[डायरी के पन्ने हर महीने की पहली व सोलह तारीख को छपते हैं।]
18 अगस्त 2013, रविवार
1. पिछले दो तीन दिनों से अमित का परिवार आया हुआ है। साथ में दो सालियां भी हैं। जमकर मन लग रहा था कि आज उनके जाने का फरमान आ गया। हर एक से पूछा कि अगली बार कब आओगी, किसी ने ढंग का उत्तर नहीं दिया। साढे दस वाली ट्रेन से वे चले गये।
2. अमन साहब का फोन आया कि वे दिल्ली आ चुके हैं और कल हमारे यहां आयेंगे। अमन बोकारो के रहने वाले हैं और हमारी फोन पर हर दूसरे तीसरे दिन हालचाल पूछने के बहाने बातचीत होती रहती है। आज मेरी नाइट ड्यूटी है, तो कल पूरे दिन खाली रहूंगा। कह दिया कि पूरे दिन किसी भी समय आ धमको।
19 अगस्त 2013, सोमवार
1. ड्यूटी से आया तो ऐसी भयानक नींद आ रही थी कि बिना कुछ खाये पीये ही सो गया। दोपहर जब उठा तो अमन साहब की मिस्ड कॉल देखकर याद आया कि वे तो आने वाले थे। उन्होंने अवश्य आने के लिये ही फोन किया होगा, मेरे न उठाने पर दोबारा नहीं किया। कहीं उनकी आज की ट्रेन न हो। तुरन्त फोन किया। वे कनॉट प्लेस में घूम रहे थे अपने मेजबान मित्र के साथ। चार बजे तक हमारे यहां आने की बात उन्होंने की।
सवा तीन बजे ही आ गये। उनका दुर्भाग्य था कि उस समय दोनों लिफ्ट खराब थीं, इसलिये छठीं मंजिल तक सीढियों से आना पडा। जब उन्होंने हमारे यहां प्रवेश किया तो वे मौसम ठण्डा होने के बावजूद पसीने पसीने हो रहे थे। बहुत सारी बातें हुईं। पांच बजे वे चले गये।
2. ‘मेलूहा के मृत्युंजय’ पढी। यह तीन पुस्तकों की श्रंखला है। पूरा निष्कर्ष तो तीनों को पढने के बाद ही निकलेगा। फिर भी अमीश ने एक नये विषय पर लिखकर ठीक ही किया है। पुस्तक की शुरूआत तिब्बत के उज्जड प्रदेश में एक छोटे से कबीले के नेता शिव से होती है और जब पुस्तक पूरी हुई तब तक वो शिव महादेव बन चुका था।
एक कमी खली। पुस्तक मूल रूप से अंग्रेजी में है। पौराणिक कथाओं के पात्रों और भारतीय परम्परा का प्रयोग करके अंग्रेजी में उसने कैसे लिखा होगा? यह हिन्दी में होनी चाहिये थी। ‘स्वाहा’ और ‘हर हर महादेव’ जैसे ठेठ भारतीय शब्दों को अंग्रेजी में उसने क्या लिखा होगा? और अंग्रेजी पाठक क्या ऐसे शब्द कभी समझ सकेंगे? कभी नहीं। अनुवाद उच्च कोटि का है। इसलिये मैं लेखक के मुकाबले अनुवादक की ज्यादा सराहना करूंगा। एक भी वाक्य ऐसा नहीं है जिससे लगे कि यह अनुवादित है। कई बार हिन्दी और संस्कृत के कठिन शब्दों का भी प्रयोग किया है।
20 अगस्त 2013, मंगलवार
1. आज रक्षाबन्धन है। अपनी कोई बहन तो है नहीं कि गांव जाने की जल्दी मचाता, फिर भी बचपन से बुआ ही राखी बांधती आ रही हैं। हर साल मैं भी कोशिश करता था कि रक्षाबन्धन के दिन गांव में रहूं, लेकिन इस बार कोशिश नहीं की। इसके कई कारण रहे। एक तो मां की चिर अनुपस्थिति की वजह से घर का माहौल आज बोझिल रहता। फिर बुआ आती तो ताईयों के साथ मिलकर मुझ पर शादी का दबाव डालती। बेवजह की बात होती। अगले सप्ताह जन्माष्टमी पर जाऊंगा।
22 अगस्त 2013, गुरूवार
1. पता नहीं क्यों मन में बडी अशान्ति है। उथल पुथल सी हो रही है। चाहता हूं कि किसी से न बोलूं और कोई मुझसे भी न बोले। बस चुपचाप अपने नित्य काम करता रहूं। सितम्बर घुमक्कडी के लिये सर्वोत्तम महीना होता है। इस महीने में मैं हिमालय की ऊंचाईयों पर ट्रेकिंग करना पसन्द करता हूं। लेकिन अब मन नहीं है ट्रेकिंग का भी। सोच रहा हूं कि क्यों करूं ट्रेकिंग? सिक्किम जाने का विचार आ रहा था कुछ दिनों पहले। अब सोच रहा हूं भाड में जाये सिक्किम। पता नहीं यह नकारात्मकता क्यों है?
25 अगस्त 2013, रविवार
1. बडी सडी गर्मी पड रही है। भयंकर उमस है और बारिश भी नहीं हो रही। रातभर ड्यूटी की थी तो सिर के ऊपर चल रहे पंखे से हवा भी नहीं आ रही थी और पसीने से कपडे लगातार भीगते जा रहे थे। फिर पानी पर पानी और पसीने पर पसीना। शायद आज दिन में बारिश हो जाये।
1. इस बुधवार को तो गांव जाऊंगा लेकिन अगले बुधवार को कहीं और जाऊंगा। सोचा कि एक दिन की छुट्टी लेकर दो दिनों का कोई ट्रेन टूर बनाया जाये। पंजाब ठीक रहेगा। इसमें एक दिन ट्रेन टूर और दूसरा दिन अमृतसर भ्रमण। कई रूटों पर पैसेंजर ट्रेनों से घूमना भी हो जायेगा। पैसेंजर ट्रेनों में लुधियाना- लोहियां खास, नकोदर- जालन्धर सिटी- होशियारपुर, जालन्धर सिटी- पठानकोट- अमृतसर, अमृतसर- डेरा बाबा नानक और अमृतसर- अटारी रूट कवर कर लूंगा। दिल्ली से लुधियाना और अमृतसर से दिल्ली का आने जाने का आरक्षण भी करा लिया।
इस बारे में अजीत सिंह को सूचित कर दिया। वे वहीं पंजाब में सुल्तानपुर लोधी में रहते हैं। बडी तारीफ करते हैं मेरी अपने ब्लॉग पर। उनकी लेखन शैली का मैं भक्त हूं। सूचित करना आवश्यक था। उन्होंने सुझाव दिया कि लुधियाना- नकोदर- लोहियां- सुल्तानपुर सर्किट ट्रेन से नहीं बल्कि बाइक से तय करेंगे और कुछ ऐतिहासिक स्थलों का भ्रमण कराऊंगा। मैंने तुरन्त मान लिया। 3 सितम्बर को दिल्ली से निकलूंगा और 6 सितम्बर की सुबह सुबह दिल्ली लौट आऊंगा।
2. आज पुस्तक मेले में जाना था लेकिन नहीं जा पाया। एक तो नाइट ड्यूटी करके आया, आते ही सो गया, फिर किसकी हिम्मत कि उठा दे। फिर आज रविवार भी था। भीड होगी। सोचा कि कल जाऊंगा।
3. पता चला कि पिताजी शिरडी जाना चाहते हैं। गांव के कुछ लोग तीर्थयात्रा करने जा रहे हैं। पिताजी उनके साथ जाना चाहते हैं। मैंने कहा कि दिल्ली से सीधे शिरडी के लिये कोई ट्रेन नहीं है। फिर भी वे किस ट्रेन से जायेंगे, किससे आयेंगे मुझे बता देना, आरक्षण करा दूंगा। वहां से शाम तक जवाब आया। जवाब सुनकर मैं आश्चर्यचकित रह गया। वे पंजाब मेल पकडेंगे और नासिक जायेंगे। फिर कुछ दिन बाद वापसी के लिये बान्द्रा-देहरादून एक्सप्रेस से मेरठ लौट आयेंगे। हैरत इस बात की है कि उनका केन्द्र शिरडी है और इन ट्रेनों को देखें तो शिरडी केन्द्र पर तो क्या, परिधि पर भी नहीं ठहरता। परसों गांव जाऊंगा तो पूछूंगा कि नासिक से शिरडी और शिरडी से मुम्बई कैसे जाओगे? किसी अति बुद्धिमान जीव ने यह कार्यक्रम बनाया है। अगर मैं होता तो गोवा एक्सप्रेस से कोपरगांव व शिरडी जाता, वहां से नासिक और फिर मुम्बई।
26 अगस्त 2013, सोमवार
1. ‘चेन्नई एक्सप्रेस’ फिल्म देखी। बकवास। और क्या शाहरूख हमेशा ऐसा ही घटिया अभिनय करता है? कैसा भी माहौल हो, पूरी फिल्म में जोकरगिरी करता दिखा। हीहीही हीहीही। दीपिका का अभिनय अच्छा लगा। मुझे प्रभावित किया उसकी तमिल स्टाइल की हिन्दी ने। कोई गलती नहीं। एक काम तो ठीक किया फिल्म वालों ने कि मुम्बई से चेन्नई जाने के लिये दिल्ली की ट्रेन ना दिखाई। ये लोग ऐसा ही करते हैं। जिस रूट से यह ट्रेन जाती है (ट्रेन नम्बर एक दृश्य में दिखता है), वह पूरा रूट विद्युतीकृत और दोहरा है। जब इसमें डीजल इंजन लगा देखा, तभी समझ गया कि कुछ उल्टा-पुल्टा देखने को मिलेगा। जहां टीसी को ट्रेन से फेंका, वो कोंकण रेलवे का एक पुल है। यह ट्रेन कोंकण रूट से नहीं गुजरती। कुछ देर बाद ट्रेन में जब डबल इंजन लगे दिखने लगे, तो वो उल्टा-पुल्टा सामने आ गया। गोवा? कितना झूठ दिखाते हैं ये लोग? अच्छे खासे दूधसागर को इस फिल्म में दिखाकर कलंकित कर दिया। फिल्मों में सच दिखाया जाना चाहिये। अगर कहानी सच्ची ना हो, तो कम से कम बैकग्राउण्ड तो सच्ची होनी चाहिये। आज तुम मुम्बई-चेन्नई के ट्रेन रूट पर दूधसागर दिखा रहे हो, कल दिल्ली और कोलकाता भी दिखाओगे।
और हां, शाहरुख व दीपिका शयनयान में बैठे थे। जब टीसी ने टिकट चेक किया तो शाहरुख ने जेब से जो टिकट दिखाया, वो जनरल टिकट था। मुझे लगा कि अब टीसी पेनल्टी लगायेगा, लेकिन कोई पेनल्टी-वेनल्टी नहीं लगाई, बल्कि कुछ बेटिकट बैठे यात्रियों को वो जनरल टिकट दिखाकर उदाहरण देने लगा कि देखो, ये होते हैं टिकट। इस रेलवे विरोधक और समाज विरोधक दृश्य के लिये फिल्म वालों को दण्डित किया जाना चाहिये। यह दृश्य रेलवे विरोधक है और किसी को भी इससे प्रेरणा लेकर साधारण टिकट लेकर शयनयान में यात्रा नहीं करनी चाहिये।
27 अगस्त 2013, मंगलवार
1. आज गांव जाना है। कल अवकाश है, हालांकि जन्माष्टमी भी है। परसों प्रातःकालीन ड्यूटी है। लेकिन उधर प्रगति मैदान में पुस्तक मेला भी लगा है। वैसे तो अभी भी कई पुस्तकें मेरे पास ऐसी हैं, जो नहीं पढी गई हैं, लेकिन फिर भी चला गया। तीन पुस्तकें खरीदीं। एक तो जिप्सियों के बारे में थी। पढूंगा तब पता चलेगा। दो किताबें अमीश की ले लीं- नागाओं का रहस्य और वायुपुत्रों की शपथ।
2. शाम साढे छह बजे मेरठ के लिये निकल पडा। इस समय शाहदरा से कोई ट्रेन नहीं है, तो बस से जाना था। हमेशा की तरह मोहननगर तक मेट्रो व ऑटो से गया। आगे के लिये देहरादून जाने वाली बस पकड ली। देहरादून वाले अक्सर बाइपास से जाते हैं, हमारा गांव बाइपास के पास ही है। ज्यादातर बार ऐसा हुआ है कि कण्डक्टर मेरठ के यात्रियों को बैठाना पसन्द नहीं करते, देहरादून के मुकाबले मेरठ लोकल में आता है। तो कभी कभी वे यात्रियों से उलझ पडते हैं कि मेरठ नहीं जायेंगे तो वहां का टिकट भी नहीं देंगे। फिर या तो दौराला का टिकट देते हैं या खतौली का। मैं ‘युद्ध’ के लिये तैयार बैठा था। लेकिन कण्डक्टर बेहद शरीफ था। ‘युद्ध’ नहीं हुआ।
28 अगस्त 2013, बुधवार
1. आज जन्माष्टमी है। उपवास की परम्परा है। जब तक बच्चे थे, तो हम भी कर लेते थे उपवास। आज कई सालों बाद जन्माष्टमी पर घर आया, लेकिन उपवास नहीं किया। मेरे विचारों को घरवाले जानते हैं, उपवास के लिये कोई जोर जबरदस्ती नहीं की। लेकिन अब सोच रहा हूं कि अगर उपवास कर लेता तो ठीक ही रहता। हर कोई उपवासी था, मुझे रोटी तक नहीं मिली। वही सब खाना पडा, जो वे सब खा रहे थे- मीठा ही मीठा और दूध, फल। हां, दो समोसे भी मंगा लिये थे। उन समोसों की वजह से मैं उपवासी नहीं रहा।
देखा जाये तो मिठाई के एक टुकडे में एक रोटी से बहुत ज्यादा ऊर्जा होती है। व्रत में मिठाई खाद्य है लेकिन रोटी नहीं खाई जा सकती। है ना अजीब बात! मिठाई पर मिठाई खाये जाते हैं पूरे दिन, भूख बिल्कुल भी महसूस नहीं होती। होगी भी कैसे? पाव भर मिठाई भी परमाणु बम के बराबर होती है- ऊर्जा का अथाह भण्डार। व्रत और उपवास का औचित्य ही खत्म।
व्रत व उपवास वैज्ञानिक रूप से बिल्कुल ठीक हैं लेकिन इन्हें किसी जन्माष्टमी पर ही करना अन्धविश्वास है। व्रत एक उपचार है जो रोगी शरीर में तो काम करता ही है, नीरोगी शरीर के लिये भी ठीक रहता है। इसे नियमित अन्तराल पर करते रहना चाहिये। इसीलिये अक्सर व्रत भारतीय कैलेण्डर के अनुसार किये जाते हैं जैसे कि पूर्णिमा को, अमावस्या को, अष्टमी को आदि। सोमवार, मंगल को भी किये जाते हैं। व्रत का अर्थ भूखा मरना भी नहीं होता। चूंकि यह एक उपचार है, इसलिये इसकी सही विधि किसी का ज्ञान होना चाहिये। इसके साथ यदि योग भी हो जाये तो सर्वोत्तम।
जन्माष्टमी के व्रत में एक बात और भी देखी जाती है। दही वर्जित होती है। किसी अन्य व्रत में दही खाई जा सकती है, लेकिन इस व्रत में नहीं। इसका कारण समझ नहीं आता। जबकि इस व्रत में दही अनिवार्य होनी चाहिये। आखिर वो भी तो गांव भर की मटकियां फोडता फिरता था सिर्फ दही के लिये।
2. कल सुबह छह बजे से ड्यूटी है। इसके लिये आज ही दिल्ली लौटना पडेगा। लेकिन मन नहीं है आज ही लौटने का। शाम की ड्यूटी करूंगा या फिर छुट्टी लूंगा। खान साहब से बात की तो आसानी से ड्यूटी बदल गई। अब कल दोपहर बाद दो बजे से ड्यूटी करूंगा और यहां से ग्यारह बजे निकल पडूंगा।
29 अगस्त 2013, गुरूवार
1. सितम्बर का महीना घुमक्कडी के लिये सर्वोत्तम होता है। हिमालय की ऊंचाईयों पर जाने के लिये भी यह सर्वोत्तम है। एक तो मानसून खत्म हो चुका होता है, फिर मौसम में शीतलता भी रहती है और चारों तरफ अथाह हरियाली का साम्राज्य रहता है। सितम्बर के लिये मैंने कई महीनों पहले ही सोच रखा था कि एक लम्बी ट्रेकिंग करूंगा। लेकिन अगस्त खत्म होते होते अपने इस सितम्बर प्रेम से किनारा करना पडेगा। इसका मुख्य कारण है आर्थिक। इस समय आर्थिक अवस्था बेहद पतली है। खाते में मात्र 120 रुपये बचे हैं और मन कर रहा है कि उन्हें भी निकाल लूं। हालांकि एक दो दिन में सैलरी आ जायेगी, खाता रुपयों से भर जायेगा। लेकिन खर्चे तैयार बैठे हैं। आते ही सैलरी गायब होने वाली है।
दूसरा कारण है मानसिक। इस समय कुछ भी करने का मन नहीं है। ना लिखने का, ना पढने का, ना कहीं जाने का, ना किसी से बोलने का; बस जी चाहता है कि सोता रहूं या फिर शान्त, बिल्कुल शान्त होकर बैठा रहूं। ऊर्जाहीनता महसूस कर रहा हूं। तीन सितम्बर से होने वाली अमृतसर यात्रा भी रद्द करने का विचार हो रहा है। लेकिन इस यात्रा में मुझे अजीत सिंह साहब से मिलना है, उनसे मिलकर कुछ ऊर्जा मिलेगी।
2. ग्यारह बजे गांव से चल पडा। दो बजे तक दिल्ली आ गया और सीधे ऑफिस। देखा यहां लड्डू इंतजार कर रहे हैं। राजकुमार की पदोन्नति हुई है। राजकुमार उन लोगों में से है जो दूसरों से छीन-झपट कर खा जाने में माहिर है लेकिन कभी अपने हाथ से कुछ नहीं खिला सकता। इस बार भी ऑफिस में जितने कर्मचारी हैं, उतने ही लड्डू लाया है। सभी को एक एक लड्डू देकर एक कागज पर लिख देता है कि इसे मिल गया। मैं पहुंचा तो डिब्बा मेरे सामने भी आया। कोई और होता तो मैं एक ही लड्डू उठाता लेकिन देखा कि राजकुमार है तो दो उठाये। वो उलझ पडा कि नहीं, सभी के लिये एक एक ही हैं। मैंने कहा मुझे इससे क्या। लेकिन उसके पास समाधान था इसका। कागज में एक दूसरे कर्मचारी के नाम के सामने लिख दिया कि इसे नहीं मिलेगा, इसके नाम का नीरज खा गया।
असली चमत्कार शाम हो हुआ। उसकी आज नाइट ड्यूटी भी है तो उसे बाहर से खाना मंगाना पडेगा। अक्सर रोजाना किसी ना किसी की डबल ड्यूटी होती रहती है तो लगभग रोज ही बाहर से कोई ना कोई मंगाता ही रहता है। अगर सायंकालीन ड्यूटी में मैं भी हूं तो स्वतः ही दो तीन रोटियां मेरे लिये भी आ जाती हैं अन्यथा उन्हें भूखा मरना पडेगा। आज चमत्कार यह हुआ कि राजकुमार ने मुझसे पूछा कि सब्जी क्या खाओगे। मैंने झट से कहा कढाई पनीर। थोडी ना नुकुर के बाद वो मान गया। कढाई पनीर आ गया। इस बात की अगले कई दिनों तक चर्चा चलती रहेगी कि राजकुमार ने कढाई पनीर मंगाया था। जो प्रत्यक्षदर्शी नहीं थे, वे कभी यकीन नहीं करेंगे कि ऐसा भी हो सकता है।
30 अगस्त 2013, शुक्रवार
1. श्याम गुप्ता की एक टिप्पणी आई- लद्दाख साइकिल यात्रा के अठारहवें दिन की पोस्ट पर- क्या काम धाम छोडकर व्यर्थ घूमने से... अपने देश में लूट, भ्रष्टाचार, बलात्कार कम हो सकते हैं क्या?
जो मुझे रत्ती भर भी जानते हैं वे समझ गये होंगे कि यह टिप्पणी- व्यर्थ घूमना- मेरे लिये बहुत बडी गाली है। एक कहावत है अंग्रेजी की कि हाथी चलता है तो कुत्ते भौंकते हैं। इसी के आधार पर जाओ श्याम गुप्ता, आपको माफी दे देते हैं।
2. मन में बडे नकारात्मक विचार आ रहे हैं। खैर, लद्दाख साइकिल यात्रा में मुझे खूब प्रशंसाएं मिलीं, आलोचनाएं भी मिलीं और शिकायतें भी मिलीं। अब मेरी बारी है पाठकों की शिकायत करने की, उनकी आलोचना करने की।
लद्दाख लेखमाला समाप्त करने के बाद मैं स्वयं को एक तमाशेबाज महसूस कर रहा हूं। लोगों का तमाशा देखने का मन करता है तो यहां चले आते हैं। चार फोटो कम हुए तो शिकायत, चार लाइनें कम हुईं तो शिकायत। शिकायतें बहुत मिलीं। आलोचना और शिकायत में जमीन-आसमान का फरक है। आलोचना हो तो ठीक है, भविष्य में सुधार हो जाता है, शिकायतों का कोई सुधार नहीं हो सकता। तंगलंगला वाली पोस्ट में मैंने स्पष्ट लिखा था कि बर्फीला तूफान चल रहा था, मोटे मोटे दस्तानों के बावजूद भी उंगलियां सुन्न थीं, ऐसे में कैमरा निकालकर फोटो नहीं खींचा जा सकता था। फिर भी शिकायत मिली कि फोटो कम हैं। इससे भी भद्दी शिकायत थी कि अगर बर्फ पड रही थी तो बर्फ के ही फोटो खींच लेने चाहिये थे। हद हो गई। सर्दियों में हीटर के पास बैठने वाले कभी नहीं जान सकेंगे कि बर्फीला तूफान क्या होता है। वो शिकायत भी ऐसे इंसान ने की जो बहुत घूमता रहता है, मुझे लगभग शुरूआत से जानता है। मैं बहुत इज्जत करता हूं उनकी। इस बेहूदी टिप्पणी ने तोडकर रख दिया।
शम्शा में मैं बच्चों को पैसे नहीं दे सका। इस पर भी खूब बवाल मचा। यहां तक कि यह भी कहा गया- ‘पैसे अपने साथ नर्क में ले जाइयो। शर्म क्या मेरठ में दफना दी है?’ इसके अलावा श्याम गुप्ता की टिप्पणी ऊपर लिख ही चुका हूं।
उमेश जोशी की भी टिप्पणी गौर करने वाली है। मैं पिछले साल भारत परिक्रमा के दौरान उनके घर पर जामनगर में दो घण्टों के लिये रुका था। खाना भी खाया जो बडा स्वादिष्ट था। बीमार होने के बावजूद भी चार रोटियां खा गया जो मेरे लिये बहुत ज्यादा थीं। आखिर कभी ना कभी और खाना लेने से मना तो करना ही था। मैंने मना कर दिया। फिर उनकी माताजी ने एक रोटी और रख दी। मैंने मना किया तो उसे उठाकर आधा करके रख दिया। मैं नहीं खा सकता था क्योंकि पूरी तरह पेट भर गया था खाते खाते। मैंने उस आधी रोटी को भी मना कर दिया। बस, उमेश साहब ने टिप्पणी में लिखा कि एक मुसलमान के घर जाकर मांसाहार करने को तैयार हो गये और हमारे यहां आधी रोटी खाने से मना कर दिया।
मैं वैसे तो संवेदनहीन व्यक्ति हूं, फिर भी ऐसी टिप्पणियां तोडकर रख देती हैं।
लगभग पांच सालों से लगातार लिख रहा हूं, पांच सौ लेख होने वाले हैं। यह कोई छोटी मोटी चीज नहीं है। शुरू शुरू में जब लिखना शुरू किया था तो चाहता था कि मेरी प्रशंसा हो। फूला नहीं समाता था वाहवाही मिलने पर। वक्त के साथ साथ मैच्योरिटी आती गई। अब वाहवाही उतनी आकर्षक नहीं लगती। अब कोई वाहवाह करता है तो महसूस होता है कि इसने तमाशा देख लिया, अच्छा लगा होगा, इसलिये वाहवाह कर रहा है। कोई आलोचना करता है तो भी यही महसूस होता है कि अच्छा नहीं लगा तमाशा। कोई सुझाव देता है तो मुझे सुनाई देता है कि तमाशे में ये कमियां हैं, इन्हें दूर कर। मैं खुद को तमाशेबाज के तौर पर देख रहा हूं। एक दिन तमाशा न हो तो शिकायत, विलम्ब हो जाये तो शिकायत। मैं अपने हर तमाशे में पूरी जी-जान झोंक देता हूं, कोशिश करता हूं कि यह टाइम पर ही हो। तमाशा पर्याप्त लम्बा भी हो, फोटो भी चालीस पचास हों, फिर भी शिकायत आ ही जाती हैं।
सही बताऊं तो तमाशा दिखाते दिखाते उकता गया हूं। अब ऊब होने लगी है। विचार कर रहा हूं कि तमाशा बन्द कर दिया जाये। जिन्दगी में बहुत काम हैं करने को। कब तक तमाशा दिखाता रहूंगा?
31 अगस्त 2013, शनिवार
1. दैनिक जागरण से एक फोन आया। उन्होंने पहले तो लद्दाख यात्रा की तारीफ की, बाद में कहने लगे कि इस यात्रा को हमारे यहां भेजो, हम छापेंगे इसे। मैं तो ऐसे मौकों के इन्तजार में रहता ही हूं कि कोई फोन करके लेख मंगाये। तुरन्त हामी भर ली। इस यात्रा को दो भागों में छापना तय हुआ है- मनाली से लेह और लेह से श्रीनगर।
2. ‘नागाओं का रहस्य’ पढी। पहले भाग ‘मेलूहा के मृत्युंजय’ के मुकाबले यह ज्यादा रोचक है। शिव पहले भाग में ही महादेव बन चुके थे। अब उन्हें आगे बढते देखना रुचिकर है। साथ ही लेखक ने वर्तमान भौगोलिक परिदृश्यों व स्थानों का जिस सटीकता से उपयोग किया है, वह भी काबिल-ए-तारीफ है।
3. एक फोन आया। नया नम्बर था, नाम न तो उन्होंने बताया, न मैंने पूछा। उन्होंने बताया कि नवभारत टाइम्स के ऑनलाइन ब्लॉग पेज पर किसी राजेश कालरा की लद्दाख साइकिल यात्रा प्रकाशित हुई है जो उन्होंने कुछ साल पहले की थी। साथ ही उन्होंने यह भी कहा- ‘कालरा एक ग्रुप में गया था पूरे सुरक्षा के साथ एक सपोर्टिंग गाडी लेकर। फिर भी तुम्हारी यात्रा के आगे उसकी यात्रा कहीं नहीं ठहरती। तुम अकेले गये बिना किसी सपोर्ट के। उसने रास्ते की भयावहता को जितना बढा-चढाकर लिखा है, तुम्हारे लेख पढने से वह उतना भयावह नहीं लगता। तुम भी नवभारत टाइम्स में एक ब्लॉग बनाओ और अपनी यात्रा को वहां भी प्रकाशित करो। साथ ही दैनिक जागरण में भी ब्लॉग बनाकर लिखो। आपकी यात्राएं भी वहां प्रकाशित होनी चाहिये।’
मैं ऐसा नहीं सोचता। मैं अपने इस छोटे से ब्लॉग से ही जितना खुश हो सकता हूं, हूं। मैंने आपसे कह तो दिया कि लिखूंगा वहां भी लेकिन अगर मना करता तो उसके लिये तर्क देने पडते, जिसके लिये मैं तैयार नहीं था। असल बात है कि किसी नवभारत टाइम्स या दैनिक जागरण के ब्लॉग पर मैं नहीं लिखने वाला।
3. आज का दिन आत्ममंथन का दिन रहा। पिछले कई दिनों से नकारात्मक सोच और ऊर्जाहीनता से ग्रसित हूं। इसलिये इस बात पर विचार करना आवश्यक था कि आखिर ऐसी क्या बात हो गई जो ऐसा हो रहा है। इसके कई कारण सामने आये। सबसे मुख्य कारण है कि पिछले कुछ दिनों से मैं अपने मन की नहीं कर पा रहा हूं। यह देखने में बडा अजीब सा लग रहा है। सारे काम अपने मन से ही हो रहे हैं। घुमक्कडी भी अपने मन से हो रही है। फिर ऐसा क्यों?
लद्दाख साइकिल यात्रा के अभी तक 23 भाग छप चुके हैं। जुलाई के मध्य में इसका प्रकाशन आरम्भ हुआ था, जो अभी तक यानी सितम्बर के आरम्भ तक अनवरत रूप से चल रहा है हर दो-दो दिनों के अन्तराल पर। हर लेख पर्याप्त लम्बा होता है और फोटो भी पर्याप्त होते हैं। लेख लिखने और फोटो में काटछांट करने में बहुत समय लगता है। शुरूआत में तो सोचा था कि सारे लेख लिखकर और फोटो में आवश्यक काटछांट करके ही प्रकाशन आरम्भ करूंगा। लेकिन कुछ तो मित्रों ने दबाव बनाया और कुछ मुझे भी जल्दी थी इसे प्रकाशित करने की। काम पूरा हुआ नहीं कि प्रकाशन आरम्भ हो गया। अब मैंने स्वतः ही अपने ऊपर यह दबाव ओढ लिया कि हर दो-दो दिनों में इन्हें प्रकाशित करना ही है। एक लेख लिखने से लेकर फाइनल टच देने में चार पांच घण्टे लग जाते हैं। कुछ मेरा धीमा नेट कनेक्शन इस काम को और भी लम्बा कर देता है। फिर रोजाना डायरी के पन्ने भी। रही सही कसर गोवा व कर्नाटक यात्रा ने पूरी कर दी। वहां लैपटॉप लेकर गया था लेकिन कभी भी इसका प्रयोग नहीं कर सका। दस दिन बिना एक भी शब्द लिखे समाप्त हो गये। वहां जाने से पहले जो भण्डार था, वो सब खत्म हो गया। वहां से लौटने के बाद सारा कामधाम छोडकर युद्धस्तर पर लद्दाख यात्रा को लिखना और प्रकाशित करना शुरू कर दिया। यही टर्निंग पॉइण्ट था। यहीं से मस्तिष्क ने विद्रोह कर दिया। किसके लिये? जाहिर है स्वयं के लिये तो नहीं।
मैं एक अन्तर्मुखी व्यक्तित्व का इंसान हूं। मेरी प्रकृति केवल स्वयं के लिये जीने की है। स्वयं मनमौजी। जब मस्तिष्क से ऐसे सन्देश आने लगे तो निराशा होनी ही थी। वही हुआ।
इसका समाधान भी निकाला है। कुछ दिन इण्टरनेट से दूर रहना है। ताजगी और ऊर्जा प्राप्त करके पुनः घुमक्कडी जिन्दाबाद कर देनी है। लद्दाख यात्रा का एक भाग अभी भी बचा है। एक विशेष भाग निकालने की इच्छा है। इन्हें भी कुछ समय के लिये स्थगित कर दिया है।
टिप्पणियां और सम्पर्क बडे बेकार की चीज है। अपना सम्पर्क सूत्र कभी इसलिये दिया था ताकि किसी जरुरतमन्द की सहायता हो सके किसी यात्रा के दौरान। लेकिन लोग मुझे सेलीब्रेटी समझने लगे हैं। वे फोन करते हैं, नमस्ते करते हैं और अहोभाग्य हमारे, अहोभाग्य हमारे, इस तरह की बातें करते हैं। इससे बेवजह की काल्पनिक जिम्मेदारियां सिर पर आ बैठती हैं। पोस्टों में टिप्पणी करने की सुविधा खत्म करूंगा। टिप्पणियों में सभी अपनी अपेक्षाएं लिखते हैं। दबाव मुझ पर बनता है।
एक परिवर्तन और करूंगा। कुछ भी। जब जिन्दगी एक ही ढर्रे पर चल रही हो, निराशा होने लगे तो एक मामूली सा परिवर्तन भी ऊर्जा लेकर आता है। ब्लॉग लेखक से वास्तविक लेखक बनने की ओर कदम बढाऊं तो...
लद्दाख साइकिल यात्रा ही इसके लिये सर्वोत्तम है। इस पूरी लेखमाला को पुस्तक का रूप दिया जा सकता है। कोई ढंग का प्रकाशक मिल जाये तो उत्तम। सुना है कि वहां लेखकों का शोषण होता है। उन्हें रोयल्टी मिलना तो दूर, उल्टे उनसे ही पुस्तक छापने का खर्च मांगा जाता है। भई, मेरे बसकी ज्यादा पैसे देना तो नहीं है, फिर भी अगर ऐसा ही रिवाज है तो कोई सस्ता सा प्रकाशक ठीक रहेगा जो कम पैसे में ही काम कर दे।
डायरी के पन्ने-11 | डायरी के पन्ने-13
आनन्द में रहें, किसी भी वाग्बाणों से ज़रा भी व्यथित होने की आवश्यकता नहीं। पर्यटन की सबकी अपनी समझ है, बिजली के तार के नीचे डीज़ल गाड़ी और जनरल का टिकट रेलवे की सतही समझ का भी अभाव दिखाता है।
ReplyDeleteमेरा भी यही मानना है. वाग्बाणों से व्यथित होने की आवश्यकता नहीं. ब्लॉग जगत में आरंभिक दिनों में मुझे भी लालची और गूगल, माइक्रोसॉफ़्ट का एजेंट कहा गया था :) पर, कहने की बात नहीं कि ऐसा कहने वाले लोग अपनी ही मूर्खताएं सरेआम दिखा रहे थे.
Deleteआप आज के जमाने के वास्तविक घुमक्कड़ हैं. जागरण और तहलका से आपके वृत्तांतों की मांग हो रही है तो इसका अर्थ है कि कुछ खास तो है. ऐसे ही घूमते रहिए, और हाँ, जम कर लिखते भी रहिए.
नीरज जी.... आप वाकई जिंदा इन्सान है। आप जो जिते है, वह बिलकुल ओरिजिनल है; रत्ति भर भी जालीपन नही। आपके विचार बहुत प्रेरक है। और भी कहना है, पर फिर आपको लगेगा कि सेलिब्रेटी जैसा कह रहा हुँ। पर आप वाकई सही अर्थों में ज़िंदगी की राह के मुसाफिर है। आप जो भी करते है, बडा सच्चा और इसलिए विराट होता है।
ReplyDeleteSorry , sorry , sorry , sorry , sorry , sorry , sorry. 7 ttime sorry bol diya . Hamara prem dekhakar aap hame 1 aapki likhi hui laddakh yatra ki book denge vo bhi free me . Free ho to aa jao gujrat me . Ham aapki fillings samaj shakte he . Aap hamare ghar aaye vo bhi hamare liae garv ki bat he. Chalo hamseraji ho to 1 bar muskura do ?????????????freevali bat se.
ReplyDeletesukh dukh ki paribhasha se jeetna hai to samaj main apney se neechey (samajik star) logon to dekho kabhi dukh nahin hoga, and kuch kar dikhana hai to hamesha apney se unchey logon ko dekho, hamesha sakti milti rahegi. Aur kabhi kabhi thoda bahut bimar hona chahiye, aakhir doctor sahab bhi lakho ki fees dekar doctor baney hain, unka bhi to kuch kamaney ka haq hai.
ReplyDeleteवो भी तो गांव भर की मटकियां फोडता फिरता था सिर्फ दही के लिये
ReplyDeleteब्लॉग लेखक से वास्तविक लेखक बनने की ओर कदम बढाऊं तो...
ati uttam............
jai ho
प्रिय नीरज
ReplyDeleteआपके लगभग सभी पोस्ट पढ़ता हूं। आजतक कभी प्रतिक्रिया नहीं दी लेकिन सच बताऊं पोस्टों को पढ़कर काफी आनंद आता है। घुमक्कड़ी का आनंद वास्तविक है तथा आपके पोस्टों से वह आनंद छलकता है। अब इस रस को आप औरों के साथ बांटते हो तो यह आपकी मिलनसारिता के गुण को दर्शाता है। अपना आनंद बांटने वाला कभी हतोत्साहित नहीं हो सकता है। सबसे बढ़कर खुशी अपने मन की होती है, जिसे आप बखूबी पाते हो और यह छलकती भी है, ऐसे में जीवन के रास्ते में आने वाले मच्छर, मक्खियों की परवाह क्यों?
कमलेश पांडेय
गुरु जी वैसे तो कम ही लिख्या मैंने आपके यहाँ पर आज रुक न सकूँगा। एक तो आपकी सलाह ने पैसे बचा दिए साइकिल में मेरे। दुसरे आपका लिखा पढ़ के मैंने तीन यात्रायें सफलता से कर ली। तो गुरु जी बात मुद्दे की ये है की ना जाओ सैयां छुड़ा के बैयाँ कसम तुम्हारी मई रो पडूंगा।।।
ReplyDeleteनीरज जी आज आपको क्या हो गया हैं जो इतनी नकारात्मक बाते कर रहे हो. लोगो के कमेन्ट पर मत जाओ, आप अपनी राह चल रहे हो, ये तो दुनिया हैं. इन लोगो ने तो राम और कृष्ण को भी नहीं छोड़ा, आप और हम तो क्या चीज हैं. आप अपना कर्म करते रहो. हम आपके साथ हैं...
ReplyDeleteघुमक्कड़ी के साथ-साथ मन की उमड़न-घुमड़न.
ReplyDeleteहम ब्लाग पर आपके हमसफर हैं, रहेंगे.
ReplyDeleteHi Neeraj;
ReplyDeleteI am one of those uncountable persons who have been coming to your blog for last 5 years. I come to your blog to get rejuvenated, and to get inspired. I work for a top IT company, and I hate the job, it really sucks me, and then I come to your blog and feel like living again.
One more thing, be wary of people who show too much affection, affection and dislike are sides of same coin.
When somebody asked Renuji, what makes you write? Renuji replied it is for “Swantah Sukhaya”. Keep traveling, keep writing. We see world from your eyes.
Take care.
Subhash
छोटे भाई क्यो परेशान हो रहे हो लोगो की परवाह मत करो क्या कहते है क्या करते है कुछ लोग (कुछ लोग बोला है सब नही क्योकि सब मे तो मे भी हूँ ) टिप्पणी लिखने से पहले दिमाग का प्रयोग नही करते जो मरजी लिख दिया किसी को अच्छा लगे या बुरा उन्हे कोई मतलब नही।
ReplyDeleteऔर अपनी ढाढी इन अखबार वालो के हाथ मे ना थमाओ तो अच्छा है अपने ब्लाँग पर ही लिखो इनके ब्लाँग पर क्यो लिखना। अगर साक्षातकार ले तो बात ठीक है (बिगेर मांगे सलहा दे रहा हूँ बुरा ना मानना)
और रही बात किसी भी काम मे मन नही लग रहा है तो आजकल दिन ही नकारात्मक से चल रहे है अपना भी ऐसा ही हाल है। बस दफ्तर जाओ और आकर सो जाओ मै भी तुम्हारी तरह सोने मे पक्का हूँ। चलो अब मै भी सो जाता हूँ रात बहुत हो चुकी है।
छोटे भाई क्यो परेशान हो रहे हो लोगो की परवाह मत करो क्या कहते है क्या करते है कुछ लोग (कुछ लोग बोला है सब नही क्योकि सब मे तो मे भी हूँ ) टिप्पणी लिखने से पहले दिमाग का प्रयोग नही करते जो मरजी लिख दिया किसी को अच्छा लगे या बुरा उन्हे कोई मतलब नही।
ReplyDeleteऔर अपनी ढाढी इन अखबार वालो के हाथ मे ना थमाओ तो अच्छा है अपने ब्लाँग पर ही लिखो इनके ब्लाँग पर क्यो लिखना। अगर साक्षातकार ले तो बात ठीक है (बिगेर मांगे सलहा दे रहा हूँ बुरा ना मानना)
और रही बात किसी भी काम मे मन नही लग रहा है तो आजकल दिन ही नकारात्मक से चल रहे है अपना भी ऐसा ही हाल है। बस दफ्तर जाओ और आकर सो जाओ मै भी तुम्हारी तरह सोने मे पक्का हूँ। चलो अब मै भी सो जाता हूँ रात बहुत हो चुकी है।
नीरज जी, लद्दाख यात्रा पर पुस्तक प्रकाशित करना अच्छा विचार है... लेकिन टिप्पणियाँ बंद करने का विचार उत्तम नहीं है...
ReplyDeleteनीरज भाई आप एक घुमक्कड मिजाज के व्यक्ति है।आप तो सभी तरह की परिस्थतियो मे घुलमिल जाने वाले इन्सान है। फिर आप कुछ लोगो की करी गई टिप्पनीयो से अपने आप को नकारत्मक मत होने दो ।यदि आप ऊर्जावान रहगे तो सभी तरह की लोगो द्धारा की गई बातो से आप विचलित नही होगे।ओर हाँ एक बात कप्या टिप्पणी नही हटाय़ेगा।टिप्पणी करने के बाद ओर यदि आपका वापसी जबाब मिलने के बाद हम अपने आप को आप से जुडा समझते है।
ReplyDeleteThe Immortals of Meluha मेरी लाईफ की पहली अंग्रेजी में पढी नावल है। रोमाचंक लगी मुझे तो।
ReplyDeleteजैसे सावन में दूध पीना सही नहीं माना जाता था ऐसे ही शायद भादौ के महिने में दही खाना स्वास्थय के लिये श्रेयस्कर ना होता हो।
अमृतसर यात्रा अभी नहीं करना चाहते तो फिर कभी, लेकिन अजीत सिंह जी से मिलना कैंसिल मत करना।
भाई हम लोग आपको पढते-पढते आपसे इस कदर जुड जाते हैं कि हमें लगता है कि आप तो हमारे अपने हैं, इसलिये हम पाठक आपकी प्रशंसा, आलोचना, शिकायतें आदि अपने-अपने मतानुसार कर देते हैं। इन्हें दिल पर मत लिया करो। हम पाठक यहां गालियां तक कह के भूल जाते हैं, आप भी भूल जाया करो।
कुछ दिन नेट से दूर रहना अच्छा आईडिया है।
टिप्पणी आदि के बारे में आप जो भी फैसला करेंगे, सही ही करेंगे।
यही हो रहा है लेखकों को खुद पैसे देकर पुस्तकें छपवानी पड रही हैं, आजकल
आपके लेखों में यात्रा विवरण शैली उम्दा और रोचक है। आपको कोई अच्छा प्रकाशक जरुर मिलेगा, जो अपने खर्चे से आपकी पुस्तकें छाप दे।
ऐसी शुभकामनाओं के साथ
प्रणाम स्वीकार करें
नीरज जी,
ReplyDeleteकुछ दिन पहले ही आपके चिट्ठे के बारे में पता चला, प्रवीण पाण्डेय जी के चिट्ठे पर। आज पढ़ कर बहुत अच्छा लगा। आप मेरे जैसे कई लोगों के लिए प्रेरणास्रोत हैं। अगर आप अंग्रेजी में लिखते तो अभी तक आपका चिटठा एक Cult बन चुका होता। ऐसा नहीं कि हिंदी में कम लोकप्रिय है मगर अंग्रेजी के पाठक पूरे विश्व की जनता है। खैर जैसे अंग्रेजी में कहा जाता है "English's loss is Hindi's gain".
आपको फीडली पर तो जोड़ ही चुका हूँ सो आगे संपर्क रहेगा। टिपण्णी न कर पाऊं को क्षमा करियेगा मगर मैं निरंतर आपका चिटठा पढता रहूँगा।
लिखते रहिये और प्रेरित करते रहिये!
सौरभ
अरे बंधू क्यूँ परेशान हो रहे हो.... आपके चाहने वाले सब जगह हैं.... और ब्लॉग लिखते रहिये... किताबों का ज़माना गया... गाँठ से पैसे लगाके छपवानी पड़ेगी अगर अच्छी छपवानी है तो, फिर प्रचार भी खुद को ही करना पड़ेगा.... यहाँ आपके चाहने वाले बढ़ेंगे ही दिन बा दिन, घटेंगे नहीं....
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeletewhy remove this???????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????
DeleteHarper Collins, Penguin, Rupa, Westland hindi me kitab prakashit karte hai, aur aap apni lekhni jari rakhiye Neerajji
ReplyDeleteनीरज भाई आपकी यह पोस्ट दिल को छु गयी
ReplyDeleteअपने आप को तमाशाबाज़ बिलकुल न समझे , आप यहाँ सब के लिए एक प्रेरणा है
यह सब आप को खुश करने या मक्खन लगाने के लियें नहीं है, यह कमेंट दिल से निकला है.
आपको जो सुकून दे वही करे, आपको ढेरों शुभकामनाये
नीरज भाई ...आपकी हताशा का कारण मुझे समझ में आता है .......एक तो आपके टूर बड़े थकाऊ होते हैं .....अंग्रेजों और हिन्दुस्तानियों की घुमक्कड़ी का ये मूल अंतर है ..........हिन्दुस्तानी घूमने जाता है है तो थका हारा टूटा हुआ वापस आता है .....अँगरेज़ घूमने जाता है तो थकावट दूर करके तारो ताज़ा हो के वापस आता है .........आपकी थकावट का दूसरा कारण .....घूमने के बाद उसे तुरंत लिखने छापने का दबाव .........आपको सिर्फ fatigue हुई है .....इसका एक ही उपाय है ........कुछ दिन आराम करो .......हम दोनों मियाँ बीवी को जब आराम करना होता है तो हम लोग मसूरी या lansdowne चले जाते हैं ....वहाँ camel back रोड पे हमारा एक पसंदीदा होटल है .....एकदम सुनसान रोड पे ( ऑफ सीजन में ) टहलना ...और सारा दिन होटल की बालकनी में बैठ के चाय पीना . गप्पे मारनी ...............शाम को एक घंटा बाज़ार में ....और ली शेफ के मोमो ..........वाह .........
ReplyDeleteया फिर lansdowne में बाहर कुर्सियां डाल के........... सारा दिन फ्रूट चाट बना बना के खाना ........कोई हाय तोबा नहीं .......और अपनी घुमक्कड़ी और लेखन अपने मज़े के लिए ....दूसरों को खुश करने के लिए नहीं .....जो दूसरों को खुश करने की कोशिश करता है वो फुटबाल बन जाता है ....इसलिए मस्त रहो ........घुमते रहो ....लिखते रहो .......
माफ़ करे अजित जी , आप सिर्फ अपने लिए जीते हो, घूमते हो --- नीरज धुमक्कड़ी सिर्फ अपने लिए करता है और लेखन हम लोगो के लिए ----हम इतना धूम नहीं सकते है लेकिन नीरज हमको अपने साथ इन दुर्गम घाटियों में ले जाता है--पहाड़ो पर चढाता है --हम उसके साथ इस प्रकृति का मज़ा लेते है और ऐसा महसूस होता है जैसे हम अभी - अभी वापस आये है तरोताजा होकर ...
Deleteबाकी आपकी जालंधर सुल्तानपुर अमृतसर पठानकोट यात्रा due है .....जल्दी मिलते हैं ......
ReplyDeleteचलते चलते एक बात और याद आ गयी ......अपने बनारस में कहते हैं की गालियाँ तो शिव जी का प्रसाद होती हैं ..........गालियों के बिना जीवन कितना नीरस ....सूना सूना सा लगेगा .........दो जिगरी दोस्त मिलते हैं तो कैसे एक दूजे को गालिया बकते हैं .........मैं तो कई बार जान बूझ के ऐसे स्टेटस और कमेंट डालता हूँ फेसबुक पे की लोग गालिया दें ..........और फिर जब वो गरियाते हैं तो बड़ा मज़ा आता है .......न गरियाएं तो निराशा होती है ........अगर आप सही काम कर रहे है और लोग आपको गाली दें तो समझ लीजिये आप वाकई सही काम कर रहे हैं ........गालियों और आलोचना से कभी मत डरो .........
ReplyDeleteचलते चलते एक बात और याद आ गयी ......अपने बनारस में कहते हैं की गालियाँ तो शिव जी का प्रसाद होती हैं ..........गालियों के बिना जीवन कितना नीरस ....सूना सूना सा लगेगा .........दो जिगरी दोस्त मिलते हैं तो कैसे एक दूजे को गालिया बकते हैं .........मैं तो कई बार जान बूझ के ऐसे स्टेटस और कमेंट डालता हूँ फेसबुक पे की लोग गालिया दें ..........और फिर जब वो गरियाते हैं तो बड़ा मज़ा आता है .......न गरियाएं तो निराशा होती है ........अगर आप सही काम कर रहे है और लोग आपको गाली दें तो समझ लीजिये आप वाकई सही काम कर रहे हैं ........गालियों और आलोचना से कभी मत डरो .........
ReplyDeleteबाकी आपकी जालंधर सुल्तानपुर अमृतसर पठानकोट यात्रा due है .....जल्दी मिलते हैं ......
ReplyDeleteनीरज भाई ...आपकी हताशा का कारण मुझे समझ में आता है .......एक तो आपके टूर बड़े थकाऊ होते हैं .....अंग्रेजों और हिन्दुस्तानियों की घुमक्कड़ी का ये मूल अंतर है ..........हिन्दुस्तानी घूमने जाता है है तो थका हारा टूटा हुआ वापस आता है .....अँगरेज़ घूमने जाता है तो थकावट दूर करके तारो ताज़ा हो के वापस आता है .........आपकी थकावट का दूसरा कारण .....घूमने के बाद उसे तुरंत लिखने छापने का दबाव .........आपको सिर्फ fatigue हुई है .....इसका एक ही उपाय है ........कुछ दिन आराम करो .......हम दोनों मियाँ बीवी को जब आराम करना होता है तो हम लोग मसूरी या lansdowne चले जाते हैं ....वहाँ camel back रोड पे हमारा एक पसंदीदा होटल है .....एकदम सुनसान रोड पे ( ऑफ सीजन में ) टहलना ...और सारा दिन होटल की बालकनी में बैठ के चाय पीना . गप्पे मारनी ...............शाम को एक घंटा बाज़ार में ....और ली शेफ के मोमो ..........वाह .........
ReplyDeleteया फिर lansdowne में बाहर कुर्सियां डाल के........... सारा दिन फ्रूट चाट बना बना के खाना ........कोई हाय तोबा नहीं .......और अपनी घुमक्कड़ी और लेखन अपने मज़े के लिए ....दूसरों को खुश करने के लिए नहीं .....जो दूसरों को खुश करने की कोशिश करता है वो फुटबाल बन जाता है ....इसलिए मस्त रहो ........घुमते रहो ....लिखते रहो .......
धत नीरज भाई , ये छोटी मोटी बातो के लिए कोई टाइम मत निकालो आप !
ReplyDeleteकोई कुछ भी कहे अपने को वोही करने का जो दिल करे !
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.
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यार सच कहने की हिम्मत होनी चाहिए,
.
बहोत आदमी कहते कुछ और है करते कुछ और , आप जो करते हो वही लिखते हो !
mere nanhey munhey raj dularey, ab maan bhi jao pyare,
ReplyDeletechoro bhi gussa, aur likh do agla bhag o dularey,
hum kab se baithey hai .........................
................................................
(aage aap ki agli post publish honey par)
"नादान परिंदे ब्लॉगर" - हिंदी का एक नया ब्लॉग संकलक"पर अपनी उपस्तिथि दर्ज कराकर हमे इसे सफल ब्लॉगर बनाने में हमारी मदद करें। अपने ब्लॉग को जोड़ें एवं अपने सुझाव हमे बताएं
ReplyDeleteडायरी बाईपास कर गया था सीधे यात्रा पर गया इसलिए वहॉं टिप्पणी की सुविधा न होने से परेशान था...इसीलिए संदेश भ्सी भेजा अब मामला साफ हुआ।
ReplyDeleteदो बातें पहली तो आत्ममंथन अच्छी बात है करना चाहिए... एक लिहाज से परिपक्वता के इस स्तर के लिए आपको उस अनुभव तथा एकांत का ही आभारी होना चाहिए जो घुमक्कड़ी से मिलता है।
भाषा का शिक्षक हूँ... पाठकों को तमाशबीन समझना ज्यादती है...वे सही या गलत हो सकते हैं जैसे कोई भी किंतु पठन एक रचनात्मक काम है ठीक वैसे ही सर्जन (या घूमना) उसेा वैसे ही सम्मान करें जैसे आप दूसरों से अपेक्षा करते हैं कि वे देशाटन का सम्मान करे।
जब मन हलका हो तो फैसले पर फिर विचार करें.... वैसे हर घुमक्कड़ बड़ी यात्रा के बाद एक शून्य महसूस करता है... आपको इस शून्य की बधाई।
मुंबई से डायरेक्ट ट्रेन है भाई शिर्डी के लिए ...
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