3 अक्टूबर का झारखण्ड यात्रा का आरक्षण था। एक दिन पहले यानी दो अक्टूबर को मन बदल गया। सोचा कि अभी अगस्त में रेल यात्रा तो की ही थी, इस बार हिमालय यात्रा हो जाये। जून में जब लद्दाख गया था, तब से हिमालय नहीं देखा। अक्टूबर की शुरूआत और मौसम खराब होना इस बात का सूचक था कि उच्च हिमालय में छह महीनों के लिये जाना रद्द। मणिमहेश में बर्फबारी की खबरें मिल चुकी थीं।
पूरा एक सप्ताह हाथ में था। इस साल ट्रेकिंग नहीं की थी सिवाय हिमानी चामुण्डा व बशल चोटी के छोटे ट्रेकों के। ट्रेकिंग का मन था लेकिन खराब मौसम मना भी कर रहा था। अगर ट्रेकिंग करूं तो कहां जाना चाहिये? अविलम्ब मन में आया- हर की दून। यह अपेक्षाकृत आसान ट्रेक है और रुकने खाने का कोई झंझट नहीं। ठीक पिण्डारी ट्रेक की तरह। फिर भी बर्फबारी की आशंका तो थी ही। दूसरा विचार आया किन्नौर यात्रा का। इसमें नाको से लेकर छितकुल तक घूमना तय हुआ। वैसे भी यह साल हिमालय पार की यात्राओं पर केन्द्रित था। किन्नौर भी हिमालय पार की धरती है।
दुविधा थी। किन्नौर या हर की दून। कभी हर की दून आगे निकल जाता, कभी किन्नौर। आखिरकार फैसला हुआ कि टॉस किया जाये। टॉस होगा टैण्ट से। अगर टैण्ट रकसैक में आ गया तो हर की दून, नहीं आया तो किन्नौर। मेरा रकसैक छोटा है। कोई सम्भावना नहीं थी कि टैण्ट इसमें आ जायेगा। लेकिन जब प्रयोग करके देखा तो कम्बख्त आ गया। इसके अलावा जरुरत का दूसरा सामान भी आ गया। स्लीपिंग बैग को हाथ में लटका लूंगा, पहले भी ऐसा किया है। जब तक यह सब किया, शाम के सात बज चुके थे। आरक्षण भी रद्द कराना था। सुबह सात बजे की झारखण्ड की ट्रेन थी। सुबह चलने वाली ट्रेनों का चार्ट शाम को ही बन जाता है। समय अच्छा था कि तब तक चार्ट नहीं बना। पैसे तो हालांकि ज्यादा कटे, लेकिन टिकट भी रद्द हो गया व पैसे भी खाते में आ गये।
इसके बाद भी निकलते निकलते साढे ग्यारह बजे गये। शास्त्री पार्क से दिलशाद गार्डन की आखिरी मेट्रो पौने बारह बजे मिलती है। आसानी से मिल गई। जेब में हजार हजार के तीन नोट थे। स्टेशन पर ही उन्हें सौ सौ के नोटो में बदलवा लिया। बॉर्डर पर सुनसान पडा चौराहा पार करके यूपी में घुसा तो एक ऑटो वाला खडा मिला। मैं दूसरा यात्री था। उसे जब चार-पांच यात्री और मिलेंगे, तब चलेगा। साढे बारह बजे चला।
ठीक एक बजे मोहननगर से देहरादून की बस में बैठ गया। लगभग खाली ही थी। यूपी रोडवेज की यह थी तो साधारण बस लेकिन शयनयान बनी हुई थी। हर यात्री इत्मीनान से लेटा हुआ था। लेकिन यह इत्मीनान ज्यादा देर नहीं चला। गाजियाबाद से निकलते ही उत्तराखण्ड परिवहन की वातानुकूलित बस खराब खडी मिली। यह भी रोक ली। वातानुकूलित बस की सभी सवारियां इसमें चढ गईं। बस भर गई। अलग अलग राज्यों की बसों का मामला था, इसलिये पहले उत्तराखण्ड के कंडक्टर ने सभी को वातानुकूलित टिकट के पैसे लौटाये, फिर यूपी के कण्डक्टर ने साधारण श्रेणी के टिकट बनाये। इस काम में आधा घण्टा लग गया।
छह बजे बस देहरादून पहुंच गई। स्टेशन जाने वाला ऑटो तैयार खडा था। थोडी ही देर में रेलवे स्टेशन के पास वाले बस अड्डे पर पहुंच गया। पुरोला वाली बस तैयार खडी थी। साढे छह बजे चल पडी। जब बस चली, मेरे हाथ में गर्म चाय का कप था। झटकों से बचने के लिये जल्दी जल्दी दो घूंट भरे, जीभ जल गई। अब यह तीन चार दिनों तक दुख देती रहेगी।
मसूरी में लाइब्रेरी के सामने चौराहे के बीचोंबीच बस खराब हो गई। कण्डक्टर ने यह कहकर सान्त्वना दी कि आधे घण्टे बाद पुरोला की दूसरी बस आ रही है। लेकिन जब बस आई, तो वह बडकोट की थी। बडकोट से 10-15 किलोमीटर पहले नौगांव से पुरोला की सडक अलग हो जाती है। एक ही परिवहन निगम का मामला था, इसलिये टिकट का कोई झंझट नहीं था। हां, नौगांव से पुरोला का टिकट लेना पडेगा।
कुछ आगे जाकर कंडक्टर ने ‘बडकोट’ लिखा बोर्ड हटाकर ‘पुरोला’ का बोर्ड लगा दिया। अर्थात यह बस पुरोला जायेगी। असल में जब पुरोला वाली बस खराब हो गई तो कण्डक्टर ने इसकी सूचना अधिकारियों को दे दी। अधिकारियों ने देहरादून से प्रस्थान कर चुकी बडकोट वाली बस को पुरोला जाने का आदेश दे दिया। अर्थात वह बस चली तो बडकोट के लिये थी, लेकिन बीच रास्ते में उसका गन्तव्य परिवर्तित हो गया। जाहिर है कि बस में कुछ बडकोट के यात्री भी होंगे। वे कैसे बडकोट जायेंगे?
मसूरी से उतरकर यमुना पुल के पास विकासनगर वाली सडक भी आ मिलती है। बडकोट के लिये विकासनगर से बहुत बसें चलती हैं। डामटा में जब खाने के लिये रुके तो बडकोट वाले यात्रियों को विकासनगर से आने वाली बस में बैठा दिया।
ऐसी ही यात्रियों में कुछ बंगाली यात्री भी थे। बंगालियों ने इस बात का विरोध किया- “साला तुम लोग ऐसा ही करते हो। तुम्हें पुरोला जाना था और पैसे कमाने के लिये तुमने हमें झूठ बोलकर इसी बस में बैठा दिया।” “देखिये सर, पुरोला वाली बस खराब हो गई तो अधिकारियों ने इस बस को पुरोला जाने का आदेश दे दिया।” “बात कराओ अधिकारियों से।” “आप बडकोट पहुंचकर कर लेना। आपका कोई अतिरिक्त पैसा नहीं लगेगा। आपको बस में सीट भी दी जायेगी। आप हमारे अतिथि हो।” “अरे पैसा नहीं लगेगा तो क्या हुआ? हमें जो मानसिक तनाव हो रहा है, उसका क्या?”
खैर, बस के स्टाफ ने व कुछ स्थानीय लोगों ने उनका सारा सामान दूसरी बस में पहुंचा दिया। दूसरी बस खाली ही थी, आसानी से सीट भी मिल गई।
और बडकोट वाली बस को पुरोला परिवर्तित करके कुछ भी गलत नहीं हुआ है। यह बस पुरोला से आज ही वापस देहरादून के लिये चलेगी। पुरोला से देहरादून जाने वाली यह आखिरी बस होगी। आखिरी बस बहुत महत्वपूर्ण होती है। हमारे पहाडों पर तो और भी ज्यादा। ऐसा अगर यूपी या हरियाणा में होता तो बंगालियों का भगवान ही मालिक था।
नौगांव से पुरोला की सडक अलग हो जाती है। यमुना पार करके दूसरी तरफ बस चल पडी। पुरोला जाते ही मोरी की जीप तैयार खडी थी। भरी थी और उसे मात्र एक सवारी की आवश्यकता थी। मुझे सबसे पीछे बैठना पडा। पता होता कि कुछ देर बाद ही सांकरी की बस आने वाली है तो इसमें कभी न बैठता। मोरी जाकर वही सांकरी वाली बस में जाना पडा।
नेतवाड में बहुत सारे स्कूली बच्चे चढे। बस भर गई। यहां से सांकरी 12 किलोमीटर रह जाता है। यहां से निकलते ही गोविन्द पशु अभयारण्य शुरू हो जाता है। यहां एक बैरियर है जहां से आगे जाने के लिये बाहरियों को कुछ पैसे देने होते हैं- शायद 160 रुपये। यह बात मुझे एक छात्र ने बताई, जब बस को बिना चेक किये ही आगे जाने दिया- भाईजी, आपके 160 रुपये बच गये। हमारे पहाड में अनजान आदमी को भाईजी कहने का रिवाज है।
पांच बजे सांकरी पहुंचा। इसी सडक के दोनों ओर बसा एक छोटा सा गांव है। एक चाय की दुकान में घुस गया। चाय पीने का एक फायदा यह भी होता है कि जब तक चाय बनती है और आप उसे पीते हैं, तब तक आप उस अनजान स्थान के बारे में बहुत कुछ जान चुके होते हैं। सीधे जाकर उस चायवाले से पूछोगे तो भिन्न उत्तर मिलेगा और चाय बनाते हुए चायवाले से पूछोगे तो भिन्न उत्तर मिलेगा। जब तक मैंने चाय के पैसों का भुगतान किया, तब तक मुझे पता चल चुका था कि आज रात कहां रुकना है।
मैं दिल्ली से आधी रात को चला था। ठीक से सोने का सवाल ही नहीं। फिर बिना कुछ खाये पीये देहरादून से सुबह चलकर शाम तक यहां पहुंचा। लगातार बस में बैठा रहा, हिचकोले खाता रहा। बेहिसाब थकान हो गई थी, भूख भी लग रही थी। कमरा दो सौ का मिल सकता था, अगर मोलभाव करता। लेकिन तीन सौ का कमरा भी तुरन्त ले लिया। कमरे में घुसते ही बिस्तर पर बस कमर सीधी करने को लेट गया, पैर नीचे लटकाकर। आंख खुली तो नौ बज चुके थे, सांकरी में सन्नाटा पसर चुका था। आज सिवाय दो समोसों के कुछ भी नहीं खाया था, वो भी मोरी में।
अगले दिन चार अक्टूबर को आठ बजे उठा। नहाने की तलब लगी थी। पानी ठण्डा तो था लेकिन 1900 मीटर की ऊंचाई पर बसे सांकरी में इतनी ठण्ड नहीं होती कि पानी अत्यधिक ठण्डा कहा जा सके। थोडी सी हिचकिचाहट के बाद नहा लिया।
यहां से बारह किलोमीटर आगे तालुका है। तालुका तक सडक है। बल्कि कहना चाहिये कि पहाड काट दिया गया है, सडक बनानी भूल गये। इसीलिये इस मार्ग पर बसें और कारें नहीं चलतीं, जीपें चलती हैं। पूछताछ की तो पता चला कि ऊपर रेस्ट हाउस से एक जीप जाने वाली है। मैं फटाफट ऊपर पहुंचा। एक सामान ढोने वाली जीप में रजाईयां लादी जा रही थीं। ड्राइवर से बात की तो वह मुझे भी ले जाने को सहमत हो गया।
क्या खतरनाक सडक है! ओहो... फिर सडक कह दिया। सडक नहीं है। बस पहाड काट दिया, तो जीप वालों ने आना-जाना शुरू कर दिया। सरकार ने सोचा कि जीप वाले आ-जा रहे हैं तो सडक बन गई। काम बन्द कर दिया। इस बारह किलोमीटर को तय करने में एक घण्टा लग गया।
बिल्कुल सन्नाटे में जंगल में जीप रुकी। आगे रास्ता नहीं है। तालुका यहां से आधा किलोमीटर दूर है, पैदल जाना पडेगा। और जब चलना शुरू किया तो पैदल यात्रा का आगाज हो गया। आगाज भी इतना खतरनाक होगा, कल्पना तक नहीं की थी। करीब पचास मीटर तक पहाड खिसक कर टोंस नदी में समा गया था। जहां से पहाड का यह हिस्सा सरका, वहां पत्थरों और मिट्टी की एक ऊर्ध्वाधर दीवार सी बन गई थी। इसी दीवार में ढीले पत्थरों पर पैर रख-रखकर चलना पडा। मेरे पैर कांप रहे थे उस समय। और हां, जीप वाले ने सौ रुपये लिये मुझसे।
तालुका गांव तक जीप योग्य रास्ता था लेकिन आधा किलोमीटर पहले भू-स्खलन हो जाने के कारण सडक गायब हो गई, इसलिये इस आधे किलोमीटर को पैदल तय करना होता है। मैंने दिल्ली में ही कुछ खाया था, तालुका में दाल चावल और रोटी खाई। दाल उम्मीद से ज्यादा स्वादिष्ट बनी थी। गढवाल में सब्जी में अच्छा छौंक बहुत कम देखने को मिलता है। छौंक से ही निर्धारित होता है कि दाल या सब्जी कितनी स्वादिष्ट बनेगी।
पौने दस बजे यात्रा शुरू कर दी- पैदल यात्रा। आज का लक्ष्य चौदह किलोमीटर आगे ओसला या सीमा जाकर रुकने का था। पीछे कमर पर पन्द्रह किलो का रकसैक लटका था। मैं पहली बार किसी ट्रेक पर टैण्ट ले रहा हूं। टैण्ट साढे तीन किलो का है। फिर रकसैक स्वयं भी वजनी है। आमतौर पर पहले आठ किलो वजन लेकर जाया करता था, इस बार सीधे दोगुना। शुरू में तो ठीक लगा लेकिन जैसे जैसे समय बीतता गया, महसूस होता गया कि इस समय मेरी सेहत इस वजन को ढोने में समर्थ नहीं है। लेकिन अब ओखली में सिर डाल लिया तो मूसल भी झेलनी पडेगी ही।
तालुका 2080 मीटर की ऊंचाई पर टोंस नदी से काफी ऊपर स्थित है। रास्ता स्पष्ट बना है, कुछ दूर तक तो पक्का भी। तीन किलोमीटर दूर टोंस में एक नदी आकर मिल जाती है। उस नदी को पार करने के लिये पुल बना है। तालुका से निकलते ही तीव्र ढलान है, रास्ता टोंस के किनारे किनारे हो जाता है। फिर उस नदी को पार करके एक छोटे से मैदान में पहुंच जाता है। इस मैदान से दाहिने देखने पर एक गांव दिखता है। वह धाटमीर है। धाटमीर टोंस की उस सहायक नदी की घाटी में काफी ऊपर स्थित है। यहां से देखने पर धाटमीर पहाड पर टंगा हुआ दिखाई दे रहा था।
इस छोटे से मैदान को पार करते हैं तो रास्ता दो फाड हो जाता है। एक संकरा सा और कीचडयुक्त कच्चा रास्ता सीधे जाता दिखता है और दूसरा पक्का पत्थरों युक्त अपेक्षाकृत चौडा रास्ता दाहिने ऊपर जाता हुआ। मुझे तालुका में बताया गया था कि आगे टोंस पर एक पुल आयेगा, उसे पार मत करना। सोचा कि नीचे वाला कच्चा रास्ता उसी पुल तक जाता होगा, फिर नदी पार करनी पडेगी। नहीं, ऊपर वाले से चलता हूं। यह मेरी गलती थी।
बडी तीव्र चढाई शुरू हुई। वजन के आधिक्य के कारण मेरे पैर कांप रहे थे। मैं उस समय को कोस रहा था जब मैंने टैण्ट लाने का फैसला किया। भला हर की दून जैसे ट्रेक पर टैण्ट की क्या आवश्यकता? लेकिन कभी ना कभी टैण्ट ढोने की शुरूआत तो करनी ही पडती। अच्छा हुआ कि यह शुरूआत एक ऐसे ट्रेक पर हुई जहां मैं जहां चाहूं इसे छोड सकता हूं और वापसी में उठा सकता हूं। आज बस सीमा पहुंच जाऊं, वहां टैण्ट छोड दूंगा।
पौने बारह बजे धाटमीर पहुंच गया। मुझे नहीं मालूम था कि यह धाटमीर है। क्योंकि मैं इस ट्रेक के बारे में थोडी बहुत जानकारी जुटाकर आया था, जिससे पता चला था कि धाटमीर इस रास्ते में नहीं आता। सोचा कि यह गंगाड है। पता था कि गंगाड से सीमा पांच किलोमीटर रह जाता है। तालुका से गंगाड नौ किलोमीटर है। तो क्या मैंने मात्र दो घण्टे में नौ किलोमीटर की दूरी तय कर ली? नहीं, कदापि नहीं। नीचे पुल तक रास्ता आसान है, लेकिन मुझे पता है कि मैं उतना तेज नहीं चला कि नौ किलोमीटर को दो घण्टे में पार किया जा सके। लेकिन तालुका के बाद तो गंगाड ही आता है, गांव भी बडा है, क्या पता मुझे इससे पहले गलत जानकारी मिली हो।
एक ग्रामीण से पूछा, उसी ने बताया कि यह धाटमीर है। मैं पांच किलोमीटर आ चुका हूं और गंगाड अभी भी छह किलोमीटर दूर है। साथ ही उसने यह भी बताया कि असली रास्ता वही है जिसे मैं गलत समझकर छोड आया था। वो टोंस के साथ साथ गंगाड जाता है। यह रास्ता काफी लम्बा और चढाईभरा है।
मुझे आराम की सख्त आवश्यकता थी। मैंने पूछा कि यहां कोई चाय की दुकान है क्या। बोला कि नहीं है, लेकिन आपको चाय मिल जायेगी। उसने अपनी घरवाली को आवाज दी और चाय बनाने को कह दिया। मैंने मना कर दिया। फिर भी वे नहीं माने। थोडी देर बाद उसकी घरवाली लौटकर आई, बोली कि दूध तो नहीं है, बिना दूध की बना दूं। मैंने और ज्यादा जोर देकर मना किया। आखिरकार वे मान गये। फिर वे खाना खाकर जाने को कहने लगे। मैं दो घण्टे पहले ही तालुका से पेट भरकर चला था, यहां मना कर दिया। हां, पानी की बोतल अवश्य भर ली।
धाटमीर से आगे जाने के दो रास्ते बताये। एक रास्ता नीचे उसी पगडण्डी में जा मिलता है, जिसे मैंने छोड दिया था, दूसरा कुछ लम्बा है, लेकिन उस पर पहले कुछ चढाई है, फिर जंगल में समतल, उसके बाद उतराई। उस ग्रामीण ने सारा समझा दिया। फिर भी मैं उस नीचे उतरते रास्ते को नहीं ढूंढ सका और इसी पर चलता रहा। चढाई तो ज्यादा नहीं है। धाटमीर 2350 मीटर की ऊंचाई पर है, चढाई का उच्चतम बिन्दु 2558 मीटर पर। इन दोनों के बीच काफी दूरी है, इसलिये चढाई महसूस नहीं होती। रास्ते में खच्चर वाले मिले, उन्होंने भी यही कहा जो ग्रामीण ने बताया था कि मैं लम्बे और थकाऊ रास्ते पर चल रहा हूं।
अब दूसरी परेशानी शुरू हो गई। हमें हर साल नये जूते मिलते हैं- सेफ्टी जूते। मैं हमेशा इन्हीं को पहनकर ट्रेकिंग करता हूं। अब तक एक्शन के जूते मिलते थे, इस बार टाइगर के मिले। नये जूतों ने कभी भी समस्या पैदा नहीं की थी। रूपकुण्ड और श्रीखण्ड जैसी जगहों पर मैं नये जूते पहनकर ही गया। सोचा कि इस बार भी ऐसा ही होगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। एडी में जलन होने लगी। दाहिने पैर में ज्यादा जबकि बायें में कुछ कम।
एक नाले का पुल पार करके जब आगे बढा तो खेत पीछे छूट गये, जंगल शुरू हो गया। मुझे मध्य हिमालय के जंगलों से बहुत डर लगता है। इसमें हर जगह भालू रहते हैं। तेंदुआ तो खैर पूरे भारत में समान रूप से है ही। भालू नरभक्षी नहीं होता लेकिन वह आमना सामना होने पर हमला कर देता है और अपने पैने पंजों से चीर फाड देता है। जिम कार्बेट जैसा जन्मजात शिकारी भी भालू से सामना करने में हिचकिचाता था।
जल्दी ही दाहिनी एडी में असहनीय जलन होने लगी। चढाई पर जबकि शरीर का वजन एडी के आसपास ही केन्द्रित रहता हो, यह जलन बहुत ज्यादा होने लगती। एक टहनी तोडकर डण्डा बनाना पडा। एक स्थान पर रुककर जूता उतारकर एडी देखी तो होश उड गये। एक बहुत बडा छाला फूट चुका था और एक इंच से भी बडे हिस्से की खाल उतर गई थी। यह बहुत ही घिनौना दिख रहा था और घाव पर धूल के कण भी थे। जब मैंने उंगली से धूल पोंछने की कोशिश की तो भयंकर दर्द हुआ। नीचे लटक चुकी खाल को दोबारा घाव पर लगाया और जुराबें व जूते पहन लिये। चार कदम चलते ही यह फिर से पहले जैसा हो जायेगा।
मुझे धाटमीर से चले हुए ढाई घण्टे हो गये। चार किलोमीटर तो तय कर ही लिये होंगे। अभी गंगाड दो किलोमीटर और है। गंगाड में चाय की या खाने पीने की कोई दुकान मिल जायेगी। वहीं रुकूंगा। फिर सोचा कि चूंकि कल तक यह घाव ठीक होने वाला नहीं है, दूसरे पैर में भी समस्या होने लगी है। ऐसे में हर की दून नहीं जा सकता। अब वापस लौटने में ही भलाई है। जब वापस लौटना ही है तो अभी क्यों न लौट चलूं? वापस चलूंगा तो उतराई है, उतराई में वजन पंजे पर केन्द्रित हो जाता है। एडी और जूते के बीच में गैप बन जायेगा, उतना दर्द नहीं होगा। धाटमीर में टैण्ट लगा लूंगा। उसी भले मानस के यहां खाना खा लूंगा, नहीं तो बिस्कुट भी पर्याप्त हैं।... नहीं, गंगाड ही चल। वहां कोई होटल मिल जायेगा तो खाने की सहूलियत हो जायेगी और कल दिनभर भी रुका रह सकता हूं। दस तारीख तक की छुट्टियां हैं, आज चार ही तारीख है। समय बहुत है।
चलना जारी रखा। जब सामने आधा किलोमीटर आगे गंगाड दिखने लगा और जंगल की सीमा भी समाप्त हो गई तो चैन की सांस ली। यहीं बैठ गया और बिस्कुट खाने लगा। भूख लगने लगी थी। तभी पक्षी बोलने लगे। पता नहीं वे मुझे बैठा देखकर बोल रहे थे या खेल रहे थे या किसी और जानवर को। मैंने सोचा कि कोई जानवर है। डर गया और फटाफट सामान समेटकर भाग चला।
गांव में घुसते ही दाहिने हाथ एक मन्दिर मिला। मन्दिर के आसपास काफी समतल जगह है। यहीं टैण्ट लगाऊंगा। फिर कुछ खाने की तलाश में गांव में घुसा। एक महिला मिली। उनसे चाय की दुकान के बारे में पूछा। उन्होंने मना कर दिया कि यहां कोई दुकान नहीं है, लेकिन हमारे यहां आ जाओ। चाय पी लेना। मैं चाय का तलबी नहीं हूं लेकिन सामने वाले से जानकारी जुटाने के उद्देश्य से चाय की बात छेड देता हूं। मुझे चाय की आवश्यकता नहीं थी और दुकान से अलग किसी के घर में जाकर तो बिल्कुल नहीं। मैंने मना कर दिया।
कुछ देर उनके घर के चबूतरे पर बैठा रहा। दालान में चौलाई सूख रही है। आजकल चौलाई का सीजन है। सभी खेत लाल हुए पडे हैं। चौलाई पक चुकी है। अब इन्हें काटकर और झाडकर सुखाया जा रहा है। फिर इन्हें डण्डे से पीटकर चौलाई अलग की जायेगी। ठीक इसी तरह जैसे नीचे मैदानी गांवों में सरसों अलग करते हैं।
दिन ढलने लगा तो एक वृद्धा ने चौलाई को समेटना शुरू किया। इसे एक जगह इकट्ठा करके इसे ढक दिया जायेगा ताकि रात में यह ओस से पुनः न भीग जाये। कल धूप निकलने पर फिर फैला दिया जायेगा। पूरे पश्चिमी हिमालय में कुमाऊं से लेकर लद्दाख जांस्कर तक हिन्दी खूब बोली समझी जाती है लेकिन कोई भी वृद्धा हिन्दी बोलने समझने में समर्थ नहीं है। अपवाद हो सकते हैं। सभी वृद्ध हिन्दी जानते हैं, युवा-युवतियां और बच्चे सब हिन्दी जानते हैं लेकिन वृद्धाएं नहीं। इसका कारण यही है कि वृद्ध अपने जमाने में बाहर निकला करते थे, वृद्धाएं यहीं रहती थीं।
पता चला कि गंगाड गांव दो भागों में बसा हुआ है। नदी के उस तरफ नीचे मुख्य गंगाड है। एक समय वहां बाढ आ गई थी, विस्थापितों ने यहां इस तरफ ऊंचाई पर घर बना लिये। मुख्य रास्ता जो मैंने पीछे छोड दिया था, वह नीचे मुख्य गंगाड के पास जाकर इसमें मिलता है। यह भी पता चला कि जहां दोनों रास्ते मिलते हैं, वहां एक दुकान है। मुझे दुकान की सख्त आवश्यकता थी। आज के खाने लायक बिस्कुट तो मेरे पास हैं लेकिन अगर कोई दुकान भी मिल जाती तो मैं कल पूरे दिन यहीं रुकना चाहता हूं। वैसे तो गांव में भी जाकर खाना मांगा जा सकता है, कोई मना नहीं करेगा। लेकिन खाना मांगने की इच्छा नहीं है।
अब रास्ता उतराई का है। दो बच्चे मिले। उनसे पूछा तो उन्होंने भी दुकान होने की पुष्टि की। साथ ही उन्होंने टॉफियां भी मांगीं। जेब में रखी टॉफियां समाप्त हो चुकी थीं, इसलिये बैग खोलना पडा। बैग में उनकी नजर बिस्कुट के पैकेटों पर पडी, एक पैकेट मांग लिया, देना पडा।
जब नीचे उस स्थान पर पहुंचा जहां दोनों रास्ते मिलते हैं तो निराशा हाथ लगी। दुकान थी अवश्य लेकिन बन्द थी। आसपास उगी घास से स्पष्ट था कि यह कई महीनों से नहीं खुली है। यहां एक नाला है जो कुछ ही दूर जाकर टोंस में जा मिलता है। टोंस के उस तरफ मुख्य गंगाड गांव है। शाम का समय था, सभी ग्रामीण अपने मवेशियों को लेकर लौटने लगे थे। कुछ ने कहा भी कि गांव में चलो, कुछ खा-पी लेना, वहीं रुक जाना। लेकिन मन नहीं किया। गांव में जाने के लिये पहले यह बराबर वाला नाला पार करना होता, हालांकि पुल था लेकिन पार करते ही थोडी सी चढाई दिख रही थी। फिर पुल से ही टोंस पार करनी होती। इस समय मैं एक कदम भी नहीं चलना चाहता था। दूसरे पैर में भी छाला पड चुका था, शायद फूट भी चुका हो।
टैण्ट लगाने लायक पर्याप्त जगह थी। लगा दिया। इस समय बिस्कुट के दो पैकेट बचे थे। मुझे भूखे को नींद आ जाती है। लेकिन भूखे पेट चल नहीं सकता। इसलिये दोनों सुबह खाने के लिये रख लिये। सुबह इन्हें खा लूंगा, तालुका तक पहुंच ही जाऊंगा।
धीरे धीरे अन्धेरा भी हो गया। लोगों का आना-जाना बन्द हो गया। नदी के उस पार तो पूरा गांव बसा है लेकिन इस तरफ जंगल है। जंगल से मुझे डर लगता है और रात को तो और भी ज्यादा। भला हो कि मैं नदी किनारे था। नदी की अनवरत घरघराहट की वजह से मैं कोई और आवाज नहीं सुन सकता था, इसलिये डर कम लगा। अगर नदी न होती तो सन्नाटे की आवाज ही मुझे धराशायी कर देती। पत्ते गिरने की आवाज भी बम विस्फोट जैसी लगती।
रात भर अच्छी नींद नहीं आई। थका होने के बावजूद भी नहीं। करवटे बदलने में ही लगा रहा। एक बार तो मन में आया कि चलो, टैण्ट से बाहर निकलता हूं। हमारे हिमालय में रात को तारे बहुत नजदीक आ जाते हैं। आज उन्हें देखता हूं। लेकिन यह सिर्फ सोचना भर ही था। मेरा अकेले का इस डरावने जंगल में टैण्ट की चेन तक हाथ ले जाना भी असम्भव था।
मसूरी |
सांकरी वाली बस। सांकरी से करीब चार किलोमीटर पहले बस के स्टाफ ने एक नाले पर बस रोक दी, सवारियों को उतार दिया और बस की अच्छी तरह अन्दर बाहर से धुलाई की। |
सांकरी |
तालुका से आधा किलोमीटर पहले यहीं तक जीपें आती हैं। आगे एक भूस्खलन के कारण रास्ता नहीं है। |
तालुका |
चौलाई के लाल लाल खेत |
टोंस नदी। यह डाकपत्थर यानी विकासनगर और पौण्टा साहिब के पास यमुना में मिल जाती है। |
दूर कहीं तालुका दिख रहा है। |
धाटमीर की ओर जाती सीढियां |
धाटमीर गांव |
यह कोई विदेशी नहीं है। गढवाल के इस हिस्से में बच्चे ऐसे ही होते हैं। मेरी उम्र तक के लडके लडकियां इसी तरह साफ रंग के हैं। |
धाटमीर का एक निवासी जिसने मुझे चाय और खाने की पेशकश की थी। |
धाटमीर गांव |
दाहिने पैर की एडी। |
सामने ऊपरी गंगाड दिख रहा है। |
गंगाड के घर |
टोंस के उस पार मुख्य गंगाड है। |
आज यहीं टैण्ट लगाऊंगा। |
यहीं टैण्ट लगा लिया। पीछे एक दुकान है, जो पता नहीं कितने महीनों से बन्द है। |
अगला भाग: हर की दून यात्रा- गंगाड से दिल्ली
1. हर की दून यात्रा- दिल्ली से गंगाड
2. हर की दून यात्रा- गंगाड से दिल्ली
ખુબ જ સુંદર ચિત્ર અને તમે ચાલતા થાકી ગયા અમે વાંચતાં થાકી ગયા એટલું લાંબુ વણૅન ઼
ReplyDeleteTyped with Panini Keypad
गंगाड के मकान में उपरी छत कैसे बनाते हैं। फर्स्ट ऐड बॉक्स होना चाहिए।
ReplyDeleteनीरज जी राम राम, हिम्मत हैं तुम्हारी भी, इसी को तो कहते है असली घुमक्कड़. पैर में घाव होते हुए भी आगे बढ़ रहे हो...चुलाई के खेत पहली बार देखे. धन्यवाद इतनी सारी जानकारी और उत्तराखंड के अंदरूनी हिस्सों के दर्शन कराने के लिए....वन्देमातरम...
ReplyDeleteNeerajbhai aapke hausle buland hai warna chale lage pair se chalna bahut kastkari hai
ReplyDeleteNeerajbhai aapke hausle buland hai warna chale lage pair se chalna bahut kastkari hai
ReplyDeleteपैर की हालत देखकर लग रहा है कि वापस लौटने का फैसला सही ही है। अगर वापस आ रहे हो तो फिर से हरकी दून का ट्रेक में हमारी बुकिंग रखो। :)
ReplyDeleteअभिवादन, अभिनन्दन. पहाड़ी इलाकों की जीवन शैली से भी परिचित होते रहे. बहुत बहुत आभार.
ReplyDeleteKamaal ka varnan...aap sa doosra koi nahin...jitna badhiya aap likhte ho utne hi badhiya foto khiinchte ho...kul mila ke aap mere hero ho...
ReplyDeleteनीरज भाई राम-राम.पैर की हालत वाकई खराब हो गई है.
ReplyDeleteआपके लिये क्या कहे, शब्द ही नही है , अकेले ही जिस दिलेरी के साथ आप कही भी चले जाते हो, उसका कोई जवाब नही है, आपके चरण छूने का मन करता है
ReplyDeleteNeeraj ji, Akele trekking karna sabke bas ki baat nahin hai. Mein ye un logon ke liye keh raha hoon jo akele trekking karte hue darte hain aur apni har yatra mein kisi na kisi ko saath lekar jaate hain.
ReplyDeleteAap ki trekking aur dusrein logon ki trekking mein yeh antar aapko bilkul alag khada karta jo bahut badi baat hai.
इस हर की दून में जरुर कुछ पंगा है, मेरे साथ दो साल पहले बाइक पर तालुका तक व आगे हर की दून तक ट्रेकिंग करने गया धर्मेन्द्र सांगवान भी अपने घुटने में दर्द होने के कारण वापसी में बहुत तंग रहा था।
ReplyDeleteदर्शनीय सूत्र..
ReplyDeleteबहुत खूब मेड़ता सिटी में मीराबाई का मंदिर जरुर देखिएगा
ReplyDeleteMitra or mitra me bhi fut padane vale logo ki sankhya badhati ja rahi he
ReplyDeleteऐसी सुनसान जगह में कभी भुत के दर्शन हुए या नहीं ?
ReplyDeleteमुझे तुमसे इर्ष्या बढती जाती है मित्र , उतना ज्यादा ....जितना ज्यादा में तुम्हे पढ़ता रहता हूँ ......
ReplyDeleteसैर कर दुनिया की गाफिल जिंदगानी फिर कहा
जिंदगानी गर रही तो ये नौजवानी फिर कहा ..........
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