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डायरी के पन्ने- 21

ध्यान दें: डायरी के पन्ने यात्रा-वृत्तान्त नहीं हैं। इनसे आपकी धार्मिक और सामाजिक भावनाएं आहत हो सकती हैं। कृपया अपने विवेक से पढें।
1. पिछले दिनों घर में पिताजी और धीरज के बीच मतभेद हो गया। दोनों गांव में ही थे। मेरी हर दूसरे-तीसरे दिन फोन पर बात हो जाती थी। पहले भी मतभेद हुए हैं। लेकिन दोनों में से कोई भी मुझे इसकी भनक नहीं लगने देता। इस बार भनक लग गई। पिताजी से पूछा तो उन्होंने नकार दिया कि नहीं, सबकुछ ठीक है। धीरज ने भी ऐसा ही कहा। लेकिन दोनों के लहजे से साफ पता चल रहा था कि कुछ गडबड है। आखिरकार बात सामने आ ही गई।

असल में धीरज को अपने एक मित्र की शादी में बिजनौर जाना था। उसी दिन हमारी ही रिश्तेदारी में भी एक शादी थी। पिताजी चाहते थे कि धीरज रिश्तेदारी में जाये, अपने मित्र के यहां न जाये। धीरज चाहता था कि रिश्तेदारी में पिताजी चले जायें। यह थी मतभेद की जड। मुझसे भी कहा लेकिन मैं किसी रिश्तेदारी में नहीं जाया करता। चूंकि दोनों मेरी बात मान लेते हैं इसलिये मैंने धीरज से बिजनौर न जाने को कह दिया। धीरज ने बुझे हुए मन से मान लिया। फिर मैंने उसे कुछ समय दिल्ली रहने को कहा जिसे उसने झल्लाते हुए मना कर दिया। साफ जाहिर था कि वह असन्तुष्ट था। इसलिये अगले दिन गांव से दिल्ली के लिये चलते समय मैंने धीरज को बिजनौर जाने की स्वीकृति दे दी। अगले दिन धीरज पिताजी को बिना बताये बिजनौर चला गया। इससे दोनों में मतभेद और ज्यादा बढ गये।
तो दिल्ली लौटने के दो दिन बाद मुझे भनक लगी कि मतभेद काफी बढ गया है। दोनों से अलग-अलग बात की तो दोनों ने एक-दूसरे के खिलाफ जहर उगला। बडी विस्फोटक स्थिति थी। मुझे ही सम्भालनी थी। उधर धीरज मुझसे इसलिये नाराज था क्योंकि मैं उसे कई बार कुछ दिन दिल्ली अपने पास रहने को कह चुका था। उसने मना कर दिया तो मैंने खर्चा-पानी रोकने की धमकी भी दी। इससे वह मुझसे और ज्यादा गुस्सा हो गया।
उस दिन जब समझाने की गरज से मैंने पहले धीरज को फोन किया तो जरा सा कुरेदते ही वह फट पडा। वह घर में स्वयं को अकेला महसूस कर रहा था। जितना उसे बोलना था, बोलने दिया। इसके बाद मैंने समझाया- तू क्यों सोच रहा है कि मैं खर्चा बन्द कर दूंगा? पता है मैंने ऐसा क्यों कहा था? ताकि तू दिल्ली आ जाये। तेरा कुछ समय दिल्ली रहना बहुत जरूरी है। अभी तेरी जो मित्र-मण्डली है, उसका बदला जाना जरूरी है। ऐसा नहीं है कि तेरे वे दोस्त खराब हैं। लेकिन ध्यान रख तुझे डिप्लोमा किये दो साल हो गये, अभी तक तू वहीं का वहीं है। कहीं न कहीं गडबड तो है। तुझे अभी माहौल बदलने की जरुरत है। दिल्ली में भले ही कैसा भी माहौल मिले लेकिन निश्चित तौर पर बदलाव तो मिलेगा ही। यहां आकर तू भले ही बिल्कुल मत पढना, भले ही पूरे दिन टीवी देखना या इधर उधर मटरगश्ती करते रहना लेकिन माहौल बदलने से तुझे फायदा ही मिलेगा। अभी तेरी कोचिंग चल रही है। अभी मत आ बेशक लेकिन सोच इस बारे में। दस दिन पन्द्रह दिन के लिये आ जा, मन न लगे तो तीसरे दिन ही चले जाना। लम्बा चौडा भाषण सुना दिया। आखिरकार उसने दिल्ली आने की हामी भर ली।
इसके बाद पिताजी से बात की- कहां बैठे हो अभी?... बरामदे में।... धीरज कहां है?... सामने खाना बना रहा है।... दूसरे कमरे में जाओ।... चला गया।... दरवाजा बन्द करो। आवाज बाहर नहीं जानी चाहिये।... कर लिया।... कुर्सी पर बैठ जाओ। पीछे कमर लगा लो। पैर सामने खाट पर फैला लो।... बैठ गया।... बिल्कुल रिलैक्स होकर बैठो।... रिलैक्स ही हूं।...
एक बार ये सोचो कि आपको समस्या क्या है? क्यों दोनों बाप-बेटों में झगडा मचा हुआ है? इस झगडे में आपका क्या रोल है?... वो अपने यार-दोस्तों के पीछे पागल हुआ जा रहा है। तीन-चार दिन पहले मोदीनगर गया था। इसका एक दोस्त अपने घर पर कुछ भूल आया था, उसे लेने चला गया। अब बिजनौर चला गया मना करने के बावजूद।... तो इसमें दिक्कत क्या है?... इतनी यारी अच्छी नहीं होती।... आप स्वयं भी तो अपने दोस्तों का पीछा नहीं छोडते। जबकि आपके दोस्त तो निहायत निकम्मे लोग होते हैं। देखो, वो अनजान नहीं है इन सबसे। समझदार है। अपना नफा-नुकसान देखता है। दोस्ती करता है तो उसका कुछ फायदा भी होता होगा। एक बार धोखा खायेगा तो उसे जिन्दगी में नया अनुभव मिलेगा। सीखेगा कुछ। न सीखेगा तो खुद नुकसान उठायेगा। हम उसे बांधने की कोशिश करेंगे तो वह हमारे ही विरुद्ध हो जायेगा। दुनिया इसी ताक में बैठी है।
आखिरकार मेरा यह भाषण भी सफलतापूर्वक समाप्त हो गया। अगले दिन धीरज और पिताजी दोनों से अलग-अलग पूछा कि घर के माहौल में कुछ परिवर्तन है या नहीं। दोनों ने बताया कि हां है।
कुछ दिन बाद ही धीरज का फोन आया कि वह दिल्ली आ रहा है। दो मई को वह आ गया। उसने बताया कि उसकी पच्चीस तारीख को एसएससी की प्रवेश परीक्षा है। तब तक वह यहीं रहेगा। दो दिन बाद पिताजी भी आ गये। मुझे पांच मई को मिलम जाना था और पन्द्रह तक लौटना था। इन दस दिनों तक दोनों दिल्ली ही रहे। अब जबकि उसके पेपर भी हो गये हैं, अभी भी दोनों यहीं हैं। इस दौरान धीरज दो बार गांव गया और उसी दिन शाम तक लौट भी आया। देखता हूं कि पढाई वढाई ज्यादा नहीं हो रही, शाम को आईपीएल के मैच आते हैं जो आधी रात तक चलते रहते हैं। टीवी लगभग पूरे दिन चलता रहता है। कभी फिल्म तो कभी डिस्कवरी। खाना भी धीरज ही बनाता है, मुझे नहीं बनाना पडता।
गांव से जब पहली बार शहर आते हैं तो अकेलापन हावी होने लगता है, कोई जानता पहचानता नहीं है। उधर पिताजी का कहीं ‘बैठक’ में जाये बिना खाना हजम नहीं होता। लेकिन उन्होंने अपना मन लगाना शुरू कर दिया है। डेयरी वाले के यहां जा बैठते हैं। वह मुजफ्फरनगर का है और जाट है। चचा रामराम, चचा ये और चचा वो; गांव के नाई को भी फेल कर देता है बातचीत में। मेरे ऑफिस में भी पिताजी की उम्र के कई कर्मचारी काम करते हैं और मेरी उनसे अच्छी बनती है। कभी वे हमारे यहां आ जाते हैं, कभी पिताजी वहां चले जाते हैं। कुल मिलाकर एक महीना होने वाला है। एक बार भी गांव जाने का नाम नहीं लिया। इसका अर्थ है कि इनका यहां वास्तव में मन लग रहा है।
अच्छा लग रहा है मुझे।
2. 16 मई को लोकसभा चुनावों की मतगणना हुई। जैसी उम्मीद थी, वैसा ही हुआ। कहने को तो यह भारतीय जनता पार्टी को मिला जनादेश था लेकिन वास्तव में यह मोदी को मिला था। हर तरफ मोदी ही मोदी था। मैं चूडधार यात्रा के दौरान जब हिमाचल के उस दस पांच घरों वाले और शिमला से दस घण्टे दूर अति सुदूर और अनजान गांव तराहां में था तो वहां लोग पागल थे मोदी के लिये। उन्हें नहीं पता था कि उन्होंने जिसे वोट दिया, उसका नाम क्या था। वे कहते हैं कि हमने मोदी को वोट दिया। पूरे देश में यही हाल था।
मोदी पर ले-देकर एक ही आरोप लगाया जाता है- 2002 में हुए दंगों को भडकाने का। लेकिन हमें याद रखना होगा कि 10-12 साल तक न्यायालय में बहुत कुछ हुआ, कांग्रेस के शासनकाल में न्यायालय ने मोदी को निर्दोष पाया। तो जो लोग अब भी मोदी को दोषी मानते हैं, वे सीधे सीधे न्यायालय का अपमान कर रहे हैं। हालांकि उसके बाद भी देशभर में और दंगे हुए लेकिन उनके लिये किसी को जिम्मेदार नहीं ठहराया जाता। कश्मीर धधक रहा है पिछले तीस सालों से, असोम में आग लगी पडी है, छत्तीसगढ और झारखण्ड के एक बडे हिस्से पर देश का कानून लागू नहीं है। महाराष्ट्र, हैदराबाद और अब मुजफ्फरनगर। इनके लिये कोई जिम्मेदार नहीं है। क्यों? उन्हें भी तो याद करो।
और बेचारा केजरीवाल। एक समय वह जनता का मसीहा बनने की कगार पर था, बल्कि मसीहा बना भी दिया गया था। दिल्ली में लम्बे समय से एकछत्र राज करने वाली शीला दीक्षित को भारी अन्तर से हराकर उसने सिद्ध कर दी थी अपनी ताकत। 8-10 विधायकों की उम्मीद थी लेकिन मिल गये 28। आम आदमी पार्टी की सरकार बनी, भले ही कांग्रेस के सहयोग से बनी हो। यहां तक सबकुछ ठीक था। अगर इसके बाद भी ठीक रहता तो केजरीवाल लोकसभा चुनावों में मोदी को वाराणसी में टक्कर दे सकता था। मुख्यमन्त्री बनने के बाद अपनी छोटी-छोटी मांगों को मनवाने के लिये सडकों पर धरना देना और आखिरकार पद से इस्तीफा देना कुल्हाडी पर स्वयं पैर मारना था। मोदी ने बारह साल तक गुजरात में जो भी कुछ किया, इससे पूरे देश में सन्देश गया कि वह विकास-पुरुष है। लेकिन केजरीवाल को तो मुख्यमन्त्री बनने से पहले ही लोगों ने विकास-पुरुष मान लिया था। दिल्ली में इसका जबरदस्त असर दिखा, देश में भी दिखता।
और बेचारे माया-मुलायम। चुनावों से पहले मायावती हुंकारती थी कि उसकी पार्टी किसी भी हालत में भाजपा को समर्थन नहीं देगी। और उसने अपना वादा निभाया। राजनीति में अक्सर वादे नहीं निभाये जाते। इस दौर में मायावती से सीखना चाहिये कि वादे कैसे निभाये जाते हैं। मुलायम को पांच सीटें मिली जिनमें ज्यादातर पर उसके परिजन ही चुनाव लड रहे थे। सभी सुरक्षित सीटें थीं। मुलायम तो दो स्थानों से लडा और जीता। हालांकि अब उसने मैनपुरी सीट छोडने की घोषणा की है जहां पुनः चुनाव होंगे। किसी बदलाव की उम्मीद नहीं है यहां, यह सपा की अति सुरक्षित सीट है।
आजकल धारा-370 का मुद्दा जोर पकड रहा है। कुछ अति राष्ट्रवादी लोग तुरन्त इसे हटाने की मांग कर रहे हैं। अगर उनकी यह मांग पूरी नहीं हुई तो ये शीघ्र ही प्रधानमन्त्री मोदी को कोसने लगेंगे। मेरा मानना है कि इस मुद्दे पर कोई जल्दबाजी नहीं की जानी चाहिये। कश्मीर वैसे ही एक संवेदनशील मुद्दा है। चारों तरफ गिद्ध और सियार इसे नोचने को बैठे हैं, ऐसे में बडी ही समझदारी की जरुरत है। ध्यान रखना होगा कि आम जनता कभी भी दंगा-फसाद नहीं करती। ये सब सियासी मामले होते हैं। यहां भी ऐसा ही होगा। तो उन सियासी लोगों को शक्ति-रहित करना होगा जो इसे हटाने पर माहौल खराब करेंगे। सबसे ऊपर मुख्यमन्त्री उमर अब्दुल्ला का नाम आता है। हालांकि अभी तक मोदी और भाजपा की तरफ से इस बारे में कोई बयान नहीं आया है, तो जाहिर है कि इसकी संवेदनशीलता वे भी समझते हैं। कुछ राष्ट्रवादी लोग अक्सर कहते हैं कि कश्मीरियों को एक तरफ खडा करके मार डालना चाहिये, तभी यह समस्या समाप्त होगी। लेकिन उन्हें ध्यान रखना चाहिये कि बनिहाल और जोजी-ला के मध्य बसे कश्मीर क्षेत्र की जनसंख्या लगभग 70 लाख है।
3. एक दिन सुबह ही नये नम्बर से फोन आया- मैं अरुण अरोडा बोल रहा हूं। ब्लॉग के माध्यम से फेसबुक पर बातचीत होती रहती थी लेकिन फोन का यह पहला मौका था। उन्होंने बताया कि वे थोडी देर में शास्त्री पार्क आने वाले हैं। उस समय विकास भी मेरे साथ ही था। मैंने विकास से कहा कि एक मित्र आने वाले हैं। कुछ देर बाद वे आये। वे फरीदाबाद में रहते हैं और आज उनके लडके की कोई परीक्षा बवाना में थी। समय काटने के लिये वे लडके को परीक्षा-केन्द्र पर छोडकर कार लेकर गाजियाबाद चल दिये अपने किसी सम्बन्धी के यहां। यमुना पार करने के बाद जब उन्हें शास्त्री पार्क लिखा दिखा तो उन्हें याद आया कि जाटराम भी यहीं रहता है। बस, उन्होंने गाजियाबाद जाने का इरादा बदल लिया।
उनके जाने के बाद विकास हैरानी से पूछने लगा कि ये थे तेरे दोस्त? मैंने कहा हां। बोला कि इतने बडे। इनकी उम्र तो तेरे पापा से भी ज्यादा है। कमाल है! ये कैसी दोस्ती?
4. देहरादून की एक मित्र की जामिया मिलिया कॉलेज में एक परीक्षा थी। उसने बताया कि वह देहरादून से आधी रात को बस में बैठ जायेगी और सुबह सुबह दिल्ली पहुंच जायेगी। जाहिर है कि उसकी बस कश्मीरी गेट आयेगी जहां से जामिया मिलिया काफी दूर है। मैंने अन्दाजा लगाया कि अगर वह बारह बजे भी बस में बैठेगी तो सुबह पांच-छह बजे तक दिल्ली आ जायेगी। परीक्षा दस बजे से थी तो सोचा कि उसे घर ले आऊंगा। फिर वह नहा-धोकर तरोताजा होकर, नाश्ता-वाश्ता करके आराम से जामिया चली जायेगी। इस बारे में पिताजी को भी बता दिया ताकि बाद में वे कोई शक न करें।
मेरी नाइट ड्यूटी थी तो पूरी रात जगा हुआ ही था। सुबह सात बजे तक भी जब वह नहीं आई तो फोन किया। पता चला कि वह अभी मुजफ्फरनगर है और बस में बैठ गई है। रात ही मुजफ्फरनगर आ गई थी और अपनी किसी रिश्तेदारी में रुक गई थी। मुजफ्फरनगर से दिल्ली तक दिन में ढाई-तीन घण्टे लग ही जाते हैं, फिर कश्मीरी गेट से जामिया का एक घण्टे का रास्ता और है इसलिये मैंने उसे कहा कि तेरी तो परीक्षा हो हा ली। चूंकि आज रविवार था और मेरठ-दिल्ली के बीच में ऑफिस वालों की भीड नहीं थी इसलिये नौ बजे बस कश्मीरी गेट पहुंच गई। मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। अब उसका घर पर जाना सम्भव ही नहीं था। मैं कश्मीरी गेट पहुंचा और उसे लेकर सीधे मेट्रो से ओखला पहुंच गया। मैं कभी जामिया नहीं गया था, एक मित्र ने बताया था कि ओखला उतर जाना, वहां से ऑटो मिल जायेंगे। लेकिन स्टेशन के बाहर खडे ऑटो वाले ने चलने से मना कर दिया कि आपको इससे पहले वाले स्टेशन यानी गोविन्दपुरी उतरना चाहिये था। आगे रेलवे लाइन है जहां से ऑटो पार नहीं हो सकता। पैदल चलना पडा। करीब एक किलोमीटर चलने के बाद रेलवे लाइन मिली। यह वही अति व्यस्त निजामुद्दीन-फरीदाबाद लाइन थी। इसे पैदल पार करना था। पार करते इससे पहले ही एक मालगाडी आ गई और रुक गई। कुछ समय इसके चलने की प्रतीक्षा भी की लेकिन जब यह नहीं चली तो इसके नीचे से लाइन पार करनी पडी। यह बेहद खतरनाक था। अगर हमारे पास दस मिनट भी होते तो मैं इसके चलने के बाद ही पार करता। इतनी ही देर में यहां दोनों तरफ पार करने वालों की भीड लग गई। यहां एक पैदल पुल बनना चाहिये।
लाइन पार करते ही मुख्य रोड है मथुरा रोड। ऑटो वाले ने अस्सी रुपये मांगे, मैंने बिना मोलभाव के स्वीकार कर लिये। ... जब मित्र ने जामिया में अपने परीक्षा केन्द्र में प्रवेश किया तो पूरे दस बज रहे थे।
5. अजय का फोन आया। बातों ही बातों में तय हो गया कि वे और सन्दीप भाई कुछ ही देर में हमारे यहां आयेंगे। जब वे रास्ते में थे तो सन्दीप भाई ने पूछा कि कुछ लाना है क्या? मैंने कहा ढाई-तीन किलो आम लेते आना। करीब दो घण्टे तक रहे। काजू-किशमिश और रूह-आफजा डालकर मैंगो शेक बनाई। जाने लगे तो पैसे देने पडे। मैं सोच रहा था कि सन्दीप भाई तो मना करने वाले हैं नहीं, अजय ही पैसे लेने से मना कर दे लेकिन लगता है सन्दीप ने उन्हें पहले ही पढा दिया था।
6. पता चला कि सरकारी कर्मचारियों को पासपोर्ट बनवाने के लिये अपने विभाग से एनओसी लेनी पडती है। मैंने तुरन्त इसके लिये आवेदन कर दिया। इसमें लिखना पडा कि किस देश में जाने के लिये पासपोर्ट चाहिये, वहां क्यों जाओगे, किसके यहां रुकोगे, कितना खर्च आयेगा, पैसों का स्रोत क्या है? चूंकि अभी मेरी कहीं भी विदेश यात्रा करने की योजना नहीं है, लेकिन इन सबको खाली नहीं छोड सकता था इसलिये अगले साल जुलाई में कैलाश मानसरोवर यात्रा लिख दिया।
एक बात समझ में नहीं आती कि जरुरत क्या है एनओसी की? पासपोर्ट तो एक पहचान-पत्र होता है। अपना पहचान-पत्र बनवाना और रखना तो हर नागरिक का अधिकार है। चलो खैर, उम्मीद है एनओसी मिल जायेगी।
7. दिल्ली में भयंकर गर्मी हो रही है। अभी कल परसों तापमान 46 डिग्री पार कर गया। इतनी गर्मी में निम्न वायुदाब क्षेत्र बन जाता है। उधर पश्चिमी विक्षोभ अभी भी कार्यरत है। फलस्वरूप 30 मई की शाम को आंधी-तूफान शुरू हो गया। जमीन पर पडी सारी धूल मिट्टी आसमान में पहुंच गई और शीघ्र ही पांच बजे अन्धेरा हो गया। बिजली तो तूफान शुरू होते ही चली गई थी। हम बालकनी में खडे होकर इस मंजर को देखते रहे। सामने की झुग्गियों की छतें एक एक करके आसमान छूने लगीं। टीन, प्लास्टिक की चादरें, पेडों की बडी बडी टहनियां इस तरह आसमान में उड रही थीं जैसे हम अंग्रेजी फिल्मों में देखते हैं। आसमान में अलग अलग रंगों की धूल के बवंडर साफ दिखाई पड रहे थे।
फिर बूंदाबांदी होने लगी। इससे फायदा यह हुआ कि धूल नीचे दब गई। तूफान लगातार चल रहा था लेकिन अब धूल नहीं थी और सबकुछ धुला धुला सा लग रहा था। सामने ही रेलवे लाइन और मेट्रो लाइन है। गौर किया तो पाया कि काफी देर से मेट्रो नहीं आई है। फिर तो और ज्यादा गौर करने लगे। पन्द्रह मिनट हो गई। अब तो यकीन हो गया कि कुछ न कुछ गडबड है। आधे घण्टे से ज्यादा हो गया। अगले दिन अखबार में पता चला कि आसमान में उडती टीन व लोहे की चादरों की वजह से कई जगह 25000 वोल्ट के तार क्षतिग्रस्त हो गये थे।

8. मनदीप की मुन्स्यारी जाने की बहुत इच्छा है। इसी वजह से वह अपनी गाडी से वहां जा रहा है। दो जून को दिल्ली से निकल पडेगा। मेरी भी इच्छा थी कि उसके साथ मुन्स्यारी जाऊं और मिलम ट्रैक करूं। इसलिये आठ दिनों की छुट्टियां लगा दी। अगले ही दिन खान साहब ने बिना किसी आपत्ति के सभी छुट्टियां पास भी कर दीं। लेकिन तभी पता चला कि पन्द्रह जून को होने वाली आन्तरिक विभागीय परीक्षा की तैयारी के लिये विपिन और त्यागी जी को भी कुछ छुट्टियां चाहिये थीं। चूंकि मेरी छुट्टियां पास हो चुकी थीं इसलिये उन्हें छुट्टी नहीं मिल सकती थी। जब मुझे इस बात का पता चला तो मैंने अपनी पास हो चुकी छुट्टियां हटा ली। मेरा तो हमेशा का काम है छुट्टी लेने का। सहकर्मियों के सहयोग के बिना ऐसा होना सम्भव नहीं है। आज उन्हें जरुरत पडी है तो मेरा कर्तव्य है कि मैं सहयोग करूं।

9. पिछली डायरी में मैंने जिक्र किया था कि पे-पल पर खाता बना लिया है ताकि कुछ दान से आमदनी हो सके। इसे पढकर कुछ मित्र नाराज हो गये। एक टिप्पणी आई- “आप खुद कहीं मन्दिर में या कहीं और दान देना पसन्द नहीं करते तो क्यों खुद डोनेशन चाहते हो? इसका जवाब जरूर देना... मैं तुम्हारा एक सच्चा फैन हूं इसलिये पूछ रहा हूं।”
मैंने जवाब दिया- “बात तो आपकी सही है कि आप कहीं दान नहीं देते तो दान लेते क्यों हैं। जब लिखना शुरू किया था तो केवल अपने लिये लिखता था। अब यह भावना बदल गई है। अब अपने लिये तो लिखता ही हूं, साथ ही दूसरों के लिये भी लिखना होता है। लम्बे समय तक ऐसा करते रहने पर कभी कभी महसूस होता है कि क्यों लिख रहा हूं दूसरों के लिये? क्या मिलता है मुझे? तब इच्छा होती है कि अगर मिलने भी लगे तो ज्यादा बेहतर है। कम से कम मन्दिर से तो बेहतर ही है। मन्दिरों से क्या ‘आउटपुट’ निकलता है? मैं कम से कम कुछ तो ‘आउटपुट’ दे रहा हूं।”
फिर टिप्पणी आई- “इस दुनिया में बहुत से नीरज जाट हैं। आप को कोई भी जानता है आपके ब्लॉगर होने से। कोई आप पीएम पद के कैण्डिडेट नहीं हो।”
“मन्दिर के भी लोग दर्शन करते हैं और आपके ब्लॉग के भी लोग दर्शन करते हैं। क्या भिन्नता है दोनों में? मन्दिर में तो फिर भी मैंटेनेंस लगता है।”
खैर, सारी आपत्तियों को दरकिनार करते हुए और लम्बे समय तक जोड-घटा-गुणा-भाग करने के बाद निष्कर्ष निकाला है कि दान-पात्र खोल देना चाहिये। कुछ तो वजह रही ही होगी ऐसा करने की। एक बात और, मैं काफी समय से कहता आ रहा हूं कि अपने ब्लॉग पर विज्ञापन नहीं लगाऊंगा। बहुत से मित्र गूगल एडसेंस के बारे में बताते हैं। मुझे इसके बारे में अच्छी तरह पता है। और यह भी पता है कि इससे कितनी कमाई होती है। पहले यह हिन्दी ब्लॉग के लिये उपलब्ध नहीं था लेकिन सुना है कि अब हिन्दी वाले भी एडसेंस का लाभ उठा सकते हैं। मैं आज भी विज्ञापन न लगाने के अपने निश्चय पर दृढ हूं। विज्ञापन से भी कमाई होगी और दानपात्र से भी। वहां प्रोफेशनल तरीके से गूगल के सामने हाथ फैलाना पडता है और यहां देशी तरीके से अपने मित्रों के सामने। बल्कि यहां हाथ नहीं फैलाना पडता।
ऊपर ‘सहयोग करें’ नामक बटन लगाया है। क्लिक करने पर एक पेज खुलेगा। इसमें मेरी खाता सम्बन्धी जानकारियां हैं। जिसकी इच्छा हो, वह सहयोग कर सकता है। जिसकी इच्छा न हो, कोई बात नहीं। ब्लॉग पहले भी सबके लिये उपलब्ध था, आगे भी रहेगा। अच्छा लगता है जब थोडी बहुत आमदनी होती है।
और हां, मन्दिर और ब्लॉग की तुलना ठीक नहीं है। मन्दिर बहुत पवित्र जगह होती है। लेकिन मन्दिर के दानपात्र का मालिक दुनिया के अपवित्र लोगों में से एक होता है। उस मालिक के मुकाबले मैं और मेरा ब्लॉग लाख गुना बेहतर है।
मित्र भी कहां कहां से शब्द ढूंढकर लाते हैं? कुछ टिप्पणियां देखिये:
“अपनी चिन्ता को इस तरह पेश करना कि पढने वाले के चेहरे पर मुस्कान दौड जाये, मेरी नजर में यही लेखन है।” –रोहित कल्याना
“पैसेंजर ट्रेन यात्रा बहुत संयमित व्यक्ति ही कर सकता है। और हम जैसे लोगों में आप जैसा संयम कहां?” –विनय कुमार
“साधारण सफर को असाधारण बनाना तो कोई आपसे सीखे।” –रोहित कल्याना
“आप जो भी यात्रा करते हैं, अतुल्य होती है, incredible.” –निरंजन
“बहुत हिम्मत का काम है ऐसी यात्रा करना।” –स्टुडेण्ट
“इस बार चित्रों ने कमाल कर दिया।” PS T
“जिसके फोटो ही सबकुछ कहते हों, उसे और कुछ लिखने की जरुरत ही कहां?” –पता नहीं
“असली घुमक्कडी का इससे बढिया उदाहरण नहीं हो सकता।” -अकेश कुमार
“निकले थे ग्लेशियर के लिये, पहुंच गये लू से मुकाबला करने। इतनी हिम्मत आप में ही है भाई कि चलते फिरते कार्यक्रम बना लो।” –मुसाफिर चलता चल
“जय हो नीरज भाई, ऐसा आप ही कर सकते हो।” –रूपेश शर्मा
“मैंने यात्रा-वृत्तान्त में इतनी अच्छी तरह से लिखने वाला बन्दा नहीं देखा।” –पता नहीं
देखा, जो अभी मुझे नहीं जानते, उन्हें अब समझ लेना चाहिये। जाटराम कोई छोटू-मोटू नहीं है। ... खैर, ये थी मजाक की बात। असल में मुझे प्रशंसा की टिप्पणियां उतनी पसन्द नहीं हैं, पहले भी एक-दो बार जाहिर किया है। पिछले डेढ महीनों में जो दो टिप्पणियां मुझे सबसे अच्छी लगीं, उनमें दूसरे स्थान वाली है:
“क्यों लिख रहे हो... दूसरों के लिये... क्या मिलता है मुझे? नीरज भाई, ये भावना आपके मन में आई कैसे? मैं हैरान हूं। सभी अपने लिये सोचते हैं, क्या आप भी? क्या कभी आपने सोचा कि मेरा ब्लॉग आम आदमी भी पढता होगा? आज तक मैं कहीं नहीं गया। लेकिन अगर कोई आपकी गई हुई जगह पर जाना चाहता है तो उसे मैं उस जगह के बारे में कहता हूं तो लोग पूछते हैं- क्या तुम वहां गये हो? मेरा जवाब- बिल्कुल नहीं। ये तो नीरज जाट का कमाल है। ऊपर वाले की कृपा है आप पर। अपने अनुभव को लोगों के साथ बांटें। निश्चित रूप से आपके दिल में ये भावना कभी नहीं आयेगी। वैसे भी रुपये तो र.. भी कमाती है। लोगों का प्यार तो नसीब वालों को ही मिलता है। अगर मेरी बात अच्छी नहीं लगी... तो सॉरी।” टिप्पणीकर्ता पता नहीं
और जो टिप्पणी मुझे सबसे अच्छी लगी, वो बहुत छोटी सी है:
“आपके ब्लॉग में अब वो वाली बात नहीं रही... प्लीज कम बैक...”
सर, अपना नाम तो आपने नहीं लिखा। लेकिन आपने बिल्कुल सही कहा है। आने वाले समय में आपको इस ब्लॉग में वो वाली बात जरूर मिलेगी। और आपने गौर किया भी होगा कि वो बात मिलनी शुरू हो गई है। पिछले कुछ महीनों से समय इतना खराब चल रहा था कि मैं अपने उस प्रवाह में नहीं था। अब धीरे धीरे सब ठीक होता जा रहा है।

डायरी के पन्ने-20 | डायरी के पन्ने-22




Comments

  1. Aap ke diary ke panne bahut badhiya hote hai, aap inhe kabhi band mat kijiye

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  2. neeraj bhai ,aapki sacchai ko naman.aapne bhut hi dharya se parivarik samasya ko suljha liya .aapki samasya hamain apni si lagti hai.

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  3. aap ke sabhi blog behad aanubhav se bhare rahte hai.thanks.

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  4. गाम मैं बापू नै एक पड़चुन्नी की दुकान खुलवा दे, बैठक भी बणी रहवैगी और आमदनी भी हो ज्यागी :)

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  5. डायरी के बहुत ही यादगार पल...... बहुत अच्छे

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  6. आपकी लेखन शैली शानदार ........नीरज

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  7. डायरी के पन्ने बहुत बडिया थे।

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  8. नीरज भाई, आम खरीदने मेँ रूपये सँदीप भाई जी ने दिये थे मैने नही, और आप उनको तो अच्छी तरह जानते हों वो पैसे के मामले मेँ मारवाडियो से भी ज्यादा कँजूस है.. आप कभी मेरे आँफिस आजाओ, आप को स्पेशल वाले दही-भल्ले खिलाता हूँ और आप से रूपये भी नही लिये जायेँगे.. हाहाहा

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  9. Lekhan hamesa ki tarah damdar aur majedar.....

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  10. आपके ब्लॉग और आपके विचारों को कुछ लोग हमेशा टोकते रहेंगे, लेकिन फिर भी आपसे जुड़े रहेंगे, जैसे मैं।

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  11. Neeraj Bhai seedhe mudde ki baat per aata hoon, aap blog likhna phir kab se shuru kar rahe hai?

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एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

लद्दाख बाइक यात्रा-5 (पारना-सिंथन टॉप-श्रीनगर)

10 जून 2015 सात बजे सोकर उठे। हम चाहते तो बडी आसानी से गर्म पानी उपलब्ध हो जाता लेकिन हमने नहीं चाहा। नहाने से बच गये। ताजा पानी बेहद ठण्डा था। जहां हमने टैंट लगाया था, वहां बल्ब नहीं जल रहा था। रात पुजारीजी ने बहुत कोशिश कर ली लेकिन सफल नहीं हुए। अब हमने उसे देखा। पाया कि तार बहुत पुराना हो चुका था और एक जगह हमें लगा कि वहां से टूट गया है। वहां एक जोड था और उसे पन्नी से बांधा हुआ था। उसे ठीक करने की जिम्मेदारी मैंने ली। वहीं रखे एक ड्रम पर चढकर तार ठीक किया लेकिन फिर भी बल्ब नहीं जला। बल्ब खराब है- यह सोचकर उसे भी बदला, फिर भी नहीं जला। और गौर की तो पाया कि बल्ब का होल्डर अन्दर से टूटा है। उसे उसी समय बदलना उपयुक्त नहीं लगा और बिजली मरम्मत का काम जैसा था, वैसा ही छोड दिया।