इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें।
चला था मिलन ग्लेशियर के लिये, पहुंच गया चूडधार और उसके बाद कमरुनाग। अभी भी मेरे पास एक दिन और शेष था। सुरेन्द्र के पास भी एक दिन था। एक बार तो मन में आया भी कि दिल्ली वापस चलते हैं, एक दिन घर पर ही बिता लेंगे। फिर याद आया कि मैंने अभी तक कांगडा रेलवे पर जोगिन्दर नगर से बैजनाथ पपरोला के बीच यात्रा नहीं की है। तकरीबन पांच साल पहले मैंने इस लाइन पर पठानकोट से बैजनाथ पपरोला तक यात्रा की थी। उस समय मुझे पता नहीं था कि हिमाचल में रात को भी बसें चलती हैं। पता होता तो मैं उसी दिन जोगिन्दर नगर तक नाप डालता। जोगिन्दर नगर को मैं कोई छोटा-मोटा गांव समझता था। रात रुकने के लिये कोई कमरा मिलने में सन्देह था।
सुबह सवा सात बजे यहां से पठानकोट के लिये पैसेंजर चलती है। ढाई फीट गेज की यह ट्रेन पठानकोट और जोगिन्दर नगर के बीच 164 किलोमीटर की दूरी तय करती है। इसे 1926 में तब बनाया गया था, जब जोगिन्दर नगर से आगे बरोट में एक बांध का निर्माण किया गया- पठानकोट से बरोट तक सामान लाने-ले जाने के लिये।
पर्वतीय मार्गों पर चलने वाली ट्रेनें वैसे ही खूबसूरत दृश्यों से होकर चलती हैं, कांगडा रेल इनसे एक कदम आगे है। इसका पूरा मार्ग धौलाधार के बर्फीले पहाडों के समान्तर है, इसलिये पठानकोट से जोगिन्दर नगर तक हमेशा बर्फीले पहाड दिखते रहते हैं। मैं और सुरेन्द्र जमकर इन पहाडों और रेलवे लाइन के बराबर में गेहूं के खेतों के फोटो खींचते रहे।
बैजनाथ पपरोला में इसका 110 मिनट का ठहराव है। सुरेन्द्र बैजनाथ मन्दिर स्टेशन पर उतर गया और बैजनाथ के प्राचीन मन्दिर को देखने चला गया। मैंने इसे दो बार देख रखा है, इसलिये ट्रेन में ही बैठा रहा। बाद में सुरेन्द्र बस से पपरोला आ गया।
ठीक दस बजकर पचास मिनट पर ट्रेन चल पडी। हमने जोगिन्दर नगर से ही ज्वालामुखी रोड का टिकट ले लिया था। वहां यह डेढ बजे के आसपास पहुंचती है। जाने को तो हम पठानकोट भी जा सकते थे लेकिन हमारा दिल्ली के लिये कोई आरक्षण नहीं था। ज्वालामुखी रोड से हमें सीधे दिल्ली या चण्डीगढ की बस मिल जायेगी।
एक पुलिस वाला एक ‘अपराधी’ को लेकर ट्रेन में चढा और सीट पर बैठ गया। अपराधी को उसने गैलरी में नीचे फर्श पर बैठा दिया। ये तो पता नहीं चल पाया कि उसका अपराध क्या था लेकिन पुलिस वाला लगातार उसके साथ मारपीट और गाली-गलौच करता जा रहा था। एक बात और निश्चित थी कि उसने कोई अपराध नहीं किया था, क्योंकि वे पालमपुर से चढे थे और ज्वालामुखी रोड तक ट्रेन में ही रहे। अपराधी ने कई बार उतरने को भी कहा। बाद में दोनों हंस हंसकर बातें करने लगे, उसे सीट भी मिल गई। खैर, जो हो।
पिछली बार जब मैंने इस लाइन पर यात्रा की थी तो ट्रेन पठानकोट से ही भर गई थी व ज्वालामुखी रोड तक बेतहाशा भरी हुई आई थी। ज्वालामुखी के बाद यह खाली हो गई थी। बस, तभी से मन में बात जम गई थी कि अब ज्वालामुखी के बाद पठानकोट तक भयंकर भीड हो जायेगी। इस बारे में मैं लगातार सुरेन्द्र से भी बताता आ रहा था कि ज्वालामुखी के बाद ट्रेन पूरी भर जायेगी।
यह लाइन मेरी पसन्दीदा लाइनों में से एक है। पसन्दीदा क्यों है, यह तो फोटो देखने से पता चल ही जायेगा। लेकिन कमी यह है कि भारत की अन्य पर्वतीय रेलवे की तरह इसमें आरक्षण नहीं होता। सभी डिब्बे साधारण श्रेणी ही होते हैं। अगर शिमला, दार्जीलिंग, मथेरान व ऊटी वाली लाइनों की तरह इसका भी प्रचार किया जाये तो इससे रेलवे को अच्छी खासी आमदनी हो सकती है। बाकी सभी पर्वतीय रेलवे से ज्यादा खूबसूरत है इसका मार्ग।
ज्वालामुखी रोड पर उतर गये। असल में जोगिन्दर नगर से ज्वालामुखी रोड तक रेलवे लाइन राष्ट्रीय राजमार्ग के साथ साथ चलती है। इस राजमार्ग पर चौबीस घण्टे बसें चलती हैं। ज्वालामुखी रोड के बाद पठानकोट तक यह कांगडा के उन इलाकों से होकर गुजरती है जहां सडक मार्ग ज्यादा अच्छा नहीं है।
ज्वालामुखी रोड स्टेशन रानीताल नामक स्थान पर है। ज्वालामुखी मन्दिर यहां से बीस किलोमीटर दूर हैं, खूब बसें मिलती हैं। लेकिन हमें ज्वालामुखी नहीं जाना था, बल्कि दिल्ली जाना था। कांगडा से दिल्ली व चण्डीगढ जाने वाली प्रत्येक बस यहीं से होकर जाती है। स्टेशन से बाहर निकलकर सडक पर काफी देर प्रतीक्षा करने के बाद हिमाचल परिवहन की धर्मशाला-हरिद्वार बस आई तो इसमें चढ लिये व चण्डीगढ का टिकट ले लिया।
रात दस बजे चण्डीगढ पहुंचे। वैसे तो नौ बजे से पहले ही पहुंच जाते लेकिन आनन्दपुर के पास इसमें पंक्चर हो गया। वहां काफी समय लग गया। हम दोनों की इच्छा ट्रेन से दिल्ली जाने की थी, कालका हावडा मेल में हमेशा सोने को बर्थ मिल जाती है। पचास रुपये लगाकर रेलवे स्टेशन पहुंचे। यहां उम्मीद के विपरीत बहुत लम्बी लाइन लगी देखकर होश उड गये। असल में आज के दिन चण्डीगढ-डिब्रुगढ एक्सप्रेस चलती है रात सवा ग्यारह बजे; तो बिहारी, बंगाली, आसामी व फौजी बडी संख्या में थे।
पूछताछ से पता चला कि यहां करंट आरक्षण जैसी कोई चीज नहीं है, आपको साधारण टिकट लेकर स्लीपर में चढ जाना है, टीटी ही आपको बर्थ देगा। ऐसे में हमेशा सन्देह होता है कि पता नहीं कोई बर्थ खाली होगी भी या नहीं। सुरेन्द्र से विमर्श किया तो तय हुआ कि बस से ही चलते हैं। गूगल मैप में रास्ता देखा। दिल्ली वाली सडक यहां से करीब दो किलोमीटर दूर से गुजरती है। पैदल ही चलते हैं, बस अड्डे जायेंगे तो बेवजह ऑटो वाले को पचास साठ रुपये देने पडेंगे। पैदल चल पडे। कुछ दूर तक तो चहल-पहल रही, धीरे धीरे सन्नाटा होता गया व सडक भी खराब व धूलभरी होती गई। आधी रात हो चुकी थी, इलाका अनजान था। एक किलोमीटर भी नहीं गये होंगे कि फिर से मन बदला- ट्रेन से ही चलते हैं। बर्थ मिल जायेगी। नहीं तो देखा जायेगा।
पुनः स्टेशन पहुंचे। टिकट लिया। ट्रेन एक घण्टे की देरी से चल रही थी। यह कालका से आती है। इसमें पांच शयनयान के, एक थर्ड एसी, एक सेकंड एसी व एकाध साधारण श्रेणी के डिब्बे चण्डीगढ से जोडे जाते हैं। ये डिब्बे चण्डीगढ पर ही सबसे आखिर वाले प्लेटफार्म पर खडे थे व इनमें यात्री सोये पडे थे। कालका से ट्रेन आती है और ये डिब्बे इनमें जोड दिये जाते हैं।
डेढ बजे ट्रेन आई। टीटीई की खोज शुरू हुई। वह एस-10 में मिल गया। दिल्ली का नाम लेते ही उसने इसी डिब्बे में दो बर्थ दे दीं व किराये के अन्तर के बराबर धनराशि लेकर शयनयान का टिकट बना दिया। नब्बे नब्बे रुपये और लगे। वैसे तो यह ट्रेन सुपरफास्ट है लेकिन कालका और दिल्ली के बीच यह एक्सप्रेस के तौर पर चलती है व टिकट भी एक्सप्रेस के ही जारी किये जाते हैं। इसकी सीटों के कोटे का एक बडा हिस्सा दिल्ली का है इसलिये कालका व चण्डीगढ से दिल्ली के लिये साधारण टिकटधारियों को भी बिना पूर्व आरक्षण के इसमें सोने के लिये बर्थ आसानी से मिल जाती हैं।
सुबह आठ बजे तक दिल्ली पहुंच गये।
अगला भाग: चूडधार की जानकारी व नक्शा
चूडधार कमरुनाग यात्रा
1. कहां मिलम, कहां झांसी, कहां चूडधार2. चूडधार यात्रा- 1
3. चूडधार यात्रा- 2
4. चूडधार यात्रा- वापसी तराहां के रास्ते
5. भंगायणी माता मन्दिर, हरिपुरधार
6. तराहां से सुन्दरनगर तक- एक रोमांचक यात्रा
7. रोहांडा में बारिश
8. रोहांडा से कमरुनाग
9. कमरुनाग से वापस रोहांडा
10. कांगडा रेल यात्रा- जोगिन्दर नगर से ज्वालामुखी रोड तक
11.चूडधार की जानकारी व नक्शा
पठानकोट से जोगिन्दर नगर की रेल यात्रा का रोचक विवरण और नैरो गेज़ रेल में बैठे बैठे लिए गए चित्रों ने मन को मोह लिया। लगता है चित्रों की भाषा लिखित अनुभवों को अधिक मुखर कर रही है। इस यात्रा को दर्ज कर के आपने सराहनीय कार्य किया है।
ReplyDeleteक्या बात है नीरज भाई फोटो तो कमाल के उतारे है आपने.
ReplyDeleteजब ट्रेन किसी मोड पर घुमती है तब का खिचा फोटो सबसे अच्छा लगता है ओर आपने तो हर एंगल से फोटो खिचा हुआ है.
यहां की हरियाली के तो क्या कहने,
मन मोह लेने वाली जगह,.............बहुत बढिया यात्रा.
राम राम जी....
ReplyDeletebahut sunder
ReplyDeleteनीरज भाई फोटो तो कमाल के उतारे है आपने.
ReplyDeleteNeeraj bhai ko hello. You are a.
ReplyDeleteSUPERMAN
I M FAHIM FROM LUCKNOW
ट्रेंन देखकर माथेरान की याद आ गई ---पर उसके रास्ते और इसकी द्श्यावली चौकाने वाली है कहाँ माथेरान का धूल भरा रास्ता और कहाँ जोगेन्दर नगर का खूबसूरत रास्ता बहुत अंतर है --ज्वाला माता के दर्शन मैंने भी किये है
ReplyDeleteMahan ho aap
ReplyDelete