आज की हमारी फ्लाइट की बुकिंग थी दिल्ली से बागडोगरा की। पिछले साल सस्ती फ्लाइट का एक डिस्काउंट ऑफ़र आया था। तब बिना ज्यादा सोचे-समझे मैंने अपनी और दीप्ति की बुकिंग कर ली। सोचा कि अप्रैल में सिक्किम घूमेंगे और गोईचा-ला ट्रैक करेंगे। सिक्किम बुराँश की विभिन्न प्रजातियों के लिये प्रसिद्ध है और बुराँश के खिलने का समय भी अप्रैल ही होता है। लेकिन पिछले एक महीने से दीप्ति अपनी एक ट्रेनिंग में इस कदर व्यस्त है कि उसका इस यात्रा पर जाना रद्द हो गया।
लेकिन फ्लाइट तो नॉन-रिफंडेबल थी। तब विचार बना कि न्यूजलपाईगुड़ी से शुरू करके गुवाहाटी, तिनसुकिया और मुरकंगसेलेक तक रेलयात्रा कर लूँगा। वैसे भी असोम में मौसम अच्छा था। जबकि शेष भारत में गर्मी का प्रकोप शुरू हो चुका था। तो रेल के माध्यम से असोम घूमना बुरा नहीं होता। सारी योजना बना ली। कब कहाँ से कौन-सी ट्रेन पकड़नी है, कहाँ रुकना है आदि।
लेकिन ऐन टाइम पर साहब लोग धोखा दे गये। छुट्टियाँ नहीं मिलीं। मैं छुट्टियों के मामले में ऑफिस में ज़िद नहीं करता हूँ। इस बार नहीं मिलीं, कोई बात नहीं। अगली बार इनसे भी ज्यादा मिल जायेंगी। तो इस तरह पूर्वोत्तर जाना रह गया।
ठीक इसी दौरान मित्र रणविजय सिंह का प्रस्ताव आया कहीं पहाड़ों में चलने के लिये। मैं बाइक से जाना चाहता था और वे कार से। आख़िरकार उन्हीं की चली और 4 अप्रैल की सुबह रणविजय शास्त्री पार्क थे। कार में एक टैंट, दो स्लीपिंग बैग, वाकिंग स्टिक और कुछ अन्य सामान डाला और चल दिये। उत्तरकाशी की तरफ़ जा रहे थे, तो दयारा बुग्याल भी दिमाग में था। अगर दयारा गये, अगर वहाँ रुकने का मन किया तो टैंट, स्लीपिंग बैग काम आयेंगे। अन्यथा कार में रखे रहेंगे।
इस यात्रा के लिये तीन दिनों की छुट्टियाँ आसानी से मिल गयीं।
इससे कुछ दिन पहले रणविजय ने फेसबुक पर एक फोटो लगाया था, जिसमें वे 180 की स्पीड़ से कार चला रहे थे। भले ही वह यमुना एक्सप्रेस हाईवे हो, लेकिन इतनी रफ़्तार से कार चलाना बहुत-बहुत-बहुत ज्यादा ख़तरनाक था। तो मैंने उन्हें आगाह कर दिया - “वैसे तो मैं ड्राइवर को टोका नहीं करता, लेकिन रफ़्तार पर काबू रखना।” तो उन्होंने रफ़्तार पर भी काबू रखा, लेकिन जिस बात ने मुझे प्रभावित किया, वो था उनका ओवरटेक करने का तरीका। उन्होंने इस पूरी यात्रा में एक बार भी सन्देहास्पद ओवरटेक नहीं किया। ओवरटेकिंग में अगर कोई साइकिल वाला बाधा बन रहा हो, तो भी वे होर्न नहीं बजाते थे और साइकिल के निकल जाने के बाद ही आगे बढ़ते थे। सड़क पर ज्यादातर दुर्घटनाएँ ख़तरनाक और सन्देहास्पद ओवरटेकिंग में होती हैं। गाज़ियाबाद तक ही मैं जान गया कि यह वो रणविजय नहीं है, जो कुछ ही दिन पहले 180 पर दौड़ रहा था।
मंगलौर में गंगनहर पर नया पुल चालू हो गया है। राजमार्ग को चौड़ा करने के लिये छपार और मंगलौर में बहुत सारे घर भी तोड़े गये हैं। काम होता हुआ दिख रहा है। बस रुड़की बाईपास पूरा हो जाये तो हरिद्वार जाना एक घंटा कम हो जायेगा।
हरिद्वार में भीमगोड़ा बैराज पर नहीं चढ़ने दिया गया। घूमकर चंडीघाट पुल से गंगा पार करके चीला रोड़ पर आना पड़ा। हास्यास्पद बात यह है कि चीला की तरफ़ से भीमगोड़ा बैराज पर आने के लिये कोई रोक नहीं है, लेकिन शहर की तरफ़ से रोक है। रणविजय ने कहा - “यह कैसी मज़ाक है!”
भूख लग रही थी। रणविजय घर से आलू के पराँठे और थरमस में चाय लाया था। पहले सोचा था कि पुरकाज़ी बाईपास पर कहीं रुकेंगे, फिर सोचा मंगलौर पुल पर रुकेंगे, फिर सोचा रुड़की के ऐतिहासिक पुल पर बैठेंगे। लेकिन जब सब पार हो गये तो सोचा कि चीला के जंगल में रुकेंगे। आख़िरकार जंगल में ही रुक गये। नहर के किनारे छोटी-सी दीवार पर बैठकर पराँठे और गर्मागरम चाय - आनंद आ गया।
जब से बाइक चलानी शुरू की है तो पर्वतीय मार्गों पर बस या कार से यात्रा नहीं होती। उल्टी जैसी हालत होने लगती है। नरेंद्रनगर तक मैं निढाल हो गया था। ऊपर से शक्तिशाली कार थी। हालाँकि रणविजय पूरे आत्मविश्वास से चला रहे थे, लेकिन शक्तिशाली एक्सीलरेशन और शक्तिशाली ब्रेकिंग से और भी ज्यादा हालत ख़राब होने लगी। आख़िरकार कहना पड़ा - “समान स्पीड़ से चलाने की कोशिश करो। गीयर कम से कम बदलो।”
सीट पीछे करके लेट तो गया, लेकिन नींद कहाँ? चंबा में मसूरी रोड़ के तिराहे पर बीचोंबीच कार रोक दी। मैंने कनखियों से देखा। रणविजय रास्ते के बारे में आश्वस्त नहीं थे। लेकिन कुछ सेकंड़ रोककर सीधे ही चल पड़े। फिर एक से पूछा - “उत्तरकाशी?” जवाब मिला - “हाँ, आगे चलकर बायें मुड़ जाना।” तभी मैं बैठ गया - “ओहो, चंबा आ गये।” रणविजय अवश्य प्रभावित हुए होंगे कि जाटराम को बड़ी भयंकर नोलेज है। सोते से उठकर एकदम बता दिया कि चंबा आ गये। आगे जहाँ से उत्तरकाशी के लिये बायें मुड़ना था, उससे दस मीटर आगे ही नई टिहरी वाली सड़क भी बायें ही मुड़ती है। जाटराम जगा हुआ था, इसलिये उत्तरकाशी की ओर मुड़ गये, अन्यथा आधे घंटे बाद हम टिहरी बाँध पर होते।
चंबा से चिन्यालीसौड़ जाना मुझे हमेशा ही सर्वाधिक बोरिंग लगता है। दोनों स्थानों की बीच सीधी दूरी 25 किलोमीटर ही है, लेकिन सड़क मार्ग 75 किलोमीटर लंबा है। टिहरी झील बनने के बाद पुराना मार्ग डूब गया। ग्रामीण सड़क को विकसित करके नया राजमार्ग बनाया गया है, इसलिये दूरी काफ़ी बढ़ गयी है। बीच में दो-तीन पुल बना देने से दूरी 20 किलोमीटर तक कम हो सकती है।
रणविजय की इच्छा थी कि उत्तरकाशी में कहीं शांत जगह पर रुकेंगे। पिछले साल हम डोडीताल से लौट रहे थे, तो गंगोरी के पास रुके थे। इस बार भी सीधे वहीं पहुँचे। अभी यात्रा सीजन शुरू नहीं हुआ था, इसलिये ज्यादातर होटल बंद थे। जो खुले थे, उनमें भी साफ़-सफ़ाई और रंगाई-पुताई का काम चल रहा था। ऐसे ही एक होटल में पहुँचे। नाम ध्यान नहीं। मालिक नहीं था। सहायक ने फोन पर बात करायी। 3500 रुपये किराया बताया। मुझे 500 कहने में भी झिझक हो रही थी। आख़िरकार होते-होते बात 1000 रुपये पर बन गयी। कमरा हमें पसंद आ गया। बालकनी का दरवाजा खोलने से पहले ही भागीरथी के दर्शन हो रहे थे।
होटल के सहायक जोशी जी लंबगाँव के रहने वाले थे। आँख में थोड़ी ख़राबी थी। बात रणविजय से करते, मुझे लगता मुझसे कर रहे हैं। लेकिन काम बड़ी तत्परता से कर रहे थे। फिलहाल उनकी पत्नी और बच्चे भी यहीं रहते हैं। सीजन शुरू हो जायेगा, तो दोनों को लंबगाँव छोड़ आएंगे। हमने राजमा-चावल और रोटी मँगायीं तो बाहर से ले आये। अपने लिये आलू की सब्जी बनायी, तो थोड़ी-सी हमें भी दे दी। हमारे पास गुड़ और गुझिया थीं। आलू की सब्जी और गुड़-गुझिया का विनिमय हो गया।
यात्रा से कुछ दिन पहले पंकज कुशवाल जी का संदेश आया था। पंकज जी उत्तरकाशी से आगे दयारा बुग्याल के नीचे रैथल गाँव के रहने वाले हैं। पत्रकार हैं। ज्यादातर समय उत्तरकाशी और देहरादून में बीतता है। तो उन्होंने बताया कि सितंबर के पहले सप्ताह में दयारा में ‘बटर फेस्टिवल’ का आयोजन होता है। होली से मिलता-जुलता आयोजन है। स्थानीय चरवाहे इस दिन से ऊँचे पहाड़ों से नीचे लौटना शुरू कर देते हैं, तो मुख्यतः उनका यह आयोजन होता है। इसे बड़े पैमाने पर करने का प्रयत्न हो रहा है, ताकि रैथल और दयारा में यात्रियों को बढ़ावा मिल सके। पिछले साल भी प्रयत्न किया था, लेकिन बड़े पैमाने पर नहीं हो पाया था। इस बार फिर से बड़े पैमाने पर करने का प्रयत्न कर रहे हैं।
इस समय पंकज जी रैथल में ही थे। सुबह वे उत्तरकाशी आयेंगे। हम आज भी रैथल जा सकते थे। आख़िर कल भी तो जाना ही है, लेकिन एक और वजह से आज उत्तरकाशी रुकना पड़ा। और वो वजह थी तिलक सोनी जी से मिलना। तिलक जी आज बड़कोट में थे। आधी रात तक उत्तरकाशी लौटेंगे। चार दिन बाद उनसे मिलना हो या न हो, इसलिये हम कल उनसे मिलना चाह रहे थे।
इस चार-दिवसीय यात्रा में हमें कुछ भी नहीं करना था। घूमना भी नहीं था। नयी जगहों को भी नहीं देखना था। कुल मिलाकर कुछ भी नहीं करना था। जो हो रहा था, केवल होने देना था। मेरे मोबाइल में टू-जी इंटरनेट चल रहा था, छह-सात के.बी.पी.एस. की स्पीड़ आ रही थी। वाई-फाई चालू करके मैं और रणविजय इसी से अपने-अपने मोबाइलों में नेट चला रहे थे। एक बार क्लिक करते और आधा घंटा बालकनी में भागीरथी के प्रवाह को देखकर आते तो वो पेज लोड़ हुआ मिलता।
इसी दौरान दिल्ली से दीप्ति का संदेश आया - “घूम कहीं भी लो, लेकिन याद रखना कि दोबारा भी जाना पड़ेगा।”
सोने से पहले रणविजय के मोबाइल पर एक फिल्म भी देखी - “म्हारी छोरियाँ छोरों सै कम है के?” - दंगल। कहानी एकदम सीधी सपाट है, लेकिन इस तरह की फिल्में हमेशा ही अच्छा संदेश देती हैं।
सुबह उठे तो बारिश हो रही थी। रणविजय खुशी से उछल पड़े। पंकज रैथल से चल पड़े थे, लेकिन रास्ते में कहीं पहाड़ से पत्थर गिर रहे थे, इसलिये कुछ देर के लिये भटवाड़ी रुक गये। ग्यारह बजे वे आये। चाय का दौर चला, बातचीत का दौर चला। कुछ दिन पहले उन्हीं की प्रेरणा से उत्प्रेरित होकर मैं इधर आया था, अन्यथा अप्रैल के महीने में मैं कभी दयारा का ट्रैक नहीं करता। इस बार बर्फ़बारी काफ़ी हुई है और बर्फ़ में ट्रैकिंग करना मुझे अच्छा नहीं लगता। मानसून या सितंबर-अक्टूबर में दयारा और आसपास की ट्रैकिंग उत्तम मानी जायेगी। दयारा से आगे पश्चिम में डोडीताल जा सकते हैं और उत्तर में गिड़ारा बुग्याल भी जा सकते हैं।
राजनीति की बात चलने लगी तो पंकज ने बताया कि वे बी.जे.पी. के समर्थक नहीं हैं, लेकिन उन्होंने उत्तराखंड़ के विधानसभा चुनावों में बी.जे.पी. प्रत्याशी गोपाल सिंह रावत के पक्ष में जमकर काम किया है। क्योंकि रावत साहब बहुत अच्छे आदमी हैं। मुझे उनकी यह बात बहुत पसंद आयी। इसके बाद उन्होंने कहा कि देश में और उत्तर प्रदेश दोनों स्थानों पर बी.जे.पी. की सरकार है। अब इन्हें राममंदिर बना देना चाहिये, ताकि भविष्य में मंदिर किसी विवाद का मुद्दा न रहे। कुछ लोग कुछ दिन तक विरोध करेंगे, फिर सब सामान्य हो जायेगा। लेकिन कम से कम एक विवाद तो समाप्त हो जायेगा। इसके बावज़ूद भी बी.जे.पी. अगर मंदिर नहीं बना पाती है, तो यही समझा जायेगा कि मंदिर इस हिंदू पार्टी के लिये केवल चुनावी मुद्दा है। यह बात भी मुझे बड़ी पसंद आयी। मुझे नहीं पता कि पंकज जी का झुकाव किस पार्टी की तरफ़ है, लेकिन जिस प्रखर और तर्कपूर्ण तरीके से उन्होंने बी.जे.पी. की आलोचना की और ‘मंदिर बनाओ, विवाद ख़त्म करो’ जैसी देशहित की बात की, उसने दिल जीत लिया। एक उत्तराखंड़ी ही ऐसा सोच सकता है।
बारिश नहीं थमी और हम तिलक जी के घर पहुँच गये। उत्तरकाशी और गंगोरी के बिलकुल बीच में है उनका घर। दो कुत्ते पाल रखे हैं - एक कुतिया लीला और एक कुत्ता, नाम पता नहीं। लीला जर्मन शेफर्ड़ है और कुत्ता भेड़िया है। असल में वह भूटिया कुत्ते और किसी अन्य शक्तिशाली प्रजाति की कुतिया का मिश्रण है। देखने में बड़ा भयंकर लगता है। बिल्कुल भेड़िया लगता है। इसका भूटिया बाप भी यहीं टहल रहा था। मुझे भूटिया से अपनापन-सा महसूस हुआ - भूटिया कुत्ते ठेठ हिमालयी होते हैं और सीधे सादे होते हैं, लेकिन जर्मन शेफर्ड़ और भेड़िये से बिल्कुल भी लगाव नहीं हो सका। मैं भेड़िये से डरा ही रहा। जैसे ही डर समाप्त होने को होता, रणविजय कह देता - “यह एकदम चौकस होकर बैठा है। अगर तुमने तिलक जी पर हाथ भी उठा दिया, तो यह तुम पर टूट पड़ेगा।” यह सुनते ही मेरा डर फिर से सातवें आसमान पर जा पहुँचता। मैं पिचका हुआ बैठा रहा। कहीं भूलवश अगर भेड़िये ने मान लिया कि मैं उसके मालिक को नुकसान पहुँचाने वाला हूँ तो यह मुझे नहीं छोड़ेगा।
अब आते हैं तिलक जी पर। उनसे मिलना इस यात्रा की सबसे बड़ी उपलब्धि थी। उनमें एक गज़ब का सम्मोहन है। कोई व्यक्ति अधिक से अधिक जितना मृदुभाषी हो सकता है, तिलक जी उससे भी ज्यादा मृदुभाषी हैं। मूलरूप से राजस्थान के रहने वाले हैं। उत्तरकाशी में किराये का मकान ले रखा है, 7000 रुपये प्रति महीना किराया देते हैं। इस मकान का नाम रखा है इन्होंने ईगल-नेस्ट। यानी बाज़ का घोंसला। इंटरनेट पर ‘व्हेयर ईगल्स डेयर’ नाम से बहुत बड़ी कम्यूनिटी विकसित कर रखी है। यह नाम कैसे दिमाग में आया? पूछने पर आसमान की ओर देखते हुए कहते हैं - “मुझे ईगल बड़ा प्रभावित करता है। ऊँची उड़ान, चौड़े पंख और निर्भयी व्यक्तित्व।”
जैसा नाम, वैसा काम। उद्देश्य है हिमालय में दुर्गम स्थानों पर जाना और उनका उचित तरीके से डॉक्यूमेंटेशन करना। इसी का नतीज़ा है कि 1962 से आम लोगों के लिये बंद हो चुकी नेलांग घाटी को पुनः यात्रियों के लिये खोल दिया गया है। पिछले दो-तीन सालों से प्रशासन भी इसमें सहयोग देने लगा है। प्रशासन कभी किसी को नहीं जाने देता था वहाँ। नेलांग घाटी के जो निवासी थे, उन्हें भी विस्थापित करके उत्तरकाशी में अन्यत्र कहीं बसा दिया गया था। अभी भी वहाँ रात को रुकना मना है। अब तिलक जी की योजना है कि रात रुकने की व्यवस्था करनी है, जो संभवतः इसी साल शुरू हो जायेगी। फिर उसके बाद और काम करेंगे। जिस तरह लद्दाख में कोई भी भारतीय बिना किसी परमिट के चीन और पी.ओ.के. सीमा के बेहद नज़दीक तक जा सकता है और रुक सकता है, उसी तरह का माहौल यहाँ भी बनाना है। इधर कभी भारत-चीन के बीच माहौल गर्म नहीं हुआ। आजकल लद्दाख में चीन घुसपैठ कर देता है, अरुणाचल में बवाल मचाये है, लेकिन उत्तराखंड़ से लगती सीमा पर कुछ भी गतिविधि नहीं है। एक मायने में लद्दाख से भी ज्यादा सुरक्षित है नेलांग घाटी। लेकिन अफसर लोग, जो अमूमन मैदानों के होते हैं या हिमालय की निचली पहाड़ियों के, वे नेलांग को भयंकर दुर्गम और संवेदनशील मान बैठते हैं और किसी को जाने नहीं देते। बड़ा मुश्किल होता है उनसे काम निकालना। तिलक जी इस कार्य को बख़ूबी अंज़ाम दे रहे हैं।
दूसरा जो उल्लेखनीय कार्य है, वो है उत्तरकाशी में शीतकालीन पर्यटन को बढ़ावा देना। उत्तराखंड़ में जब तक चारधाम के कपाट खुले रहते हैं, केवल वही पर्यटन सीजन होता है - मई से अक्टूबर। शीतकाल में कपाट बंद रहते हैं, तो कोई नहीं जाता उधर। ले-देकर औली अपवाद है। लेकिन तिलक जी पिछले कई सालों से जनवरी में गंगोत्री तक बाइक यात्रा आयोजित करा रहे हैं। बर्फ़ और हिम में बाइक चलाने की तकनीकें सिखा रहे हैं। इससे शीतकाल में उत्तरकाशी, हरसिल और गंगोत्री जाने का रुझान लोगों में बढ़ने लगा है। हरसिल में कोई होटल नहीं खुला होता था। अब केवल इस एक इंसान की बदौलत हरसिल में भी होटल खुलते हैं और धराली में भी।
उत्तरकाशी में रहने वाला कोई इंसान अगर तिलक सोनी को नहीं जानता, तो समझिये कि या तो वह झूठ बोल रहा है या फिर वो उत्तरकाशी में नहीं रहता। उत्तरकाशी, गढ़वाल और समूचा उत्तराखंड़ तिलक भाई के इस योगदान को हमेशा याद रखेगा। और अभी तो वे अच्छी तरह सक्रिय हैं, देखते जाईये अभी वे और क्या-क्या करते हैं।
बूँदाबाँदी हो ही रही थी। हम बाईपास से होते हुए कुटेटी देवी के मंदिर पर पहुँचे। भागीरथी के उस पार उत्तरकाशी से थोड़ा ऊपर चौरंगीखाल मार्ग पर यह मंदिर बना है। चीड़ के जंगल में अच्छा बना हुआ है। बारिश होते रहने के कारण हम इसे अच्छी तरह नहीं देख पाये।
अचानक मन किया चौरंगीखाल चलो। दूरी 25 किलोमीटर के आसपास है। चीड़ और बुराँश का जंगल है। मुझे तो बड़ा अच्छा लगा। रणविजय को भी अच्छा ही लगा होगा। पंद्रह-बीस मिनट चौरंगीखाल रुके, चाय-मैगी खायी और वापस चल दिये।
वापस लौट रहे थे तो मानपुर से एक महिला दो लड़कियों के साथ कार में बैठ गयी। उन्हें आख़िरी बस पकड़नी थी। उस बस को हमने पीछे चौरंगीखाल में देखा था, लेकिन ये काफ़ी देर से उसकी प्रतीक्षा कर रही थीं। उत्तरकाशी में सुरंग पार करके उन्हें उनके घर तक छोड़ने गये। हम दोनों ही भले मानुस जो ठहरे। वे पैसे भी देने लगीं। पैसे देखते ही मैंने तुरंत हाथ बढ़ाया, लेकिन रणविजय ने मना करते हुए कार आगे बढ़ा ली।
अभी अभी: आज 15 अप्रैल 2017 को पता चला है कि तिलक जी गरतांग गली से लौटकर आ चुके हैं। गरतांग गली नेलांग घाटी में एक ख़तरनाक रास्ते को तय करने के लिये पहाड़ काटकर लकड़ी की रेलिंगनुमा स्ट्रक्चर है, जो तकरीबन आधा किलोमीटर लंबी है। 1962 में समूची नेलांग घाटी आम लोगों के लिये निषिद्ध हो गयी, तो गरतांग गली भी आम लोगों की पहुँच से बाहर हो गयी। उपलब्ध जानकारी के अनुसार 1962 के बाद आज पहली बार कोई आम इंसान गरतांग गली पर चढ़ा। हालाँकि आई.टी.बी.पी. और कुछ पर्वतारोहियों ने 90 के दशक तक भी इसका प्रयोग किया था। अब योजना है कि इस रास्ते का पुनरुद्धार करके इसे यात्रियों के लिये खोला जायेगा। गरतांग गली के दूर से लिये गये चित्र तो इंटरनेट पर मौज़ूद हैं, लेकिन पहली बार यहाँ पहुँचे किसी इंसान के फोटो आये हैं। इन फोटो को तिलक जी के फेसबुक ग्रुप पर यहाँ क्लिक करके देखा जा सकता है।
हरिद्वार में चीला नहर पर (फोटो: रणविजय) |
उत्तरकाशी और गंगोरी के बीच में कहीं |
इससे मुझे बड़ा डर लगता रहा (फोटो: रणविजय) |
मैं तिलक जी से बातचीत में इतना मग्न रहा कि उनका एक भी फोटो या सेल्फी लेना ही भूल गया। तिलक भाई के जो भी फोटो लिये, रणविजय ने ही लिये। |
कुटेटी देवी मंदिर |
चौरंगीखाल पर |
उत्तरकाशी: रात के समय |
1. उत्तरकाशी भ्रमण: पंकज कुशवाल, तिलक सोनी और चौरंगीखाल
2. उत्तरकाशी में रैथल गाँव का भ्रमण
3. उत्तरकाशी में रणविजय सिंह की फोटोग्राफी
मजेदार यात्रा... दोस्ती की यात्रा.. पर्वत की यात्रा... शानदार
ReplyDeleteधन्यवाद रोहित जी...
Deleteवाह जानकारियों से परिपूर्ण इस पोस्ट को पढ़कर मजा आ गया। बिना किसी उद्देश्य से की गयी यात्रा की बात ही कुछ और होती है...।
ReplyDeleteधन्यवाद गौरव जी...
DeleteAchhi yatra rahi. Tilak Ji jaiso logo ka yogdan arltulniya hai. Bina ki swarth ke is lagan se lage rahna aur wo bhi apne mool shahar se door, koi chhoti bat nahi.
ReplyDeleteYogdan to aapka bhi kam nahi. Aapko ek YouTube channel bana lena chahiye. Achha rahega.
धन्यवाद उमेश भाई...
Deleteरोचक यात्रा. तिलक जी के विषय में जानकर अच्छा लगा. उनका काम प्रेरक है. पैसे कोई भी दे हाथ बड़ा ही देना चाहिए. हा हा.
ReplyDeleteकुत्ता वाकई शानदार है.
धन्यवाद विकास भाई...
Deleteकुटेटी देवी मंदिर का पहला दृशय बहूत शानदार है।
ReplyDeleteमंदिर का मामला कोर्ट में विचारधीन है, भला BJP कैसे मंदिर बना सकती है?
जो भी हो... लेकिन मुद्दा तो बी.जे.पी. का ही है...
Deleteदिल्ली से बागडोगरा बुकिंग का पैसे गया ?
ReplyDeleteशानदार विवरण और फोटो
टिलक सोनी जी का कार्य महान हे .. hats off....
हाँ जी, दिल्ली से बागडोगरा का पैसा गया...
Deletesundar yatra vivran, sundaor photo, maza aa gya
ReplyDeleteधन्यवाद अभयानंद जी...
Deleteजय हो।
ReplyDeleteमैं भी उस समय उत्तरकाशी के आसपास ही भागदौड़ कर रहा था।सोचा आपको फोन कर लूं मगर जब आपका फेसबुक स्टेटस देखा तो यही सोच कर रह गया कि मिल तो घर पर भी लूंगा अभी जाटराम को आराम करने दो।
धन्यवाद अनिल भाई...
Deleteशानदार आनंद दायक पोस्ट हर पोस्ट अपने आप मे लाजबाब होती है आपकी बिना जाए ही इतना कुछ पता चल जाता है मानो जा कर ही आ गए हम। बहुत बहुत धन्यवाद
ReplyDeleteतिलक जी से परिचित हूँ लेकिन इनके कार्यों से , इन कार्यों से परिचित नहीं था ! अच्छा लगा इस बेहतरीन इंसान और घुमक्कड़ से मिलना !!
ReplyDeleteतिलक भाई से एक बार दिल्ली में मिलना हुआ था। बहुत ही सुलझे से इंसान लगे। उनके समाज के प्रति कार्यो का भी पता चला। बढिया यात्रा
ReplyDeleteनीरज भाई आप ऐवरेस्ट बेस केम्प के बारे में कब लिख रहे है? प्रतीक्षा कर रह हूँ.
ReplyDeleteपढकर ऐसा लगता जैसे मैंने भी घूम लिया
ReplyDeleteNeeraj ji please send your contact no.
ReplyDelete