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जानकीचट्टी से मैने दोपहर दो बजे के करीब चढाई शुरू कर दी। तारीख थी बीस अप्रैल दो हजार दस। मैं थोडी देर पहले ही आठ किलोमीटर पैदल चलकर हनुमानचट्टी से आया था। थक भी गया था। फिर समुद्र तल से लगभग 2500 मीटर की ऊंचाई पर हवा की कमी भी महसूस होने लगती है। हल्के-हल्के चक्कर भी आ रहे थे। यहां से मेरे साथ एक परिवार और भी चल रहा था। वे लोग भरतपुर से आये थे। हरिद्वार में कुम्भ स्नान करने आये थे। समय बच गया तो ड्राइवर से कहा कि कहीं भी घुमा लाओ। ड्राइवर यमुनोत्री ले आया। ड्राइवर समेत पांच जने थे। ड्राइवर तो तेज-तेज चल रहा था लेकिन वे चारों बेहद धीरे-धीरे। दो-चार कदम चलते और सिर पकडकर बैठ जाते। उनका इरादा था कि यमुनोत्री घूम-घामकर आज ही वापस आयेंगे और कल गंगोत्री जायेंगे। उधर मेरा इरादा था कि आज रात को ऊपर यमुनोत्री में ही रुकना है। इसलिये मुझे भी तेज चलने में कोई दिलचस्पी नहीं थी।
एक-डेढ किलोमीटर चले होंगे तभी बूंदाबांदी होने लगी। ऐसी ठण्डी जगह पर भीगने में नुकसान ही नुकसान होता है, खासतौर से सिर भीगने पर। बचने की कोई जगह तो थी नहीं, फिर कहीं छोटी-मोटी गुफा में बैठते तो क्या पता कि कितनी देर तक बारिश होती रहे, फिर भरतपुर वालों को आज ही वापस जाना था; इसलिये बूंदाबांदी के बीच चलते रहे। हां, मैने सिर पर एक पन्नी रख ली ताकि सिर बचा रहे। अगर बुखार-वुखार चढ गया तो दवाई-पट्टी तो दूर, कोई हाल-चाल पूछने वाला भी नहीं मिलेगा। यहां पिछले कई दिनों से मौसम खराब चल रहा था, इसलिये यमुना में भी पानी बढ गया था और जगह-जगह झरने भी पूरे जोश में थे।
तभी ड्राइवर ने मुझसे कहा कि भाई साहब, चलो हम तेज-तेज चलते हैं। ये लोग धीरे-धीरे आ जायेंगे। तब तक हम ऊपर बैठकर आराम करेंगे और इनकी प्रतीक्षा कर लेंगे। बस, हम चल पडे। चलते-चलते वो बोला कि यह घाटी इतनी दुर्गम है कि यहां पैदल चलने में भी डर लग रहा है, फिर कौन यहां पहली बार आया होगा। किसने यमुनोत्री की खोज की होगी? फिर आकर वापस भी गया होगा, तभी तो दुनिया को पता चला होगा कि कहीं यमुनोत्री भी है। मैने कहा कि हां, हो सकता है कि कोई डाकपत्थर से यमुना के साथ-साथ आया हो, या बडकोट से भी आया हो, फिर इसी दुर्गम घाटी से होकर वहां तक गया हो जहां आज यमुनोत्री है। हो सकता है कि उससे आगे जाना उसके बस की बात ना हो, उसने वहीं पर मन्दिर बनवा दिया हो। और सबसे बडी मेहनत तो उसकी है जिसने इस पैदल मार्ग का निर्माण करवाया है।
बातों-बातों में हम यमुनोत्री पहुंच गये। यहां एक छोटा लोहे का पुल तो था, एक उससे बडा पुल बनाया जा रहा था। हम सीधे स्नान कुण्ड पर पहुंचे। मैं पहले भी बता चुका हूं कि अभी यात्रा सीजन शुरू नहीं हुआ है, इसलिये यहां कोई पर्यटक या श्रद्धालु नहीं था। दिन भर में एकाध आ गये, बहुत हैं। आज भी यहां मजदूर काम पर लगे हुए थे, रास्ते में जगह जगह मरम्मत कर रहे थे, मन्दिर के पास पुल बन रहा है; और भी छोटे-मोटे काम चल रहे हैं। ड्राइवर ने थोडी देर तक तो उनकी प्रतीक्षा की, फिर सोचा कि हो सकता है वे वापस चले जायें। इसके बाद ड्राइवर भी चला गया। मैं अकेला रह गया। मुझे आज रात को यही रुकना था। मेरा इरादा कल सप्तऋषि कुण्ड जाने का था। सप्तऋषि कुण्ड से ही यमुना की उत्पत्ति मानी गयी है। यह यमुनोत्री से कुछ ऊपर है और वहां जाने का मार्ग बेहद दुर्गम है।
यहां मुख्य मन्दिर के बराबर में ही एक गुफा है। इस गुफा में सालों से एक महाराज जी रहते हैं। वे कभी नीचे नहीं जाते, सर्दियों में कपाट बन्द होने के बाद भी। अकेले ही रहते हैं। कहा जाता है कि नीचे जाना तो दूर, उन्होने कभी सामने बहती यमुना को भी पार नहीं किया है। कुछ भक्तों ने उस गुफा के सामने मन्दिर भी बनवा दिया है। महाराज उसी में रहते हैं, खुद बनाते हैं, खाते हैं। बाद में अगले दिन मैने उनकी फोटो लेनी चाही तो उन्होने मना कर दिया। तो मैने उनका फोटो लिया ही नहीं। आज जब कोई नहीं दिखा तो मैं उनके पास ही पहुंचा –“बाबा, आज रुकने के लिये कोई कमरा मिल जायेगा क्या यहां?” बोले कि मिल जायेगा, अभी थोडी देर सामने खडे होकर कुदरत का मजा लो।
सामने यानी महिला स्नान कुण्ड की छत पर मैं खडा हो गया। शोर करती यमुना को देखने लगा। मेरे पास में ही एक मजदूर सरिये का काम कर रहा था। पीछे से एक और मजदूर टाइप का बन्दा आता दिखाई दिया। मैने उससे अपनी समस्या बताई। हल्की माडी पूछताछ करके उसने कहा कि मैं यहां का सरकारी चौकीदार हूं। सारा काम मेरी ही देखरेख में हो रहा है। अभी चूंकि सभी धर्मशालायें, होटल वगैरा बन्द पडे हैं, इसलिये आपको रात रुकने में वो मजा नहीं आयेगा जो आना चाहिये था। ऐसा करो कि आप हमारे पास ही रुक जाओ, खाना भी मैं ही बना दूंगा। मुझे और चाहिये ही क्या था। तुरन्त हां।
जिस स्थान पर यमुनोत्री मन्दिर बना हुआ है, उसी के ठीक नीचे चौकीदार के दो कमरे हैं। एक में एक तखत और चूल्हा है, दूसरे में दो तखत और अन्य सामान रखे हुए हैं। चौकीदार के साथ उसका पन्द्रह साल का लडका भी रहता है। उनके साथ वही सरिये वाला मजदूर भी रहता है जोकि मूलरूप से नेपाली है। वे तीनों इकट्ठे हो गये। दोनों कमरों में घुप्प अन्धेरा था। थोडी देर बाद जब आंखें अन्धेरे में देखने की अभ्यस्त हुईं तो कुछ दिखने लगा। उस समय ना तो मैने किराये की कोई बात की ना ही उन्होनें। नेपाली झाडू लगाने लगा, लडका तखत पर बिछे गद्दे झाडने लगा। लडके ने बताया कि भैया पता है, आज आपकी वजह से यहां झाडू लगी है। इससे पहले यहां झाडू लगी थी पिछले साल जब कपाट बन्द हुए थे, उससे भी पहले।
और जैसे ही लडके ने एक गद्दा उठाया, उसमें से दस-बारह काकरोच झड पडे – सभी एक-एक उंगली जितने लम्बे। चूंकि वहां नमी, सीलन और अन्धेरा था, साफ-सफाई भी नहीं होती थी, इसलिये काकरोच तो होने ही थे। मैने पूछा कि भई, यहां तो काकरोच हैं, खटमल तो नहीं हैं। बोले कि खटमल? ये क्या होता है? मैने बताया कि रात को सोते समय छोटे-छोटे चींटी जैसे काले-काले कीट, जो शरीर में काटते रहते हैं, वे हैं या नहीं। बोले कि नहीं, केवल काकरोच ही हैं, और कुछ नहीं हैं। खटमल से मुझे दिक्कत होती है, काकरोच चलेंगे। अगर खटमल होते तो मैं उसी समय वापस चला आता।
एक-डेढ किलोमीटर चले होंगे तभी बूंदाबांदी होने लगी। ऐसी ठण्डी जगह पर भीगने में नुकसान ही नुकसान होता है, खासतौर से सिर भीगने पर। बचने की कोई जगह तो थी नहीं, फिर कहीं छोटी-मोटी गुफा में बैठते तो क्या पता कि कितनी देर तक बारिश होती रहे, फिर भरतपुर वालों को आज ही वापस जाना था; इसलिये बूंदाबांदी के बीच चलते रहे। हां, मैने सिर पर एक पन्नी रख ली ताकि सिर बचा रहे। अगर बुखार-वुखार चढ गया तो दवाई-पट्टी तो दूर, कोई हाल-चाल पूछने वाला भी नहीं मिलेगा। यहां पिछले कई दिनों से मौसम खराब चल रहा था, इसलिये यमुना में भी पानी बढ गया था और जगह-जगह झरने भी पूरे जोश में थे।
तभी ड्राइवर ने मुझसे कहा कि भाई साहब, चलो हम तेज-तेज चलते हैं। ये लोग धीरे-धीरे आ जायेंगे। तब तक हम ऊपर बैठकर आराम करेंगे और इनकी प्रतीक्षा कर लेंगे। बस, हम चल पडे। चलते-चलते वो बोला कि यह घाटी इतनी दुर्गम है कि यहां पैदल चलने में भी डर लग रहा है, फिर कौन यहां पहली बार आया होगा। किसने यमुनोत्री की खोज की होगी? फिर आकर वापस भी गया होगा, तभी तो दुनिया को पता चला होगा कि कहीं यमुनोत्री भी है। मैने कहा कि हां, हो सकता है कि कोई डाकपत्थर से यमुना के साथ-साथ आया हो, या बडकोट से भी आया हो, फिर इसी दुर्गम घाटी से होकर वहां तक गया हो जहां आज यमुनोत्री है। हो सकता है कि उससे आगे जाना उसके बस की बात ना हो, उसने वहीं पर मन्दिर बनवा दिया हो। और सबसे बडी मेहनत तो उसकी है जिसने इस पैदल मार्ग का निर्माण करवाया है।
बातों-बातों में हम यमुनोत्री पहुंच गये। यहां एक छोटा लोहे का पुल तो था, एक उससे बडा पुल बनाया जा रहा था। हम सीधे स्नान कुण्ड पर पहुंचे। मैं पहले भी बता चुका हूं कि अभी यात्रा सीजन शुरू नहीं हुआ है, इसलिये यहां कोई पर्यटक या श्रद्धालु नहीं था। दिन भर में एकाध आ गये, बहुत हैं। आज भी यहां मजदूर काम पर लगे हुए थे, रास्ते में जगह जगह मरम्मत कर रहे थे, मन्दिर के पास पुल बन रहा है; और भी छोटे-मोटे काम चल रहे हैं। ड्राइवर ने थोडी देर तक तो उनकी प्रतीक्षा की, फिर सोचा कि हो सकता है वे वापस चले जायें। इसके बाद ड्राइवर भी चला गया। मैं अकेला रह गया। मुझे आज रात को यही रुकना था। मेरा इरादा कल सप्तऋषि कुण्ड जाने का था। सप्तऋषि कुण्ड से ही यमुना की उत्पत्ति मानी गयी है। यह यमुनोत्री से कुछ ऊपर है और वहां जाने का मार्ग बेहद दुर्गम है।
यहां मुख्य मन्दिर के बराबर में ही एक गुफा है। इस गुफा में सालों से एक महाराज जी रहते हैं। वे कभी नीचे नहीं जाते, सर्दियों में कपाट बन्द होने के बाद भी। अकेले ही रहते हैं। कहा जाता है कि नीचे जाना तो दूर, उन्होने कभी सामने बहती यमुना को भी पार नहीं किया है। कुछ भक्तों ने उस गुफा के सामने मन्दिर भी बनवा दिया है। महाराज उसी में रहते हैं, खुद बनाते हैं, खाते हैं। बाद में अगले दिन मैने उनकी फोटो लेनी चाही तो उन्होने मना कर दिया। तो मैने उनका फोटो लिया ही नहीं। आज जब कोई नहीं दिखा तो मैं उनके पास ही पहुंचा –“बाबा, आज रुकने के लिये कोई कमरा मिल जायेगा क्या यहां?” बोले कि मिल जायेगा, अभी थोडी देर सामने खडे होकर कुदरत का मजा लो।
सामने यानी महिला स्नान कुण्ड की छत पर मैं खडा हो गया। शोर करती यमुना को देखने लगा। मेरे पास में ही एक मजदूर सरिये का काम कर रहा था। पीछे से एक और मजदूर टाइप का बन्दा आता दिखाई दिया। मैने उससे अपनी समस्या बताई। हल्की माडी पूछताछ करके उसने कहा कि मैं यहां का सरकारी चौकीदार हूं। सारा काम मेरी ही देखरेख में हो रहा है। अभी चूंकि सभी धर्मशालायें, होटल वगैरा बन्द पडे हैं, इसलिये आपको रात रुकने में वो मजा नहीं आयेगा जो आना चाहिये था। ऐसा करो कि आप हमारे पास ही रुक जाओ, खाना भी मैं ही बना दूंगा। मुझे और चाहिये ही क्या था। तुरन्त हां।
जिस स्थान पर यमुनोत्री मन्दिर बना हुआ है, उसी के ठीक नीचे चौकीदार के दो कमरे हैं। एक में एक तखत और चूल्हा है, दूसरे में दो तखत और अन्य सामान रखे हुए हैं। चौकीदार के साथ उसका पन्द्रह साल का लडका भी रहता है। उनके साथ वही सरिये वाला मजदूर भी रहता है जोकि मूलरूप से नेपाली है। वे तीनों इकट्ठे हो गये। दोनों कमरों में घुप्प अन्धेरा था। थोडी देर बाद जब आंखें अन्धेरे में देखने की अभ्यस्त हुईं तो कुछ दिखने लगा। उस समय ना तो मैने किराये की कोई बात की ना ही उन्होनें। नेपाली झाडू लगाने लगा, लडका तखत पर बिछे गद्दे झाडने लगा। लडके ने बताया कि भैया पता है, आज आपकी वजह से यहां झाडू लगी है। इससे पहले यहां झाडू लगी थी पिछले साल जब कपाट बन्द हुए थे, उससे भी पहले।
और जैसे ही लडके ने एक गद्दा उठाया, उसमें से दस-बारह काकरोच झड पडे – सभी एक-एक उंगली जितने लम्बे। चूंकि वहां नमी, सीलन और अन्धेरा था, साफ-सफाई भी नहीं होती थी, इसलिये काकरोच तो होने ही थे। मैने पूछा कि भई, यहां तो काकरोच हैं, खटमल तो नहीं हैं। बोले कि खटमल? ये क्या होता है? मैने बताया कि रात को सोते समय छोटे-छोटे चींटी जैसे काले-काले कीट, जो शरीर में काटते रहते हैं, वे हैं या नहीं। बोले कि नहीं, केवल काकरोच ही हैं, और कुछ नहीं हैं। खटमल से मुझे दिक्कत होती है, काकरोच चलेंगे। अगर खटमल होते तो मैं उसी समय वापस चला आता।
थोडा ऊपर से जानकीचट्टी का नजारा |
सीधे खडे पहाड, नीचे बहती यमुना और यमुनोत्री जाने का रास्ता |
बारिश हुई तो सिर पर पॉलीथीन बैग रख लिया। |
इस तरह के कई झरने रास्ते में पडते हैं। |
पर्वतों पर जमी बर्फ |
यमुनोत्री के प्रथम दर्शन |
यमुनोत्री मन्दिर |
यहां तीन कुण्ड हैं गर्म जल के। सूर्य कुण्ड, द्रौपदी कुण्ड और विष्णु कुण्ड। इनमें सूर्य कुण्ड महत्वपूर्ण है। |
यह है चौकीदार का लडका यशपाल रावत। यमुना के उस तरफ पडे तख्ते को ला रहा है। तख्ते से नदी को पार किया जाता है। |
अगला भाग: कभी ग्लेशियर देखा है? आज देखिये
यमुनोत्री यात्रा श्रंखला
1. यमुनोत्री यात्रा
2. देहरादून से हनुमानचट्टी
3. हनुमानचट्टी से जानकीचट्टी
4. जानकीचट्टी से यमुनोत्री
5. कभी ग्लेशियर देखा है? आज देखिये
6. यमुनोत्री में ट्रैकिंग
7. तैयार है यमुनोत्री आपके लिये
8. सहस्त्रधारा- द्रोणाचार्य की गुफा
आपके जैसा आईटम न पहले कभी देखा और न सुना...बहुत जबरदस्त!! ऐसा यायावर होने की चाहत ही झुरझुरी पैदा कर देती है!!
ReplyDeleteएक अपील:
विवादकर्ता की कुछ मजबूरियाँ रही होंगी अतः उन्हें क्षमा करते हुए विवादों को नजर अंदाज कर निस्वार्थ हिन्दी की सेवा करते रहें, यही समय की मांग है.
हिन्दी के प्रचार एवं प्रसार में आपका योगदान अनुकरणीय है, साधुवाद एवं अनेक शुभकामनाएँ.
-समीर लाल ’समीर’
बढ़िया रही आपकी यात्रा!
ReplyDeleteघुमक्कडी जिन्दाबाद!
बहुत ही सुन्दर । चलिये हमने भी एक बार मानसिक यात्रा कर ली ।
ReplyDeleteयात्रा अच्छी है. कुल पैदल कितना चलना पडा ?
ReplyDeleteट्रेकिंग का मजा है यहाँ तो?
"बोले कि नहीं, केवल काकरोच ही हैं, और कुछ नहीं हैं। खटमल से मुझे दिक्कत होती है, काकरोच चलेंगे।" यानि कि पंडित जी का आमलेट में प्याज डालने से मना कर देना - हा हा हा
ReplyDeleteऔर बॉस, ये सिर पर टोपी(पॉलीथीन वाली) वाली फ़ोटू सबपे भारी है. खूब जम रया सै भाई।
मजेदार पोस्ट हमेशा की तरह।
मजेदार भाई, ओर खुब रोमांच पेदा करने वाली यात्रा है भाई, चित्र बहुत सुंदर लगे, धन्यवाद
ReplyDeleteभाई तेरी दिल से जय जय कार करते हैं हम...हे भारत माता के सपूत, नौजवान हों तो तेरे जैसे...धन्य हो आप...पोस्ट और फोटो दोनों बेजोड़...
ReplyDeleteनीरज
Neeraj bhai ko ham unki yaatrao ke liye bahut bahut dhanyawad dete hai aur unki saahshik yaatrao ki saraahna karte hai....tum jug jug jiyo hazaaro saal, saal ke din ho 50 hazaar...
ReplyDeleteChaodhry Mahendra singh yadav
gram pradhan- TIGAAI
Thana RURA
Block- AKBARPUR
District-KANPUR DEHAT...