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5 अक्टूबर 2011 का दिन था वो। मैं और अतुल द्वाली में थे जबकि हमारे एक और साथी नीरज सिंह यानी हल्दीराम हमसे बारह किलोमीटर दूर पिण्डारी ग्लेशियर के पास थे। समुद्र तल से 3700 मीटर की ऊंचाई पर बिना स्लीपिंग बैग के उन्होंने पता नहीं कैसे रात काटी होगी। दिल्ली से चलते समय हमने जो कार्यक्रम बनाया था, उसके अनुसार आज हमें कफनी ग्लेशियर देखना था जबकि हकीकत यह है कि पिछले तीन दिनों से हम लगातार पैदल चल रहे थे, वापस जाने के लिये एक दिन पूरा पैदल और चलना पडेगा तो अपनी हिम्मत कुछ खत्म सी होने लगी थी। जाट महाराज और अतुल महाराज दोनों एक से ही थे।
इस हफ्ते भर की यात्रा में एक खास बात यह रही कि मैं हमेशा सबसे पहले उठा तो आज भी जब उठा तो सब सोये पडे थे। मेरे बाद ‘होटल’ वाला उठा, फिर अतुल। रात सोते समय तय हुआ था कि कफनी कैंसिल कर देते हैं और वापस चलते हैं। लेकिन उठते ही घुमक्कडी जिन्दाबाद हो गई। घोषणा हुई कि कफनी चलेंगे। हालांकि अतुल को इस घोषणा से कुछ निराशा भी हुई। खाने के लिये बिस्कुट-नमकीन के कई पैकेट भी साथ ले लिये। अगर कफनी ना जाते तो जिन्दगी भर मलाल रहता कि कफनी से बारह किलोमीटर दूर से निकल गये। पता नहीं अब कभी इधर आना हो या ना हो।
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कफनी के रास्ते में अतुल |
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यह है द्वाली। द्वाली से एक रास्ता पिण्डारी ग्लेशियर जाता है और एक कफनी ग्लेशियर। |
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कफनी ग्लेशियर से निकलकर आने वाली कफनी नदी। |
जल्दी से जल्दी करते करते भी सवा सात बज गये जब हमने प्रस्थान किया। पिण्डारी ग्लेशियर के मुकाबले कफनी ग्लेशियर कम लोकप्रिय है। इसलिये रास्ता भी उतना अच्छा नहीं है। अतुल आदत से लाचार होकर आगे आगे चला गया और तुरन्त ही पीछे हो गया। कारण था जाले। मकडी के जालों के ‘झुण्ड के झुण्ड’ रास्ते में थे और चलने में बडी दिक्कत कर रहे थे।
पांच किलोमीटर चलने के बाद खटिया पहुंचे। द्वाली से खटिया तक सीधी चढाई है और पूरा रास्ता भरपूर जंगल से होकर जाता है। सुबह का टाइम और कोई हलचल ना होने के कारण पक्की उम्मीद थी कि कोई ना कोई जंगली जानवर जरूर मिलेगा। लेकिन कोई नहीं मिला। हां, खटिया से कुछ पहले एक बंगाली बुजुर्ग एक गाइड के साथ वापस लौट रहे थे। उन्होंने हम अच्छे खासे जवान छोरों को देखकर भी बुड्ढा ही समझा और कहा कि आज खटिया में ही रुक जाना। आज कफनी ग्लेशियर तक पहुंचते पहुंचते अन्धेरा हो जायेगा, वहां रुकने का कोई इंतजाम नहीं है। मैंने पूछा कि आप आज रात्रि विश्राम कहां करोगे तो बताया कि खाती। तब मैंने कहा कि हम आपको आज शाम को खाती में ही मिलेंगे और कफनी के फोटो भी दिखायेंगे। वो ‘अरे रहने दो’ वाले स्टाइल में हाथ और दांत दिखाकर चला गया।
खटिया में कुमाऊं मण्डल विकास निगम का रेस्ट हाउस है और दो तीन दुकानें और भी हैं। एक दुकान खुली थी। रेस्ट हाउस का चौकीदार ही इस दुकान को चलाता है और खाना खिला देता है। एक बात और थी कि आज सुबह से ही धुंध थी और धूप के दर्शन नहीं हुए थे। इसलिये ठण्ड बरकरार थी। भूख भी लगने लगी थी। चाय का आदेश दे दिया गया। पूछा कि खाना बनने में कितना टाइम लगेगा तो बताया कि आप कफनी से होकर वापस आ जाइये, खाना तैयार मिलेगा। हमने कहा कि भाई, भूख तो अब लगी है, जरूरत तो अब है, वापस आकर जरूरत पडेगी ही नहीं क्योंकि हम भागमभाग में रहेंगे। ये बता कि आमलेट तो बन जायेगा। बोला कि हां। एक आमलेट का ऑर्डर दे दिया। अतुल आमलेट नहीं खाता है।
हां, आमलेट से याद आया कि हम तीनों में केवल मैं ही खाता हूं। घुमक्कडी के दौरान खाना खाते समय अगर आमलेट भी मिल जाये तो सलाद के तौर पर मैं इसे रोटी सब्जी के साथ ही खाना पसन्द करता हूं। अगर सब्जी बढिया स्वादिष्ट नहीं बनी है, तो आमलेट पूर्ति कर देता है। अतुल और हल्दीराम मेरी इस आदत से परेशान थे। इसलिये जब तक ये दोनों खाना खाकर हट नहीं जाते थे तो मुझे खाना खाने की अनुमति नहीं थी। आज जबकि मेरे पेट में चूहे कूद रहे थे तो अतुल के पेट में चूहे भी भूखे मर गये थे। और खाना मिलेगा शाम को। तब तक चाय और बिस्कुट पर ही काम चलाना मुश्किल था। अतुल ने मुझसे पूछा कि ये बता अण्डा शाक होता है या मांस। मैंने कहा कि भाई सुन, मैं अण्डे को दूध के साथ एक ही श्रेणी में रखता हूं। मेरे लिये दूध और अण्डा बराबर हैं। बोला कि अगर मैं खा लूंगा तो बाद में मुकरेगा तो नहीं। मैंने ना कर दी। एक और आमलेट का ऑर्डर दे दिया गया।
जैसे ही अतुल ने आमलेट का पहला टुकडा मुंह में डाला तो लग रहा था कि कोई सडी जली चीज खा रहा है लेकिन जैसे ही मुंह में स्वाद बनना शुरू हुआ तो मुझ पर ताने उलाहने बरसने शुरू हो गये कि कुत्ते कमीने, तूने पहले क्यों नहीं बताया कि आमलेट इतना स्वादिष्ट होता है। खैर इसके बाद अतुल नियमित अण्डा भक्षी बन गया।
खटिया की समुद्र तल से ऊंचाई 3200 मीटर है। इसके बाद वातावरण ही बदल जाता है। घने जंगल का स्थान खुले बुग्याल ले लेते हैं। कहीं कहीं बडे बडे पत्थर और चट्टानें भी मिलती हैं जो
श्रीखण्ड यात्रा की याद दिला देती हैं। इतना बदलने के बाद भी एक चीज नहीं बदली- मौसम। धुंध और ज्यादा बढने लगी थी। यहां धुंध को बादल कहा जाता है तो कह सकते हैं कि बादलों का घनत्व भी बढता ही जा रहा था। कफनी नदी हालांकि सीधी जाती है लेकिन करीब सौ मीटर के बाद कुछ नहीं दिखता। अगर बादल ना होते तो हम धरती की सुन्दरतम जगह पर खडे थे। यह नन्दा देवी का इलाका है। इसकी बाहरी सीमा में कई ग्लेशियर हैं- सुन्दरढूंगा, पिण्डारी, कफनी, नामिक, रालम, मिलम आदि। बादल ना होते तो हरे-भरे बुग्यालों के उस पार बर्फीले विराट पर्वत दिखते।
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सफर का हमसफर- पानी। |
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खटिया के बाद जंगल का स्थान बुग्याल ले लेते हैं। |
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इसे तो पहचान ही गये होंगे। |
जैसे जैसे आगे बढते गये, बादल होने के कारण निराशा सी होने लगी। अतुल ने साफ कह दिया कि वो जो बडी सी चट्टान दिख रही है, बस वही तक जाऊंगा। तू ग्लेशियर तक चला जा और वापसी में मैं यही बैठा मिलूंगा। अब चलने में मजा नहीं आ रहा है। खैर वो चट्टान आई और घेर-घोटकर मैं अतुल को और आगे ले गया। कुछ देर बाद हल्की बूंदाबांदी होने लगी। रेनकोट तो पहले से ही पहन रखा था लेकिन चलते रहे।
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जहां पिण्डारी का रास्ता बढिया बना हुआ है, वही कफनी का रास्ता कुछ कम बढिया है। लेकिन फिर भी इतना तो है कि भटकते नहीं हैं। |
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बादलों ने धीरे धीरे सारी सुन्दरता को ढक लिया। |
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कफनी नदी |
तभी सामने कुछ दूर सफेद सी आकृति दिखीं। सोचा गया कि वे तम्बू हैं। चलो, वहां तक चलते हैं। जाकर देखा तो तम्बू वम्बू कुछ नहीं था, बल्कि कुछ प्लास्टिक का मलबा सा पडा था। गौर से देखने पर पता चला कि यह फाइबर है यानी एक तरह का मजबूत प्लास्टिक। कम से कम सौ मीटर के घेरे में यहां वहां बिखरा पडा था यह मलबा। इसमें लकडी के दरवाजे भी थे जो आदमकद थे। दिमाग खूब चलाकर देख लिया कि यह बला क्या है। आखिरकार नतीजा निकला कि यहां कभी कोई हेलीकॉप्टर गिरा होगा, यह उसका मलबा है। अब महाराज हेलीकॉप्टर में तो कभी बैठे नहीं हैं, ना ही यह पता कि इसकी दीवारें और दरवाजे कैसी होती हैं। लेकिन इसके अलावा हमारे पास कोई तर्क भी तो नहीं था। अगर हेलीकॉप्टर नहीं है तो कौन इसे यहां इतनी दूर से लाया और लावारिस छोडकर चला गया। मलबे के टुकडे इतने बडे बडे और भारी थे कि हम उन्हें हिला तक नहीं सके। बाद में पता चला कि यह कुमाऊं मण्डल विकास निगम की करामात है। वे यहां फाइबर हट बनायेंगे। सारा सामान खच्चरों पर ही लादकर लाया गया है।
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रास्ता कफनी नदी के साथ साथ ही बढता है। |
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अतुल |
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यह है आलस। जब बादलों ने सारा नजारा ढक लिया तो आगे बढने का मन भी नहीं किया। |
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चलना तो पडेगा ही |
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ऐसे पत्थर श्रीखण्ड यात्रा की याद दिला देते हैं। |
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बादलों, तुम्हारा सत्यानाश हो। हम दुनिया की सुन्दरतम जगह पर खडे हैं और तुमने सारी सुन्दरता पर पर्दा डाल दिया है। |
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बडा मजा आता है ऐसे रास्तों पर चलने में |
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यहां वहां बिखरा फाइबर हट को बनाने के लिये लाया गया सामान। |
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पता नहीं कुमाऊं मण्डल वाले इन हट्स को कब तक बनायेंगे। |
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यहां से कफनी ग्लेशियर ज्यादा दूर नहीं है। सामने दिखता भी होगा अगर मौसम साफ हो। |
इस मलबे की दीवारों का आसरा ले लिया था हमने जब तेज बारिश होने लगी। भूख फिर लगने लगी तो बिस्कुट नमकीन के पैकेट खत्म कर दिये गये। यही आखिरी निर्णय ले लिया गया कि अब कफनी ग्लेशियर तक जाने का कोई औचित्य नहीं है, वापस चलो। हालांकि मेरा मन ग्लेशियर तक जाने को कर रहा था लेकिन फिर भी अतुल की इच्छा थी तो वापस चल पडे बिना ग्लेशियर तक पहुंचे ही। और हमें इस बात का कोई मलाल भी नहीं है। यह हमारी असफलता भी नहीं है। घुमक्कडी कोई दौड नहीं है कि हमें भागमभाग मचानी है और हर हाल में लक्ष्य तक पहुंचना ही है। घुमक्कडी तो उस चीज का नाम है जिसमें कहा जाता है कि जिधर भी मुंह उठ जाये, चल पडो। बस हमारा वापसी की तरफ मुंह उठ गया और हम वापस चल पडे।
हम 3500 मीटर की ऊंचाई तक पहुंच गये थे। अन्दाजा था कि अभी ग्लेशियर दो किलोमीटर दूर ही होगा। और वापस दिल्ली आकर जब गूगल अर्थ और जीपीएस डाटा की सहायता से दूरी देखी गई तो यह डेढ किलोमीटर मिली। यानी हम ग्लेशियर से डेढ किलोमीटर दूर रह गये थे। लेकिन बारिश में वहां तक जाने का कोई फायदा नहीं था जबकि ठण्ड हाथों को काटे जा रही थी, कैमरा ऐसे में किसी काम का नहीं था।
चार बजे से पहले ही वापस द्वाली पहुंच गये। दुकान वाला देखते ही अचम्भित रह गया कि इतनी जल्दी ये लोग चौबीस किलोमीटर की पैदल चढाई उतराई तय करके वापस कैसे आ गये। हमने उनसे बताया कि हम ग्लेशियर देखकर लौटे हैं। बडा खराब मौसम है। यकीन नहीं हुआ तो हमने कहा कि यार ये बताओ कि ग्लेशियर से कुछ पहले वो मलबा बिखरा पडा है, वो क्या मामला है। इतना सुनते ही उन्हें भरोसा हो गया कि छोरे वाकई ग्लेशियर देखकर ही वापस आये हैं। और हमें भी पता चल गया कि वो मलबा क्या है।
दुकान वाले ने बताया कि तुम्हारा तीसरा साथी, बंगाली और दो गाइड-पॉर्टर अभी घण्टे भर पहले ही यहां से निकले हैं। तुम तेज चलते हो, खाती तक उन्हें आसानी से पकड लोगे। मैंने कफनी जाने से पहले ही सुबह अपना स्लीपिंग बैग यही रख दिया था, बैग उठाया और खाती की तरफ दौड लगा दी। हां, भरपेट खाना भी खा लिया था।
अब हमारी स्पीड देखने लायक थी। मैंने पहले भी बताया है कि अतुल चलने में मुझे हमेशा पीछे छोड देता था, तो अब भी मैं पीछे ही था। रास्ता कुल मिलाकर नीचे उतरने का ही था। घण्टे भर में पांच बजे तक रास्ते में पडने वाली एक गुमनाम सी जगह पर जा पहुंचे। यहां खाने-पीने और अति जरूरत की हालत में ठहरने की सुविधा मिल जाती है। यहां पिण्डर नदी पर एक पुल है और रास्ता पिण्डर के बायें हो जाता है। यहां पता चला कि हमारे बाकी साथी बीस मिनट पहले ही यहां से निकले हैं।
पांच मिनट यहां रुककर फिर चल पडे। अब हुआ यह कि अतुल बेहद तेज चला गया और मैंने अपनी औकात से ज्यादा चलना बन्द कर दिया। थोडी ही देर में हममें इतना फासला हो गया कि हम एक-दूसरे की निगाहों से दूर हो गये। अभी भी छह किलोमीटर दूर और चलना था। और उन्हीं छह में से चार किलोमीटर मेरे लिये बडे डरावने साबित हुए।
साढे पांच बजे दिन छिप गया। घनघोर जंगल होने के कारण यह अन्धेरा और भी घना और भयानक लग रहा था। हालांकि रास्ता इतना चौडा था कि चलने में कोई दिक्कत नहीं हुई। कुछ देर पहले ही बूंदाबांदी बन्द हुई थी, इसलिये माहौल और भी रहस्यमय हो गया था। पेडों से गिरती टप-टप बूंदें भी दिल की धडकन को बढा देती थीं। देखा जाये तो दिक्कत कुछ भी नहीं थी। लेकिन फिर भी, डर लग रहा था तो लग रहा था। क्या कर सकता था। किसी जंगली जानवर खासकर भालू से और भी ज्यादा आशंकित था। पीछे दिख जाये तो कोई दिक्कत नहीं, बराबर में कहीं ऊपर या नीचे दिख जाये तो भी दिक्कत नहीं थी। दिक्कत थी भालू के सामने आ जाने की आशंका। हिमालय में बर्फीले पहाडों से नीचे जंगल हैं। इन्हीं जंगलों में ये जानवर बहुतायत में रहते हैं। जंगलों से नीचे मानव आबादी रहती है तो ये वहां जाने से कतराते हैं।
एक मोड पार करते ही कुछ बडे से जानवर दिखे। बस देखते ही जान सूख गई, ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे। खैर, वे भैंसे थीं। जब लगने लगा कि बस दस मिनट का रास्ता और रह गया है तभी चढाई शुरू हो गई। छह बज चुके थे। मैं इस चढाई को भूल गया था। सोच रहा था कि पूरे रास्ते भर खाती तक उतरना ही है। डर के मारे जितना तेज नीचे उतर रहा था, उतना ही तेज चढाई पर चढने लगा। उन्नीस बीस का ही फरक आया होगा। अगर दिन होता तो कम से कम दस जगह रुकता और सांस लेता। अब सांस लेने की फुरसत किसे थी। जैसे जैसे चढता गया, सांस भी चढती गई और पसीना भी आता गया।
आखिरकार चढाई के उच्चतम बिन्दु पर पहुंचा। असल में रास्ता तो नीचे से ही था लेकिन यहां काफी बडे क्षेत्र में कभी भू-स्खलन हुआ था तो रास्ता नीचे से हटाकर भूस्खलन के ऊपर से बना दिया गया इसलिये यह चढाई चढनी पडी। मैंने अभी बताया था कि कुछ ही देर पहले बारिश थमी थी इसलिये पत्थरों का बना रास्ता रपटीला हो गया था इसलिये चलने की स्पीड और भी कम हो गई। खैर, ले देकर डरता घबराता खाती पहुंच गया।
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यह वहां पर आम है। |
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जंगल का डरावना रास्ता |
यहां नेकी होटल में अतुल और हल्दीराम चूल्हे के सामने बैठे थे। दो आदमी लठ लिये खडे थे। मेरे पहुंचते ही अतुल ने कहा कि तेरी वजह से हम सब कितने परेशान हो रहे थे। ये देख लठ वालों को, अभी तुझे ढूंढकर लाने की तैयारी थी। और देख तेरा भाई जीत गया है। इनसे पहले यहां पहुंच गया था। हालांकि अतुल की यह जीतने हारने की बात सुनकर मुझे गुस्सा तो आया लेकिन हम सभी नियम में बंधे थे कि हर बन्दा अपनी मर्जी का मालिक होगा। अतुल ने वही किया जो उसके जी में था। इस बात से मुझे कोई शिकायत नहीं है।
पता चला कि भूस्खलन वाले इलाके में एक शक्तिशाली भूत रहता है। वो अंधेरे में आने जाने वालों को नुकसान पहुंचाता है, यहां तक कि मार भी डालता है। लठ वाले मुझे उस भूत से रक्षा प्रदान करने के लिये ही जाने वाले थे। खाती वाले स्थानीय लोग भी अंधेरा होने के बाद उधर नहीं जाते। मैंने उनका समर्थन करते हुए बताया कि हां, भाईयों, ठीक कह रहे हो। वो भूत मेरे पीछे पीछे रेस्ट हाउस तक आया था। सभी के कान खडे हो गये। मतलब? मतलब कि मुझे वो दिखाई तो नहीं दिया लेकिन उसके पैरों की आवाज मुझे स्पष्ट सुनाई दे रही थी। बार-बार रुककर पीछे देखता तो कुछ नहीं दिखता था और वो आवाज भी बन्द हो जाती थी, जब मैं चल पडता तो आवाज फिर से आने लगती।
खुसर-पुसर होने लगी कि जाट महाराज तो बडे दिलवाला इंसान है। पीछे पीछे भूत आ रहा था और अगला डरा नहीं। एकाध ने कहा कि इन्हें इस भूत के बारे में कोई जानकारी नहीं थी, अगर जानकारी पहले से होती तो पक्का डर जाते। उधर मैं सोच रहा था कि तुम्हें क्या पता, भूतलैण्ड शुरू होने से एक घण्टे पहले ही मेरा डर के मारे क्या हाल हो रहा था।
अगला भाग: पिण्डारी ग्लेशियर यात्रा- छठा दिन (खाती-सूपी-बागेश्वर-अल्मोडा)
पिण्डारी ग्लेशियर यात्रा
1.
पिण्डारी ग्लेशियर यात्रा- पहला दिन (दिल्ली से बागेश्वर)
2.
पिण्डारी ग्लेशियर यात्रा- दूसरा दिन (बागेश्वर से धाकुडी)
3.
पिण्डारी ग्लेशियर यात्रा- तीसरा दिन (धाकुडी से द्वाली)
4.
पिण्डारी ग्लेशियर यात्रा- चौथा दिन (द्वाली-पिण्डारी-द्वाली)
5. कफनी ग्लेशियर यात्रा- पांचवां दिन (द्वाली-कफनी-द्वाली-खाती)
6.
पिण्डारी ग्लेशियर यात्रा- छठा दिन (खाती-सूपी-बागेश्वर-अल्मोडा)
7.
पिण्डारी ग्लेशियर- सम्पूर्ण यात्रा
8.
पिण्डारी ग्लेशियर यात्रा का कुल खर्च- 2624 रुपये, 8 दिन
कफनी ग्लेशियर...बहुत उम्दा ल्गा विवरण और तस्वीरें...आनन्द आ गया....
ReplyDeleteये हसीं वादियाँ..
ReplyDelete:) :)
ReplyDeleteएक असफ़ल यात्रा भी पूरी तरह ना सही, काफ़ी हद तक सफ़ल रही।
ReplyDeleteनियम कब से बना लिया? अपनी मर्जी से चलने का, श्री खण्ड में तो मुँह फ़ुला के कुप्पा बना लिया था इसी तरह मेरे तेज चलने के कारण।
भाई ऐसी हैरत अंगेज़ यात्रा कोई बड़े दिल वाला ही कर सकता है...तुम्हारी घुम्मकड़ी को प्रणाम...क्या जिगरा पाया है..अद्भुत...ऐसे चित्र दिखाएँ हैं के आत्मा प्रसन्न हो गयी...जय हो हे जाट महाराज तुम्हारी सदा ही जय हो...अरे हाँ तुम्हारी घुम्म्कड़ी का राज़ कहीं तुम्हारी इस काली चेक वाली कमीज़ में तो नहीं छुपा जिसे पहन कर तुमने अक्सर ऐसी खतरनाक यात्रायें की हैं...:-)
ReplyDeleteनीरज
भाई एक घुमक्कड को तो हर चीज खा लेने की आदत डाल लेनी चाहिये। ऐसी परिस्थितियों में तो मांसाहार से परहेज करना खुद को मुसिबत में डालना हो सकता है।
ReplyDeleteप्रणाम
नीरज जी आप के साथ कफनी ग्लेशियर का अनुभव न कर पाने का अफसोस रहेगा....
ReplyDeleteनीरज जी,
ReplyDeleteबड़ा ही उम्दा यात्रा विवरण, साथ ही ख़ूबसूरत चित्र भी, बस मजा ही आ गया. ईश्वर आपको इतनी शक्ति प्रदान करे की आप ऐसी और अनगिनत यात्रायें करें तथा हम लोगों को आपकी इन यात्राओं का लुत्फ़ मिलता रहे.
bhai waah maja aa gaya lekin aisa risk lena uchit hai kya............?
ReplyDeleteneeraj ji,
ReplyDeletebahut acchi post lagi... photo bhi sundar lage....photo or bhi adhik sundar dikhate yadi yhe thode bade hotee....
dhanyavaad...
Ritesh
बहुत सुन्दर वाह!
ReplyDeleteएक बार और रोचक विवरण. एक और अंडाभक्षी की संख्या बढ़ा ही ली आपने.
ReplyDeleteऔर सबसे बड़ी बात ये कि घुमक्कड़ों की भी संख्या बढ़ा रहे हो.
यार आप इतने विस्तार से और इतने रोचक अंदाज़ से कैसे लिखते हो...
ReplyDeleteहमेशा की तरह, अच्छी चल रही है ये सीरीज
जय हो सबसे पहले अतुल महाराज की और बधाई भी की बन्दा शुध्य शाकाहारी न रहा ..?
ReplyDeleteऔर नीरज तुम किसी भुत से कम हो जो भुत तुमसे डरता ......हा हा हा हा ?
वैसे सफ़र उम्दा और खतरनाक भी हैं ....अगली कड़ी का इन्तजार ....
गुरु ग्रन्थ साहब में मांस भक्षण निषेध
Deleteजेरतु लगे कपड़े जामा होई पलीत ।
जेरत पौवहिं माणसा तिन कीऊ निरमल चीत ॥
(माझ की वार महला १.१,६)
जीव बधहु सुधर्म कर थापहु अधर्म कहहु कत भाई ।
आपस कऊ मुनिकर थापड़ काकड़ कहहु कसाई ॥
(राग मारु कबीर जी १)
हिंसा तऊ मनते नहीं छूटी जीभ दया नहीं पाली ।
(राग सारंग परमानन्द )
वेद कतेव कहउ मत झूठा झूठा जो न विजारै ।
जो सभमहिं एक खुदाय कहत हऊ तऊ क्यों मुरगी मारै ॥
पकर जीभ अनिया देही नवासी मारा कऊ विसमिल किया ।
जोति स्वरूप अनाहत लागी कहहु हलाल क्या किया ॥
(प्रभाती कबीर जी ४)
मजन तेग वर खूने कसे वे दरेग ।
तुरा नीज खूनास्त व चराव तेग ॥
(जफरनामा गुरु गोविन्दसिंह जी)
भाव - किसी की गरदन पर निःसंकोच होकर खड़ग न चला, नहीं तो तेरी गरदन भी आसमानी तेग से काटी जायेगी ।
सींह पूजही बकरी मरदी होई खिड़ खिड़ हानि ।
सींह पुछे विसमाद होई इस औसर कित मांही रहसी ॥
विनउ करेंदी बकरी पुत्र असाडे कोचन खस्सी ।
अक धतूर खांदिया कुह कुच खल विणसी ॥
मांस खाण गल बढ़के तिनाड़ी कौन हो वस्सी ।
गरब गरीबी देह खेह खान अकाज करस्सी ॥
जग आपा सभ कोई मरसी ॥
(भाई गुरुदास दीयां वारां वाट २५, १७)
कहे कसाई बकरी लाय लूण सीख मांस परोया ।
हस हस बोले कुहीदी खाघे अक हाल यह होया ॥
मांस खाण गल छुरीदे हाल तिनाड़ा कौण अलोवा ।
जीभे हन्दा फेड़ीयै खड दंदा मुंख भल बगोया ॥
(वार ३७, २१)
इस प्रकार मांस भक्षण का निषेध गुरुग्रन्थ साहब में किया है और मांसाहारियों की निन्दा की है । इसलिये गुरुग्रन्थ साहब को मानने वाले सभी सिख भाइयों को मांस खाना छोड़ देना चाहिये । जिस प्रकार कि नामधारी सिख मांस मदिरा से दूर रहते हैं ।
Majedar
ReplyDeleteस्वामी जी ओमानन्द सरस्वती की लिखी पुस्तक "मांस मनुष्य का भोजन नहीं " में शाकाहारी जाटों के बारे में बहुत कुछ लिखा है । पूरी पुस्तक http://www.jatland.com/home/Human_Beings_are_Vegetarians पर उपलब्ध है । पुस्तक के कुछ अंश :
ReplyDeleteक्या सारी पृथ्वी इस समय घोर अशान्ति से म्रियमाण दशा को प्राप्त नहीं हो रही है ? क्या नाना जाति, नाना जनपद, नाना राज्य, नाना देश, अनेक प्रकार की अशान्ति की अग्नि से जलकर छार खार नहीं हो रहे हैं ? क्या मनुष्य-संसार से शान्ति विदा नहीं हो गई है ? क्या कभी सभ्यता के नाम पर मनुष्यों ने इतने मनुष्यों के सिर काटे हैं ? क्या कभी उन्नति की पताका हाथ में लेकर मनुष्य ने वसुन्धरा को नर-रक्त से इतना रंगा है ? यदि पहले ऐसा कभी नहीं हुआ तो आज क्यों हो रहा है ? हम उत्तर देते हैं कि इसका कारण है - अनार्षशिक्षा और अनार्षज्ञान का विस्तार । इसका कारण यूरोप का पृथ्वीव्यापी प्रभाव और प्रतिष्ठा । यूरोप अनार्षज्ञान का गुरु और प्रचारक है, वही आज (कई शती तक) ससागर वसुन्धरा का अधीश्वर (रहा) है । छोटी-बड़ी, सभ्य-असभ्य, शिक्षित-अशिक्षित नाना जातियों और जनपदों में उसी यूरोप की शासन-पद्धति प्रतिष्ठित और प्रचलित है । इसलिये जो जाति वा राज्य यूरोप के संसर्ग में आ जाता है, उसमें अनार्षज्ञान का प्रचार और प्रतिष्ठा हो जाती है । इसी कारण से उस जाति वा राज्य के भीतर अनेक प्रकार की अशान्ति की अग्नि धक्-धक् करके जल उठती है । यूरोप के दो मुख्य सिद्धान्त हैं – क्रमोन्नति (Evolution) और और दूसरा है योग्यतम का जय (Survival of the fittest); अर्थात् जिसकी लाठी उसकी भैंस । उपाध्याय जी लिखते हैं - इन दोनों अनार्ष सिद्धान्तों के द्वारा तूने जो संसार का अनिष्ट किया है, हम उसे कहना नहीं चाहते । योग्यतम का जय नाम लेकर तू सहज में ही दुर्बल के मुंह से भोजन का ग्रास निकाल लेता है । सैंकड़ों मनुष्यों को अन्न से वंचित कर देता है । एक एक करके सारी जाति को निगृहीत, निपीड़ित और निःसहाय कर देता है । जब तू बिजली से प्रकाशित कमरे में संगमरमर से मंडित मेज के चारों ओर अर्धनग्ना सुन्दरियों को लेकर बैठता है, उस समय यदि तेरे भोजन, सुख और संभाषण के लिए दस मनुष्यों के सिर काटने की भी आवश्यकता हो तो अनायास ही तू उन्हें काट डालेगा, क्योंकि तेरी शिक्षा यही है कि योग्यतम का जय होता है । यूरोप ! आसुरीय वा अनार्षशिक्षा तेरे रोम-रोम में भरी हुई है । अपनी अतर्पणीय धनलालसा को पूरी करने के लिये तू एक मनुष्य नहीं, दस मनुष्य नहीं, सौ मनुष्य नहीं, बल्कि बड़ी से बड़ी जाति को भी विध्वस्त कर डालता है । अपनी दुर्निवार्य भोगतृष्णा की तृप्ति के लिये तू केवल मनुष्य को ही नहीं, वरन् पशु-पक्षी और स्थावर-जंगम तक को अस्थिर और अधीर कर डालता है । अपनी भोग-विलासपिपासा की तृप्ति के लिये तू ललूखा मनुष्यों के सुख और स्वतन्त्रता को सहज में ही हरण कर लेता है । तेरे कारण सदा ही पृथ्वी अस्थिर और कम्पायमान रहती है । यूरोप ! तेरे पदार्पण मात्र से ही शान्ति देवी मुंह छिपाकर पलायमान हो जाती है । जिस स्थल पर तेरा अधिकार हो जाता है, वह राज्य सुखशून्य और शान्तिशून्य हो जाता है । जिस देश में तेरे शिक्षा-मन्दिर का स्कूल का द्वार खुलता है, तू उस देश को वञ्चना, प्रतारणा, कपट और मुकदमेबाजी के जाल में फांस देता है ।
यूरोप ! तूने संसार का जितना अनिष्ट और अकल्याण किया है उस में सब से बड़ा अनिष्ट और अकल्याण यही है कि तूने मनुष्य जीवन की प्रगति को उलटा करने का यत्न किया है । जिस मनुष्य ने निरन्तर मुक्तिरूप शान्ति पाने के उद्देश्य से जन्म लिया था, उसे तूने धन का दास और दुर्निवार्य भोगेच्छा का क्रीत-किंकर बनाने के लिये शिक्षित और दीक्षित कर दिया है । तेरी शिक्षा का उद्देश्य धन-सञ्चय करना ही सबसे अधिक वाञ्छनीय है । तू भोगमय और भोग सर्वस्व है । तूने ब्रह्म-वृत्ति (परोपकार की भावना) का अपमान किया और उसे नीचे गिरा दिया और वैश्यवृत्ति (भोग वा स्वार्थभावना) का सम्मान किया और उसे सब से ऊंचा आसन दिया है । इसकी अपेक्षा और किस बात से मनुष्य का अधिकतर अनिष्टसाधन हो सकता है ?
स्वामी जी ओमानन्द सरस्वती की लिखी पुस्तक "मांस मनुष्य का भोजन नहीं " में शाकाहारी जाटों के बारे में बहुत कुछ लिखा है । पूरी पुस्तक http://www.jatland.com/home/Human_Beings_are_Vegetarians पर उपलब्ध है । पुस्तक के कुछ अंश :
ReplyDeleteयह यथार्थ बात है “Eat, Drink and be Merry” खावो पीवो और मजे उड़ाओ यही यूरोप की अनार्षशिक्षा का निचोड़ वा निष्कर्ष है । यही रावण जैसे राक्षस और पिशाचों का सिद्धान्त था । इसी आसुरी अनार्ष संस्कृति का प्रचार यूरोप कर रहा है । अपनी जबान के स्वाद के लिये लाखों नहीं, करोड़ों प्राणी मनुष्य प्रतिदिन मारकर चट कर जाता है और अपने पेट में उनकी कब्रें बनाता रहता है । यह सब यूरोप की इस अनार्ष-वाममार्गी शिक्षा का प्रत्यक्षफल है । स्वार्थी मनुष्य जो भोग-विलास ले लिये पागल है, वह कैसे संयमी, ब्रह्मचारी, दयालु, न्यायकारी और परोपकारी हो सकता है? स्वार्थी दोषं न पश्यति के अनुसार स्वार्थी भयंकर पाप करने में भी कोई दोष नहीं देखता, इसलिये यूरोप तथा उससे प्रभावित सभी देशों में मानव दानव बन गया है । उसे मांसाहार के चटपटे भोजन के लिये निर्दोष प्राणियों की निर्मम हत्या करने में कोई अपराध नहीं दीखता । उसे तड़फते हुये प्राणियों पर कुछ भी दया नहीं आती । आज सारा संसार वाममार्गी बना हुआ है । मद्य, मांस, मीन, मुद्रा और मैथुन जो नरक के साक्षात् द्वार हैं, उनको स्वर्ग समझ बैठा है । ऋषियों के पवित्र भारत में जहां अश्वपति जैसे राजा छाती ठोककर यह कहने का साहस करते थे -
पृष्ठ १०६
न मे स्तनो जनपदे न कदर्यो न मद्यपः ।
नानाहिताग्निर्नाविद्वान्न स्वैरी स्वैरिणी कुतः ॥
अर्थात् मेरे राज्य में कोई चोर नहीं, कोई कञ्जूस नहीं और न ही कोई शराबी है । अग्निहोत्र किये बिना कोई भोजन नहीं करता । न कोई मूर्ख है तथा जब कोई व्यभिचारी नहीं तो व्यभिचारिणी कैसे हो सकती है !
आज उसी भारत में योरुप की दूषित अनार्ष शिक्षा प्रणाली के कारण चोरी, जारी, मांस, मदिरा, हत्या-कत्ल, खून सभी पापों की भरमार है । इन रोगों की एकमात्र चिकित्सा आर्ष शिक्षा है जिसका पुनः प्रचार कृष्ण द्वैपायन, महर्षि व्यास के पीछे आचार्य दयानन्द ने किया है । वेद आर्ष ज्ञान का स्वरूप हैं क्योंकि दयानन्द के समान वेदसर्वस्व वा वेदप्राण मनुष्य दिखाया जा सकता है ।
पाठको ! शायद आप हमारी बातों पर अच्छी प्रकार ध्यान नहीं देंगे । इसमें आपका अपराध नहीं है । “यथा राजा तथा प्रजा” - जैसा राजा होता है वैसी प्रजा भी हो जाती है । राजा अनार्ष विद्या का प्रचारक है । राजकीय शिक्षा पाने और उसका अभ्यास करने से आपके मस्तिष्क की अवस्था अन्यथा हो गई है और इसलिये हमारे कथन की आपके कानों में समाने की सम्भावना नहीं हो सकती । परन्तु आप सुनें वा न सुनें, हम बिना सन्देह और संकोच के घोषणा करते हैं कि वर्तमान युग में महर्षि दयानन्द ही एकमात्र वेदप्राण पुरुष और आर्षज्ञान का अद्वितीय प्रचारक हुआ है । आर्षज्ञान के विस्तार पर ही सारे विश्व की शान्ति निर्भर है । आर्षशिक्षा के साथ मनुष्य समाज की सर्व प्रकार की शान्ति अनुस्यूत है । जैसे और जिस प्रकार यह सत्य है कि एक और एक दो होते हैं, वैसे ही और उसी प्रकार यह भी सत्य है कि आर्ष ज्ञान ही मानवीय शान्ति का अनन्य हेतु है ।
अतः मद्य, मांस, मैथुन आदि भयंकर दोषों से छुटकारा आर्ष शिक्षा से ही मिलेगा । आर्ष शिक्षा के केन्द्र हैं - केवल गुरुकुल । अतः अपने तथा संसार के कल्याणार्थ अपने बालक बालिकाओं को केवल गुरुकुलों में ही शिक्षा दिलावो । स्कूल कालिजों में न पढ़ावो, इसी से संसार सुख और शान्ति को प्राप्त कर सकेगा ।
आपकी यात्राएं पढ़कर मेरे अन्दर भी घुमक्कड़ जाग रहा है मे क्या करूँ
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