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2 अक्टूबर 2011 की सुबह हम बागेश्वर में थे। बागेश्वर उत्तराखण्ड के कुमाऊं इलाके में अल्मोडा से लगभग 70 किलोमीटर आगे है। आज हमें पहले तो गाडी से सौंग तक जाना था, फिर 11 किलोमीटर की पैदल यात्रा करके धाकुडी में रात्रि विश्राम करना था। हमारा कल का पूरा दिन ट्रेन, बस और कार के सफर में बीता था, इसलिये थकान के कारण भरपूर नींद आई।
आज सुबह उठते ही एक चमत्कार देखने को मिला। जब तक अतुल और हल्दीराम की आंख खुली, तब तक जाट महाराज नहा चुके थे। हालांकि वे दोनों यह बात मानने को बिल्कुल भी तैयार नहीं थे। ढेर सारे सबूत देने पर भी जब उन्हें मेरे नहाने का यकीन नहीं हुआ तो मुझे कहना पडा कि ठीक है, मत मानों, लेकिन मुझे पता है कि मैं नहा लिया हूं।
जब यहां से निकलने लगे तो तीनों ने एक नियम पर अपनी सहमति व्यक्त की। नियम था कि इस यात्रा में हम तीनों में से कोई भी लीडर नहीं होगा, बल्कि सभी अपने अपने लीडर खुद होंगे। अगर किसी एक की वजह से दूसरा लेट हो रहा हो या दूसरे को परेशानी हो रही हो तो सभी को अपने अपने फैसले खुद लेने का अधिकार होगा। किसी से आगे जाना है, किसी को पीछे ही छोड देना है, यह सबकी व्यक्तिगत इच्छा पर निर्भर होगा। साथ ही यह भी तय हुआ कि कोई किसी को ताने-उलाहने, वचन-प्रवचन नहीं देगा। यह योजना जाट के दिमाग की ही उपज थी। मुझे श्रीखण्ड यात्रा याद आ गई, जब मेरे देर से उठने और धीरे धीरे चलने की वजह से बाकी साथियों को भी धीरे धीरे चलना पड रहा था और उनका बहुत सारा कीमती टाइम बर्बाद हुआ था।
बैजनाथ से आने वाली गोमती नदी के पुल को पार करके थोडा सा आगे जाने पर भराडी स्टैण्ड आता है। यहां से भराडी के लिये जीपें मिलती हैं। भराडी सौंग जाने वाली सडक पर कपकोट से करीब दो किलोमीटर आगे एक कस्बा है। भराडी में फिर दोबारा जीपों की बदली करके सौंग वाली जीप में जा बैठते हैं। जहां बागेश्वर से भराडी तक बढिया सडक बनी हुई है, वही भराडी से आगे सौंग तक महाबेकार सडक है। वैसे बागेश्वर से सीधे सौंग तक और उससे भी आगे लोहारखेत तक के लिये जीपें मिल जाती हैं लेकिन इस सुविधा के लिये ज्यादा पैसे देने पडेंगे।
साढे दस बजे सौंग पहुंचे। इसी जीप में एक बंगाली घुमक्कड बनर्जी और उसका स्थानीय गाइड देवा भी था। बंगाली भारी भरकम तैयारी के साथ आया था, स्लीपिंग बैग और टेंट के अलावा कम से कम 15 किलो वजन का एक बैग (रकसैक) और भी था। हां, वजन से याद आया कि हमारे बाराबंकी वाले साथी नीरज सिंह (हल्दीराम) भी भारी भरकम तैयारी के साथ आये थे। हल्द्वानी में जब हम मिले थे तो उन्हें देखकर मेरी आंखें फटी रह गईं। एक बडा ट्रेकिंग रकसैक फुल भरा हुआ सिर से लेकर कमर के नीचे तक लटका था और एक उससे छोटा बैग आगे छाती पर लटका रखा था। मैं हैरत में रह गया। सोचने लगा कि बेटा जाट, अगला तो घुमक्कडी में तेरा भी उस्ताद है। तू तो एक स्लीपिंग बैग लेकर ही उछलता फिर रहा है, यह तो स्लीपिंग बैग के साथ-साथ टेण्ट भी लिये घूम रहा है। बाद में पता चला कि उसके पास ना तो स्लीपिंग बैग है, ना ही टेण्ट। पीछे वाले में केवल कपडे हैं और आगे वाले में केवल खाने की चीजें।
कम से कम महीने भर पहले ही मैंने हल्दीराम को बता दिया था कि भाई, कुछ मत लेना लेकिन एक रेनकोट ले लेना। अगले ने रेनकोट के साथ साथ बाकी सबकुछ थोक के भाव में साथ ले लिया था। जबकि अतुल ने भी एक गडबड कर दी। वो रेनकोट नहीं लाया। इसलिये हल्दीराम ने अपनी दुकान में से एक विण्डचीटर अतुल को दे दिया। हल्दीराम का बोझ कम करने के लिये मैंने खाने की ज्यादातर चीजें अपने बैग में रख लीं- कई पैकेट नमकीन, बिस्कुट, पेडे, एकाध चीज और।
ठीक ग्यारह बजे सौंग से चढाई शुरू कर दी। असल में सौंग गांव से करीब आधा किलोमीटर पहले ही ऊपर लोहारखेत के लिये रास्ता गया है, बंगाली के गाइड देवा की देखा-देखी हम भी गाडी से यही उतर गये थे। सौंग समुद्र तल से करीब 1300 मीटर की ऊंचाई पर है। यह सरयू नदी के किनारे बसा है। यह सरयू वो अयोध्या वाली सरयू नहीं है। बागेश्वर में इस सरयू में गोमती नदी आकर मिल जाती है और दोनों फिर बहती रहती हैं, बहती रहती हैं, और कहीं पहाडों से निकलकर उत्तर प्रदेश में रामगंगा में मिल जाती हैं। हमें इस सरयू घाटी को छोडकर पिण्डर घाटी में जाना था। एक बार अगर पिण्डर घाटी में चले गये तो पिण्डर नदी के साथ-साथ चलते चलते पिण्डारी ग्लेशियर पहुंचना उतना मुश्किल नहीं होता। सरयू नदी और पिण्डर नदी के बीच में एक पर्वत श्रंखला (डाण्डा) है जिसकी ऊंचाई धाकुडी में 2900 मीटर से लेकर आगे बढती चली जाती है, इसलिये इस श्रंखला को धाकुडी में ही पार किया जाता है।
सौंग से तीन किलोमीटर पैदल चलने पर लोहारखेत आता है। हम सौ मीटर भी नहीं चले होंगे कि जिस बात का डर था, वही होने लगी। हल्दीराम चलने में असमर्थ हो गये। दो-तीन कदम चलते ही उन्हें चक्कर आने लगते। तुरन्त नीचे बैठ जाते। हालांकि मैं जानता था कि वे पहली बार आये हैं, और फिर वजन भी ज्यादा है। उन्हें समझाया कि भाई, तुम तीन-चार कदम चलते ही थक जाते हो, लेकिन आराम करने के लिये बैठो मत। खडे खडे ही आराम करो। भले ही चाहे जितना टाइम लगा लो लेकिन बैठो मत। बैठने से और ज्यादा थकान महसूस होती है लेकिन उन्हें बैठने से जितना रोकते, महाराज उतना ही ज्यादा देर तक बैठते।
हमसे आगे जो एक बंगाली और उसका गाइड जा रहा था, ऊपर से गाइड देवा ने हमें देख लिया और सोचा कि वे तो गये काम से, तो उसने अपने एक चेले प्रताप सिंह को हमारे पास भेज दिया। हमारे पास आकर जब प्रताप ने हमारा सामान लेने की बात कही तो हल्दीराम ने मना कर दिया। फिर पांच-चार कदम चला और लडखडाकर बैठ गया तो मैंने प्रताप से कहा कि हल्दीराम का सामान उठा ले, धाकुडी तक चल, जो पैसे बनेंगे ले लेना। आगे की आगे देखी जायेगी। प्रताप से हल्दीराम से दोनों बैग ले लिये। इसके बाद हल्दीराम ठीक चलने लगा।
बारह बजे लोहारखेत पहुंचे। यह समुद्र तल से 1780 मीटर की ऊंचाई पर है। अब हमें आठ किलोमीटर और जाना था तथा 2900 मीटर की ऊंचाई वाले धाकुडी टॉप को पार करना था यानी हर किलोमीटर चलने के साथ-साथ डेढ सौ मीटर ऊपर भी चढना था। और वाकई यही रास्ता यानी धाकुडी तक, इस यात्रा का सबसे मुश्किल भाग माना जाता है। घने जंगलों से होकर है यह रास्ता और बीच में कहीं कहीं हरे-भरे बुग्याल भी मिल जाते हैं।
एक बजे खलीधार पहुंचे। यहां वन विभाग का इको जोन के नाम से एक कार्यालय है। यहां से आगे जाने वालों को साठ रुपये प्रति व्यक्ति प्रति सप्ताह के हिसाब से भुगतान करना होता है। बताया गया कि इस रसीद को सम्भाल कर रखना, रास्ते में कोई अधिकारी भी देख सकता है। ना होने पर वापस लौटना पडेगा। सवा दो बजे झण्डीधार पहुंचे। यहां चाय-पानी का इंतजाम है। एक छोटा सा मन्दिर भी है।
एक बात और बता दूं कि सौंग से आगे कहीं भी बिजली की सुविधा नहीं है। हमें कल भी पूरे दिन चलकर परसों दोपहर तक पिण्डारी ग्लेशियर के सामने पहुंचना था। यानी अगर हम अभी उत्साहित होकर फोटो खींचते रहेंगे तो ग्लेशियर तक पहुंचते पहुंचते कैमरे की बैटरी खत्म हो जायेगी। इसलिये तय हुआ कि इधर के फोटो वापसी में खींचेंगे- अगर बैटरी बची रहेगी तो।
शाम को पौने छह बजे हम धाकुडी टॉप पर जा पहुंचे। इसकी ऊंचाई 2873 मीटर है। यहां से आगे ढलान शुरू हो जाता है और सामने नीचे दिखाई देती है पिण्डर नदी। टॉप से कुछ नीचे 2680 मीटर की ऊंचाई पर धाकुडी कैम्प है जहां रहने-खाने का इंतजाम होता है। लोहारखेत से यहां तक छह घण्टों में हम बंगाली और देवा से इतने घुल-मिल घये थे कि लग रहा था कि हम सभी एक साथ ही आये हैं। यहीं पर हल्दीराम ने भी अपने ‘पॉर्टर’ प्रताप से मोलभाव करके तय कर लिया कि रोजाना के ढाई सौ रुपये और खाना अलग से। हालांकि प्रताप तीन सौ रुपये मांग रहा था। इधर मैंने और अतुल ने भी हल्दीराम से तय किया कि पॉर्टर का खर्चा केवल हल्दीराम ही उठायेगा, बाद में तीन-तिहाई नहीं होगा।
यहां हमें मुम्बई से आई दो महिलाएं मिलीं। दोनों की उम्र चालीस साल से ऊपर थीं और वे पिण्डारी ग्लेशियर से वापस आई थीं। वे पिछले साल रूपकुण्ड की यात्रा पर भी गई थीं। उनके इस जज्बे को जाट का सलाम!
यही हमने और बंगाली ने मिलकर एक बडा सा कमरा ले लिया- पचास रुपये प्रति व्यक्ति। दोनों गाइड भी इसमें ही सोये, अतिरिक्त पलंग ना होने के कारण हालांकि वे नीचे जमीन पर ही सोये। पास में ही एक ‘होटल’ था जहां चूल्हे के सामने बैठकर रोटी, सब्जी और आमलेट खाने में मजा आ गया। एक बात और बता दूं कि जैसे जैसे आगे बढते जाते हैं तो सोने के दाम घटते हैं और खाने के बढते हैं।
अतुल और नीरज सिंह (हल्दीराम)
नीरज और नीरज (एक जाट, दूसरा हल्दीराम)
लोहारखेत
नीरज जाट, नीरज सिंह, अतुल
हल्दीराम
अतुल, बंगाली और गाइड देवा
झण्डीधार
अगला भाग: पिण्डारी ग्लेशियर यात्रा- तीसरा दिन (धाकुडी से द्वाली)
पिण्डारी ग्लेशियर यात्रा
1. पिण्डारी ग्लेशियर यात्रा- पहला दिन (दिल्ली से बागेश्वर)
2. पिण्डारी ग्लेशियर यात्रा- दूसरा दिन (बागेश्वर से धाकुडी)
3. पिण्डारी ग्लेशियर यात्रा- तीसरा दिन (धाकुडी से द्वाली)
4. पिण्डारी ग्लेशियर यात्रा- चौथा दिन (द्वाली-पिण्डारी-द्वाली)
5. कफनी ग्लेशियर यात्रा- पांचवां दिन (द्वाली-कफनी-द्वाली-खाती)
6. पिण्डारी ग्लेशियर यात्रा- छठा दिन (खाती-सूपी-बागेश्वर-अल्मोडा)
7. पिण्डारी ग्लेशियर- सम्पूर्ण यात्रा
8. पिण्डारी ग्लेशियर यात्रा का कुल खर्च- 2624 रुपये, 8 दिन
देख भाई सबसे पहले नहाने का मुझे भी यकीन नही है,
ReplyDeleteजब नाम ही हल्दीराम या मिर्ची नमक यानि पूरी दुकान ही था तो सामान क्यों न साथ लाता।
अरे भाई ये झन्डीधार श्रीखण्ड वाली डण्डाधार से कम थी या ज्यादा?
एक नया अध्याय।
ReplyDeleteसुन्दर दृश्यावली!
ReplyDeletebahut achha varnan Neeraj Ji.
ReplyDeleteदीपावली की शुभ कामनाओं के साथ आपकी घुमक्कड़ी परवान चढ़े!! धरतीधकेल के साथ मोटर साईकिल भी चलाना सीखो !! चलना है न जाट देवता के साथ !!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर...दीपावली की ढेरों शुभकामनाएं
ReplyDeleteसुंदर चित्रों से सजी और विस्तार से जानकारी देती आपकी पोसटों का जबाब नहीं ..
ReplyDelete.. आपको दीपावली की शुभकामनाएं !!
1 नम्बर घुमक्कड़ी।
ReplyDeleteदीवाळी की राम राम
जिवंत संस्मरण. आपके साथ चलने वालों को आपके अनुभवों का तो लाभ उठाना ही चाहिए. मुंबई की उन महिलाओं को मेरी ओर से भी शुभकामनाएं.
ReplyDeleteभाई वाह मजा आ गया काश मैं भी वहाँ होता
ReplyDeleteबहुत सुन्दर, अदभुत
नीरज बाबू मैंने पड़ा गप्पू जी ने कमेन्ट किया
ReplyDeleteक्या ये वही गप्पू जी है जो करेरी झील मैं साथ थे
तुम्हारी इस शर्ट पर पहले तो नमक -मिर्च उतार लो ..वरना मेरी नजर लग जाएगी ? अतुल प्यारे बहुत जंच रहे हो ...क्या बात हैं !
ReplyDeleteनीरज मुझे भी तुम्हारे नहाने पर थोडा शक हैं ? तुम तो ड्रायक्लीन करने वालो में हो ...खेर जल्दी पहुँचो ..देखने की उत्सुकता हैं ....वेसे तुम एक आध बेटरी एक्स्ट्रा क्यों नहीं रखते -- पहाड़ो पर तो लाइट का लोचा होता ही हैं .. !
वेसे वहां के किस्से अतुल फोन पर सुना चूका हैं ..पर देखने की बात ही अलग हैं ;;शुभ यात्रा !
अरे नीरज ,उन दो साहसी मुंबई की महिलाओ के फोन नंबर लिए या नहीं ....मुझसे मिलवा देते ..ताकि उनके साथ मेरा भी रोमांच क सफर चालू हो जाता ... हो तो मेरे मोबाइल पर देना
ReplyDeleteघुमक्कडी जिंदाबाद
ReplyDeleteठीक है, मत मानों, लेकिन मुझे पता है कि मैं नहा लिया हूं।
ReplyDelete-नहाये हुए से लग तो रहे हो...:)
बाकी तो पढ़कर धन्य भये...
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