ध्यान दें: डायरी के पन्ने यात्रा-वृत्तान्त नहीं हैं। इनसे आपकी धार्मिक और सामाजिक भावनाएं आहत हो सकती हैं। कृपया अपने विवेक से पढें।
1. 2 जून 2014, सोमवार, तेलंगाना राज्य बन गया। मैं नये राज्यों का समर्थक हूं। कुछ राज्य मेरी भी लिस्ट में हैं, जो बनने चाहिये। इनमें सबसे ऊपर है हरित प्रदेश। यूपी के धुर पश्चिम से लेकर धुर पूर्व तक मैं गया हूं, अन्तर साफ दिखाई पडता है। मुरादाबाद से आगरा तक एक लाइन खींचो... ह्म्म्म... चलो, बरेली को भी जोड लेते हैं। रुहेलखण्ड पर एहसान कर देते हैं। तो जी, बरेली से आगरा तक एक लाइन खींचो। इसके पश्चिम का इलाका यानी पश्चिमी उत्तर प्रदेश को हरित प्रदेश कहा जायेगा। यहां नहरों का घना जाल बिछा हुआ है, जमीन उपजाऊ है, समृद्धि भी है। शीघ्र ही यह हरियाणा और पंजाब से टक्कर लेने लगेगा। मुख्य फसल गन्ना है जो समृद्धि की फसल होती है। फिर एक बात और, अक्सर यूपी-बिहार को एक माना जाता है और इनकी संस्कृति भी एक ही मानी जाती है। लेकिन इस हरित प्रदेश की संस्कृति उस यूपी-बिहार वाली संस्कृति से बिल्कुल अलग है। जमीन-आसमान का फर्क है। उस यूपी-बिहार में जहां अपनी जमीन छोडकर पलायन करने को शान समझा जाता है, वहीं हरित प्रदेश में ऐसा नहीं है। राजधानी मेरठ होनी चाहिये, वैसे गाजियाबाद और आगरा भी ठीक हैं।
अब देखते हैं कहां के टुकडे किये जा सकते हैं। यूपी के पूर्वी हिस्से और उत्तर बिहार के कुछ जिलों को मिलाकर भोजपुरी भाषी राज्य बनाया जाना चाहिये। राजधानी होनी चाहिये बनारस। इनमें भाषा तो एक है ही, सभ्यता-संस्कृति भी एक ही है। यूपी के बुन्देलखण्ड और एमपी के बुन्देलखण्ड को एक अलग राज्य बनाया जा सकता है। राजधानी झांसी। पश्चिमी बंगाल के दो टुकडे जरूरी हैं। आप पश्चिमी बंगाल के नक्शे को ऊपर से पकडकर देखो, लगेगा कि अब टूटा, अब टूटा। सीमा होनी चाहिये मालदा के पास जहां गंगा बांग्लादेश में प्रवेश करती है या फिर थोडा और ऊपर किशनगंज के पास ‘चिकेन नेक’ पर। दक्षिणी बंगाल की राजधानी तो कोलकाता ठीक है, उत्तर बंगाल यानी गोरखालैण्ड की राजधानी दार्जीलिंग होनी चाहिये। फिर असोम के भी दो टुकडे जरूरी हैं। कछार को राज्य बनाकर सिल्चर को राजधानी।
बाकी राज्यों को देखते हैं। लद्दाख को जम्मू कश्मीर से अलग करके हिमाचल का लाहौल-स्पीति व पांगी क्षेत्र इसमें जोडकर विस्तृत लद्दाख बनाया जा सकता है। पंजाब, हरियाणा, उत्तराखण्ड के टुकडे करने की कोई जरुरत नहीं है। हां, एक परिवर्तन अवश्य होना चाहिये। हरियाणा की एक राजधानी जरूर होनी चाहिये। बेवजह चण्डीगढ को अपनी राजधानी बनाकर सीना चौडा करने की कोशिश कर रहे हैं। चण्डीगढ ठेठ पंजाबी शहर है। किसी राज्य की राजधानी में जाकर लगना भी तो चाहिये कि हां, राजधानी में हैं। पानीपत को राजधानी बनाया जा सकता है या रोहतक को भी। उधर उत्तराखण्ड वाले मुझे अजीब लगते हैं। गैरसैण को राजधानी बनाने को कह रहे हैं। उससे अच्छा होता कि श्रीनगर पर दावा ठोकते। पिछले दिनों नया टिहरी बसाया था, उसमें दो-चार इमारतें प्रशासनिक भी बना देते। नई टिहरी को ही राजधानी बना देते। गैरसैण! कहां है भला ये? उधर बहुत दूर कर्णप्रयाग से भी आगे बिल्कुल बीहडों में छोटा सा कस्बा है। गैरसैण राजधानी बन गई तो तंग आकर दो महीनों में ही स्वयं पुनः देहरादून की पैरवी करना शुरू कर देंगे।
महाराष्ट्र के टुकडे जरूर होने चाहिये, विदर्भ अपना हक मांग रहा है। गुजरात के भी टुकडें करें क्या? चलो, रहने देते हैं। बाकी राज्य? राजस्थान? ... ह्म्म्म... ना। राजस्थान बडा ही ठीक है, एमपी से बुन्देलखण्ड को निकाल ही दिया है, छत्तीसगढ-झारखण्ड तो कल परसों ही बने हैं। दक्षिण के बाकी राज्य भी ठीक हैं। हां, एक परिवर्तन जरूर होना चाहिये। पुदुचेरी के चारों जिलों को उनके नजदीकी राज्य में मिला देना चाहिये। पुदुचेरी व कराईकल को तमिलनाडु में, माहे को केरल में और यानम को आन्ध्र प्रदेश में। इसी तरह दादरा नगर हवेली और दमन-दीव को भी गुजरात में मिला देना चाहिये।
देखते हैं मेरी इच्छा कब पूरी होती है। बाकी पूरी हो या न हो, हरित प्रदेश जरूर बनना चाहिये।
2. दिल्ली की सर्दी तो प्रसिद्ध है ही, अब दिल्ली की गर्मी भी प्रसिद्ध होने लगी है। अधिकतम तापमान 45 डिग्री से भी ऊपर जा रहा है। दिन में तो दिन में, रात को भी लू चल रही है। कूलर में कितना भी पानी भरो, घण्टे भर में सब खत्म। लेकिन एक मजा भी है कि आर्द्रता 15-20 प्रतिशत से ऊपर नहीं जा रही। इस चीज का भी अपना फायदा होता है। कभी अगर ऐसे में समुद्र किनारे गये होंगे तो गौर किया होगा कि गर्मी तो लगती ही है, पसीना भी नहीं सूखता और पूरे शरीर में चिपचिपाहट होती है। यह ज्यादा आर्द्रता के कारण होता है। दिल्ली में ऐसा नहीं होता। प्यास लगती रहेगी, आप जमकर पानी पीते रहोगे, पसीना भी खूब निकलेगा लेकिन कभी पता नहीं चलेगा। बल्कि पसीना भी ठण्डा-ठण्डा अच्छा लगता है। मैं जब ऑफिस से आता हूं तो ऊपर से नीचे तक सभी कपडों पर नमक की सफेद सफेद धारियां पड जाती हैं। यह पसीने के कारण होता है।
सुना है केरल में मानसून ने प्रवेश कर लिया है। जिस तरह बोर्ड की परीक्षाओं से पहले कुछ स्कूल प्री-बोर्ड की परीक्षाएं कराते हैं, उसी तरह मानसून से कुछ दिन पहले प्री-मानसून की बारिश होती है। पिछले साल प्री-मानसून की ही बारिश में उत्तराखण्ड में भयानक त्रासदी घटी थी। भगवान करे, इस बार ऐसा न हो।
3. धीरज को अब एक ही धुन है- कांवड लानी है। वैसे तो वह पिछले कई सालों से हरिद्वार से कांवड लाता रहा है लेकिन इस बार उसके कानों में किसी ने कह दिया है कि बडी कांवड ज्यादा अच्छा फल देती है। बडी कांवड को कई लोग मिलकर लाते हैं। ये बहुत बडी बडी होती हैं और सजावटी भी होती हैं। अक्सर इनके साथ डीजे भी बजता हुआ चलता है। धीरज ने बताया कि अभी तक बीस से ज्यादा लडके जाने को तैयार हैं। कुछ से सात हजार तो कुछ से पांच हजार रुपये इकट्ठे हो चुके हैं। सीधी सी बात है कि इसका खर्च एक लाख रुपये से भी ज्यादा आने वाला है। भला उस पचास रुपये वाली एक बांस की कांवड में क्या कमी थी? लेकिन धीरज नहीं मान रहा। मुझे ऐसी भक्ति पर तरस आता है।
मैं कांवड यात्रा का समर्थक हूं क्योंकि यह एक यात्रा है। इसमें ज्यादातर वे लोग जाते हैं जो बाकी साल कहीं नहीं जा पाते। ग्रामीण जिन्हें पूरे साल खेतों और पशुओं से ही फुरसत नहीं मिलती। साल में एक बार हरिद्वार चले जाते हैं, ऋषिकेश चले जाते हैं, नीलकण्ठ चले जाते हैं और पैदल सैंकडों किलोमीटर की यात्रा करके अपने घर लौट आते हैं; कोई बुराई नहीं है।
बस केवल एक बुराई है। जो श्रद्धालु सक्षम हैं, उन्हें हरिद्वार-ऋषिकेश से हटकर भी सोचना चाहिये। धीरज को मैं कई सालों से कहता आ रहा हूं कि तू हमेशा हरिद्वार से कांवड लाता है, इस बार गौमुख से ले आ। लेकिन वह नहीं मानता। इस बार भी मैंने यही कहा कि बेवजह बडी कांवड के पीछे पागल हो रहा है। क्यों? क्योंकि गांव के दूसरे लडके जा रहे हैं जिनमें ज्यादातर आवारा हैं? मतलब... क्या है मकसद? अहंकार है कि तू बडी कांवड के झुण्ड में शामिल हुआ? अरे अमरनाथ जा, केदारनाथ जा, गौमुख जा... इनका बहुत बडा नाम है। गौमुख से कांवड लायेगा तो सब तेरा ही गुणगान करेंगे कि लडका गौमुख से आया है। लेकिन ना, झुण्ड में ही रहना है। रह ले, छह सात हजार रुपये फूंककर आ जायेगा। मांगने से पहले ही जो मिल जाते हैं।
भगवान करे इनकी कांवड टूट जाये, सारी कनस्तरियों में छेद हो जाये, सारा गंगाजल बह जाये, डीजे चोरी हो जाये, जनरेटर की टंकी फूट जाये...। कसम से मजा आ जायेगा।
4. पहले तो जून में शिंगो-ला पार करने की योजना थी लेकिन अत्यधिक बर्फ होने के कारण स्थगित करनी पडी। अब विचार आया कि इन्द्रहार पार कर लूं। हालांकि यहां भी अत्यधिक बर्फ है लेकिन जून में धर्मशाला-मैक्लोडगंज में पीक सीजन होने के कारण उम्मीद थी कि इन्द्रहार तक कोई न कोई आता-जाता मिलता रहेगा। त्रियुण्ड तक तो जनवरी-फरवरी में भी लाइन लगी रहती है। इस बारे में तरुण भाई से सलाह ली गई। उन्होंने कहा कि अगर इन्द्रहार तक ही जाना है तो जाया जा सकता है लेकिन उधर चम्बा की तरफ उतरना खतरनाक है। मुझे चम्बा की तरफ ही उतरना था, किसी दर्रे को लांघने का अर्थ भी यही है। इन्द्रहार लगभग 4300 मीटर की ऊंचाई पर है। अब विचार आया चन्द्रखनी दर्रा पार करने का। यह 3600 मीटर पर है। इस पर कम बर्फ मिलेगी या शायद बिल्कुल भी न मिले। फिर दर्रे के उस तरफ मलाणा गांव तो विशेष महत्व का है ही। फेसबुक पर सूचना प्रसारित कर दी।
वास्तव में क्या होगा, यह तो पता नहीं। लेकिन मेरी जानकारी के अनुसार रूमसू से चलने के बाद चन्द्रखनी पार करके मलाणा तक कोई खाने-पीने का प्रबन्ध नहीं है। वैसे तो इस दूरी को काफी मेहनत करके एक दिन में भी तय किया जा सकता है। लेकिन कितनी भी जल्दी करें, चन्द्रखनी तक तीन बज ही जाने हैं। इस समय तक इतनी ऊंचाई पर बादल बनने लगते हैं और बारिश भी हो जाया करती है। चन्द्रखनी दर्रा चारों तरफ के शानदार नजारों के लिये प्रसिद्ध है। ऐसे में हम उन नजारों का आनन्द नहीं ले पायेंगे। इसलिये सोच रखा था कि जब भी चन्द्रखनी पार करूंगा, तो दर्रे के 100-200 मीटर नीचे टैंट लगाकर रुक जाऊंगा और अगले दिन सुबह ही दर्रे पर पहुंचकर जी भरकर नजारों का आनन्द लूंगा।
वैसे तो अकेले जाने में मुझे कोई दिक्कत नहीं है लेकिन भालुओं से बहुत डर लगता है। इसलिये किसी को साथ ले जाना चाहता था। फेसबुक पर ‘विज्ञापन’ दिया कि टैंट में एक आदमी की जगह खाली है। कमरुनाग के साथी सुरेन्द्र ने सबसे पहले हामी भरी। उसके बाद दिल्ली के मधुर गौड ने सहमति जताई तो मैंने उनसे टैंट और स्लीपिंग बैग का इंतजाम करने को कहा। बाद में इन्दौर से अशोक भार्गव भी सहमत हुए तो उनसे भी यही कहा जो गौड साहब से कहा था। आखिरकार भार्गव और गौड दोनों पण्डितों में वार्तालाप हुआ और वे दोनों मिलकर एक टैंट दिल्ली से ही किराये पर ले लेंगे।
मेरा साप्ताहिक अवकाश मंगलवार को होता है तो सोमवार को मैं यात्राओं पर निकलता हूं। मेरे साथ जो भी साथी जा रहा होता है, उसके साथ ऐसा नहीं होता। ज्यादातर तो शनिचरी व सण्डे वाले होते हैं। तो हर कोई चाहता है कि यात्रा शुक्रवार को शुरू हो जाये या फिर हद से हद शनिचर को। ऐसे में सोमवार को यात्रा शुरू करने की उनके लिये कोई तुक नहीं है। सुरेन्द्र के साथ भी ऐसा ही था। उसने मुझसे कहा भी कि मैं शनिचर-इतवार की छुट्टी ले लूं लेकिन मेरे लिये ऐसा आसान नहीं है। एक उपाय यह निकाला कि वह सोमवार की ड्यूटी करे और हम सब सोमवार की शाम को निकलें। उसे एक छुट्टी कम लेनी पडेगी।
बाद में एक समस्या और आ गई। मेरा इरादा 16 जून को शाम 04.40 वाली बस पकडने का था, हिमाचल परिवहन की दिल्ली से मनाली जाने वाली। सुरेन्द्र से पूछा तो उसने बताया कि उसका ऑफिस दोपहर बारह बजे खुलता है और किसी भी हालत में वह शाम आठ बजे से पहले नहीं छूट सकता। इसका अर्थ था कि हम कितनी भी जल्दी करें, 17 जून को दोपहर बारह बजे से पहले नग्गर नहीं पहुंचने वाले। मौसम बिगड गया तो हमें उस दिन एक भी कदम चले बिना नग्गर में भी रुकना पड सकता है। इससे पूरी यात्रा पर असर पडता। तो इसका इलाज यह निकाला कि मैं, गौड और भार्गव साहब तीनों सुबह तक नग्गर पहुंच जायें और समय से चल पडें। भार्गव साहब पहली बार इतनी ऊंचाई पर जा रहे हैं, तो मुझे लग रहा है कि वे बाकियों से धीरे धीरे चलेंगे। सुरेन्द्र बाद में आता रहेगा और रात तक हमें पकड लेगा। वैसे भी उसके पास हमसे कम सामान रहेगा। उसकी चलने की रफ्तार अच्छी है। सुरेन्द्र ने पहले तो इसके लिये आनाकानी की कि वह अकेला नहीं आ सकता। साथ होते तो ज्यादा अच्छा रहता लेकिन आखिरकार मान गया।
5. एक मित्र हैं संजीव चौधरी। मुजफ्फरनगर जिले में उत्तराखण्ड सीमा से बिल्कुल सटे हुए कस्बे पुरकाजी में रहते हैं। मुझे इनके बारे में ज्यादा तो नहीं पता लेकिन ये इलाके के प्रभावशाली व्यक्ति हैं। राजनीति के क्षेत्र में भी सक्रिय हैं। मुझसे बहुत शालीनता से बात करते हैं। मैं कहीं भी जाऊं, इन्हें अगर पता चल गया कि नीरज कहीं गया है तो तुरन्त फोन आ जाता है- नीरज भाई, तुम पुरकाजी से निकलकर गये हो और हमें बताया नहीं। भले ही मैं राजस्थान जाऊं या हिमाचल जाऊं; इनकी यही शिकायत रहती है। फिर मुझे समझाना पडता है कि मैं पुरकाजी से निकलकर नहीं आया हूं। जब भी उधर से निकलूंगा तो आपसे मिलकर ही जाऊंगा। जल्दी ही मान भी जाते हैं। अक्सर बीच-बीच में भी फोन आ जाता है। मुझे पता होता है कि क्या बात करेंगे- पुरकाजी कब आओगे और शादी कब कर रहे हो? इसके अलावा और कुछ बात नहीं। मेरा भी हमेशा एक ही जवाब होता है। जवाब सुनते ही कहते हैं- ठीक है तो भाई जी, रामराम। फोन काट देते हैं। इनका जब भी फोन आता है तो मैं उठा लेता हूं क्योंकि मुझे पता होता है कि ये दो बातें करेंगे और जल्दी से जल्दी काट भी देंगे।
लेकिन सभी ऐसे नहीं होते। मुझे कहना तो नहीं चाहिये लेकिन कुछ तो सिर पर बैठ जाते हैं। शिष्टाचारवश मैं फोन नहीं काट पाता और वे बोलते चले जाते हैं, बोलते ही जाते हैं।
एक मित्र और याद आ गये- आशीष गुटगुटिया। झारखण्ड के रहने वाले हैं। फोन पर हमारी कभी बात नहीं हुई, जो भी बात होती है फेसबुक के माध्यम से होती है। इन्हें हमेशा शिकायत रहती है कि मैं झारखण्ड क्यों नहीं घूमा। हालांकि मैं शिकायत का निवारण कर देता हूं लेकिन अगली बार फिर से वही शिकायत। एक बार तो मैंने परेशान होकर कह भी दिया कि मैं आज ही अपने ब्लॉग में लगे भारत के नक्शे में झारखण्ड को अपने घूमे राज्यों की सूची में शामिल कर लेता हूं और चूंकि हावडा जाते समय मैं झारखण्ड से होकर गया था तो मेरे लिये एक ‘झारखण्ड यात्रा’ लिखना कोई मुश्किल नहीं है। हर काम का एक समय होता है और जब झारखण्ड का समय आयेगा, झारखण्ड भी घूमेंगे।
6. 1 जून को सुरेन्द्र के यहां जाना था। उसने कमरुनाग यात्रा में मेरे कुछ फोटो खींचे थे। उसके कुछ फोटो मेरे पास थे। फोटो की अदला-बदली करनी थी। वह केवल रविवार को ही मिल सकता था। लेकिन मेरी रविवार को नाइट ड्यूटी होती है। दिन में मैं सोता हूं, इसलिये नहीं जा पाया। अब 8 जून आया तो जी मजबूत करके निकल पडा। उसके कहे अनुसार कौशाम्बी मेट्रो स्टेशन पर उतरा। विजय नगर वाले ऑटो में बैठा और साईं मन्दिर उतारने को कह दिया। धूप बहुत तेज थी तो मैंने एक कैप लगा रखी थी। इस पर मेट्रो का लोगो बना था। इसे देखकर मेरे सामने बैठा एक लडका बातचीत करने लगा। सेकिण्डों में ही वह मेरा ‘दोस्त’ बन गया और मेरा मोबाइल नम्बर अपने पास सेव कर लिया। एक नम्बर का बातूनी। अच्छा था कि साईं मन्दिर आ गया और मैं उतर गया। अगर मुझे विजय नगर जाना होता तो और पन्द्रह-बीस मिनट उसकी बकर-बकर सुननी पडती।
खैर, सुरेन्द्र के यहां पहुंचा। फोटो की अदला-बदली हुई। वह कम्प्यूटर का अच्छा जानकार होने के साथ-साथ एनिमेशन, फोटोशॉप का भी अच्छा जानकार है। एनिमेशन से तो मुझे कुछ नहीं लेना था लेकिन फोटोशॉप मेरे काम का था। मेरे कम्प्यूटर में भी फोटोशॉप है लेकिन मुझे इसका सही इस्तेमाल करना नहीं आता। इस पर मैं फोटो का साइज कम करता हूं और अपने नाम का ठप्पा लगाता हूं। बस, मेरे लिये यही फोटोशॉप है। मेरी इच्छा थी कि दो फोटो बराबर-बराबर में कैसे जोडे जाते हैं, यह सीखने की। सुरेन्द्र ने कहा- बडा आसान है। कुछ क्लिक किये, नतीजा सामने था। फिर पूछा कि कोई टेक्स्ट हमें अपने वांछित कोण पर मोडना है। क्षैतिज व ऊर्ध्वाधर तो मैं कर लेता हूं लेकिन अगर 45 डिग्री पर घुमाना हो या 30 डिग्री पर घुमाना हो तो नहीं घुमा सकता। उसने फिर कहा- बडा आसान है। कुछ क्लिक किये, नतीजा सामने था। इसके बाद कुछ भी पूछने की हिम्मत नहीं पडी। फिर सुरेन्द्र ने ही पूछा कि यह फलां फंक्शन नहीं सीखना क्या? सिखा दे भाई। इस बार उसने कुछ ज्यादा क्लिक किये और एक जादू सा घटित हुआ। अब ध्यान नहीं कि वो फंक्शन क्या था लेकिन इतना ध्यान है कि मैं चमत्कृत था उसे देखकर।
जैसा कि तिवारी जी कहते हैं- फोटो ऐसे खींचने चाहिएं कि उनमें किसी भी तरह की एडिटिंग की जरुरत न पडे। लेकिन कभी अगर मामूली सी एडिटिंग करके फोटो ज्यादा आकर्षक बन सकता है तो बुराई क्या है? बिल्कुल सही बात है। कुछ साल पहले त्यागी जी आये थे हमारे यहां- मनु प्रकाश त्यागी। वे भी अच्छे जानकार हैं फोटोशॉप के। उस समय मेरे पास जो कैमरा था, उसके लेंस पर अन्दर धूल के दो-तीन कण जमे हुए थे जिनकी वजह से फोटो में धब्बे दिखाई देते थे। मैंने पूछा कि इन धब्बों को कैसे हटाया जाये। उन्होंने एक फोटो से धब्बे हटाकर दिखा दिये। उनके जाने के बाद मैंने कोशिश की। धब्बे तो नहीं हटे लेकिन फोटो का सत्यानाश हो गया। मान लो फोटो में वे धब्बे बडी सी जमीन पर रखी कटोरी जैसे लग रहे थे। एडिटिंग के बाद जब फोटो देखा तो कटोरी तसला बन गई थीं। उसके बाद तो कैमरा ही बदल लिया लेकिन फोटोशॉप सीखने की कोशिश नहीं की।
7. लैपटॉप में बडी अजीब सी समस्या आ गई है। और आयेगी क्यों न? इतना पुराना हो चुका है। इसका एक एक पुर्जा, एक एक स्क्रू अब उंगलियों से खुल जाता है। तो जी, समस्या ये है कि इसमें कोई भी नया हार्डवेयर इंस्टाल नहीं हो रहा। जो इसमें पहले से इंस्टाल हैं, वे तो ठीक काम करते हैं। कोई नई पैन ड्राइव लगाता हूं तो यह बुरा सा मुंह बना लेता है और मना कर देता है। पिछले दिनों तेज नेट चलाने के लिये 3G सिम लिया, उसके लिये डोंगल भी लिया। पट्ठे ने उसे भी इंस्टाल नहीं किया। सारा उत्साह फुस्स हो गया। दूसरी समस्या है कि जब इसमें पोर्टेबल हार्ड डिस्क लगाता हूं तो यह उसके अन्दर पडी फाइलें नहीं दिखाता जबकि यह दिखाता रहता है कि इसमें इतने जीबी का मैटीरियल पडा है। यानी बता देता है कि यह किला, यह घर इतना लम्बा चौडा है, इतने सदस्य इस घर में रहते हैं लेकिन इसमें प्रवेश कैसे करूं, यह नहीं बताता। बिना दरवाजे के इसमें कैसे जाऊं?
बाद में विपिन ने बताया कि दरवाजे से नहीं जा सकते तो छत से चले जाओ। मतलब? मतलब कि उस हार्ड डिस्क में पडी कोई फाइल कम्प्यूटर में सर्च करो, कम्प्यूटर केवल उसका पता-ठिकाना ही नहीं बताएगा बल्कि वहां तक पहुंचने का लिंक भी दे देगा। मैंने ऐसा ही किया। वास्तव में वो फाइल खुल गई। उसके माध्यम से हार्ड डिस्क में पडी सारी फाइलें पहुंच में हो गईं। यानी दरवाजे से नहीं जा सका तो छत से चला गया।
मुझे कम्प्यूटर के मामले में न तो हार्डवेयर की जानकारी है, न ही सॉफ्टवेयर की। कोई पूछता है कि इस लैपटॉप की रैम कितनी है तो मेरे मुंह से एकदम निकलता है- एक ही रैम है। बाद में वो पूछता है कि कितने जीबी की है, ये कितना है, वो कितना है। मेरा एक ही जवाब होता है- पता नहीं। कौन सा ऑपरेटिंग सिस्टम है, कौन सा एण्टीवायरस पडा है, जवाब वही- पता नहीं।
जानकार मित्र भी सलाह देते हैं कि ऐसा कर ले, वैसा कर ले लेकिन समझ ही नहीं आता। एक-दो मित्र ऐसे भी हैं जिनके पास इसे ले जा सकता हूं लेकिन मन पहले से ही मान लेता है कि इसे कुछ अता-पता नहीं है। इसे और खराब कर देगा। जैसा चल रहा है, अच्छा ही चल रहा है।
8. मैंने जब चन्द्रखनी जाने के बारे में फेसबुक पर लिखा तो कश्मीर सिंह की टिप्पणी आई- ‘यह कौन सी बीमारी है?’ मैंने कहा- ‘जैसे तुम लोग रेगिस्तान में राइफल हाथ में लेकर पेट्रोलिंग करते हो, ऐसे ही यह हम सिविलियनों की बीमारी है।’ गौरतलब है कि वह बीएसएफ में है और आजकल बीकानेर में तैनात है। उसने फिर पूछा- ‘इस बीमारी से हासिल क्या होता है? देखो, हम तो देश सेवा और अपने पेट की सेवा के लिये करते हैं, पर आपका कौन सा भला होता है इससे?’ मैंने कहा- ‘देश सेवा केवल फौजी ही नहीं करते कश्मीर सिंह। सिविलियन भी जानते हैं कि देश सेवा क्या होती है।’
मुझे फौजियों से बस एक ही शिकायत है कि उन्होंने एक अलग कैटेगरी बना दी है- सिविलियन। और यह शब्द वे अक्सर गाली की तरह इस्तेमाल करते हैं। वे मानते हैं कि सिविलियनों को देश-सेवा करनी आ ही नहीं सकती। देश-सेवा व देश-प्रेम केवल फौजी ही जानते हैं। फौजियों और सिविलियनों का टकराव ट्रेनों में जमकर होता है। गाली-गलौच तो आम है ही, बलात्कार व हत्या भी ये लोग कर देते हैं।
ठीक है कि आप लोग महीनों घर से बाहर रहते हैं, मुश्किल और जानलेवा परिस्थितियों में रहते हैं, कडे से कडे मौसम का सामना करते हैं। लेकिन सिविलियन कहां कम हैं? मैंने कई बार फौजियों के मुंह से कहते हुए सुना है- ‘वो तो हम हैं जो बॉर्डर पर जाकर गोलियां खाते हैं, नहीं तो अब तक तुम सिविलियनों को पाकिस्तान खा गया होता।’
फौज को ऐसा नहीं सोचना चाहिये। देश से या सिविलियनों से अलग नहीं है फौज।
9. एक मित्र की मेल आई- नीरज भाई, मुबारक हो। आपका ब्लॉग हिन्दी के टॉप ब्लॉगों में से एक है। साथ ही एक लिंक भी दिया था। मैंने खोलकर देखा तो पाया कि मेरा ब्लॉग उसमें 12वें स्थान पर था। सोचने लगा कि इन्होंने यह रेटिंग किस आधार पर बनाई है। जल्दी ही पता चल गया। यह एलेक्सा की रेटिंग थी। बनाने वाले को जितने भी हिन्दी ब्लॉग के बारे में जानकारी थी, उन्हें एलेक्सा की वर्ल्ड रैंक के अनुसार रेटिंग दे दी।
पहले भी मैंने कई बार एलेक्सा के बारे में सुना था। आज इसके बारे में और ज्यादा जानकारी लेने की ठान ली। एलेक्सा किसी भी वेबसाइट की विश्व में रैंक, भारत में या उस वेबसाइट से सम्बन्धित देश में रैंक, बाउंस रेट यानी कितने प्रतिशत लोग उस वेबसाइट पर आये और बिना कोई दूसरा पेज खोले वापस चले गये, एक आदमी औसतन कितने पेज खोलता है, एक आदमी औसतन उस वेबसाइट पर कितना समय बिताता है, सर्च इंजनों से कितने प्रतिशत लोग आते हैं और साइट लिंक। साइट लिंक क्या है, मुझे समझ नहीं आया।
मेरे लिये यह सबकुछ देखना बडा मजेदार था। फिर तो मैंने कईयों की एलेक्सा रेटिंग देखी। चलिये, आपसे भी बताता हूं लेकिन केवल भारत में किस स्थान पर है, यही बताऊंगा- मेरे इस ब्लॉग की आज दिनांक 12 जून 2014 की सुबह सात बजे भारत में रेटिंग है 35353, टाइम टेबल वाले ब्लॉग की 70736, सन्दीप भाई की 110306, तरुण भाई की 146766, मनु की 7807, Ghumakkar.com की 11448. मेरे ब्लॉग का बाउंस रेट 47% है यानी लगभग आधे लोग आते हैं और बिना कोई दूसरा पेज पढे बन्द कर देते हैं। एक पाठक औसतन 2.5 पेज खोलता है। अगर बाउंस वालों को हटा दिया जाये तो हर पाठक औसतन 5 पेज खोलता होगा। सबसे बढिया बात कि एक पाठक औसतन पौने पांच मिनट तक इस ब्लॉग को खोले रखता है। अगर औसत ही लगभग पांच मिनट का है तो मैं तो बडा खुश हूं। सोचो, बहुत होते हैं पांच मिनट। आप अपने बैंक की साइट पर भी इतनी देर तक नहीं रुकते होंगे। वाह नीरज वाह!
एक मजेदार बात और है। ghumakkar.com पर जितना भी ट्रैफिक सर्च इंजनों से आता है, उनमें ‘neeraj jat’ सर्च करके आने वालों की संख्या काफी है। इसी तरह मनु त्यागी के यहां सर्च इंजनों से आने वाले 26 प्रतिशत से ज्यादा लोग ऐसे हैं, जो ढूंढते तो neeraj jat हैं और गुमराह होकर त्यागी जी के यहां पहुंच जाते हैं। जाहिर है कि इससे मेरा ही नुकसान है। जिन्हें ‘मुसाफिर हूं यारों’ पर आना था, वे कहीं और पहुंच गये। गूगल सबसे बडा सर्च इंजन है तो मैंने इसे गूगल पर ट्राई करके देखा। जब neeraj jat ढूंढते हैं तो सबसे पहले गूगल ‘मुसाफिर हूं यारों’ ही दिखाता है, उसके बाद मेरा फेसबुक पेज और उसके बाद ghumakkar.com पर बना हुआ मेरा प्रोफाइल। इससे वहां काफी ट्रैफिक चला जाता है। गौरतलब है कि काफी समय पहले मैं ghumakkar.com पर भी लिखा करता था लेकिन कुछ विवाद हो जाने के कारण वहां लिखना बन्द कर दिया।
याद आया कुछ समय पहले नटवर लाल ने मुझसे कहा था- नीरज, तेरी एलेक्सा रेटिंग बहुत अच्छी है। गौरतलब है कि नटवर की अपनी दो-तीन वेबसाइटें हैं। वह कुछ बनाता है और अपनी साइटों पर उन्हें बेचता है। उसे ठीकठाक कमाई होती है। आज उसकी साइट की भी भारत में रैंक देखी- 65793, दुनिया में छह लाख से ज्यादा। टकले, तू तो बिल्कुल रसातल में गिरा पडा है।
अब जब इतना हो गया तो मन में आयेगा कि इस रेटिंग को कैसे बढाया जाये। ढूंढा तो मिल गया। सबसे पहला पॉइंट था- अपनी पोस्ट लम्बी लम्बी लिखो ताकि पाठक ज्यादा से ज्यादा समय तक आपके यहां टिके रह सकें। वो तो मैं पहले से ही करता हूं। दूसरा था कि अपनी हर पोस्ट में किसी दूसरी पोस्ट का लिंक लगा दिया करो ताकि पाठक आपके ही यहां रुके रहने को मजबूर हो जायें। वो भी मैं पहले से कर रहा हूं। ‘अगले भाग में जारी...’ यह वही तो है। तीसरा पॉइंट था कि दूसरे ब्लॉगों पर भी जाओ और वहां कमेण्ट किया करो। यह मैं नहीं करता। एक पॉइंट था कि सोशल नेटवर्किंग साइटों यानी फेसबुक, ट्विटर, गूगल प्लस, लिंक्डइन पर अपनी पोस्ट का लिंक लगाया करो। मैं केवल फेसबुक पर ही सक्रिय हूं। दूसरे की वाल पर अपना लिंक लगाओ। ऐसा मैं कभी नहीं करता और कभी करूंगा भी नहीं। एक गेस्ट पोस्ट की भी बात बताई गई। गेस्ट पोस्ट का अर्थ है कि अपने ब्लॉग का स्वामित्व सीमित रूप से किसी दूसरे को भी दे दो। हां, ऐसा हो सकता है। एक ब्लॉग के कई कई मालिक हो सकते हैं। सबके अपने-अपने अलग-अलग पासवर्ड होंगे और सभी अपनी मर्जी से कुछ भी लिख व प्रकाशित कर सकते हैं। इस काम को भी मैं कभी नहीं करने वाला।
10. मैंने अपने ब्लॉग में फेसबुक शेयर बटन लगा रखा है। हर पोस्ट के आखिर में यह बटन लगा हुआ मिलता है। अगर कोई उस पोस्ट को अपनी फेसबुक वॉल पर शेयर करना चाहता है तो उस बटन पर क्लिक करके आसानी से कर सकता है। मैंने स्वयं भी ऐसा कई बार किया है। लेकिन एक बात समझ नहीं आती। यह बटन कुल शेयरों की गिनती बता देता है लेकिन यह नहीं बताता कि किस-किसने शेयर किया है। गौरतलब है कि यह ब्लॉग गूगल का प्रॉडक्ट है जबकि फेसबुक बिल्कुल अलग कम्पनी है। अगर मैं अपनी फेसबुक वॉल पर कुछ शेयर करूं और दूसरे लोग उसे शेयर करते हैं तो फेसबुक बता देता है कि किस-किसने शेयर किया है जबकि ब्लॉग नहीं बताता।
समस्या ये है कि हर पोस्ट औसतन 50 बार शेयर होती है। महीने में अगर 10 पोस्ट भी लिखता हूं तो सीधे सीधे 500 शेयर हो गये। लेकिन मैंने कभी भी किसी मित्र के यहां अपनी कोई पोस्ट शेयर की हुई नहीं देखी। फेसबुक पर शेयर करता हूं, उसे दोबारा शेयर कर देते हैं, वो अलग बात है। लेकिन सीधे ब्लॉग से शेयर की हुई पोस्ट मैंने आज तक नहीं देखी। और आज से नहीं, काफी दिन हो गये यह बटन लगाये। कभी न कभी तो किसी की वॉल पर मुझे दिखना ही चाहिये था कि इसने ‘मुसाफिर हूं यारों’ शेयर किया है। इससे कभी कभी तो मुझे लगता है कि यह शेयर बटन झूठे आंकडे बताता है।
11. अब बात करते हैं पिछले दिनों आई कुछ टिप्पणियों की:
श्वेता की एक टिप्पणी आई, चूडधार यात्रा वाली पोस्ट पर- “but these trips on foot are only for boys… if girls will start doing all this… then wolves will bit them on the way only… before reaching any destination…”
वास्तव में बडी गम्भीर बात है और सत्य प्रतीत भी होती है कि महिलाओं को ‘भेडिये’ रास्ते में ही खा जायेंगे। मेरा श्वेता और सभी महिलाओं से यही कहना है कि आत्मविश्वास से बडा कुछ नहीं है। आत्मविश्वास है तो भेडियों के झुण्ड का भी सामना किया जा सकता है। ऐसा नहीं है कि भेडिये महिलाओं को ही निशाना बनाते है, पुरुष भी उनका निशाना बनते हैं। कितने पुरुष हैं जो इस तरह यात्राओं पर निकलते हैं? गिने-चुने हैं, आत्मविश्वास चाहिये। सभी में नहीं होता आत्मविश्वास। मैंने कई बार अकेली लडकी को घूमते देखा है। दो-तीन के समूहों में तो अक्सर हर बार मिल जाती हैं। और ऐसा नहीं है कि सभ्यता में ही घूमती हैं वे, भयंकर जंगलों व बीहडों में भी देखा है। पचास साल की महिलाएं भी देखी हैं, तो कम उम्र की लडकियां भी। इण्डियामाइक पर कई महिलाएं अपने यात्रा अनुभव लिखती हैं। रोज कोई न कोई नई महिला पूछती भी है कि भारत में अकेली महिला के घूमने की क्या सम्भावना है। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि भारत इतना बदनाम होने के बावजूद भी महिलाओं के लिये सुरक्षित सैरगाह माना जाता है। मैं नीलिमा से बहुत प्रभावित हूं, उनके बारे में शीघ्र ही विस्तार से चर्चा करूंगा। आप उनकी इस वेबसाइट को जरूर देखें। अंग्रेजी में है लेकिन उन महिलाओं के लिये विशेष काम की है जो घूमना चाहती हैं और आत्मविश्वास की कमी के कारण भेडियों से डर जाती हैं।
नीलिमा के अलावा एक नाम और लेना चाहता हूं। वे हैं अजीत सिंह। जालंधर में रहते हैं। पूरा परिवार घुमक्कड है। इनकी बेटियां तो अकेले दुर्गम स्थानों पर निकल जाती हैं और जनाब शान से बताते हैं कि बेटी फलां जगह गई है। अपने चारों तरफ देखो, बहुत से उदाहरण मिलेंगे।
बुरा मत मानना, एक बात कहना चाहता हूं। कडवी लगेगी। जिन लोगों में आत्मविश्वास नहीं होता, वे काम से बचने के बहाने ढूंढ लेते हैं। पुरुषों के अलग बहाने होते हैं और महिलाओं के अलग।
इस बारे में महाघुमक्कड राहुल सांकृत्यायन ने घुमक्कड-शास्त्र के स्त्री-घुमक्कड अध्याय में बहुत कुछ लिखा है। उनकी दो-चार बातें यहां देना जरूरी समझता हूं।
“जहां स्त्रियों को अधिक दासता की बेडी में जकडा नहीं गया, वहां की स्त्रियां साहस-यात्राओं से बाज नहीं आतीं। अमेरिकन और यूरोपीय स्त्रियों का पुरुषों की तरह स्वतन्त्र हो देश विदेश में घूमना अनहोनी सी बात नहीं है।”
“साहसी तरुणियों को समझना चाहिये कि एक के बाद एक हजारों कडियों से उन्हें बांध के रखा गया है। पुरुष ने उसके रोम-रोम पर कांटी गाड रखी है।... किसी को आशा नहीं रखनी चाहिये कि पुरुष उन सुईयों को निकाल देगा।”
“उन्हें घुमक्कड बनने दो, उन्हें दुर्गम और बीहड रास्तों से भिन्न-भिन्न देशों में जाने दो। लाठी लेकर रक्षा करने और पहरा देने से उनकी रक्षा नहीं हो सकती। वह तभी रक्षित होंगी, जब वह खुद अपनी रक्षा कर सकेंगी।”
जरुरत है खुद अपनी रक्षा करने की, आत्मविश्वास की।
डायरी के पन्ने-21 | डायरी के पन्ने-23
Chandrakhani saaf hai bilkul, aur jot se neeche from Manali side, rehne ka jugaad bhi mil jaaega, tent ka bojha na bhi uthao to bhi chalega. mere kuch mitra jaa kar aaye abhi.
ReplyDeleteneeraj bhai apki harit prdesh wali baat se sahmat hoon.kaash,ki aisha ho jaye.chhat se gusne ka sahi jugad bataya aapne dhanyabad.
ReplyDeleteAre wah..maja aa gaya Neeraj dada..aaj to aapne mera naam bhi likh hi diya apne blog mai..padh ker ek garv wali anubhuti si hui..dhanyawad..:)
ReplyDeleteAre wah..maja aa gaya Neeraj dada..aaj to aapne mera naam bhi likh hi diya apne blog mai..padh ker ek garv wali anubhuti si hui..dhanyawad..:)
ReplyDeleteNeeraj bhai rail engine pe v ek post likiye .....ye kitne h.p ka hoti hai..ye kaise work karti hai.. iski disel khapat kiya hai....etc..
ReplyDeleteमहिने का विशेषांक पढने मे मजा आया.
ReplyDeleteकावंड के लिए पैसा भी देगे अपने भाई को ओर अगर उनकी यात्रा विफल हो जाए तो मजे भी आपको आऐगे.यह बात समझ नही आई जाटराम जी.
भाई आपने मुझे भी फोटोसोप पर फोटो का साईज कम करना सिखाया था जिसे मैने उपयोग मे भी लाया अब ओर कुछ भी सीखना पडेगा.
Namashkar neeraj ji mainn apki baat se puri tarah sehmat hoon harit pradesh jarur banna chahiye jab log up bihar ko ek sath jodkar baten karte hain to mujhe bahut bura lagta hai
ReplyDeleteआपकी एलैक्सा रेटिंग बढाने में थोड़ा सा योगदान मेरा भी है... मै अमूमन आपका पेज 3-4 घंटे लगाता हूं पढ़ने में... तब तक मीटर चलता रहता है... गूगल पर अगर आपके नाम पर दूसरे पेजो पर पंहुचाता है... तो खुद व कुछ मित्रों को कहें नीरज जाट सर्च करे व सीधा आपके पेज पर क्लिक करे... बार-2 ऐसा होने पर गूगल ये बात याद रख लेता है और फिर आपका पेज 1 या 2 नंबर पर आ जायेगा....
ReplyDeleteमजेदार पन्ने थे... और मेरी कोई धार्मिक भावना भी आहत नही हुइ... :)
और हां.. मैं केवल एक ही ब्लाग पढ़ता हूं केवल आपका.. अपना पेज तो मैने सिर्फ ड्राफ्ट लिखने के लिये रखा है...
ReplyDeleteभालू से डरने की जरुरत नही... भालु खुद जाटों से डरते हैं..
तुम्हे राज्य गठन आयोग का सदस्य या अध्यक्ष बना देना चाहिए !!शुरू की पोस्ट पढ़ कर यही लग था !१
ReplyDeleteजहां स्त्रियों को अधिक दासता की बेडी में जकडा नहीं गया, वहां की स्त्रियां साहस-यात्राओं से बाज नहीं आतीं। अमेरिकन और यूरोपीय स्त्रियों का पुरुषों की तरह स्वतन्त्र हो देश विदेश में घूमना अनहोनी सी बात नहीं है।”
ReplyDeletebilkul sahi.......YOGENDRA SOLANKI
प्रभु हरियाणा की अलग राजधानी अलग बनाने का विचार है आपका ?
ReplyDeleteदोस्त पिछली बहस हुई थी तो अनुमान लगाया था की 90 हजार करोड़ लगाने पड़ेंगे चंडीगढ़ जैसी राजधानी बनाने के लिए.
भारत न हुआ कोई केक हो गया की काटो काटो और बस काटते ही जाओ.
हा हा हा हा हा हंसी आ रही है ... हालाँकि यहाँ में भी आपकी भावनाओं को आहत नहीं कर रहा हूँ बस में जो सोच रहा हूँ वाही बोल रहा हूँ जैसे आप |
किसी भी राज्य को मिलकर रहने में क्या बुराई है...
चंडीगढ़ कोई पंजाब या आपकी प्राइवेट प्रॉपर्टी थोड़ी न है की जा चाहो वो कर दो ....
वो तो इस देश के हर नागरिक की प्रॉपर्टी है.
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteभाई नीरज वैसे तो ब्लाग शुरू से ही पढता हूं कमेंट कम करता हूं तो क्या हुआ पर कुछ बाते आज बतानी जरूरी हो गयी थी ।
ReplyDeleteअलेक्सा रैंक के अनुसार ब्लाग चिठठा वालो ने रैंक दी क्योंकि आपने शायद गौर नही कि की ये रैंक रोज अपडेट होती है और इस लिहाज से ये गूगल पेज रैंक से भी ज्यादा तेज व विश्वसनीय है । विज्ञापनदाता भी इससे इसीलिये प्रभावित हैं
घुमक्कड से दो साल पहले लिखना छोडा और आज 350 लेखको के मुकाबले मेरी अकेले की रैंक घुमक्कड से बढिया है दुनिया में भी और भारत में भी
अलेक्सा रैंक बेहतर बनाने के लिये अलेक्सा का टूलबार लगाना जरूरी है । आपकी जानकारी के लिये बता दूं कि अलेक्सा वाले अपने टूलबार के द्धारा डाटा लेते हैं । मतलब ये कि जितने लोग अलेक्सा का टूलबार लगाये होंगें जब वे अपने यहां पर आपकी वेबसाइट खोलेंगे उतना ज्यादा फर्क पडेगा एक्यूरेसी का
मेरे ब्लाग पर एक भी बंदा या क्लिक नीरज जाट लिखकर नही आता । आप चाहें तो गूगल करके चैक कर सकते हैं । हां घुमक्कड पर जरूर जाता है क्योंकि आपने अपनी पोस्ट वहां से नही हटायी हैं । मैने और जाट देवता ने हटा ली हैं इसलिये आप भी वहां से अपनी पोस्ट हटा लें
गूगल पेज रैंक कुछ बातो का ही ध्यान रखती है पर अलेक्सा बहुत सारी बातो का ध्यान देकर तुरंत 24 घंटे में ही आपकी रैंक बढाती घटाती रहती है
अलेक्सा टूलबार से ये फायदा भी होता है कि आपको पता चलता है कि आप जो भी वेबसाइट खोल रहे हो वो किस रैंक की है
जिस समय ब्लाग चिठठा वालो ने ब्लाग सूची बनायी उस दिन से मेरी रैंक काफी घट गयी है और अब विश्व में ये 90 हजार के आसपास है जबकि जिस दिन आपने पोस्ट लिखी उस दिन से भारत में 8500 हो गयी है यानि घट गयी ।
फोटोशाप में टूलबार में एक टूल है क्लोन स्टांप जब माउस ले जाओगे तो वो नाम बता देगा । उसे सलेक्ट करके जिस जगह से निशान हटाना है उसकी बजाय पहले जिस जगह से उसके लिये मैटर लेना है वहां पर क्लिक करें । ये सर्जरी के जेसा है जिसमें नाक के निशान को सही करने के लिये जांघ से खाल ले ली जाती है । बस जहां पर से खाल लेनी हो वहां पर आल्ट बटन को दबाये रखकर क्लिक करें और अब वहां जायें जहां से निशान मिटाना है । अब माउस से जो भी करोगे तो वो पहले वाली जगह की कार्बन कापी उतार देगा । इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि आपको मूंछे साफ करनी हैं अपने फोटो में तो गाल पर क्लिक करो जो उस जगह के रंग रूप से मिलता जुलता हो और फिर उस जगह हो आप मूंछो की जगह पर उतार दो । यही फोटोशाप का कमाल है । अगर ब्लाग पर स्क्रीन शाट की सुविधा होती तो मै सारा फोटो से समझा देता
एक सलाह है भाई , गूगल में अपना नाम लिखकर रिजल्ट तो देख लेना पर अपने ब्लाग पर या अपने लिंक पर खूद कभी क्लिक मत करना जबकि आप गूगल आईडी से लागिन हों नही तो गूगल आपको सजा देगा
मनु भाई ठीक कह रहे हो आप जब में niraj jat का ब्लॉग खोलता हूँ तो सिर्फ उसका ही ब्लॉग आता है आपका नहीं . और जब आपका खोलता हूँ तो सिर्फ आपका आता है उसका नहीं.
Deleteये सारी बाते इसलिये लिखी कि सार ये है कि अलेक्सा सबसे ज्यादा पसंद अपडेट को करता है यानि अपडेट रहें और उसमें भी जो निश्चित रहे उसे सबसे ज्यादा । जैसे यदि आप महीने में चार पोस्ट ही लिखते हैं तो अगली बार से चार तारीख निश्चित करें और उन्ही में डालें । अलेक्सा रैंक में जबरदस्त उछाल आयेगा । और इससे आपकी आदत बनेगी कि नही मुझे इतना तो लिखना ही है । मैने निश्चय किया कि रोज एक पोस्ट डालूंगा तो मेरी रैंक 4 लाख से 90 हजार आ गयी । मै तीन महीने से इस नियम पर कायम हूं
ReplyDeleteभगवान करे इनकी कांवड टूट जाये, सारी कनस्तरियों में छेद हो जाये, सारा गंगाजल बह जाये, डीजे चोरी हो जाये, जनरेटर की टंकी फूट जाये...। कसम से मजा आ जायेगा।
ReplyDeleteha ha ha ha ha ha ha ha ha
मेरठ में किस गाव से हो नीरज जी
ReplyDeleteडायरी भी यात्रा की तरह ही रोचक है। धन्यवाद
ReplyDelete