Skip to main content

धराली से दिल्ली वाया थत्यूड़


13 जून 2018
आज तो सुबह-सुबह ही उठ गए। उठना ही पड़ता। अन्यथा बहुत मुश्किल होती। एक सप्ताह से हम पहाड़ों में घूम रहे थे, आज आखिरी दिन था और कल दिल्ली पहुँचने के लिए आज हमें पहाड़ों से बाहर निकलना ही पड़ेगा।
होटल का दो दिनों का हिसाब करने बैठे तो पैसे कम पड़ गए। यह आँचल होटल अर्जुन नेगी का है। लेकिन उसने इसके खान-पान का ठेका किसी और को दे रखा है। इसके सामने वाले बड़े होटल के खान-पान का ठेका स्वयं ले रखा है। सामने वाले होटल के सामने खाली जगह बहुत सारी है और इसमें कमरे भी ज्यादा हैं, इसलिए प्रतिद्वंदी होने के बावजूद भी अर्जुन ने इसके खान-पान का ठेका ले लिया। दोनों हाथों में लड्डू।
हमारी अर्जुन से अच्छी जान-पहचान हो गई थी। दो दिनों तक खाना-पीना हमने आँचल होटल में ही किया था, यानी इसके पैसे हमें अर्जुन को नहीं देने थे, बल्कि किसी और को देने थे। यही पैसे कम पड़ गए। फिलहाल पैसे न हमारे पास थे और न सुमित के पास। अर्जुन से बात की और उसने सब मामला सुलझा दिया - “अगली बार आओगे, तब दे देना।”
सुबह पौने सात बजे मोटरसाइकिलें स्टार्ट हो गईं और उत्तरकाशी की तरफ दौड़ने लगीं। डेढ़ घंटा लगा गंगनानी पहुँचने में।
“नहाते हुए चलेंगे।” मैंने घोषणा की और गर्म पानी के कुंड में जा उतरा। बड़ी देर तक नहाते रहे। लेकिन एक बात भूल गए, जिसने मुझे शाम तक परेशान किए रखा।




मानव शरीर का तापमान हमेशा 37 डिग्री सेल्सियस रहता है। न इससे कम, न इससे ज्यादा। किसी वजह से अगर शरीर का तापमान 0.1 डिग्री भी ज्यादा हो जाए, तो उसे बुखार कहते हैं और पूरे शरीर का सिस्टम बिगड़ जाता है। इस तापमान को मेनटेन करने का काम हमारा नहीं है, बल्कि शरीर स्वयं इस काम को करता है। सर्दी लगने पर बाल खड़े हो जाते हैं, कँपकँपी होने लगती है। कँपकँपी से कैलोरी बर्न होती है, जिसका इस्तेमाल शरीर तापमान बढ़ाने में करता है। गर्मी लगने पर पसीना आने लगता है, जिसके वाष्पन से ठंडक हो जाती है और तापमान मेनटेन हो जाता है।
गंगनानी के कुंड का तापमान 50 डिग्री से ऊपर ही है। जब आप इस कुंड में डुबकी लगाओगे, तो जाहिर है कि शरीर गर्म होगा। अब जब शरीर गर्म होगा तो इसके पास तापमान कम करने का एक ही तरीका है - पसीना। आपको पसीना आने लगेगा। लेकिन पसीना कुंड के पानी में घुल जाएगा और इसका वाष्पन नहीं होगा। इससे और ज्यादा पसीना आएगा। प्यास लगेगी। फिर तापमान बढ़ने से शरीर के अंदरूनी नाजुक हिस्सों पर भी असर पड़ेगा। आपको चक्कर आने लगेंगे।
मैं यह थ्योरी भूल गया और बड़ी देर तक कुंड में डुबकियाँ लगाता रहा। बाहर निकला तो पसीना और चक्कर - खड़ा होना मुश्किल हो गया। किसी तरह सड़क किनारे दुकानों तक पहुँचा। पानी पिया, चाय पी, इडली खाई, कुछ आराम किया, तो काफी हद तक सुकून मिला। लेकिन इतनी देर में ही काफी कमजोरी महसूस होने लगी। प्रतिज्ञा कर ली कि मोटरसाइकिल यात्राओं में कभी भी गर्म पानी के कुंड में डुबकी नहीं लगाया करूंगा।

उत्तरकाशी... तिलक सोनी... और उनकी स्पेशल सैंडविच और पास्ता...

मुझे चिन्यालीसौड़ और चंबा के बीच की 60 किलोमीटर की दूरी तय करना बड़ा बोरिंग काम लगता है। मैं कभी भी इस रास्ते चलना पसंद नहीं करता हूँ। इसी वजह से पहले भी कई बार यहाँ से देहरादून की ओर मुड़ा हूँ, आज भी मुड़ गए।

जगह-जगह बच्चे खुबानी बेच रहे थे। यहाँ बहुत खुबानी होती है, लेकिन इनके वितरण की उचित व्यवस्था नहीं है। बच्चे पन्नियों में एक-एक किलो खुबानी भरकर दस-दस रुपये में बेचते मिल जाएंगे। हम एक छोटे-से बच्चे के पास रुके।
“कितने की है?”
“दस रुपये।”
इतने में दूसरा बच्चा दौड़ता हुआ आया - “ले लो, अंकल जी, ले लो।”
“कितने की है?”
“बीस रुपये।”
तभी तपाक से वो छोटा बच्चा भी बोल उठा - “मेरी वाली भी बीस की है।”
हमें उसकी मासूमियत बड़ी प्यारी लगी। उसे लगा कि बड़े भाई ने बीस कहा है, तो बीस कुछ अच्छा ही होता होगा, तो उसने भी बीस ही कह दिया। हमने दोनों से बीस-बीस रुपये की खुबानी खरीद ली।

मानसून से पहले चीड़ के जंगलों में जमकर आग लगती है। इधर चीड़ के जंगल बहुत हैं। खूब आग लगी हुई थी।

गर्म कुंड में ज्यादा नहाने के कारण तबियत कुछ गड़बड़ हो गई थी। पहले तो इरादा था कि चलते ही रहेंगे और आधी रात तक दिल्ली पहुँच जाएंगे, लेकिन अब इरादा बदलना पड़ा। रास्ते में कहीं रुकना पड़ेगा। यह विचार आते ही विकासनगर याद आया। और वहाँ की लीचियाँ भी।
विकासनगर चलो।
रास्ता?
सबसे सुगम देहरादून से। लेकिन मसूरी से देहरादून और उससे भी आगे भयंकर भीड़ मिलेगी। दूसरा रास्ता मसूरी से केम्पटी फाल होकर है, लेकिन उस पर भी भीड़ मिलेगी। जून का महीना है।
लेकिन एक रास्ता ऐसा भी है, जिस पर हमें कोई भी नहीं मिलेगा। सड़क एकदम खाली मिलेगी।
और थत्यूड़ की ओर मुड़ गए।
थत्यूड़ काफी बड़ा गाँव है। कस्बा भी कह सकते हैं। समुद्र तल से 1200 मीटर ऊपर। खाने की कोई कमी नहीं। समोसे, चाऊमीन, चाय - सब मस्त।
“भाई जी, आगे सड़क कैसी है?”
“कहाँ जाना है?”
“विकासनगर।”
“अच्छी सड़क है।”
यहाँ से यमुना ब्रिज 45 किलोमीटर दूर है और शाम के सात बजने वाले थे। मतलब नौ बजे तक पहुँचेंगे। वहाँ से विकासनगर 40 किलोमीटर रह जाता है। यानी साढ़े दस - ग्यारह बजेंगे।
“कोई दिक्कत नहीं। आप लोग आराम से आओ।” विकासनगर से उदय झा जी ने कहा।

थत्यूड़ से यमुना ब्रिज की सड़क सिंगल है, लेकिन ट्रैफिक एकदम शून्य। सड़क अच्छी बनी है और उस तरफ 2000 मीटर से ऊँची मसूरी की धार दिखती है। वातावरण में धुंध थी, अन्यथा मसूरी भी दिख जाता। धुंध इसलिए थी क्योंकि समूचे उत्तर भारत में धूलभरी हवाएँ चल रही थीं। ये धूल भरी हवाएँ हिमालय में भी बहुत दूर तक घुसपैठ कर चुकी थी। पूरा मध्य हिमालय इस शुष्क धुंध से परेशान था। पहले तो हमें लगता रहा कि यह बादली धुंध है और बारिश होगी, लेकिन जब अंधेरा होने तक भी बारिश नहीं हुई तो ध्यान आया कि एक सप्ताह पहले हम इसी धुंध को पीछे छोड़कर हिमालय में घुसे थे। अब यह धुंध हमारे पीछे-पीछे यहीं चली आई।
अगर आपको नए रास्तों पर चलना पसंद है, तो यह रास्ता आपके लिए है। 45 किलोमीटर की इस दूरी में आपको चाय की एकाध दुकान तो मिल सकती है, लेकिन बाकी कुछ नहीं मिलेगा।
उधर मसूरी गनहिल पर दूरबीन लिए लोग टूरिस्टों को समझा रहे होंगे - “आइए, आपको हिमालय दिखाएंगे, गढ़वाली गाँव दिखाएंगे।” वे सब इसी क्षेत्र को दिखाते हैं। अगर धुंध न होती, तो वे टूरिस्टों को समझाते - “वो देखिए। पूरी सड़क पर केवल दो ही गढ़वाली मोटरसाइकिलें।”
अंधेरा होने के बाद पौने नौ बजे यमुना ब्रिज पहुँचे। एक ढाबा खुला था। चाय बनवा ली।
और साढ़े दस बजे विकासनगर।

अगले दिन...
आठ-दस किलो ताजी तोड़ी गई लीचियाँ मोटरसाइकिलों पर लाद दी गईं। पौंटा साहिब, यमुनानगर, करनाल होते हुए दोपहर तक दिल्ली आ गए। ज्यादा विस्तार देने की आवश्यकता नहीं। कुल 1400 किलोमीटर मोटरसाइकिल चली।









सुक्खी टॉप से झाला और भागीरथी का दृश्य...



बस, इत्ता-सा?... और मंगाओ रे...

अचानक पिछले मडगार्ड में भड़-भड़-भड़-भड़ की आवाज आई...




चीड़ के जंगल में आग लगती ही है...


खुबानी ले लो जी... दस रुपये... नहीं... बीस रुपये...





थत्यूड़

उदय जी लीची के बाग में लीचियाँ लाने जा रहे हैं...

और थोड़ी ही देर में बोरा भरकर लीची ले आए...




कुछ फोटो सुमित के कैमरे से...

गंगनानी में नहाने की तैयारी...





गंगनानी में अचानक एक मित्र मिल गए... उन्होंने तो मुझे पहचान लिया, लेकिन मैं उनका नाम-गाम सब भूल गया...









1. मोटरसाइकिल यात्रा: सुकेती फॉसिल पार्क, नाहन
2. विकासनगर-लखवाड़-चकराता-लोखंडी बाइक यात्रा
3. मोइला डांडा, बुग्याल और बुधेर गुफा
4. टाइगर फाल और शराबियों का ‘एंजोय’
5. बाइक यात्रा: टाइगर फाल - लाखामंडल - बडकोट - गिनोटी
6. बाइक यात्रा: गिनोटी से उत्तरकाशी, गंगनानी, धराली और गंगोत्री
7. धराली सातताल ट्रैकिंग
8. मुखबा-हर्षिल यात्रा
9. धराली से दिल्ली वाया थत्यूड़




Comments

  1. नीरज जी कृपया थोड़ा सा और डीटेल में रास्ते की जानकारी दीजिये की थत्यूड़ से दिल्ली कैसे पहुचेंगे

    ReplyDelete
  2. बहुत बढ़िया।

    ReplyDelete
  3. aaj puri yatra ek sath padh li....badhiya

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब