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डायरी के पन्ने- 13

[डायरी के पन्ने हर महीने की पहली व सोलह तारीख को छपते हैं।]

2 सितम्बर 2013, सोमवार
1. पंजाब यात्रा रद्द कर दी। असल में हमारे यहां से कई सहकर्मी छुट्टी जा रहे हैं। ऐसे में मैं कभी भी छुट्टियां नहीं लिया करता। अजीत साहब से मना करना पडा। उनसे न मिल पाने का मलाल है।
2. प्रशान्त दिल्ली आया। वह जोधपुर का रहने वाला है और पिछले दिनों हम गोवा गये थे। वह ट्रेनों का बडा शौकीन है और सात लाख किलोमीटर ट्रेन यात्रा कर चुका है। उसका लक्ष्य जल्द से जल्द बारह लाख किलोमीटर करने का है। इधर मैं तो एक लाख में ही खुश हो रहा हूं। आज उसे अपनी किसी रिश्तेदारी में सुभाष नगर रुकना था लेकिन मेरे आग्रह पर हमारे ही यहां रुक गया।

3 सितम्बर 2013, मंगलवार
1. पिताजी और धीरज देर रात कोलकाता से आये। धीरज की कोई परीक्षा थी वहां, पिताजी भी साथ चले गये। वापस लौटे तो दोनों की शक्ल देखकर मैंने अन्दाजा लगा लिया कि रास्ते में इनकी आपस में ‘मुठभेड’ हुई है। कुछ देर बाद बात सामने आ गई। मनमुटाव था उनमें आपस में। असल में धीरज का एक मित्र भी गया था। वह कथित रूप से निम्न जाति का था। पिताजी इस बात को नहीं जानते थे और उन्होंने धीरज से आपस में बातचीत के दौरान किसी अन्य मुद्दे पर जातिसूचक शब्दों का प्रयोग कर दिया। हालांकि मित्र ने इस वार्तालाप को नहीं सुना, फिर भी धीरज ने पिताजी को आगाह कर दिया कि घर में इस तरह से बात करना तो ठीक है लेकिन यहां ठीक नहीं। पिताजी जिद पर अड गये कि हम घर पर करते हैं तो यहां भी करेंगे। यह बात मुझे धीरज ने बताई इसलिये सारे मामले में पिताजी की ही गलती दिखाई पडती है। इसी बात को पिताजी के मुंह से सुनता तो धीरज की गलती दिखाई देती। अगले दिन वे साढे दस वाली पैसेंजर से चले गये।

4 सितम्बर 2013, बुधवार
1. आज अवकाश था। हमेशा की तरह अवकाश से पहले दिन तक बहुत सारी योजनाएं बनाईं कि यह करूंगा, वह करूंगा, लेकिन होता कुछ नहीं। सारे कपडे बिना धुले रह गये और खाना वाना भी नहीं बना।
2. वसुन्धरा से योगेश कंसल साहब का फोन आया। उन्होंने वह आलेख पढा था जिसमें मैंने अपनी निराशा की बात लिखी थी। उन्होंने खैर बढिया बात की। घर आने का निमन्त्रण भी दिया। साथ ही यह भी पता चला कि वे वीरेन्द्र आर्य साहब के भाई हैं।
वीरेन्द्र आर्य डीएन पॉलीटेक्निक, मेरठ में प्रधानाचार्य हैं। जब मैं वहां पढता था, वे प्रधानाचार्य नहीं थे अपितु एनसीसी के कॉलेज कमाण्डर थे। एक बडी मजेदार घटना याद आ जाती है। मैं कॉलेज के दो साल पूरे करने के साथ साथ एनसीसी के भी दो साल पूरे कर चुका था। एनसीसी का दूसरा साल मैंने ‘ए’ ग्रेड से पूरा किया था। ऐसा पूरे कॉलेज में मात्र चार कैडेटों ने ही किया था। अमित भी उनमें से एक था। अब जब तीसरा साल शुरू हो गया तो अमित को परेड कमाण्डर बनाया गया। वो पहला ही दिन था एनसीसी परेड का। अमित किसी कारण से इस परेड में भाग नहीं ले सकता था। इसलिये उसने यह जिम्मेदारी मुझे दे दी। मैंने हिचकते हुए इसे स्वीकार कर लिया। पिछले सत्र में यानी फरवरी में यानी कम से कम छह महीने पहले ही एनसीसी की कोई परेड की थी। सारी कमाण्ड भूल गया था। कुछ कमाण्ड अमित से सीखीं। कुछ क्लास के दौरान याद करता रहा। आखिरकार ‘परेड... सावधान’, ‘विश्राम’, ‘दाहिने मुड’, ‘बायें मुड’, ‘पीछे मुड’ आदि रट लिये।
जब क्लास खत्म होने के बाद परेड ग्राउण्ड पहुंचे तो नये रंगरूट भी वहीं थे। वे प्रथम वर्ष के छात्र थे, इसलिये उन्हें परेड वरेड की कोई जानकारी नहीं थी। मैंने सभी को लाइन में लगवाकर खूब चीख-चीखकर चिल्ला चिल्लाकर जितनी भी कमाण्ड याद थीं, सारी इस्तेमाल कर दीं। आखिरकार आर्य साहब ने मुझसे पता नहीं क्या कहा कि मैं बगलें झांकने लगा। उन्होंने कुछ विशेष कमाण्ड देने को कहा था। पहले तो सोचा कि बोल दूं कुछ भी लेकिन जब कम से कम पचास जोडी आंखें आपकी ही तरफ गडी हों, स्थिति और भी निराशाजनक हो गई। हलक सूख गया। पीछे खडे आर्य साहब ने कई बार कहा कि चुप क्यों है, बोल कुछ भी लेकिन नहीं बोल सका। सामने खडे सभी चेहरों पर मुस्कराहट भी आने लगी और जब फुसफुसाहट व मामूली हूटिंग भी होने लगी तो पसीना आने लगा। नियम के मुताबिक मैं अपनी जगह से हटकर भी नहीं जा सकता था। आखिरकार आर्य साहब ने बात समझी और सभी से पूछा कि कोई है जो यह कमाण्ड दे सके। मेरे सभी समकक्ष तुरन्त नजरें झुकाकर खडे हो गये। कई बार कहने पर एक लडका बाहर आया और उसने कमाण्ड दी।
यह बात याद आती है जो आज भी मैं असहज महसूस करता हूं। बडी शर्मनाक स्थिति थी वह।

5 सितम्बर 2013, गुरूवार
1. आज गुरू-वार है। जाने अनजाने सभी गुरूओं को नमन।
2. इस महीने के दूसरे पखवाडे में एक ट्रेक करना है। कई विकल्प हैं- मणिमहेश और मणिमहेश परिक्रमा, पिन-पार्वती पास, नेपाल में अन्नपूर्णा ट्रेक और एवरेस्ट बेस कैम्प ट्रेक, सिक्किम के कुछ ट्रेक। इनमें एवरेस्ट बेस कैम्प के लिये कम से कम पन्द्रह दिन चाहिये। अभी मन नहीं है इतने दिन की छुट्टी लेने का। सिक्किम का भी मन कभी करता है, कभी नहीं करता। बचे अन्नपूर्णा और मणिमहेश। मणिमहेश का जोर ज्यादा है।
दस दिन हाथ में रहेंगे। परिक्रमा के साथ साथ धौलाधार के किसी दर्रे को पार करके कांगडा घाटी में उतरा जा सकता है। अगर इसके साथ कुगती दर्रा भी पार कर लूं तो मजा आ जाये। इसे नाम दूंगा- लाहौल कांगडा ट्रेक। कुगती दर्रे के बारे में जानकारी ली तो इण्डियाहाइक वालों की वेबसाइट पर पहुंच गया। इसे पढा तो डर गया। महा-भयंकर ट्रेक बताया उन्होंने इसे। फोटो देखे तो जमीन खिसक गई। गौर किया तो लगा कि फोटो मई या जून के होंगे। मई-जून में वहां इतनी बर्फ की उम्मीद है लेकिन सितम्बर में नहीं है। फिर इण्डियाहाइक एक ट्रेकिंग एजेंसी है। अगर वह कहेगी कि ट्रेक उतना मुश्किल नहीं है, तो कौन जायेगा उनके साथ?
जाऊंगा... मैं जाऊंगा अकेला। शुरूआत लाहौल से करके कुगती दर्रा पार करके कुगती गांव से मणिमहेश परिक्रमा पथ पर चलकर मणिमहेश पहुंचूंगा। उसके बाद परम्परागत मार्ग के विपरीत होली वाले मार्ग से नीचे होली गांव तक उतरकर पुनः धौलाधार की चढाई चढूंगा और कांगडा जिले में कहीं उतरूंगा। इसमें दस दिन लग जायेंगे। हालांकि कुगती दर्रे के बारे में अभी भी कुछ सन्देह हैं।
टैण्ट नहीं ले जाना चाहता। टैण्ट की आवश्यकता लाहौल से कुगती के बीच में पड सकती है। उम्मीद है कि एक रात बिता लूंगा किसी तरह। आखिर लद्दाख में जनवरी में चादर ट्रेक के दौरान भी तो ऐसे ही एक रात लगभग खुले में बिताई थी शून्य से पच्चीस डिग्री नीचे तापमान में। स्लीपिंग बैग जरूरी है।
19 से 24 तक की छुट्टी लगा दी, जिससे 18 से 25 तक का समय मिल जायेगा।

6 सितम्बर 2013, शुक्रवार
1. शंकर राजाराम दिल्ली आये। सीधे शास्त्री पार्क आकर फोन किया। कुछ ही देर में वे हमारे यहां थे। तीन भारी भरकम बैग लादे हुए थे वे। उन्हें मनाली जाना है, उसके बाद स्पीति घाटी। कहने लगे कि एक बैग हमारे यहां छोड देंगे, वापसी में उठाकर ले जायेंगे। सोच रहा हूं कि क्या मात्र ट्रेन में पहनने के लिये इतने सारे कपडे ले रखे हैं। एक बैग हमारे यहां छोडेंगे तो जाहिर है स्पीति में उसका कोई काम नहीं। उस बैग में कपडे भरे हैं, जाहिर है डेढ दिन की राजधानी वातानुकूलित ट्रेन यात्रा के लिये इतने कपडे हैं। क्या हर घण्टे कपडे बदलने पडते हैं? वे 63 साल के हैं। वाह! बुजुर्ग हो तो ऐसा!
2. 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस है। इस अवसर पर हमारे भी कुछ आयोजन होता है। हिन्दी को प्रोत्साहन दिया जाता है। आज निबन्ध प्रतियोगिता व अन्य कुछ हिन्दी प्रतियोगिताओं में भाग लेने के आवेदन करने का अन्तिम दिन था। कुछ दिन पहले तक मेरा भी मन था इन प्रतियोगिताओं में भाग लेने का। लेकिन अब मन नहीं है। कोई भी दिवस मनाने का अर्थ है उसे याद करना। इसी तरह हिन्दी दिवस मनाने का भी यही अर्थ है कि साल में एक दिन कर लो याद हिन्दी को। हम हिन्दीभाषियों का पूरा साल ही हिन्दीमय है, इसलिये हिन्दी दिवस मनाने का कोई औचित्य नहीं। हां, अहिन्दीभाषियों के लिये ठीक है।

7 सितम्बर 2013, शनिवार
1. मणिमहेश यात्रा फिर से रद्द हो जायेगी। हमारे यहां विभागीय परीक्षा है। मुझे तो इसमें भाग नहीं लेना, लेकिन कुछ सहकर्मी ले रहे हैं। जाहिर है उन्हें परीक्षा से पहले कुछ आराम चाहिये, इससे मुझ जैसों पर जिम्मेदारी बढ जायेगी। पहले यह 8 सितम्बर को होनी थी। इसलिये अमृतसर यात्रा रद्द करनी पडी। फिर इसे एक सप्ताह बढाकर 15 को कर दिया गया। इसी वजह से मैंने अपनी मणिमहेश की छुट्टियां 15 के बाद लगाई। अब इसे एक सप्ताह और आगे कर दिया। अब यह 22 को होगी। इसलिये पक्का है कि मुझे 19 से 24 तक की छुट्टी नहीं मिल सकती।
जाने को तो अक्टूबर में भी मणिमहेश जा सकता हूं लेकिन सितम्बर और अक्टूबर में ट्रैकिंग करने में फरक है। मैं अक्टूबर में ऊंचे इलाकों में ट्रैकिंग करने से बचता हूं। लेकिन इस साल कोई भी ट्रैक नहीं किया है सिवाय पुरानी चामुण्डा और बशाल चोटी के मामूली ट्रैक को छोडकर। देखते हैं क्या होगा।

10 सितम्बर 2013, मंगलवार
1. एक फिल्म देखी- जिन्दगी ना मिलेगी दोबारा। अच्छी लगी। भला एक घुमक्कड को घुमक्कडी से युक्त फिल्म क्यों न अच्छी लगे? लेकिन फिल्मवालों के घुमक्कड तीन अत्यधिक रईस लडके हैं। वे स्पेन जाते हैं घूमने। इसे अगर मध्यम वर्ग से सम्बन्धित किया जाता और भारत में ही उन्हें घूमने दिया जाता तो यह और भी ज्यादा अच्छी होती।
2. ‘वायुपुत्रों की शपथ’ पढी। अमीश द्वारा लिखित शिव रचना त्रय की यह तीसरी पुस्तक है। ठीक ही लगी।

13 सितम्बर 2013, शुक्रवार
1. अजन्ता यात्रा वृत्तान्त छाप दिया। उसमें मैंने लिख दिया था कि अच्छा हुआ जो अजन्ता गुफाओं की खोज अंग्रेजों ने की। इस्लामी शासनकाल में होती तो सारी गुफाएं तहस नहस हो जातीं। इस बारे में एक मित्र की मेल आई कि मैं लद्दाख यात्रा के बाद से मुसलमानों की आलोचना करता आ रहा हूं। साथ ही उन्होंने यह भी चेतावनी दी कि जहां आप रहते हो, हो सकता है कि वहां आप पर कोई हमला कर दे। इसलिये ध्यान से लिखा करो।
बात बिल्कुल ठीक है। साइकिल यात्रा में मैंने कई दिन मुसलमानों के बीच बिताये। कुछ कमियां दिखीं, तो मैंने लिख दीं। और मैं पहले से यह काम करता आ रहा हूं। अभी तक हिन्दुओं की कमियां लिखता था। बडी बहसें भी हुई हैं। मेरी आलोचनाएं भी हुई हैं कि मैं भगवान के खिलाफ लिखता हूं। लेकिन जो मुझे महसूस होता है, लिख देता हूं।
मैं कोई धर्मनिरपेक्ष नहीं हूं। मैं एक हिन्दू हूं और मेरा हिन्दुत्व मुझे गैर-हिन्दुओं की आलोचना करने की इजाजत नहीं देता। हिन्दू का अर्थ है हिन्दुस्तानी। यह शब्द अरब व ईरानी लुटेरों ने भारतीय जनमानस को सम्बोधित करने के लिये दिया। बाद में वे अरब स्वयं हिन्दुस्तान में रहने लगे, विवाह भी किये और उनके बच्चे भी हिन्दुस्तानी हो गये। उस समय हिन्दू शब्द कोई धर्म न होकर राष्ट्रीयता हुआ करता था। मैंने अपने कुछ भरोसे के विदेश प्रवासी मित्रों से सुना है कि संसार के दूसरे भागों में एक भारतीय मुसलमान भी हिन्दू ही कहा जाता है क्योंकि वो हिन्दुस्तानी है। हिन्दू अर्थात हिन्दुस्तानी, हिन्द देश का निवासी। मैं भारतीय हूं, मैं हिन्दुस्तानी हूं और इसीलिये मुझे हिन्दू होने पर गर्व है। इसी तरह हिन्दी का मामला है। इस्लामी शासनकाल में राजसी भाषा फारसी थी। तब हिन्द देश की भाषा को हिन्दवी कहा जाता था जिसे आज हिन्दी कहते हैं। उर्दू हिन्दवी और फारसी के संयोग से बनी।
अजन्ता वाले लेख में मैंने इतना ही कहा है कि अगर अंग्रेजों की बजाय इस्लामी शासनकाल में इन गुफाओं की खोज होती तो इन्हें मटियामेट कर दिया होता। इतिहास गवाह है। हर पुरातात्विक स्थल पर इस्लामी तलवार चली है।
दूसरी बात कि कल ही मैंने अखबार में पढा कि देवबन्द ने एक फतवा निकाला है कि फोटो खींचना, खिंचवाना और देखना गैर-इस्लामी है। मेरे ब्लॉग में बहुत सारे फोटो होते हैं। छोडो, स्वयं कम्प्यूटर क्या है? यह भी एक फोटो एलबम है जो अति शीघ्रता से हमें फोटो ही दिखाता है। आप कम्प्यूटर की स्क्रीन पर नजर जमाये वास्तव में फोटो ही देख रहे हो इस समय। तो इस मायने में कम्प्यूटर चलाना भी गैर-इस्लामी हो गया। जाहिर है यह ब्लॉग पढना भी गैर-इस्लामी है। उस फतवे के बाद कोई सच्चा मुसलमान इस ब्लॉग को नहीं पढता होगा, ऐसी कामना है। अगर पढ रहा है तो सच्चा नहीं है। अब अगर इस मसले पर मैं अपने दो-चार विचार लिख दूं, इस फतवे की आलोचना कर दूं, तो मुझे मुस्लिम विरोधी समझा जाने लगेगा। जाहिर है कि यह फतवा आलोचना योग्य ही है।
मित्र साहब, आप सही कहते हैं। कोशिश करूंगा बल्कि प्रतिज्ञा करता हूं कि आज के बाद बल्कि अभी के बाद इस्लाम के बारे में कुछ भी नहीं लिखूंगा। कुछ भी नहीं।
2. दैनिक जागरण से फोन आया कि भाई, यात्रा वृत्तान्त भेज रहा है या नहीं। मैंने कह दिया कि लेख तैयार है, सुबह तक भेज दूंगा। वे खुश हो गये। हालांकि लेख तैयार नहीं था। आज तैयार करूंगा, कल भेज दूंगा।
3. आज फिर अमित का परिवार आ गया। साथ में साली भी। उसकी साली काफी सुन्दर है। मैं लगा हूं उस पर डोरे डालने में। लेकिन वो ठहरी अमेरिकन अंग्रेजी बोलने वाली और इधर ठहरे ठेठ देसी। वह लैपटॉप से भी महंगे फोन पर पूरे दिन फ्रेण्ड्स से व्हाट्स-एप पर चैट करने वाली और यहां हैं खटारे से धूल से सने लैपटॉप पर खटर पटर करने वाले। बात बन नहीं रही।
जब मैंने कहा कि 29 तारीख का दैनिक जागरण पढना, हमारा महा-लेख छपा मिलेगा। बोली कि मतलब? मैंने कहा मैंने भेजा है एक लेख वहां छपने के लिये। उसने मुंह बिचकाकर कहा कि अगर उन्होंने सलेक्ट ही नहीं किया तो? मैंने कहा अरे बावली, वे खुद मेरे पीछे पडे हैं कि सर, सर, एक लेख भेज दो। तुम सलेक्ट की बात कर रही हो, पक्का छपेगा।
यह बात उसके लिये अतिशयोक्तिपूर्ण हो गई। उसने सोचा कि फेंक रहा है। इस बारे में कुछ और कहता, उसने मुंह फेर लिया।

14 सितम्बर 2013, शनिवार
“शाकाहारी सन्दीप पंवार साहब जी जिन्हें उनके दोस्त यार प्यार से ‘जाट देवता’ कहते हैं, उस जाट देवता के दैविक बल की और एक मांसाहारी नीरज के पाशविक-आसुरिक बल की कोई तुलना ही नहीं हो सकती। सन्दीप पंवार साहब जी ‘जाट देवता’ भोले हैं, उन्हें अण्डे के बल का क्या ज्ञान? यही इस साइकिल यात्रा का मूल तकनीकी पहलू है। सन्दीप पंवार साहब जी ‘जाट देवता’ की बराबरी के लिये आपको सौ जन्म और लेने होंगे।”
इन साहब का कहना है कि अण्डे खा-खाकर यात्रा करना आसान है। सन्दीप साहब बिना अण्डे खाये इससे भी कठिन यात्राएं करते हैं, इसलिये वे ज्यादा महान हैं। हद हो गई भई, हद हो गई। ये ही वे लोग हैं जो हम जैसों को तमाशेबाज मानते हैं। नीरज अण्डे खाकर तमाशा दिखाता है, सन्दीप बिना अण्डे खाये नीरज से अच्छा तमाशा दिखा रहा है। इसलिये सन्दीप बेहतर तमाशेबाज हुआ। इन लोगों को न किसी यात्रा से मतलब, न किसी वृत्तान्त से मतलब, न किसी यात्री व घुमक्कड से, न सन्दीप से, न नीरज से। इन्हें बस तमाशे से मतलब है। स्टंट देखना चाहते हैं बस। धिक्कार है।
हम तो इन्हें तमाशा दिखाने के लिये ही बने हैं। कभी कभी ऐसी बातें विचलित कर देती हैं।
2. दैनिक जागरण को एक लेख भेज दिया- मनाली से लेह साइकिल यात्रा। न चाहते हुए भी लेख काफी लम्बा हो गया। कोशिश थी कि 2000 शब्दों तक ही लिखूंगा लेकिन अत्यधिक कंजूसी से लिखते हुए भी यह 3000 से ऊपर हो गया। 33 फोटो भेजे, जो उनका मन करेगा छाप देंगे।

डायरी के पन्ने-12 | डायरी के पन्ने-14




Comments

  1. 16 taarikh to huye hi nhi.. :) waise achcha kiya jo sunday ko publish kar diya..

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  2. अन्नपूर्णा ट्रेक बढ़िया रहेगा

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  3. आप लगे रहें, हम पढ़ते रहेंगे।

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  4. भाई साली साहिबा के थोड़े नखरे तो उठाने ही होंगे....

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  5. Muslaman vali bat aapse hogi vo muje malum thi or aapse kisne bat ki uska nam bhi me aapko bata shkta hu . Amit sir ki sali ki bate rochak lagti he . Lage raho NEERAJBABA .

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  6. जो इतिहास को झुठलाने की कोशिश कर रहे हैं इनकी तुलना उस शुतुरमुर्ग से की जा सकती है जो गड्ढे में अपनी गर्दन छुपा लेते हैं। यह एक क्रूर सच्चाई है की इस्लामी आक्रमणकारियों ने अन्य धर्मों की धार्मिक इमारतों को नष्ट किया। आपने तो एक ऐतिहासिक सचाई का उल्लेख भर किया है, इसमें गलत क्या है?
    - Anilkv

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  7. aaj mausam bada beiman hai bada aaj mausam.........................

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46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब