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9 मई 2014, शुक्रवार
आलू के परांठे खाने की इच्छा थी लेकिन इस समय यहां आलू न होने के कारण यह पूरी न हो सकी। इसलिये सादे परांठों से ही काम चलाना पडा। अभी हवा नहीं चल रही थी और मौसम भी साफ था लेकिन हो सकता है कि कुछ समय बाद हवा भी चलने लगे और मौसम भी बिगडने लगे। निकलने से पहले चेहरे पर थोडी सी क्रीम लगा ली। ट्रैकिंग पोल जो अभी तक बैग में ही था, अब बाहर निकाल लिया। आज मुझे बर्फ में एक लम्बा सफर तय करना है।
साढे आठ बजे चल पडा। तीसरी से चूडधार की दूरी छह किलोमीटर है लेकिन खतरनाक रास्ता होने के कारण मैं इसे चार घण्टे में पार कर लेने की सोच रहा था। तीन घण्टे वापस आने में लगेंगे। यानी शाम चार बजे तक यहां लौट आऊंगा। नोहराधार से कल यहां तक आने में पांच घण्टे लगे थे, तीन घण्टे में यहां से नोहराधार जा सकता हूं। इसलिये आज रात को नोहराधार में ही रुकने की कोशिश करूंगा।
शुरू के तीन किलोमीटर तक रास्ता बहुत अच्छा है। खतरनाक रास्ता आखिरी तीन किलोमीटर है। तीसरी में बता दिया गया था कि तीन किलोमीटर के बाद दो रास्ते हो जाते हैं- एक तो मुख्य रास्ता है जो कुछ लम्बा है, दूसरा शॉर्ट कट है जहां बडी बडी चट्टानों पर सीधे चढते जाना होता है। मैं पहले से ही बर्फ से डरा हुआ था, इसलिये तय कर लिया कि शॉर्ट कट से कतई नहीं जाऊंगा। हालांकि चूडधार और उसके पास बनी धर्मशाला और दुकानों में खाने-पीने की सप्लाई खच्चरों द्वारा नोहराधार से ही होती है लेकिन अभी बर्फ होने व रास्ता बन्द होने के कारण तीसरी से आगे खच्चर लायक मार्ग नहीं था। सप्लाई किसी दूसरी तरफ से हो रही होगी।
तीसरी से निकलते ही बर्फ मिलनी शुरू हो गई। अभी लगातार बर्फ नहीं थी, रास्ते में जहां तहां थोडी बहुत ही बची हुई थी। मैं जानबूझकर बर्फ से होकर ही निकल रहा था ताकि आगे जब खतरनाक रास्ते पर ज्यादा बर्फ मिलेगी तो पैर न कांपें। आगे चलकर जंगल भी खत्म हो गया व घास शुरू हो गई। अभी सर्दियां यहां समाप्त भी नहीं हुई हैं इसलिये घास में हरापन नहीं था।
एक घण्टे बाद जब 3350 मीटर की ऊंचाई पर था तो अचानक मैंने स्वयं को बडी विचित्र स्थिति में पाया। सामने बिल्कुल खडी चट्टानें थीं और बर्फ पर पैरों के निशान बता रहे थे कि इन्हीं चट्टानों पर चढना है। मैं जान गया कि यह शॉर्ट कट है क्योंकि इन खडी चट्टानों पर कोई भी खच्चर नहीं चढ सकता। इसी से मैं बचना चाहता था। इधर-उधर खूब ताक-झांक कर ली लेकिन कोई और रास्ता नहीं दिखाई दिया। मजबूरन इन्हीं पर चढना पडा।
खडी चट्टानों का यह दौर ज्यादा देर नहीं चला। करीब 50 मीटर ऊपर फिर लगभग समतल रास्ता आ गया। अब मैं धीरे धीरे उस बंजर पथरीले पहाड की ओर बढता जा रहा था जिसे मैंने कल देखा था और जिसके शिखर पर चूडेश्वर महादेव है।
मैं इस समय यानी साढे दस बजे 3400 मीटर की ऊंचाई पर था। चूडधार की ऊंचाई मेरी जानकारी के हिसाब से 3600 और 3650 मीटर के बीच होनी चाहिये। यानी सामने जो भी भयाचह दृश्य दिख रहा है, वह 200-250 मीटर की चढाई है। यही इस मार्ग का सबसे खतरनाक हिस्सा था। अगर बर्फ न पडी होती तो यह उतना खतरनाक नहीं होता।
रास्ते में वैसे अभी भी ज्यादा चढाई नहीं थी लेकिन पर्वत पृष्ठ बेहद ढलानदार था। इसी पर बर्फ गिरी हुई थी। इतने ढलान पर बर्फ से गुजरते हुए मुझे बहुत डर लग रहा था। वैसे बर्फ पर चलने से तो मैं हमेशा ही डरता हूं।
हर की दून यात्रा जूतों की वजह से खराब हो गई थी, इसलिये पिछले दिनों एक जोडी नये जूते लिये थे- केचुआ के ट्रेकिंग शूज। इन जूतों से यह पहली ट्रैकिंग थी और ये इसमें अच्छी तरह सफल रहे। इनकी ग्रिप शानदार थी, तभी तो बर्फ में जहां पैर रख देता, वहीं टिके रहते। एकाध बार इंच भर पैर फिसला भी, तभी पूरे शरीर में बिजली दौड जाती कि ले, गया काम से।
कुछ देर बाद ऐसी जगह पर पहुंच गया जहां से आगे बर्फ बहुत ज्यादा दिखने लगी। जैसा कि बर्फ के हर हिस्से के पास पहुंचने पर लगता कि इसे पार नहीं कर पाऊंगा, यहां भी ऐसा ही लगा। और आगे निगाह दौडाई तो और भी ज्यादा बर्फ दिखने लगी। तभी दिमाग में आया कि कल जो फोटो खींचे थे इस इलाके के, उन्हें जूम करके देखता हूं, ताकि बर्फ पर कम से कम चलना पडे। एक फोटो मिल गया और मैंने अपनी स्थिति भी पहचान ली। वह फोटो चूंकि बहुत दूर से खींचा गया था इसलिये ऊपर धार तक का सारा पहाड दिख रहा था। इससे स्पष्ट हो गया कि अगर मैं यहां से सीधे ऊपर चढ जाऊं तो बिना बर्फ से गुजरे धार पर पहुंच जाऊंगा। यह पक्का था कि धार पर बर्फ नहीं मिलेगी क्योंकि वहां तेज हवाएं चलती हैं जो सारी बर्फ को उडा ले जाती हैं।
ज्यादा देर नहीं लगी ऊपर पहुंचने में। अब मुझे धार पर ही चलते चलते सामने करीब एक किलोमीटर दूर चूडधार शिखर तक जाना था। यहां बर्फ नहीं थी और हल्की सी पगडण्डी भी थी। कुछ दूर कुछ लोग भी जाते दिखे। जाहिर था कि नीचे की बर्फ से बचने के लिये स्थानीय लोग पहले ही धार पर चढ जाते हैं। धार के दोनों ओर दूर तक ढलान था।
कुछ दूर तक तो ठीक चलता रहा। फिर बडी बडी चट्टानें आने लगीं। इतनी बडी चट्टानें और इस तरीके से जमी हुई कि इन पर चढना नामुमकिन ही था। आगे बढने के लिये धार से कुछ नीचे उतरना था। मेरा मुंह उत्तर की ओर था। पश्चिम की ओर से मैं ऊपर आया था। ऐसे में पूर्व की तरफ ज्यादा धूप पडने के कारण बर्फ जल्दी पिघल जाती है और पश्चिम की ओर कम धूप मिलने के कारण देर से पिघलती है। इसी वजह से मेरे रास्ते में अभी तक ज्यादा बर्फ आई थी। हां तो, धार से कुछ नीचे उतरना था तो मैंने पूर्व की तरफ प्राथमिकता दी क्योंकि इधर बर्फ नहीं थी। एक निगाह पश्चिम की तरफ भी मारी तो वहां बर्फ ही बर्फ दिखने लगी। उधर से उतरने का इरादा था भी नहीं, बचा खुचा भी जाता रहा।
इधर मैं थोडा सा उतरा, उधर चट्टानें और भी ऊंची हो गईं। रहना ऊपर ही ऊपर ही था, इसलिये पुनः ऊपर चढने में पसीने छूट गये। शिखर जब पचास मीटर दूर रह गया तो लगने लगा कि शिवजी महाराज ने भी किसी को अपने यहां न आने देने के लिये पूरा जोर लगा दिया है। बर्फ का एक टुकडा ऊपर धार पर भी जमा हुआ था और यह पश्चिम की तरफ बहुत नीचे तक जा रहा था। इसे पार करना जरूरी था। मुझसे पहले भी इसे कई लोगों ने पार किया था, पैरों के निशान बने थे। लेकिन समस्या थी कि एक चट्टान से इस पर छलांग लगानी थी। चट्टान और इसके बीच करीब तीन फीट की दूरी थी। परिस्थिति ऐसी थी कि चट्टान से नीचे उतरकर पुनः उस बर्फ पर नहीं चढा जा सकता था। सूरज की गर्मी से चट्टानें भी गर्म होने लगती हैं। ऐसे में उनसे चिपकी हुई बर्फ पिघलने लगती है और इस तरह चट्टान और बर्फ के बीच दूरी बन जाती है। चट्टान चूंकि बिल्कुल खडी थी इसलिये तीन फीट की यह दूरी भी एक सीधी खाई की तरह थी। अगर मैं चट्टान से बर्फ पर छलांग लगा दूं और किसी कारण से जरा सा भी असन्तुलित हो जाऊं तो फिर भगवान भी मालिक नहीं है।
इधर उधर की चट्टानों पर भी चढकर देख लिया लेकिन इस बर्फ को पार किये बिना आगे नहीं बढा जा सकता था। मैं किसी भी हालत में छलांग लगाने को तैयार नहीं था। एक बार तो उस तीन फीट चौडी और पांच छह फीट गहरी खाई में भी उतरने की सोची लेकिन बात नहीं बनी। जो कुछ कर सकता था, किया। आखिरकार हर तरफ से हारने के बाद इरादा बना कि छलांग तो लगानी ही पडेगी।
तीन फीट कोई ज्यादा नहीं होता, हाथ भर ही होता है। बच्चा भी इतना आसानी से कूद जाता है। लेकिन अगर ढलानदार बर्फ पर कूदने की बात हो तो यह जानलेवा हो सकता है। सबसे पहले बर्फ में डण्डा गाड दिया। बर्फ के चट्टान के पास वाले सिरे विकिरण की गर्मी से अक्सर खोखले या भुरभुरे हो जाते हैं। लेकिन इस तीन फीट के गैप के कारण दिख रहा था कि यह खोखला नहीं है। डण्डे ने बता दिया कि भुरभुरा भी नहीं है। यानी कूदने पर धसूंगा भी नहीं। फिर सोचा कि फिसल जाने से धंस जाना बेहतर है।
आखिरकार पार होना था और हो भी गया। सीधा शिवजी महाराज के पास पहुंचा। यह स्थान मेरे मोबाइल वाले जीपीएस के अनुसार 3614 मीटर की ऊंचाई पर है। बारह बज चुके थे। हवा नहीं थी, बादल भी नहीं थे, धूप निकली थी इसलिये वातावरण में तेज गर्मी थी। यहां चोटी पर शिवजी की एक बडी प्रतिमा है। प्रतिमा के सामने छोटा सा चबूतरा है। कुछ देर बैठा रहा। ध्यान लगाने की कोशिश की लेकिन मन काबू में नहीं आया। बर्फ पर चढ तो आया था, अब नीचे उतरने की चिन्ता थी।
मुझसे बताया गया था कि चूडधार में मन्दिर है, धर्मशाला है और खाने-पीने की दुकानें भी। लेकिन यहां सिवाय बडी बडी चट्टानों के कुछ भी नहीं दिख रहा था। चट्टानें ऐसी कि इनमें कुछ भी निर्माण नहीं किया जा सकता। अगर मन्दिर है, धर्मशाला है और दुकानें हैं तो जरूर आसपास कोई समतल जगह भी होगी। जिस रास्ते मैं आया हूं, उधर तो कुछ नहीं था, आगे ही कुछ हो सकता है। नीचे निगाह दौडाई। काफी नीचे जहां से पेड शुरू हो रहे थे, वहां समतल जगह होने की उम्मीद जगी। अवश्य वहीं मन्दिर होगा, जो मुझे यहां से नहीं दिख रहा है। ऊपर से देखने पर अन्दाजा लगाया कि उस स्थान की दूरी यहां से करीब दो किलोमीटर है और वह दो सौ मीटर नीचे होगा यानी 3400 मीटर की ऊंचाई पर।
नीचे जाती एक पगडण्डी पर हो लिया। शीघ्र ही सामना बर्फ के एक बडे से टुकडे से हो गया। इसे भी पार करना जरूरी था। इस पर भी पैरों के निशान थे। अभी तक जैसा माहौल मैंने देखा था, उससे उलट अब उतराई शुरू हो चुकी थी। बर्फ पर नीचे उतरना ज्यादा जोखिम भरा होता है। यहां भी करीब तीन फीट की दूरी से छलांग लगानी थी। पिछली बर्फ के मुकाबले यहां ढलान ज्यादा थी और नीचे उतरना भी था। डर लग ही रहा था। इस बार पिछले वाला तरीका नहीं अपना सकता था। तो सबसे पहले डण्डे से उस जगह बर्फ खोदनी शुरू की जहां मुझे पैर टिकाना था। जब लगा कि पैर टिकने के बाद धंस जायेगा तो कदम आगे बढाया। एडी इस तरह रखी कि वह बर्फ में धंसती चली जाये। ऐसा ही हुआ।
बर्फ से मुझे बहुत डर लगता है। पता नहीं लोग बर्फ में मजे कैसे ले लेते हैं?
इसके बाद तेजी से रास्ता नीचे उतरा और आखिरकार मैं अपनी वांछित जगह पर था। यह चट्टानों से नीचे वृक्ष रेखा के ऊपर बिल्कुल ऐसे स्थान पर बना था जैसे पर तीसरी बना है। आज मुझे यहां नहीं रुकना था। एक दुकान में चाय बनाने को कह दिया। पता चला कि आलू के परांठे भी मिल जायेंगे तो दो परांठे भी ले लिये। मुझसे नोहराधार में बताया गया था कि यहां रात को ठहरने के लिये धर्मशाला भी है जहां मामूली शुल्क देकर कम्बल मिल जाते हैं। हां, यह स्थान समुद्र तल से पूरे 3400 मीटर की ऊंचाई पर है यानी चोटी से लगभग 200 मीटर नीचे।
चूडधार एक ऐसी जगह पर स्थित है जिसके नीचे चारों तरफ गांव बसे हुए हैं, सडकें हैं और सीधे शिमला से जुडे हैं। इसकी इस क्षेत्र में बहुत मान्यता है इसलिये हर दिशा से यहां पहुंचा जा सकता है। जब मैंने बताया कि मुझे नोहराधार जाना है और मैं जिस रास्ते से आया हूं उसी से नहीं जाना चाहता तो उन्होंने कहा- आप त्रां (तराहां) चले जाओ, जहां से नोहराधार की बस मिल जायेगी। मैंने सबसे पहले यही पूछा कि रास्ते में बर्फ तो नहीं मिलेगी। जवाब मिला कि नहीं मिलेगी। मुझे और क्या चाहिये था?
किसी पर्वतारोही ने ठीक ही लिखा है: “चूडधार वैसे तो एक आसान ट्रैक है लेकिन अगर यहां बर्फ पडी हो तो यह हिमालय के मुश्किल ट्रैकों में से एक हो जाता है।’’ शायद हरीश कपाडिया ने लिखा है।
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तीसरी से निकलते ही बर्फ मिलनी शुरू हो गई। |
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सामने सुदूर चूडधार है। |
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बर्फ से होकर रास्ता |
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बर्फ पर पैरों के निशान दिख रहे होंगे। बहुत ढाल है। |
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यही रास्ता है। |
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यहां से आगे बर्फ बहुत दिखने लगी थी, मैंने ऊपर से जाने की सोची। |
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नहीं, इस बर्फ से बिल्कुल नहीं जाऊंगा। |
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अगर बर्फ न होती तो सीधा रास्ता था जो लाल रंग से दिखाया गया है। मुझे बर्फ होने के कारण पीले रास्ते से जाना पडा। पहले सीधे ऊपर चढकर धार पर पहुंचा और फिर बाद में ऊपर ही ऊपर। |
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धार के साथ साथ बढना है। |
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मैं रास्ते में ही खडा हूं। क्या आप यकीन करेंगे? |
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यही वो बर्फ थी जिस पर छलांग लगानी थी। |
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चूडेश्वर महादेव और जाटराम |
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एक पगडण्डी दिख रही है। |
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सबसे बायें धर्मशाला, बाकी खाने-पीने की दुकानें। |
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इसमें काला रास्ता नोहराधार से तीसरी तक है और लाल रास्ता तीसरी से चूडधार तक। फोटो को बडा करके देखने के लिये इस पर क्लिक करें। |
अगला भाग: चूडधार यात्रा- वापसी तराहां के रास्ते
चूडधार कमरुनाग यात्रा
1. कहां मिलम, कहां झांसी, कहां चूडधार2. चूडधार यात्रा- 1
3. चूडधार यात्रा- 2
4. चूडधार यात्रा- वापसी तराहां के रास्ते
5. भंगायणी माता मन्दिर, हरिपुरधार
6. तराहां से सुन्दरनगर तक- एक रोमांचक यात्रा
7. रोहांडा में बारिश
8. रोहांडा से कमरुनाग
9. कमरुनाग से वापस रोहांडा
10. कांगडा रेल यात्रा- जोगिन्दर नगर से ज्वालामुखी रोड तक
11.चूडधार की जानकारी व नक्शा
नीरज जी शानदार ट्रैकिंग यात्रा,
ReplyDeleteभाई बर्फ से डरना भी चाहिए क्योकी इसके नीचे क्या है पता नही चलता है ओर हरदम फिसलने का डर बना रहता है,
नीरज भाई जब मैं कश्मीर गया था तब मे बर्फ पर कितनी बार फिसला गिनती ही नही है.
फोटो कुछ धुंधले से आ रहे है शायद मौसम की वजह से हो सकते है
बर्फ़ होती बड़ी खतरनाक है, इसका कोई भरोसा भई कब फ़िसल जाए। बस जरा होशियार होकर चलना चाहिए। बढिया यात्रा।
ReplyDeleteआपकी इस यात्रा का विवरण और चित्रो को देख कर मुझे अपनी अप्रैल में की गयी तुंगनाथ की यात्रा याद आ गयी....वास्तव में आज कल की भागती दौड़ती जिंदगी में कुछ समय अगर यायावर की तरह किसी पहाड़ो में बिताने को मिल जाए तो इससे बड़े सकून की बात क्या होगी ..कुदरत की नैसर्गिक सुंदरता की आनंद किसी यायावर की तरह ही लिया जा सकता है ना की टूरिस्ट बन कर के किसी हिल स्टेशन में लक्ज़री होटल में बैठ कर पैमाने में जाम छलका कर ...
ReplyDeleteकौन समझाए इन बड़े बड़े गाड़ियों से शिमला नैनीताल और मसूरी जा कर प्रकर्ति की सुंदरता के बजाये वंहा के शॉपिंग मॉल में घूमने वालो को.......खैर ऐसे ही लिखते रहिये ..अगले भाग का पुनः बेसब्री से इन्तजार है ....
आपने तो सर, मेरे मन की बात लिख दी।
Deleteश्रीखंड यात्रा में बर्फ पार करते समय मेरी ऐसी फटी कि हाथ से डंडा छूट गया, पैर फिसलने लगे तो संतुलन बनाने के लिये बैठ गया, तब भी धीरे धीरे फिसलता जा रहा था। तभी भोलेनाथ आये एक यात्री के रूप में और मेरा हाथ पकड कर बाहर निकाल ले गये।
ReplyDeleteप्रणाम
हमारी नजरो में तो बड़ा ही खतरनाक ट्रेक है...... पूरी यात्रा में रोमांच पूरी तरह बरकरार है...
ReplyDeleteBahut hi badhiya lekh or us se bhi uttam Yatra......Neeraj Bhai.....aagami yatrao ke,liye subhkamnaye
ReplyDeleteNOHRADHAR TAK PAHUNCHNE K LIYE ROAD KESA HAI.. CAR JA SAKTI HAI KYA???
ReplyDeleteसडक ठीकठाक है, कार से आराम से जा सकते हैं।
Deletebut these trips on foot are only for boys ..... if girls will start doing all this .. then wolves will bit them on the way only ... before reaching any destination .
ReplyDeletewhy shouldn't girls do this...wolves are normally found in upper Himalayas & they didn't attack suddenly...mid should be stable to do these type of trekking
Deleteश्वेता जी, बात तो आपकी ठीक है कि ‘भेडिये’ किसी लडकी को छोडते नहीं हैं। भेडिये हर जगह हैं लेकिन ...
Deleteइस समस्या का समाधान भेडिये नहीं कर सकते, आपको और हमें ही करना होगा। सबसे बडा समाधान है स्वयं पर भरोसा। आज के दौर में अकेले घूमने का रिवाज बढ रहा है, लडकियां भी अकेले घूमने लगी हैं। भारत में बहुत सी लडकियां अकेले घूमती हैं। उनसे प्रेरणा ली जा सकती है। इसी तरह के एक यात्रा-ब्लॉग का लिंक दे रहा हूं, जिसकी मालकिन एक महिला है और बहुत घूमती है, अक्सर अकेले भी।
http://travelwithneelima.com
Is post ke liye shukriya neeraj ji agle post ka intezar rahega
ReplyDeleteघूमक्कडी ज़िंदाबाद नीरज जी!!
ReplyDeleteआप आपके शब्दों द्वारा हमें शब्दातीत विराट की ओर ले जाते हैं!!!!! शब्द नाकाफी है हर्ष कथन करने के लिए!!!
Bahut badhiya niraj ji . Ghumte raho..........
ReplyDeleteहमने ये ट्रेक बेहद मूर्खतापूर्ण तरीके से किया था ! दोपहर बाद शुरू किया और आधी रात ऊपर पहुंचे यहाँ तक की तीसरी पर भी नहीं रूके पर हाँ बर्फ कुछ कम थी तथा तीसरी के बाद स्थानीय युवकों का साथ मिल गया था फिर भी कहना होगा की ये वाकई एक रोमांचक ट्रेक है
ReplyDeletehttp://masijeevi.blogspot.in/2010/04/blog-post.html
रोंगटे खड़े कर दिए यार ! लेकिन जो सुकूं उस शिव प्रतिमा को देखने में मिला होगा उसका जवाब नहीं होगा !! घुमक्कड़ी जिंदाबाद !!
ReplyDeleteपसीने छूट रहे है हमारे तो गर्मी के कारण और तुझको इन विशाल चट्टानों पर चढ़ते हुये --- हैरतअंगेज़ !!!!!!!!
ReplyDeleteउम्दा लेख
ReplyDeleteउस समय कैमरा कौन सा इस्तेमाल करते थे नीरज जी?
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