होता है?
जो ना भटके,
उन लोगों का जीवन व्यर्थ होता है!!
वाह, आपके बहाने हमारा भी निरीक्षण हो गया।
ReplyDeleteभूसावल स्टेशन के बारे में पढ़ कर याद आया यह शायद भारत के सबसे बड़े जंक्षन्स में से एक है , यहाँ केले भी बड़े अच्छे और मीठे मिलते हैं . नीरज भाई तुम तो रेलवे वाले हो पुराने स्टीम एंजिन और रेलवे रुट बनने के क़िस्से कहानियाँ खूब जानते होगे कभी भारतीय रेल से जुड़ी अनसुनी किस्से कहानियों के बारे में लिखो.
ReplyDeleteरेल पटरियों की इतनी फ़ोटुएं पहली बार देखीं अच्छी लगीं
ReplyDeleteरूमाल बाले यात्री की फ़ोटो देख कर मुझे नागपुर की याद ताज़ा हो आई.
ReplyDeleteभरी गर्मी की एक दुपहरी मैं नागपुर पहुंचा तो मुझे लेने ड्राइवर आया हुआ था. एक दम विनोद खन्ना सा लंगा-मज़बूत, पुलिस वालों की तरह की खाक़ी पैंट सफ़ेद कमीज. वैसे ही छोटे-छोटे बाल कटवा रखे थे उसने. आंखों पर रेबैन के एविएटर मॉडल जैसा गोल्डन फ़्रेम वाला काला चश्मा. उसके गले में "बंटी और बबली" के अमिताभ बच्चन का सा गमछा था, जो उस पर और भी ज़्यादा फ़ब रहा था. उसने मेरे लिए गाड़ी का दरवाज़ा खोला तो मुझे कुछ झिझक भी हुई.
गाड़ी स्टार्ट करने से पहले उसने गमझे को ठीक इसी तरह सिर पर रखा और ठोड़ी के नीचे गांठ लगा ली -"साब इधर में लू बहुत चलता है"
Oh, what an anti climax.
लंगा=लंबा
ReplyDeleteनीरज भाई ....बहुत बढ़िया जानकारी दी आपने मुम्बई से भुसावल पैसेंजर ट्रेन यात्रा की.....
ReplyDeleteजय हो...मुंबई आये और मिले क्या फोन तक नहीं किया...कैसे नीरज हो भाई..
ReplyDeleteनीरज
नीरज जी भूगोल में घाट शब्द अंग्रेजों द्वारा दक्षिण के पठार की विशिष्ट संरचना के लिए प्रयुक्त किया गया है. कोई ऐसी उच्च भूमि जो एक तरफ से प्रखर (scarp) की तरह खड़ी हो एवं दूसरी और से सीढ़ीनुमा उतरती हो (यानी संलग्न पठार हो ). पश्चिमी घाट में आप देखेंगे की गोवा की तरफ ये समुद्र के सामने एक दम से खड़ी पहाड़ियां हैं वहीँ बंगलोर की तरफ स्टेप बाई स्टेप सीढ़ीनुमा ढंग से ये पहाड़ियां उतरती जाती हैं (elevation में कम होती जाती हैं).इसलिए इन्हें घाट कहा गया. आपका कहना उचित है की अब हर पहाड़ी जगह को घाट कह दिया जाता है जो अनुचित है.
ReplyDeleteHi I am pradip gawande aap ka bahut bada fan hu aap bhut acha likhate hai
ReplyDeleteFir kabhi Maharashtra me aaye to jarur milna
Hi I am pradip gawande aap ka bahut bada fan hu aap bhut acha likhate hai
ReplyDeleteFir kabhi Maharashtra me aaye to jarur milna
Hi I am pradip gawande Aap aacha likh te hi
ReplyDeleteFir kabhi Maharashtra me aaye to milna jarur
Hi I am pradip gawande aap aacha likh te hai
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