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थार साइकिल यात्रा- तनोट से लोंगेवाला

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26 दिसम्बर 2012 की सुबह आराम से सोकर उठे। वैसे तो जल्दी ही उठ जाने की सोच रखी थी लेकिन ठण्ड ही इतनी थी कि जल्दी उठना असम्भव था। असली ठण्ड बाहर थी। यहां धर्मशाला में तो कुछ भी नहीं लग रही थी। तापमान अवश्य शून्य से नीचे रहा होगा। आज का लक्ष्य लोंगेवाला होते हुए असूतार पहुंच जाने का था जिसकी दूरी लगभग 80 किलोमीटर है। ऐसा करने पर कल हम सम पहुंच सकते हैं।
दस बजे तक तो वैसे भी अच्छी धूप निकल जाती है। कोहरा भी नहीं था, फिर भी ठण्ड काफी थी। माता के दर्शन करके कैण्टीन में जमकर चाय पकौडी खाकर और कुछ अपने साथ बैग में रखकर हम चल पडे। आज हमें रास्ते भर कुछ भी खाने को नहीं मिलने वाला। जो भी अपने साथ होगा, उसी से पेट भरना होगा।
तनोट से लोंगेवाला वाली सडक पर निकलते ही सामना बडे ऊंचे धोरे से होता है। यह एक गंजा धोरा है, इस पर झाडियां भी नहीं हैं। हमें बताया गया कि कल के मुकाबले हमें आज ज्यादा ऊंचे धोरों का सामना करना पडेगा। इन सब बातों के मद्देनजर हमने चलने की स्पीड दस किलोमीटर प्रति घण्टा रखने का लक्ष्य रखा जिसे हमने पूरा भी किया क्योंकि धोरे पर चढने के बाद नीचे उतरना होता है जिससे समय की पूर्ति हो जाती है।
आठ किलोमीटर बाद एक नन्हा सा गांव आया- खारिया। दो चार ही घर थे। इंसानों से ज्यादा बकरियां थीं और कुछ ऊंट व गधे भी। पानी के लिये टैंक बने थे जिन्हें निश्चित तौर पर सेना ही भरती होगी। यहां जितने भी गांव देखे, सभी समतल रेत पर बसे थे और गांव में झाडियां भी नहीं थीं। रेत का छोटा सा धोरा भी बडा सुहावना लगता। बाकी स्थानों पर रेत को झाडियां ढक लेती, गांवों में ऐसा नहीं मिलता।
पौने बारह बजे तक हम अपनी निर्धारित रफ्तार पर ही चल रहे थे- दस किलोमीटर प्रति घण्टे की रफ्तार से। अब तक पन्द्रह किलोमीटर की दूरी तय कर चुके थे। यह निश्चित तौर पर कल के मुकाबले ज्यादा कठिन रास्ता था। सडक धोरों के आरपार बिल्कुल सीधे बना रखी थी। इससे कहीं कहीं बडी तीव्र चढाई चढनी पडती। नटवर हमेशा इस चढाई पर पैदल चलने लगता, मैं भी न्यूनतम गियर स्पीड पर चलता। कई बार रुक रुक कर सांस भी लेनी पडती। फोटो खींचने व सुस्ताने के लिये हमने तय कर रखा था कि हमेशा धोरे के ऊपर ही रुका करेंगे। इससे उस धोरे के दोनों तरफ दूर दूर तक का इलाका देखने को मिल जाता और कई बार दो ढाई किलोमीटर दूर दूसरे धोरे पर चढती सडक भी।
पन्द्रहवें किलोमीटर के बाद सडक इसी तरह के एक धोरे पर चढने लगी। मैंने साइकिल की चेन कम रफ्तार वाले गियर पर डाली तो यह उतर गई। जिस समय यह उतरी, इस पर अत्यधिक लोड था। मेरी साइकिल का अगला गियर चेंजर पहले से ही कुछ गडबड करता है, इसलिये यह कुछ भी विशेष नहीं लगा। जब साइकिल से नीचे उतरकर चेन चढाने लगा तो एक टूटी कडी पर निगाह गई। गौर से देखा तो पाया कि इस कडी की एक पिन आधी निकल गई थी जिससे कडी एक तरफ से खुल गई थी। साइकिल में चेन बडी सख्तजान होती है। इसकी पिन आसानी से नहीं निकलती, कभी कभी तो लाख कोशिश करने पर भी नहीं। इसीलिए यह एक तरफ से निकलने के बाद भी दूसरी तरफ से अटकी हुई थी। मुझे साइकिल के सारे काम करने आते हैं लेकिन चेन ठीक करनी नहीं आती। यही बात मैंने नटवर से भी बता दी थी कि चेन ठीक करने का इंतजाम लेकर आना और नटवर आया भी था।
सामने नटवर पैदल जा रहा था, कुछ दूर धोरे का शीर्ष भी दिख रहा था। वहीं ऊपर पहुंचकर चेन ठीक करूंगा, यह सोचकर मैं भी पैदल ही चलने लगा। नटवर ने मुझे पैदल आते देखा तो कटाक्ष किया- क्या बे, बोल गया टें? बडा गियर वाला बनता था, अब पैदल चल रहा है? हम हमेशा आपस में इसी तरह एक दूसरे पर व्यंगबाणों से बातचीत करते हैं, कोई भी बुरा नहीं मानता। मैंने कहा- नहीं ऐसा नहीं है। मेरी साइकिल की चेन टूट गई है। बोला कि ऊपर चलकर देखते हैं।
मैं उससे कुछ पीछे था। शीर्ष से कुछ पहले मुझे साइकिल खडी करने की एक अच्छी जगह दिखाई दी। मरुस्थल में हर स्थान पर साइकिल खडी नहीं की जा सकती। मैंने नटवर से कहा- ओये, यहीं रुक जा। ऊपर पता नहीं जगह मिले या न मिले, यहीं ठीक करते हैं। उसने नहीं सुना। मैं यहीं रुक गया। प्लास से टूटी कडी को जोडने की कोशिश की। जब यह जुडी हुई दिखने लगी तो मैं फिर आगे बढ चला। इस काम में करीब पन्द्रह मिनट लग गये। करीब सौ मीटर ही चला होऊंगा कि एक झटका लगा और चेन फिर से उतर गई। धोरे का शीर्ष करीब सौ मीटर आगे ही रहा होगा। नटवर नहीं दिख रहा था। यहां एक साफ सी जगह दिखी तो यहीं रुक गया और साइकिल गिरा दी।
एक घण्टा हो गया मुझे चेन ठीक करते करते। आज पहली बार चेन को ठीक करने की कोशिश कर रहा था। इस एक घण्टे में जो भी कुछ कर सकता था, किया। जब चेन ठीक नहीं हुई तो यह ज्ञान प्राप्त हुआ कि अगर चेन की कोई कडी निकल जाये तो उसे दोबारा जोडा नहीं जा सकता। नई कडी ही डालनी पडती है। नई कडी नटवर के पास थी और उसका कोई अता-पता नहीं था। उसे मैंने बता दिया था कि मेरी साइकिल की चेन टूट गई है। उसने खुद ही कहा था कि सामने धोरे के शीर्ष पर ठीक करेंगे। इस बातचीत को हुए डेढ घण्टा बीत चुका है, शीर्ष सौ मीटर आगे है। मैं बार बार उसी तरफ देखता कि कहीं नटवर तो नहीं आ रहा। वह अवश्य आगे बढ गया है। क्या सोचकर वो चला गया? गंजा, टकला...
दो बजे मैंने लोंगेवाला की तरफ जाती एक कार को रोका और कहा- आगे एक साइकिल वाला और जा रहा है। उससे कह देना कि नीरज की साइकिल की चेन टूट गई है और वो वापस तनोट जा रहा है। उन्होंने पूछा कि क्या उसे भी तनोट पहुंचने को कहना है? मैंने कहा- नहीं, उसे बस मेरे तनोट जाने की सूचना देनी है। बाकी जो उसकी मर्जी हो, कर लेगा।
अब तक बुद्धि बेहद खराब हो चुकी थी। इसलिये नहीं कि चेन टूट गई। अरे, बडी बडी गाडियां खराब होती हैं। हवाई जहाज तक उडते उडते खराब हो जाते हैं, इस जरा सी साइकिल की क्या औकात? बुद्धि इसलिये खराब हुई कि नटवर ने कोई सुध नहीं ली। परसों मैं उससे आधा किलोमीटर आगे निकल गया था तो यह सोचकर उसके साथ हो लिया कि अगर इसकी साइकिल में पंक्चर हो गया तो यह कैसे ठीक करेगा? पंक्चर ठीक करना तो मुझे आता है और सामान भी मेरे ही पास है। कल शाम जब मैं सिर पर हैलमेट बांधते समय कुछ पीछे रह गया तो नटवर ने आधा किलोमीटर आगे निकलने के बावजूद भी मेरी प्रतीक्षा की थी और मुझे ढूंढने जाने भी वाला था। आज ऐसा क्या हो गया कि दो घण्टे बीतने के बाद भी उसे कोई फिक्र नहीं? नहीं, चेन तो अब ठीक होने वाली नहीं। सुबह जोधपुर वाली बस जायेगी। मैं जैसलमेर जाऊंगा और शाम को ही रेल पकडकर दिल्ली चला जाऊंगा।
जहां चढाई मिलती वहां पैदल चलता और उतराई पर साइकिल पर बैठ जाता। चार बजे तक मैं तनोट पहुंच गया। साइकिल धर्मशाला के पास खडी करके हाथ धोकर मैं आया ही था कि एक मिनी बस की छत पर नटवर की साइकिल दिखी। उसने साइकिल उतारी और मेरे पास ही खडी कर दी। मुझ पर आरोप लगाया कि जब धोरे के शीर्ष पर मिलने की बात हुई थी तो तू वहां क्यों नहीं आया? पहले ही क्यों रुक गया? और जब उसने बताया कि वह लोंगेवाला से बस पर साइकिल रखकर आ रहा है तो मेरा पहले से ही उबलता खून खौल उठा। क्रोध का ऐसा जबरदस्त ज्वार आया कि मन में आया इसकी गर्दन मरोड दूं। जहां मेरी साइकिल खराब हुई थी, वहां से लोंगेवाला 22 किलोमीटर दूर था। गंजा टकला इतनी दूर चला गया, कभी तुझे मेरा ध्यान नहीं आया? जबकि तुझे मालूम था कि चेन टूट गई है।
उसने अपने पास से चेन की कडियां निकालकर दीं। मैंने भरपूर क्रोध में लौटा दी- भाड में जायें ये और तू भी। रख इन्हें अपने ही पास। उस समय दिमाग में पता नहीं क्या था कि उसकी शक्ल भी देखने का मन नहीं कर रहा था। कुछ देर बाद उसने इधर उधर कुछ पूछताछ करनी शुरू कर दी। ऐसी परिस्थितियों में पूछताछ का एक ही अर्थ है कि वह जैसलमेर के लिये किसी गाडी की ताक में है। उधर जब मैं भी कुछ ठण्डा हुआ तो सोचा कि टकले के पास जब कडियां हैं तो तू उनका प्रयोग क्यों नहीं करता? चेन ठीक हो जायेगी, अभी भी दो दिन हैं तेरे पास। लोंगेवाला तो देख सकेगा। फिर कभी इधर आना हो या न हो। क्यों लोंगेवाला देखने से वंचित हो रहा है। दो दिन पहले दिल्ली जाकर करेगा ही क्या?
नटवर को ढूंढा तो वो एक कोने में खडा सिगरेट पी रहा था। मैंने उससे पूछा कि अब जैसलमेर जायेगा। बोला कि हां, कोई न कोई गाडी मिल ही जायेगी। मैंने कहा कि हां, ठीक रहेगा। ला, मुझे कडियां दे। चेन ठीक हो जायेगी तो मैं कल लोंगेवाला जाऊंगा। बोला कि रुक दो मिनट, सिगरेट खत्म कर लूं।
और यहां दोस्ती जीत गई। तनोट युद्ध के समय हुए चमत्कारों के कारण प्रसिद्ध हुआ था, एक चमत्कार आज भी हुआ। इतना कुछ होने के बाद भी हम इस तरह साइकिल ठीक करने में लग गये जैसे कि कुछ हुआ ही नहीं था। चेन की पिन रिवेट की हुई होती हैं यानी उनमें हथौडा आदि मारकर उनके किनारे फैला दिये जाते हैं ताकि वे कभी न खुलें। अब जब हमें एक पिन निकालनी थी तो इसे निकालने में बडी मेहनत लगी। एक तो पत्थर भी टूट गया। आखिरकार नटवर ही पास की एक दुकान से लोहे का एक बाट लाया, तब जाकर बात बनी।
और बात बनी नहीं, बल्कि और ज्यादा बिगड गई। जब लगा कि सबकुछ सही सलामत निपट गया है तो एक बडा नुकसान हो गया। हर साइकिल की चेन अलग अलग होती है। नटवर साधारण साइकिल की कडी ले आया था। इसकी पिन दो ढाई मिलीमीटर बाहर निकली थी। यही बाहर निकली अत्यधिक कठोर पिन आफत बन गई। जब हमने चेन जोड दी तो इसे टेस्ट करने के इरादे से मैं साइकिल लेकर चला। जैसे ही इस पर बैठकर पैडल पर जोर दिया तो खरड-खरड की आवाज के साथ पिछला पहिया जाम हो गया। उतरकर देखा तो पिछला गियर चेंजर पहिये में घुसा पडा है। असल में वो जो पिन जरा सी बाहर निकली थी, वह गियर चेंजर में फंस गई। पैडल पर बल लगाने के कारण गियर चेंजर पर भी अत्यधिक बल लगा और यह मुडकर अपनी सीमाएं पार करता हुआ पहिये की तीलियों में जा घुसा।
यह नई आफत आ पडी। पहले ही भनक लग जाती तो हम उस पिन को पीट पीटकर बराबर कर देते और बाद में हमने ऐसा किया भी। लेकिन तब तक गियर चेंजर बर्बाद हो चुका था। इसे ठीक करने की कोशिश की तो आंशिक रूप से ठीक हो गया। जब सबकुछ ठीक हो गया तो इस बार टेस्ट के तौर पर साइकिल को उल्टी करके खाली ही चलाया। सावधानी से सबकुछ करके देखा तो गियर चेंजर की गडबडियों के अलावा कोई गडबडी नजर नहीं आई। और वह भी कोई ज्यादा गडबड नहीं कर रहा था। चौथे की जगह पांचवां और पांचवें की जगह छठा गियर लगा रहा था और सातवें की जगह चेन उतर जाती थी। यानी अब इस पर सातवां गियर नहीं लगाया जा सकता। इसे कभी बाद में फुरसत से बैठकर ठीक करूंगा। फिलहाल साइकिल चलने लायक हो गई है।
और जब रात को सोने लगे तब तक सारा मनमुटाव खत्म हो चुका था। दोनों ने तय कर लिया था कि सुबह सात बजे चलने वाली बस पकडेंगे और जैसलमेर जायेंगे और वहां से साइकिल चलाते हुए सम। रात को सम रुकेंगे और परसों वापस जैसलमेर लौट आयेंगे जहां से शाम को हमारी ट्रेन है।
सुबह साढे छह बजे उठना पडा। कडाके की ठण्ड थी और अन्धेरा भी था। यहां दिल्ली के मुकाबले सूरज पौन घण्टा देर से निकलता है और देर से छिपता भी है। साइकिलें बस की छत पर चढाने में सबकुछ सुन्न हो गया। ठण्ड की वजह से उन्हें बांधा भी नहीं। रेत जितनी जल्दी गर्म होती है उतनी ही जल्दी ठण्डी भी होती है, इसी कारण सर्दियों में यहां ऐसी ठण्ड पडती है। कैण्टीन तब तक खुल तो गई थी लेकिन खाने को कुछ नहीं था सिवाय चाय व कुछ बिस्कुटों के।
सवा सात बजे बस चल पडी। लगभग दो सौ मीटर ही चली होगी कि रुक गई। बन्द हो गई। ड्राइवर ने लाख कोशिश कर ली लेकिन स्टार्ट नहीं हुई। कोई कहता कि तेल खत्म हो गया है, कोई कहता तेल जम गया है। आधे घण्टे तक मशक्कत करने के बाद जब कुछ भी हाथ नहीं लगा तो ड्राइवर ने डिपो में सूचना भेज दी। डिपो जैसलमेर में है। वहां से खबर आई कि वे मिस्त्री को भेज रहे हैं। यानी कम से कम तीन घण्टे बाद मिस्त्री आयेगा, उसके बाद बस ठीक होगी, तब चलेगी। अब मैंने निर्णय ले लिया- लोंगेवाला जाऊंगा।
साइकिल उतार ली। नटवर चूंकि कल लोंगेवाला जा चुका था इसलिये वह आज उसी कठिन रास्ते पर 38 किलोमीटर चलने को राजी नहीं था, उसने साथ चलने से मना कर दिया। अब मैं और नटवर अलग-अलग हो गये। हिसाब चूंकि रात कर लिया था। उस पर मेरे सौ रुपये के करीब आये लेकिन उसने न केवल देने से मना कर दिया बल्कि अपने खर्चे के लिये चार सौ रुपये और मांग लिये। इस तरह कुल मिलाकर उसके पास मेरे पांच सौ रुपये हो गये। कभी भविष्य में मिलेंगे तो सबसे पहले उससे ये पांच सौ रुपये ही वापस लूंगा। पक्की उम्मीद है कि हम मिलेंगे अवश्य।
कैण्टीन में जाकर देखा, अभी तक भी कुछ नहीं बना था। बिस्कुट के दो तीन पैकेट रख लिये, पानी की एक बोतल भी। यहां पानी खारा था इसलिये बोतल लेनी पडी। हालांकि सर्दी होने के कारण पानी की आवश्यकता कम ही थी।
पौने नौ बजे यहां से चल पडा। लक्ष्य वही रखा दस किलोमीटर प्रति घण्टे का। ठीक डेढ घण्टे बाद यानी सवा दस बजे मैं उस स्थान पर पहुंच चुका था जहां कल साइकिल खराब हुई थी यानी तनोट से सोलह किलोमीटर। चेन ठीक काम कर रही थी। बस एक गडबड थी। हमने इसमें साधारण साइकिल की कडी फिट कर दी थी। इसकी पिन को लोहे के बाट से पीट-पीटकर काम चलने लायक बना दिया था। इस तरह पीटने से पिन चौडी हो गई थी और अत्यधिक टाइट भी। इससे यह चलते समय विशेष स्थान पर एक झटका देती थी। हर बार जब चेन एक चक्कर लगाकर उस स्थान पर आती तो झटका लगता। ऐसे झटकों से मुझे कोई खतरा नहीं था, बस यह खुलनी नहीं चाहिये। और इसे इतना पीटा गया था कि भले ही दूसरी कडियां खुल जाये लेकिन यह नहीं खुलेगी। मैं हर पांच सात किलोमीटर के बाद पूरी चेन का मुआयना कर लेता था कि कोई कडी खुली तो नहीं है।
तनोट से 22 किलोमीटर सादेवाला है। छोटा सा गांव है और एक रास्ता बॉर्डर की तरफ भी जाता है। इस पूरे रास्ते से बॉर्डर हमेशा बीस बाइस किलोमीटर दूर है। यहां भी रेत के झाडी-रहित ऊंचे ऊंचे टीले थे। साफ सुथरी रेत।
लोंगेवाला से चार किलोमीटर पहले एक गांव और मिला, नाम ध्यान नहीं लेकिन कुछ ढाणी पर था नाम। हां, हिंगोडा की ढाणी। यह सादेवाला से भी छोटा गांव है। तीन चार घरों के इस गांव में बिजली भी है। यहां से चला तो सीधे लोंगेवाला जाकर ही रुका।
लोंगेवाला- एक निर्णायक और ऐतिहासिक युद्ध का गवाह।

तनोट से लोंगेवाला वाली सडक

तनोट



तनोट से पांच किलोमीटर आगे

खारिया गांव के पास

खारिया के पास

खारिया में

ऊंट का बच्चा

कई बार चढाई इतनी तेज आती कि नीचे उतरना पडता।





ऊपर बायें कोने में सडक धोरे पर चढती दिख रही है।

चेन ठीक करने की पहली नाकाम कोशिश

यहां चेन ठीक करने हेतु एक घण्टे से भी ज्यादा लगाया।

अगले दिन जब बस खराब हो गई तो छत से साइकिल उतार ली और लोंगेवाला जाने का फैसला किया।

थार के गधे। बताते हैं कि ये लद्दाख के जंगली गधों क्यांग के बन्धु हैं।


दूर तक दिखती सडक

सादेवाला गांव










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अगला भाग: लोंगेवाला- एक गौरवशाली युद्धक्षेत्र

थार साइकिल यात्रा
1. थार साइकिल यात्रा का आरम्भ
2. थार साइकिल यात्रा- जैसलमेर से सानू
3. थार साइकिल यात्रा- सानू से तनोट
4. तनोट
5. थार साइकिल यात्रा- तनोट से लोंगेवाला
6. लोंगेवाला- एक गौरवशाली युद्धक्षेत्र
7. थार साइकिल यात्रा- लोंगेवाला से जैसलमेर
8. जैसलमेर में दो घण्टे




Comments

  1. अहा, मरुस्थल की लम्बी सड़कें...ऊँचे इरादे।

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  2. ऊँट के बच्चे को "टोड" कहते हैं, अब समझ में आया कि सब कुछ ठीक रहने पर सायकिल की चैन भी धोखा दे सकती है। :)

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  3. har yatra me ese khaatte mithe anubhav hote hi rahte he . lekin bataya nhi vo kyo chod kar chala gayaa.

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  4. Ye bhi khoob rahi cycle ki chain ki kadi tootna, mera tho aajtak is samasya se pala nahi pada lekin ab se lambi yatra k samay dhyan rakhunga.

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  5. वाहा.......... नीरज भाई मजा आ गया आज की कड़ी मे तो पूरा फ़िल्मी रोमांच था की नीरज लोंगेवाला पहुँचेगा या नही , लेकिन हर फ़िल्म की तरह विजेता हीरो ही हुआ ,और आज का हीरो है नीरज। अगली कड़ी का इंतजार रहैगा........

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  6. जब आगे बड़ते हैं तभी मुश्किलों का सामना होता है और उनसे पार पाना भी सीखते हैं, बहुत बढ़िया ।

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  7. राजस्थान के मरुस्थल की सुंदर झांकी दिखायी आपने तस्वीरों के माध्यम से ! बहुत सुंदर !

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  8. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन इंटरनेशनल अवॉर्ड जीतने वाली पहली बंगाली अभिनेत्री थीं सुचित्रा मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  9. नीरज जी! नमस्कार, तनोट से लोंगेवाला पोस्ट का प्रमुख केन्द्र बिन्दु चेन की एक कड़ी बन गयी, जिसने यात्रा में एक अलग ही अनुभव करा दिया आपको, जिसने भी साइकिल चलाई होगी उसको एक न एक बार साइकिल की चेन का सामना किया होगा,जिसने साइकिल चलाई ही नही होगी, उसे साइकिल की चेन बार-बार उतरने या साइकिल के पिछले गेयर में फंस जाने से साइकिल सवार को कितनी खीझ आती है, मन करता है कि साइकिल को यहीं पटक दूं। आपकी साइकिल गेयर की व्यथा वही समझ सकता है जिसके साथ ये घटना घटी हो।

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  10. ' धोरे ' क्या है ?क्या टेकरी को ही धोरे कहते है ? हम इंदौर वासी इसे टेकरी बुलाते है ---अथाह समुंदर रेत का ---क्या रेत उड़ती भी है सर्दियों में ?

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  11. भाई गजब की जगह है चारो ओर फैला रेत व रेत के टिले, मस्त फोटो

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  12. You could call to Mr.Natwar. Was mobile network not available that area?

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    1. जी बिलकुल, उधर मोबाइल नेटवर्क नहीं था।

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