Skip to main content

पिण्डारी ग्लेशियर यात्रा- चौथा दिन (द्वाली-पिण्डारी-द्वाली)

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें



4 अक्टूबर 2011 की सुबह करीब छह बजे मेरी आंख खुल गई। देखा कि ‘होटल’ मालिक समेत सब सोये पडे हैं। होटल में अतुल और हल्दीराम भी थे। तय कार्यक्रम के अनुसार आज हमें 29 किलोमीटर चलना था- द्वाली से पिण्डारी 12 किलोमीटर, पिण्डारी से द्वाली वापस 12 किलोमीटर और द्वाली से खटिया 5 किलोमीटर। खटिया कफनी ग्लेशियर के रास्ते में पडता है। दिन भर में 29 किलोमीटर चलना आसान तो नहीं है लेकिन सोचा गया कि हम इतना चल सकते हैं। मुझे अपनी स्पीड पर तो भरोसा है, अतुल चलने में मेरा भी गुरू साबित हो रहा था, और रही बात हल्दीराम की तो उसके साथ एक पॉर्टर प्रताप सिंह था जिसकी वजह से हल्दीराम बिना किसी बोझ के चल रहा था और स्पीड भी ठीकठाक थी। कहीं भी ऐसा नहीं लगा कि हम आज खटिया नहीं जा पायेंगे।
मेरे उठने की आहट सुनकर होटल वाला भी उठ गया। उठते ही चूल्हा सुलगा दिया और चाय बनाने लगा। वैसे तो हमारे साथ बंगाली घुमक्कड भी था लेकिन आज उन्हें मात्र बारह किलोमीटर चलकर पिण्डारी ग्लेशियर के पास टेण्ट लगाना था। इसलिये आज उन्हें चलने की कोई जल्दी नहीं थी। वे दोनों यानी बंगाली और उसका गाइड देवा सोते रह गये और हम पिण्डारी के लिये चल दिये।
जितनी चर्चा मैंने द्वाली से पांच किलोमीटर आगे फुरकिया तक के रास्ते के बारे में सुनी थीं, वे सब एक तरह से अफवाह सी साबित हुईं। स्थानीय निवासी कहते हैं कि पिण्डारी यात्रा का सबसे कठिन भाग द्वाली-फुरकिया खण्ड ही है। लेकिन चलते समय एक बार भी महसूस नहीं हुआ कि हम अपनी यात्रा के कठिनतम भाग पर चल रहे हैं। हां, एक मुश्किल यह थी कि इस रास्ते पर आज जाने वाले हम पहले इंसान थे, इसलिये घनघोर जंगल में पतली सी पगडण्डी पर चलते समय जगह-जगह जाले मिल जाते थे। जालों से परेशान होकर कुछ देर तक अतुल मुझसे पीछे पीछे चला लेकिन मेरी धीमी चाल की वजह से आगे निकल गया। हल्दीराम मुझसे पीछे ही रहा।
बात चल रही थी कठिन भाग की तो मैं इस यात्रा के शुरूआती 11 किलोमीटर को कठिनतम मानता हूं जब हमें धाकुडी धार पार करके सरयू घाटी को छोडकर पिण्डर घाटी में पहुंचना था। धाकुडी धार पार करने के बाद 8 किलोमीटर दूर खाती तक नीचे उतरना होता है, फिर 11 किलोमीटर आगे द्वाली तक मामूली चढाई है। एक तरह से धाकुडी धार की चढाई शरीर को आबोहवा के अनुकूल बनाती है, तो जिसने यह चढाई सही सलामत पूरी कर ली, उसे मैं गारण्टी दे सकता हूं कि ग्लेशियर तक कोई दिक्कत नहीं आयेगी।



ढाई घण्टे बाद साढे नौ बजे फुरकिया पहुंचे। अतुल आधे घण्टे पहले ही यहां पहुंच गया था। यहां पहुंचते ही अतुल ने झल्लाकर कहा कि यार, तू कितना धीमा चलता है। मुझे आधा घण्टा हो गया है यहां आये हुए। मैंने कहा कि हमने चलने से पहले ही नियम बना दिया था। उस नियम के तहत तू अगर किसी दूसरे की वजह से लेट हो रहा है तो उसे छोडकर आगे निकल सकता है। लेकिन इस तरह दूसरे पर आरोप नहीं लगा सकता। अतुल को गलती का एहसास हुआ और उसने फिर यह बात नहीं कही।
फुरकिया समुद्र तल से 3210 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यहां से पिण्डारी ग्लेशियर सात किलोमीटर दूर है। नन्दा देवी समूह की कई चोटियां खासकर पंवालीद्वार चोटी यहां से बडी शानदार दिखती है। अब जंगल भी खत्म हो गया और आगे का रास्ता बुग्यालों से होकर जाता है। द्वाली की ही तरह फुरकिया भी कोई गांव नहीं है बल्कि रुकने-खाने की एक जगह है। यहां कुमाऊं मण्डल विकास निगम का रेस्ट हाउस भी है और प्राइवेट होटल भी। इन होटलों को झौंपडियां कहना ज्यादा ठीक लगता है। ऐसे ही एक होटल में चाय बनवाई गई और बिस्कुट का एक पैकेट खाली किया गया।


फुरकिया
हल्दीराम के पॉर्टर प्रताप ने पूछा कि ऊपर ही रुकना है या वापस आना है। हल्दीराम ने इशारा मेरी तरफ कर दिया क्योंकि पूरी यात्रा में दिमाग खर्च करने की जिम्मेदारी जाट महाराज की ही थी। इधर तो वापस आकर द्वाली से भी आगे कफनी ग्लेशियर मार्ग पर जाने की सोचे बैठे थे। हमारी वापसी की खबर सुनकर प्रताप ने हल्दीराम से कहा कि जब वापस ही आना है तो आपका सामान यही रख देते हैं, वापसी में उठाते चलेंगे। यह आइडिया मुझे पसन्द आया और अपना स्लीपिंग बैग यही रख दिया जबकि हल्दीराम को यह बात बिल्कुल भी पसन्द नहीं थी कि ढाई सौ रुपये प्रतिदिन लेने पर भी प्रताप सामान उठाकर ना चले। और प्रताप की बात ठीक ही थी, जब ऊपर रुकना ही नहीं है तो फालतू में सामान उठाकर क्यों चलें?
हल्दीराम ने बहाना बनाया कि मुझे ऊपर ही रुकना है। पता चला कि अगर ऊपर रुकना है तो अपने साथ कम से कम स्लीपिंग बैग तो होना ही चाहिये। मैं अपना स्लीपिंग बैग देने से तो रहा। फुरकिया में भी वैसे तो स्लीपिंग बैग मिल जाते हैं लेकिन उस दिन नहीं मिला। एकमात्र चारा यही था कि वापस पांच किलोमीटर नीचे द्वाली जाओ और दो स्लीपिंग बैग (हल्दीराम और प्रताप दोनों के लिये) लेकर आओ। इसके लिये प्रताप राजी नहीं था। मैं समझ गया कि हल्दीराम जिद कर रहा है। खूब समझाया कि अगर आपको ऊपर ही रुकना था तो यह डिसीजन पहले क्यों नहीं लिया।
जब स्लीपिंग बैग का इंतजाम नहीं हुआ और हल्दीराम को लगने लगा कि अब सामान यही छोडने से बचाने के लिये कोई तर्क नहीं है तो उसने सीधे सीधे कह दिया कि मैं तुम्हे ढाई सौ रुपये दे रहा हूं, सामान साथ ले जाना पडेगा। हल्दीराम उन ज्यादा पढे लिखे लोगों में से है जो करना तो पर्यटन चाहते हैं लेकिन अपनी औकात दिखाने के लिये घुमक्कडी कर रहे हैं।


नन्दाखाट और पंवालीद्वार चोटियां



खैर, आगे चल पडे। अतुल चलने में हवा से बातें कर रहा था इसलिये तुरन्त ही आंखों से ओझल हो गया। फुरकिया से करीब आधा किलोमीटर बाद एक तेज नाला मिलता है। हमने वैसे तो अब तक कई नाले पार किये थे, लेकिन इतना बडा नहीं। जहां पगडण्डी इसमें जाकर समाती है वहां इसे पार करने का कोई तरीका नहीं है। ना ही कोई ऐसा पत्थर दिखा जिसपर पैर रख-रखकर इसे पार कर सकें। मैं अन्दाजे से कुछ ऊपर चढा तो पानी में पडे कुछ पत्थर दिख गये। पार कर लिया। पार करने के बाद कुछ आगे निकलकर पीछे देखा तो उसी जगह पर हल्दीराम और प्रताप खडे थे, जहां पगडण्डी नाले में समाती है। सीधी सी बात है कि प्रताप भी रास्ता ढूंढने के लिये ऊपर चढने लगा। हल्दीराम उसके पीछे-पीछे। तभी अचानक हल्दीराम का पत्थर से पैर फिसला और वो सीधा नाले में जा पडा। हल्दी का नसीब अच्छा था कि वो नाले के किनारे की तरफ गिरा, नहीं तो अगर दूसरी तरफ गिरता तो पानी का बहाव इतना तेज था कि बचना नामुमकिन था।
हिमालय की ऊंचाईयों पर एक खास बात है कि दोपहर बाद बादल आने लगते हैं। ये बादल कहीं बंगाल की खाडी या अरब सागर से नहीं आते बल्कि यही बनते हैं। होता यह है कि जैसे ही सुबह होती है तो मौसम बिल्कुल साफ-सुथरा होता है। जैसे जैसे दिन चढता है, वातावरण में गर्मी बढती है तो हवा भी चलने लगती है। बस यही गडबड हो जाती है। हवा चलती है तो पर्वत इसे मनचाही दिशा में नहीं चलने देते बल्कि नदी घाटियों में धकेल देते हैं जहां से हवा नदियों के साथ धीरे धीरे ऊपर चढती जाती है। जितनी ऊपर चढेगी, उतनी ही ठण्डी होगी और आखिरकार संघनित होकर धुंध का रूप ले लेती है और बादल बन जाती है। बादल बनते बनते दोपहर हो जाती है।
यहां भी ऐसा ही हुआ। बादल आने लगे और ग्लेशियर की ओर बढने लगे। पता था ही कि जब तक हम ग्लेशियर तक पहुंचेंगे तब तक बादल उसे अच्छी तरह ढक लेंगे। लेकिन अपने हाथ में होता क्या है?
मैंने पहले ही बता दिया था कि फुरकिया के बाद कोई पेड नहीं है। बस है तो सिर्फ दूर तक फैला हरा-भरा मैदान यानी बुग्याल। हम बिना कुछ खाये-पीये चले थे। दो गिलास चाय से होता क्या है? भूख लगने लगी। अतुल ‘मीलों’ आगे जा चुका था, हल्दीराम ‘मीलों’ पीछे था। महाराज बैठ गये एक चट्टान पर और बैग से निकालकर नमकीन खाने लगे। मेरे पास नमकीन के दो पैकेट और बिस्कुट के भी इतने ही पैकेट थे। तभी ग्लेशियर की तरफ से कुछ घुमक्कड आते दिखे। उनसे मैंने अतुल के बारे में पूछा तो बताया कि वो बहुत आगे चला गया है।
जब देखा कि हल्दीराम और प्रताप पास ही आने वाले हैं तो बची-खुची नमकीन बैग में रखी और चल पडा। हल्दी ने देखते ही आवाज लगाई कि भाई, रुक जरा। बोला कि जबरदस्त भूख लगी है, कुछ दे दे। मैंने वही बची-खुची नमकीन दे दी।








करीब एक बजे मैं बाबाजी के आश्रम पर पहुंचा। अतुल पहले से ही बैठा था। यहां से पिण्डारी जीरो पॉइण्ट एक किलोमीटर आगे है। यहां एक बाबाजी रहते हैं- बारहों महीने। लेकिन मुझे नहीं लगता कि वे बारहों महीने यहां रहते होंगे। खैर, उनकी तारीफ करनी पडेगी क्योंकि वे आने-जाने वालों को खाना मुहैया कराते हैं- फ्री में। जरुरत पडने पर ओढने-बिछाने के कपडे भी दे देते हैं। समुद्र तल से 3650 मीटर की ऊंचाई पर ग्लेशियर की नाक के तले घण्टे भर तक रुकना ही महान हौंसले का काम होता है, फिर बाबाजी की जितनी भी तारीफ हो, कम है। जिस टाइम हम वहां पहुंचे, बाबाजी मेन गेट पर ताला लगाकर अन्दर पूजा-ध्यान में व्यस्त थे इसलिये उनसे मिलना नहीं हो सका।
कुछ देर बाद प्रताप और हल्दीराम भी आ पहुंचे। तब तक मैंने और अतुल ने बची-खुची नमकीन और बिस्कुट खत्म कर दिये थे। जब प्रताप को पता चला कि बाबाजी ध्यान में बैठे हैं, तो उसने आगे ग्लेशियर तक जाने से सीधे मना कर दिया क्योंकि उसे जबरदस्त भूख लगी थी। वो बाबाजी के भरोसे ही आया था कि वहां तो खाना मिल ही जायेगा।


नीचे मैदान में कई झौंपडियां दिखाई दे रही हैं जिनमें लाल छत वाला बाबाजी का आश्रम है।



आधे घण्टे और चलने के बाद हम उस जगह पहुंचे जहां जीरो पॉइण्ट का बॉर्ड लगा हुआ है। अब तक बादलों ने सारे दृश्य को कैद कर लिया था। पहले मैं सोचा करता था कि जीरो पॉइण्ट का मतलब है कि अब बस। आगे ठोस बर्फ का इलाका यानी ग्लेशियर शुरू होता है। लेकिन यहां तो करीब एक किलोमीटर तक निगाह जा रही है, बरफ-वरफ कुछ भी नहीं दिख रही है। घास-फूस और पत्थर ही दिख रहे हैं। जीरो पॉइण्ट के बॉर्ड से आगे भी पगडण्डी जा रही थी। हम दस मीटर भी आगे नहीं गये, तभी समझ में आ गया कि इसे जीरो पॉइण्ट क्यों कहते हैं और इसपर चेतावनी क्यों लिखी है कि आगे खतरा है।
असल में यह महान भूस्खलन क्षेत्र है। हम एक धार पर खडे थे और हमारे बराबर में जहां तक निगाह जाती है, भूस्खलन ही दिखता है। एक बार अगर कोई पत्थर भी गिर गया तो समझो कि वो कम से कम 1500 फीट नीचे बह रही पिण्डर नदी में ही जाकर रुकेगा। जानलेवा और महा खतरनाक जगह। पगडण्डी पर भी जगह जगह दरारें पडी थीं जिनका मतलब था कि कभी भी यह जगह नीचे गिर सकती है। और ऊपर से नीचे देखने पर 25000 वोल्ट का करंट सा लगता था। यह वो जगह है जहां से आगे जा ही नहीं सकते।
अगर जाना ही है तो किसी तरह नीचे उतरकर पिण्डारी नदी तक पहुंचो और नदी के साथ साथ आगे बढो। और हां, इससे आगे बढने वालों को पर्वतारोही कहते हैं। हम जैसे पदयात्री यानी ट्रेकर इससे आगे जा ही नहीं सकते। पर्वतारोहण और ट्रेकिंग में यही फरक है कि जहां ट्रेकर के कदम रुक जाते हैं, वही से पर्वतारोही के कदम शुरू होते हैं।




अतुल भूस्खलन देख रहा है। यहां हर साल कुछ ना कुछ भूस्खलन होता रहता है।





वापस बाबाजी के आश्रम पर पहुंचे। तब तक बंगाली और देवा भी आ गये थे और उन्होंने कुटिया से कुछ दूरी पर तम्बू लगा लिया था। साढे तीन बज चुके थे। दो घण्टे में अन्धेरा हो जायेगा और अभी हमें 12 किलोमीटर वापस जाकर द्वाली तक पहुंचना भी है। इसलिये मैंने चेतावनी दी कि जल्दी निकलो, नहीं तो द्वाली नहीं पहुंच पायेंगे। मेरी चेतावनी का कोई असर नहीं होता अगर मैं अतुल और हल्दीराम को छोडकर ना चल पडता। मेरे चलते ही अतुल भी चल पडा और हल्दीराम बैठा रहा। मैं हल्दीराम की तरफ से बिल्कुल भी चिन्तित नहीं था क्योंकि उसके साथ एक स्थानीय लडका प्रताप भी था। आ जायेंगे धीरे-धीरे।
अतुल तो गोली की स्पीड से निकल गया। मैंने भी अपनी औकात से ज्यादा तेज चलना शुरू कर दिया। अब ऊपर तो चढना था नहीं, नीचे ही उतरना था। सवा घण्टा लगा मुझे सात किलोमीटर दूर फुरकिया तक जाने में। यहां मेरा स्लीपिंग बैग रखा था। चाय बनवा ली और हल्दीराम की प्रतीक्षा करने लगा। चाय वाले ने बताया कि अतुल तो भागमभाग में था और यहां रुका भी नहीं।
दस मिनट बाद प्रताप आ गया- हल्दीराम का गाइड। उसने बताया कि हल्दीराम ऊपर ही रुक गया है। वो आज बंगाली के तम्बू में सोयेगा। और उसके पास तो स्लीपिंग बैग भी नहीं है। रात को पारा माइनस ना भी पहुंचेगा तो जीरो तक जरूर पहुंच जायेगा। चल, मरने दे। भुगतेगा अपने आप। वो तो बंगाली के गाइड देवा से भी वापस जाने को कह रहा था लेकिन देवा ने अपने ग्राहक को इस तरह छोडना ठीक नहीं समझा। बाद में पता चला कि बाबाजी के आश्रम में उन्होंने भरपेट खाना खाया था और वही से कुछ ओढने बिछाने को ले लिया था। वही पर रुकने के लिये हल्दीराम ने बहाना बनाया था कि उसके पैर में इतना दर्द है कि वो चल नहीं सकता। जबकि हकीकत यह है कि हमसे उसने एक बार भी यह बात नहीं कही। जीरो पॉइण्ट तक हो आया, लेकिन उसने दर्द की बात हमसे एक बार भी नहीं बताई। जरूर कुछ मामला गडबड है। दाल में जरूर कुछ काला है।
मैंने प्रताप को बताया कि कल उससे कह देना कि जाट महाराज कफनी ग्लेशियर नहीं जायेगा, बल्कि वापस जायेगा। अब तुम्हें जाट कहीं नहीं मिलेगा। और जंगल का आधा रास्ता अन्धेरे में तय करता हुआ मैं द्वाली पहुंच गया। अतुल आधे घण्टे पहले आ चुका था। मैंने अतुल को बताया कि हल्दीराम ऊपर ही रुक गया है तो उसे विश्वास ही नहीं हुआ। जब घण्टाभर और बीत गया तो उसे विश्वास होने लगा। मैंने कहा कि योजना के अनुसार कल हमें कफनी ग्लेशियर जाना है। जब तक हम कफनी से वापस आयेंगे, तब तक हल्दीराम भी पिण्डारी से वापस आ जायेगा। और वो आगे का सफर फिर हमारे साथ ही करेगा। मैं नहीं चाहता कि वो अब हमें मिले। उसके पैर में अगर दर्द था तो वो सफलतापूर्वक बिना चूं किये 3750 मीटर की ऊंचाई पर जीरो पॉइण्ट तक कैसे पहुंच गया और हमें क्यों नहीं बताया। उसने क्यों अपने पॉर्टर प्रताप को वापस भेजा और क्यों देवा को भी वापस जाने को कह रहा था? बीमार आदमी चाहता है कि उसके पास कोई ना कोई रहे, और यहां इतनी ऊंचाई और दुर्गम जगह पर तो अच्छा-खासा तंदुरुस्त आदमी भी यही चाहेगा। मुझे कुछ दाल में काला लग रहा है।
अतुल ने बताया- “दाल में काला नहीं है, बल्कि पूरी दाल ही काली है। असल में हल्दीराम ‘दूसरी तरह’ का इंसान है। वो ‘शाही शौक’ रखता है। जब धाकुडी में हम दोनों साथ सोये थे, तभी मुझे उसकी हरकतों से पता चल गया था। दूसरी रात द्वाली में कल कटी तो वो तेरे पास सोया था। पर तू था स्लीपिंग बैग में और नींद का कोल्हू, तो उसकी दाल नहीं गली। आज वो बंगाली पर निगाह मार रहा होगा। इसीलिये बंगाली के साथ रुकना चाहता है और प्रताप-देवा को वापस भेजना चाहता है।“
अपना दिमाग खराब हो गया। निर्णय हो गया कि कल सुबह वापस खाती और अल्मोडा के लिये निकल लेना है। हिसाब लगाया तो पता चला कि अभी हल्दीराम पर मेरे ढाई सौ रुपये बाकी हैं। लेकिन संतोष कर लिया कि ढाई सौ से ज्यादा तो हमने उसके बिस्कुट, नमकीन, मिठाईयां खा लीं और अतुल के पास उसका विण्डचीटर भी था, एक चादर भी थी। कुल मिलाकर ढाई सौ रुपये वसूल हो रहे थे। वापस जाने की सोचकर हम लम्बी तानकर सो गये।



अगला भाग: कफनी ग्लेशियर यात्रा- पांचवां दिन (द्वाली-कफनी-द्वाली-खाती)


पिण्डारी ग्लेशियर यात्रा
1. पिण्डारी ग्लेशियर यात्रा- पहला दिन (दिल्ली से बागेश्वर)
2. पिण्डारी ग्लेशियर यात्रा- दूसरा दिन (बागेश्वर से धाकुडी)
3. पिण्डारी ग्लेशियर यात्रा- तीसरा दिन (धाकुडी से द्वाली)
4. पिण्डारी ग्लेशियर यात्रा- चौथा दिन (द्वाली-पिण्डारी-द्वाली)
5. कफनी ग्लेशियर यात्रा- पांचवां दिन (द्वाली-कफनी-द्वाली-खाती)
6. पिण्डारी ग्लेशियर यात्रा- छठा दिन (खाती-सूपी-बागेश्वर-अल्मोडा)
7. पिण्डारी ग्लेशियर- सम्पूर्ण यात्रा
8. पिण्डारी ग्लेशियर यात्रा का कुल खर्च- 2624 रुपये, 8 दिन

Comments

  1. हमें तो चित्र देखकर ठंड लग रही है।

    ReplyDelete
  2. हाय रे नीरज की वो हाथी की तरह झूमती मस्त धीमी चाल जिससे कभी नीरज तो कभी आगे जाने वाला परेशान हो जाता है, दाल ही काली कर दी होगी, विचित्र प्राणी जब कही जाते है तो ऐसे हादसे हंगामे तो हो ही जाते है"
    जैसे आप लोंगों ने बताया है अपुन भी देखेंगे इस यात्रा में कितना समय लगता है तभी पता चलेगा कि कैसी यात्रा होगी"

    ReplyDelete
  3. बहुत नई नई जानकारी .. चल रहे हैं आपके साथ हम भी !!

    ReplyDelete
  4. चित्र देखकर ही पूरे शरीर में फ़ुरफ़ुरी दौड़ने लगी, और तुम वहाँ आधी बाँह की शर्ट में खड़े हो।

    ReplyDelete
  5. नीरज बाबू मजा आ गया
    इतनी दुर्लभ जगह पर जाना वो भी अकेले बिना गाइड के
    तुमने तो यार कमाल कर दिया धोती पहाड़ के रुमाल कर दिया

    हल्दीराम उन ज्यादा पढे लिखे लोगों में से है जो करना तो पर्यटन चाहते हैं लेकिन अपनी औकात दिखाने के लिये घुमक्कडी कर रहे हैं।

    इस से क्या तात्पर्य है तुम्हारा थोडा समझाओगे क्या पिलीज

    ReplyDelete
  6. हमें तो सब कुछ इक सपना सा लग रहा है.

    ReplyDelete
  7. bahut achhe. aapki ye ladaiyan, nok jhonk har yatra mein chali hi rehti hai waise :D aisa lagta hai jaise bachhe lad rahe hain aapas mein

    ReplyDelete
  8. जैसा हिमालय दर्शन आपके ब्लॉग ने दिखाया है वैसा हमने जीवन में और कहीं नहीं देखा. क्या कमाल के चित्र हैं और वर्णन...बेजोड़.

    नीरज

    ReplyDelete
  9. ’शाही शौक’ से बंगाली बाबू कैसे निबटे, बताना अगली बार:)

    ReplyDelete
  10. खूबसूरत वादियाँ ...
    किस्मत वाले हो यार ...
    :-)

    ReplyDelete
  11. भौत बढिया, अब शाही शौक वाले भी घुमक्कड़ी करने लगे।

    अलख निरंजन, ध्यान रहे बच्चा :)

    ReplyDelete
  12. ये शाही शौक वाले हम जैसों की घुमक्कड़ी भी बंद करवाएंगे, पहले पूछ लिया करो की, "आप शाही शौक रखते हैं? "

    ReplyDelete
  13. "हल्दीराम उन ज्यादा पढे लिखे लोगों में से है जो करना तो पर्यटन चाहते हैं लेकिन अपनी औकात दिखाने के लिये घुमक्कडी कर रहे हैं।"

    इस से क्या तात्पर्य है तुम्हारा थोडा समझाओगे क्या पिलीज
    फकीरा जी से सहमत

    ReplyDelete
  14. भाई तूने बात तो कर दी अपनी औकात वाली न तो अतुल ने कुछ कहा और न बंगाली ने रही बात प्रताप पोर्टर की तो उसको क्या बताना था या नही वो मेरे ऊपर था मुझे नही पता कि आप दिल्ली मेट्रो के j.e. होकर २५० रु की मानसिकता रखते हो भाई अगर हम इस तरह चिन्दी चिन्दी पाई पाई का हिसाब रखे तो घर से बाहर ही न निकले बाकी मेरे शाही शौक तो भाई हम कमाते इस लिये है कि उसका मजा ले कोई हमे पैसे लेकर ऊपर नही जाना है ,जिन्द्गी हमे हर पल इक नया अनुभव देती है और आपसे भी हमे कुछ नया अनुभव मिला है बाकि रहीम जी का इक दोहा है जरा ध्यान से पढना " रहिमन बुरा न मानिये जो गंवार कह जाय जैसे घर का नरदहा (नाली) भला बुरा बह जाय" बाकी आप खुद ही समझदार है

    ReplyDelete
  15. बहुत सुंदर चित्र देखकर तबियत खुश हो गई ----और यह घुमक्कड़ी और 'शाही शोक' कुछ समझ नहीं आया नीरज ! और ऊपर से हल्दीराम का बयान भी कुछ पल्ले नहीं पड़ा -- लगता हैं दाल में जरुर कुछ काला मिलाया जा रहा हैं ??? अब यह बात तो आप लोग ही जाने ----! मुझे तो ऐसा रोमांच देखकर सनसनी दौड़ गई --- कितनी अद्भुत हैं हमारी पुथ्वी --इसे दिखाने का श्रेय तुम्हे जाता हैं -- नीरज -- तुम लोगो के हौसलों की दाद देती हूँ ---- सेल्यूट ! --- धन्यवाद !

    ReplyDelete
  16. @ Mirchi Namak उर्फ हल्दीराम,
    दिल्ली मेट्रो का जेई बाद में हूं, पहले एक घुमक्कड हूं और मैं अपनी हर यात्रा का एक-एक रुपये का हिसाब रखता हूं। आपको तो साल दो साल में एकाध बार घर से बाहर निकलना होता है, मैं हर महीने में दो बार निकलता हूं। आपकी तरह शाही खर्च करने लगूं और दिल्ली मेट्रो का जेई होने का दम्भ भरने लगूं तो हो हा ली घुमक्कडी। एक बार जाकर मेरा प्रोफाइल देखिये, कम टाइम और कम खर्चे में घुमक्कडी करना मकसद है अपना।
    "हम कमाते इस लिये है कि उसका मजा ले कोई हमे पैसे लेकर ऊपर नही जाना है" मतलब आप मुझे खर्च करना सिखा रहे हैं। जरा हिसाब लगाओ कि मैं हर महीने 2000 रुपये घूमने पर खर्च करता हूं। साल में 24000 हुए। आप एक साल में भी निकलेंगे तो कितना भी खर्च करने की बात करते हो, 24000 खर्च नहीं कर सकते। पहले खुद को देखो, दूसरों को बाद में बात बनाना। प्रताप को पेमेण्ट करते समय मात्र पचास रुपये की वजह से उसने आपको कितनी सुनाई थी, मुझे अभी भी याद है।
    और आपके शाही शौक के बारे में अगर कुछ बात थी तो उसमें पूरी सच्चाई भले ही ना हो, कुछ ना कुछ सच्चाई तो जरूर है। जवाब दो कि अगर आपके पैर में इतना दर्द था कि हंसते खेलते कूदते पिण्डारी ग्लेशियर तक कैसे पहुंच गये, और हमसे बताया भी नहीं कि दर्द है। वापस बाबा के आश्रम आने पर भी आपने हमसे नहीं बताया कि पैर में दर्द है। जब हम कई सौ मीटर आगे निकल गये, तब आप आवाज लगाकर रुकने को कह रहे थे। तब अचानक आपको इतना दर्द हो गया। भाई, हिमालय का आपसे ज्यादा तजुर्बा रखता हूं, मुझे पता है कि दर्द कब होता है, कहां होता है, कैसे ठीक होता है। मेरे सामने यह ड्रामेबाजी बन्द करो और इस बात का जवाब हो तो बताओ।

    @ दर्शन कौर जी,
    दाल में काला नहीं मिलाया जा रहा है। मैं कभी भी मात्र यह नहीं लिखता कि मैंने क्या खाया, क्या पीया, कहां रुके, क्या देखा। यात्रा के दौरान क्या अनुभव हुए, आपस में क्या-क्या बातें हुईं, यह भी मैं खुलकर लिखता हूं। अगर हल्दीराम को लेकर कुछ बात फैल रही है, तो उसे लिखने में क्या बुराई है।

    ReplyDelete
  17. फोटो देख कर ही रोमांच हो रहा है. प्रत्यक्ष देखने वाले के रोमांच की कल्पना की जा सकती है.

    ReplyDelete
  18. रोमांचक यात्रा विवरण

    ReplyDelete
  19. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  20. नीरज जाट जी ये मेरा घुमक्क्डी का पहला अनुभव था जिसके लिये मै आपसे कई बार बता चुका हूं और आपसे मैने कई बार फोन पे भी सलाह ली मेरी ये यात्रा सिर्फ आपके ही सहारे थी और रही बात मेरे पैर दर्द की तो मैं कोई छोटा बच्चा तो हू नही की अपना दर्द लेकर राग अलाप करुं हां ये बात अवश्य है कि जहां मुझे आपसे सहयोग आपेक्षित था वहां तो आप अपनी धुन में भागे चले जा रहे थे मुझ को बियाबान जंगल मे छोड गये हां अगर किसी ने मेरा सह्योग किया वो बंगाली बाबू था जो मेरे लिये देवा गाईड से भी लडा जबकी मै तो सिर्फ आपके भरोसे जीरो प्वाईट पे जाने को तैयार हो गया हां इसमे मर्जी जरुर हमारी ही थी अब आपके इस सवाल का जवाब की मै दर्द के बावजूद ३५०० मी० की उचाई कैसे चढ गया तो भाई जिस जीरो प्वाईट के लिये मैने यात्रा के इतने परेशानियो का सामना किया मै अपने दर्द के चक्कर में इस अवसर को नही गंवा सकता था,लेकिन कुछ भी हो मुझे इस यात्रा का लाभ सिर्फ आप के कारण मिला वरना अपने राम तो सांग से ही वापस लौट जाने का मन बनाने लगे थे मुझे पिडारी यात्रा पूरी करने का पूरा श्रेय आप को ही जाता है इसके लिये आपका बहुत बहुत धन्यवाद!

    ReplyDelete
  21. मस्त भाई मस्त! यह सिर्फ नीरज जाट के बस का है.....

    ReplyDelete
  22. वाह नीरज भाई...आपने यात्राएं सजीव करने का अच्छा तरीका बताया है..आपको बधाई कि सुदूर हिमालयी क्षेत्रों में इस जूनून के साथ आप यात्राएं करते हों. घुम्मकड़ी का मजा भी तभी है जब उसे शब्दों के ब्याख्यान से जीवित किया जाय. आपका अग्रिम यात्राओं के लिए शुभ कमनाये..

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब...