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23 मार्च 2012 और मैं था हल्द्वानी में। आज सबसे पहले मुझे कालाढूंगी जाना था। कालाढूंगी के बारे में उस समय जाने से पहले मेरी जानकारी बस इतनी ही थी कि यह रामनगर-नैनीताल के बीच में पडता है और यहां से नैनीताल की चढाई शुरू होती है। यह मेरे लिये एक साधारण जगह थी। यहां से मुझे खुरपा ताल जाने के लिये नैनीताल वाली बस पकडनी थी। और वापस आने के बाद कालाढूंगी एक खास जगह बन गई। और आज मैं गर्व से कह सकता हूं कि मैंने कालाढूंगी देखा है। मैंने वो जंगल देखा है जहां जिम कार्बेट साहब पले-बढे और महान बने। मैंने नयागांव वाली सडक देखी है, नैनीताल वाली सडक देखी है और छोटी हल्द्वानी भी देखी है। इन जगहों का नाम जिम साहब अपनी किताब ‘जंगल लोर’ में बार बार लेते हैं।
मैं कालाढूंगी गांव में उतर गया। यह हल्द्वानी-रामनगर के बीच में है। यहां एक तिराहा है जहां से एक सडक नैनीताल भी जाती है। मुझे नैनीताल वाली बस पकडनी थी। यहां उतरकर पता चला कि मुझसे थोडी सी गलती हो गई है। वो यह कि मुझे यहां से दो किलोमीटर आगे नैनीताल मोड पर उतरना था। गलती का प्रायश्चित दो किलोमीटर पैदल चलकर किया गया। यहां से सीधी सडक रामनगर चली जाती है जबकि दाहिने वाली एक सडक नैनीताल जाती है। नैनीताल रोड के दूसरी तरफ यानी अगर हम रामनगर की तरफ मुंह करके खडे हैं तो हमारे बायीं तरफ जिम साहब का घर है। इसे अब संग्रहालय बना दिया गया है। शायद दस रुपये का टिकट लगता है यहां प्रवेश करने का।
मैं आज जिम कार्बेट के घर में था। वो जिम जिसका नाम लेते ही नेशनल पार्क याद आ जाता है। जबकि हकीकत यह है कि नेशनल पार्क आज जहां है, उस जंगल का जिम से कोई ज्यादा नाता नहीं था। कालाढूंगी के आसपास फैले घने जंगल में ही जिम पले-बढे थे। उनमें बचपन से ही यह प्रतिभा थी, तभी तो वे जंगली बने। हालात ये थे कि जिम साहब पूरे जंगल की हर आवाज की नकल कर लिया करते थे। पक्षी और जानवर कैसी अवस्थाओं में कैसी आवाजें निकालते हैं, उनकी नकल करने में वे माहिर थे। तेंदुए की आवाज निकालकर वे इधर-उधर बिखरे हिरणों को एक जगह इकट्ठा कर दिया करते थे। लंगूर की चेतावनी भरी आवाज निकालकर वे जंगल में हलचल मचा दिया करते थे। यहां तक कि मादा तेंदुए की आवाज निकालकर वे नर तेंदुए को अपनी मर्जी से इधर से उधर भटकाया करते थे। आज मैं उसी के घर में था।
जिम कार्बेट का जन्म नैनीताल में हुआ था। उनके दो घर थे- एक नैनीताल में और दूसरा कालाढूंगी में। सर्दियों में वे कालाढूंगी में रहते थे और गर्मियों में नैनीताल में। अंग्रेज भारत में खूब शिकार करते थे तो जिम भी इससे अछूते नहीं थे। आज भले ही शिकार करने के कारण उन्हें नफरत से देखा जाये लेकिन उस समय यह एक शाही खेल था। बाद में उन्होंने कुमाऊं और गढवाल के लोगों को नरभक्षी तेंदुओं और बाघों से मुक्ति दिलाई। उसके बाद उन्होंने बन्दूक से शिकार छोड दिया और कैमरे से शिकार करने लगे। जीवन के आखिरी वर्षों में वे केन्या चले गये। केन्या में ही उन्होंने अपनी छह किताबें लिखीं। उनकी सभी किताबों के हिन्दी अनुवाद उपलब्ध हैं। मेरे पास उनकी ‘रुद्रप्रयाग का नरभक्षी तेंदुआ’ पहले से ही थी, आज ‘कुमाऊं के नरभक्षी’ और ‘जीती जागती कहानी जंगल की (जंगल लोर)’ भी ले ली। जंगल लोर एक तरह से उनकी आत्मकथा है, जो वन्य जीवन की एक बेहतरीन किताब भी है। उनके नाम पर ही भारत के पहले राष्ट्रीय पार्क का नाम जिम कार्बेट नेशनल पार्क रखा गया।
जिम कार्बेट का कालाढूंगी स्थित घर जो अब संग्रहालय बना दिया गया है। |
जिम कार्बेट का सामान |
जिम कार्बेट का घर और सामान |
जिम कार्बेट |
जिम कार्बेट का घर |
कार्बेट फाल
मुझे कार्बेट म्यूजियम के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। हल्द्वानी से जब मैं चला था तो कालाढूंगी के लिये इसलिये चला था ताकि नैनीताल वाली बस पकड सकूं और खुरपा ताल देख सकूं। लेकिन यहां जिम संग्रहालय देखने में इतना लेट हो गया कि अब 22 किलोमीटर का पहाडी सफर करने की इच्छा नहीं रही। इसलिये अब तय हुआ कि कार्बेट फाल देखा जाये।
कार्बेट फाल कालाढूंगी से कम से कम चार किलोमीटर दूर रामनगर रोड पर है। रामनगर की तरफ जाने वाली एक बस आई और मैं उसमें चढ लिया। करीब एक किलोमीटर आगे जाने पर वो बस मुख्य सडक को छोडकर दाहिने मुड गई। उसे इधर उधर के गांवों से होकर रामनगर ही जाना था लेकिन चूंकि वो नयागांव नहीं जा रही थी, इसलिये मुझे उससे उतरना पडा। यह तिराहा बिल्कुल घने जंगल में स्थित है और इक्का दुक्का वाहन ही आ जा रहे थे। मैंने करीब 15 मिनट तक अगली बस आने की प्रतीक्षा की। असफल होने पर मैं नयागांव के लिये पैदल ही चल पडा। नयागांव से ही कार्बेट फाल जाने का रास्ता है।
जब मैं नयागांव की तरफ पैदल जा रहा था तो सोच रहा था कि इस रास्ते पर जिम खूब आता-जाता होगा। यहां तब भी जंगल था और अब भी जंगल है। लेकिन तब में और अब में फरक इस बात का आ गया है कि जानवर नहीं रहे। ले-देकर तेंदुआ ही है, जो अब भी है। यह जंगल कार्बेट पार्क से काफी दूर है, लेकिन भौगोलिक रूप से इसे कार्बेट पार्क का ही हिस्सा माना जा सकता है। इस लिहाज से यहां हाथी और बाघ की भी सम्भावना बढ जाती है। हिरणों की तो कई प्रजातियां यहां घूमती रहती हैं।
नयागांव से जरा सा पहले एक तिराहा और आता है जहां से सीधा रास्ता बाजपुर चला जाता है और दाहिने मुडकर रामनगर। रामनगर रोड पर नयागांव बसा है और कार्बेट फाल जाने का रास्ता भी इसी पर है। दस रुपये का टिकट लगता है। झरने तक जाने के लिये करीब डेढ किलोमीटर अन्दर जंगल में जाना पडता है। पक्की टूटी-फूटी मोटर रोड बनी है, इसलिये अपना वाहन भी ले जाया जा सकता है।
बहुत दिनों से इच्छा थी कार्बेट फाल देखने की और आज यह मेरे सामने था। ज्यादा ऊंचा तो नहीं लेकिन जंगल के बीच में होना इसे शानदार बनाता है। इसे देखकर मुझे देहरादून के पास लच्छीवाला की याद आ गई। दोनों ही जगहें जंगल में हैं और मुख्य रोड से डेढ दो किलोमीटर दूर। एक झरना है तो दूसरा नदी पर बना पिकनिक स्पॉट। लेकिन यहां भीड नहीं थी। हो सकता है कि महीने भर बाद जब पीक सीजन आ जायेगा तो यहां भीड भाड बढ जाये।
यहां पहाड नहीं हैं लेकिन जमीनी हकीकत ऐसी है कि अचानक दसेक मीटर का उठान है। उसी से नदी पर झरना बन गया है। दो तीन लडके झरने के ऊपरी मुहाने पर बैठे थे। दो लडके नहा भी रहे थे। इनके अलावा और कोई नहीं था। मेरे भी दिमाग में आया कि झरने के ऊपर चला जाये और कुछ दूर तक पानी का पीछा किया जाये। ऊपर चढने में कोई मुश्किल नहीं हुई। दूर तक सीधा सपाट मैदानी जंगल फैला है। जिम कार्बेट इसी जंगल में रहते थे और इसके हर पेड पौधे और छोटे बडे हर जानवर से परिचित थे।
अपने एक दोस्त हैं आशीष शर्मा, गाजियाबाद में रहते हैं और हमने अक्सर घूमने के बारे में ही बातचीत होती रहती है। कल शाम जब मैं हल्द्वानी में था तो उन्होंने बताया कि कार्बेट फाल से आगे एक झरना और है, जिसके बारे में केवल स्थानीय लोग ही जानते हैं। कोई बाहरी आदमी वहां नहीं जा पाता और कार्बेट फाल से ज्यादा शानदार है। तभी मैंने तय कर लिया कि मैं वहां भी जाऊंगा। अब यहीं एक गडबड हो गई। उन्होंने बताया तो ठीक था लेकिन मैंने समझा कि कार्बेट फाल वाली नदी पर ही और आगे जंगल में जाने पर वो झरना मिलेगा। मैंने वहां स्थानीयों की तलाश की लेकिन कोई नहीं मिला। जब मैं कार्बेट फाल के ऊपर चढ गया तो नदी के साथ साथ ही जंगल में जाती एक बडी सी पत्तियों से ढकी और आजकल काम में ना आने वाली पगडण्डी दिखी। मैंने सोचा कि यह पगडण्डी उसी झरने पर जा रही है। मैं उस पर चल दिया।
जल्दी ही मैं कार्बेट फाल पर हो रही इक्का-दुक्का इंसानी आवाज से दूर हो गया। मेरे दाहिनी तरफ नदी थी और बाकी चारों तरफ घना जंगल। दोपहर बाद का समय और अच्छी धूप भी निकली हुई थी। कोई आवाज नहीं बस कभी कभी किसी पक्षी की आवाज आ जाती। नहीं तो घोर सन्नाटा। मैंने पहले भी बताया था कि यह जंगल कार्बेट पार्क के बिल्कुल पडोस में है यानी भौगोलिक रूप से कार्बेट पार्क का ही हिस्सा है (भले ही प्रशासनिक रूप से ना हो)। इसलिये यहां वे सभी जानवर मिलेंगे जो कार्बेट पार्क में मिलते हैं- बाघ, तेंदुए आदि।
मैं कार्बेट फाल से करीब आधा किलोमीटर आगे ही जा पाया था कि तभी सूखी पत्तियों में एक हलचल सी सुनाई दी। मार्च के महीने में पेडों की सभी पत्तियां सूखकर जमीन पर आ पडती हैं और किसी पक्षी के जमीन पर उतरने पर भी आवाज करती हैं। लेकिन यह आवाज किसी पक्षी की नहीं थी। ऐसा लगा कि कोई जानवर भाग रहा हो। यह भी हो सकता है कि आसपास ही कोई जानवर आराम कर रहा हो और मेरे कारण वो डर गया हो। मैं कोई जंगल विशेषज्ञ तो नहीं हूं, इसलिये इस आवाज से डर गया और रुक गया। सोचने लगा कि आगे बढूं या नहीं। तेंदुआ और भालू पेडों पर चढ जाते हैं। अब मुझे डर के कारण अपने चारों तरफ तेंदुए और भालू ही दिखने लगे। उस घडी को कोसने लगा जब मैंने इधर आने का फैसला लिया था।
मैं यह सब सोच ही रहा था कि फिर से भागमभाग की आवाज उभरी और मुझसे दस मीटर दूर से गुजरी। दो मध्यम आकार के काले से जानवर थे और बडी तेजी से इधर उधर भाग रहे थे। मात्र एक सेकण्ड के लिये मेरी आंखों के सामने आये और फिर जंगल में गुम हो गये लेकिन भागमभाग की आवाज आती रही। इस एक सेकण्ड में मैंने अन्दाजा लगाया कि वे जंगली सूअर थे। वे एक दूसरे का पीछा कर रहे थे और खेल रहे थे। उन्हें मेरी उपस्थिति की जानकारी नहीं थी। हालांकि अब मुझे डरने की कोई जरुरत नहीं थी और मैं उन्हें डरा कर भगा भी सकता था। लेकिन चूंकि मैं खुद भी बेहद डरा हुआ था, इसलिये आगे बढने की बजाय पीछे लौटने में ही भलाई समझी। जब मैं पीछे मुड गया तभी पता चल गया कि वे जंगली सूअर नहीं बल्कि काकड थे। काकड को अंग्रेजी में बार्किंग डियर कहते हैं और हिरण की यह प्रजाति कुत्ते की तरह भौंकती है। कुत्ते के मुकाबले इसकी भौक बडी तीव्र होती है।
वापस कार्बेट फाल पर आकर मैंने आशीष को फोन मिलाया और उस दूसरे झरने के बारे में पूछा तब जाकर मुझे उसकी सही लोकेशन पता चली। वो झरना यहां से करीब पांच किलोमीटर दूर रामनगर रोड पर है। यानी मुझे यहां से बाहर निकलकर मुख्य रोड पर जाकर कोई लोकल बस पकडकर पांच छह किलोमीटर रामनगर की तरफ जाना पडेगा। तब फिर से दो किलोमीटर के करीब पैदल जंगल में जाना पडेगा। मैं जंगल में अभी अभी गया था और डरकर वापस भाग आया था इसलिये फिर से दोबारा जंगल में जाने का मन नहीं किया। फिर वो झरना इतना प्रसिद्ध भी नहीं है, इसलिये मुझे उसके रास्ते में इक्का दुक्के स्थानीय लोगों के अलावा किसी के भी मिलने की उम्मीद नहीं थी। आखिरकार वहां जाने का इरादा छोडना पडा।
रामनगर पहुंचा। मेरा आज का रामनगर से रिजर्वेशन जिम कार्बेट लिंक एक्सप्रेस से दिल्ली तक था। अभी चार बजे थे और ट्रेन का टाइम था रात दस बजे। एक बार तो दिमाग में आया कि गरजिया देवी मन्दिर चला जाये लेकिन असल में मैं काफी थक भी गया था। कल पूरे दिन भीमताल से सातताल और वापस भीमताल पैदल, आज कालाढूंगी गांव से कार्बेट म्यूजियम और वहां से चार किलोमीटर आगे नयागांव, नयागांव से दो किलोमीटर जंगल में कार्बेट फाल और पैदल वापस। कुल मिलाकर काफी थकान हो रही थी। पांच बजे रामनगर से मुरादाबाद पैसेंजर चलती है। साढे सात बजे तक मैं मुरादाबाद पहुंच चुका था और वहां से बस पकडकर रात बारह बजे तक दिल्ली। हां, रामनगर से चलते से पहले मैंने अपना दिल्ली का रिजर्नेशन कैंसिल करा लिया था।
कार्बेट फाल जाने वाली टूटी-फूटी सडक |
कार्बेट फाल |
कार्बेट फाल |
कार्बेट फाल का ऊपर से लिया गया फोटो |
कार्बेट फाल से आगे जंगल में जाने का रास्ता |
वह स्थान जहां मुझे दो काकड दिखे थे और मैंने उन्हें जंगली सूअर मान लिया था। |
जंगल में जाटराम |
कार्बेट फाल जाने वाली सडक का एक और फोटो |
और यह रहा रामनगर का स्टेशन, जहां से कार्बेट पार्क, कार्बेट फाल और कालाढूंगी नजदीक ही हैं। |
आगरा नैनीताल यात्रा वृत्तान्त
1. ताजमहल
2. आगरा का किला
3. आगरा- बरेली पैसेंजर ट्रेन यात्रा
4. सातताल और नल दमयन्ती ताल
5. कार्बेट म्यूजियम और कार्बेट फाल
नीरज भाई जिम कार्बेट के घर के बारे में जानकारी मिली, कालाढूंगी से होता हुआ मैं कई बार नैनीताल गया हुं. पर इस बारे में मालूम नहीं था. अबकी बार कालाढूंगी उतर कर, जिम कार्बेट के घर को, और कार्बेट फाल को ज़रूर देखुंगा.
ReplyDeleteneeraj babu,maja aa gaya,kash main bhi delhi me hota to shayad mujhe bhi aapka saath mil jata,bahot badhiya.
ReplyDelete‘कारपेट’ साहब का घर दूसरे कोण से................ क्या यह शब्द सही लिखा है?
ReplyDeleteकाकड शाकुम्बरी देवी की ओर भी पाये जाते है।
सन्दीप भाई, यह शब्द मैंने बिल्कुल सही लिखा है। कुमाऊं के ग्रामीण उन्हें सम्मानपूर्वक कारपेट साहब ही कहते थे। उन्हें गोरा साधु भी कहा जाता था। इसका कारण यह था कि कार्बेट ने लोगों को बडे पैमाने पर आदमखोरों से मुक्ति दिलाई थी। वे अंग्रेज होते हुए भी कुमाऊंनी जानते थे और स्थानीय रीति-रिवाजों और यहां तक कि अंधविश्वासों का भी सम्मान करते थे।
Deleteक्या बात हैं....नीरज भाई....एक नई जानकारी और मिल गयी...कालाडुंगी और जिम कार्बेट का घर...
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ReplyDeleteकार्बेट ने लोगों को बडे पैमाने पर आदमखोरों से मुक्ति दिलाई थी। वे अंग्रेज होते हुए भी कुमाऊंनी जानते थे और स्थानीय रीति-रिवाजों और यहां तक कि अंधविश्वासों का भी सम्मान करते थे।
ReplyDeleteye huyee na baat ..........MERA BHARAT MAHAN
जिम कार्बेट की जरवनी भी इसी नाम (बेशक अंगरेजी में) 'कारपेट साहब' से है.
ReplyDeleteकृपया जरवनी को जीवनी पढ़ें.
Deleteऩीरज भाई सही कह रहे हैं... लोकल उन्हे कारपेट साब ही कहते थे..मुझे उनकी सबसे अच्छी कहानी ला आफ जंगल लगी...
ReplyDeleteबेमोसम बदरीनाथ की कहानी कब सुनाओगे ??
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ReplyDeleteबड़े ही सजीव चित्र और वर्णन..
ReplyDeleteसुंदर सजीव चित्र और वर्णन.
ReplyDeleteवैसे कार्बेट फाल के पास के फ्लोरा और फौना को प्रकितिक जंगल नहीं कह सकते . मुझे तो इंसानों के लगाए पेड़ से बना जंगल लगा .
me ranikhet ka hu aur ramnagar se hi aata jata hu par mujhe ye sab nahi pata tha
ReplyDeleteNeerj bhi mujh bhi ghumakkdi ka bahu sok magar kabhi avsar nahi mila
ReplyDeleteVanya jivan hamesha se aakarshit karta hai
ReplyDeleteनीरज जी नैनीताल में घुमने योग्य जगह बताइए
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