4 अप्रैल 2012 की दोपहर थी, मैं और
विधान औली में थे। वो औली जो भारत में शीतकालीन खेलों के लिये प्रसिद्ध है। भारत में क्या, पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। यह सर्दियों में मनाली और गुलमर्ग से टक्कर लेता है। इसे कुछ लोग भारत का स्विट्जरलैण्ड भी कह देते हैं। हो सकता है कि जो लोग स्विट्जरलैण्ड गये हों, उन्हें औली सर्दियों में बिल्कुल वैसा ही दिखता हो। लेकिन आज जो औली हम देख रहे थे, वो स्विट्जरलैण्ड के आसपास तो क्या, दूर दूर भी नहीं दिख रहा था। बरफ कहीं नहीं थी और धूल उड रही थी।
इस सीजन में जमकर बर्फबारी हुई। दिसम्बर के शुरू से ही बर्फ पडनी शुरू हो गई थी और पूरे जाडों भर पडती रही। इस बार खूब शोर मचा कि इतनी बरफ कभी नहीं देखी। हमें भी पूरी उम्मीद थी कि औली में खूब बर्फ मिलेगी। बल्कि हम तो सोच रहे थे कि अगर स्कीइंग हमारे बजट के अनुकूल हुई तो उस पर भी हाथ आजमायेंगे। सब धरा का धरा रह गया। लेकिन कहीं बर्फ नहीं दिखी। सब उजाड।
अच्छा ढलान है औली में। स्कीइंग के लिये आदर्श। कई सारी स्की लिफ्ट भी हैं। यानी जब खिलाडी बर्फ पर फिसलता हुआ नीचे आ जाता है तो उसे ऊपर पहुंचाने के लिये ये लिफ्ट काम आती हैं। स्की लिफ्ट क्या कहें उन्हें, छोटे उडन खटोले ही कहना चाहिये। अंग्रेजी वालों के लिये रोप वे। जोशीमठ से औली वाली जो मुख्य रोपवे है, वो तो बन्द पडी थी लेकिन यहां औली में नीचे से ऊपर पहुंचाने के लिये एक रोपवे चालू थी। आने जाने का दो सौ रुपये का टिकट था। बर्फ थी नहीं, ढलान भी इतना नहीं था कि हम थक जाते लेकिन मजे के लिये दोनों ने चार सौ रुपये खर्च कर दिये। जोशीमठ-औली वाली रोपवे का जो आखिरी टावर है, उससे थोडा सा पहले ही हमें उतार दिया गया। भीड थी नहीं। उस आखिरी टावर के उस तरफ की पहाडियों पर अच्छी खासी बर्फ दिख रही थी। वहां पेड भी नहीं थे, बस बर्फ थी। उस बर्फ और हमारे बीच में जंगल भी दिख रहा था। मुझे समझते देर नहीं लगी कि वो गोरसों बुग्याल (Gorson Bugyal) है।
गोरसों बुग्याल औली से करीब तीन किलोमीटर दूर है। यह क्वारी पास (Kuari Pass) के रास्ते में पडता है। क्वारी पास वहां से करीब बीस किलोमीटर दूर है। सीधी सी बात है कि जब गोरसों पर इतनी बरफ है तो क्वारी पर कितनी होगी। हमने जब दिल्ली से निकलने की योजना बनाई थी तो हमारी लिस्ट में क्वारी पास भी था, तीन दिन लगने थे। लेकिन ऐन टाइम पर
विपिन गौड के मना कर देने पर हमारा क्वारी पास जाना रद्द हो गया।
हमें नीचे जोशीमठ में ही पता चल गया था कि औली से आगे जाने के लिये परमिट की जरुरत पडती है, खासकर क्वारी पास जाने वालों के लिये। यहां एक ने बताया कि गोरसों के लिये भी परमिट की जरुरत है। साथ ही यह भी पता चला कि आगे संरक्षित वन क्षेत्र है, इसलिये परमिट तभी मिल सकेगा जब साथ में गाइड हो। हमें समझते देर नहीं लगी कि यह जो आदमी हमसे बता रहा है, वो गाइड ही है और यहां ‘ग्राहक’ पकडने में लगा है। संरक्षित क्षेत्र है, तो उसमें प्रवेश करने के लिये परमिट और कुछ फीस तो समझ में आती है लेकिन गाइड की जरुरत समझ से बाहर थी। विधान ने उससे थोडी बहुत बहस भी की, लेकिन उस बहस का कोई फायदा नहीं था।
अब हम दोनों ने अपना-अपना दिमाग लगाना शुरू किया। सामने कुछ ऊपर लगभग तीन किलोमीटर दूर गोरसों बुग्याल बर्फ से ढका दिखाई दे रहा था। औली महाप्रसिद्ध जगह है, तो गोरसों तक बढिया रास्ता मिल जायेगा, यह भी पूरी उम्मीद थी, इसलिये रास्ता भटकने का भी डर नहीं था। और तीन किलोमीटर में रास्ता भी क्या भटकना! जो चीज सामने दिख रही है, वहां तक जाने में क्या रास्ता भटकना? गाइड की कोई जरुरत ही नहीं थी। हम इसी मुद्दे पर परेशान थे और कोई हल ढूंढ रहे थे।
हमसे कुछ ऊपर कुछ खच्चर जा रहे थे। सीधी सी बात है कि वे पर्यटक ही थे और गोरसों ही जा रहे होंगे। एक बात और समझ में आई कि असली रास्ता वहां ऊपर से ही है। हम कुछ नीचे खुले मैदान में चल रहे थे। थोडा आगे ऊपर एक छोटा सा कमरा भी था। हमसे सोचा कि वो ही चेकपोस्ट है। हमने उस कमरे से बचकर निकलने का निर्णय लिया। विधान को भी समझा दिया कि अगर कोई आवाज लगाये तो पीछे मुडकर नहीं देखना है। बाद में जो होगा, देखा जायेगा। यही घुमक्कडी धर्म भी है। हमारे गुरूदेव राहुल सांकृत्यायन ने तिब्बत यात्रा छुपते छुपाते की थी, वे इस बात को सही ठहराते हैं तो हम भी उनके चेले हैं तो हम कैसे उन्हें गलत बता दें?
बाद में पता चला कि वो कमरा कोई चेकपोस्ट नहीं था, बल्कि चाय पानी की दुकान थी। उस दुकान के पीछे एक कमरा और था, वो बन्द था। शायद वो ही चेकपोस्ट हो। या फिर गाइड ही कुछ कमाने के चक्कर में परमिट के बारे में बोल रहा हो। हम खूब पीछे देखते गये, वापसी में उस चाय पानी की दुकान से चाय भी पी लेकिन ऐसा कुछ नहीं मिला।
औली से गोरसों बुग्याल जाने के लिये घने जंगल से होकर निकलना पडता है। जंगल शुरू होते ही बर्फ भी मिलनी शुरू हो गई। हमसे पहले बहुत लोग यहां से जा चुके थे, इसलिये बर्फ पर अच्छा खासा रास्ता बना था, भटकने की कोई नौबत ही नहीं आई। और भटककर जाते भी कहां? ऊपर ही चढते जाना था। कोई ज्यादा मुश्किल चढाई भी नहीं थी। हमारे आगे मुम्बई का एक परिवार भी चल रहा था, जो बाद में उस चाय पानी की दुकान तक लगभग हमारे साथ साथ ही रहा।
गोरसों बुग्याल लगभग 3400 मीटर की ऊंचाई पर है। यह जानकारी मुझे जीपीएस ने दी। विधान तो कह भी रहा था कि हम इस जगह को 4000 मीटर ऊंची बतायेंगे, कोई भी जांच-पडताल नहीं करेगा और हमारे खाते में एक और उपलब्धि जुड जायेगी। जांच-पडताल करेगा भी तो कह देंगे कि गलती हो गई।..... इससे करीब बीस किलोमीटर आगे क्वारी पास 3800 मीटर के करीब है, यानी कोई ज्यादा मुश्किल नहीं है क्वारी पास पार करना। बस औली तक गाडी से या उडनतश्तरी से आ जाओ, फिर पैदल चलो। और पैदल भी मुश्किल नहीं। कुछ लोग तो इसे सर्दियों में पार करते हैं। कल भी एक ग्रुप गया था। हम भी चले जाते, कोई ज्यादा मुश्किल नहीं आती लेकिन विपिन के मना कर देने पर हमने मानसिक रूप से तय कर लिया था कि नहीं जायेंगे। रास्ते के लिये दो-तीन दिन का राशन और टैण्ट-स्लीपिंग बैग साथ ले जाने पडते हैं।
यहां हम करीब दो घण्टे तक रहे। विधान बडा गजब का इंसान है। आगे चलता ही रहा। बुग्याल होते भी इसी तरह के हैं कि आगे चलते जाने को मन करता है। मुझे बर्फ से डर लगता है, इसलिये मैं नहीं जाना चाहता था बर्फ में और आगे। लेकिन विधान को देखकर मुझे भी जाना पडा। मैं उसके पास जाकर और आगे जाने की मना करना चाहता तब तक वो और आगे निकल गया होता। आखिरकार एक जगह वो रुका और मेरी पकड में आया। मैंने हाथ जोड दिये कि भाई, बस। अब और आगे नहीं। बोला कि नहीं, वो सामने चोटी दिख रही है ना। वहां तक जायेंगे बस। अगर नहीं जायेंगे तो उस चोटी का उलाहना रह जायेगा कि दो असली घुमक्कड आये थे, चोटी पर नहीं चढे। मैंने कहा कि भाई, उससे आगे ऐसी और भी चोटियां दिखेंगी, किस-किस पर चढता रहेगा?
मौसम खराब होने लगा था। हल्की बर्फबारी भी हुई। बादल भी गडगडा रहे थे लेकिन वे दूर थे। जब अचानक सिर के ऊपर गडगडाहट सुनाई पडी तो विधान का संविधान बोला कि वापस चलो। मैं पिछले साल जब
करेरी झील गया था तो इसी तरह बादलों की गडगडाहट में फंस गया था, तब से मुझे गडगडाहट से भी डर लगता है। कुछ ऐसा ही डर विधान का भी है। वापस मुड गये। लेकिन अब बर्फ पर नीचे उतरना है। मुझे बर्फ पर चढने के मुकाबले नीचे उतरना मुश्किल लगता है। सामने हमें करीब एक किलोमीटर दूर जंगल में घुसने का रास्ता भी दिखाई दे रहा था। खुला ढलानदार मैदान है यह। हम थोडा चक्कर काटकर आये थे, अब सीधे उतर रहे थे। इसलिये हमारे आते समय के निशान किसी काम नहीं आये। यहां पट्ठे ने और भी दिलेरी दिखाई। जिस स्पीड से जमीन पर चलता है, उसी स्पीड से बर्फ पर उतरने लगा। अगला एक भी जगह ना फिसला, ना धंसा। उधर मेरी हवा खराब। विधान के पैर के निशान पर पैर रखता तो ऊपर वाले को याद करता कि ले गया। ले फिसला, ले धंसा, ले गिरा, ले....।
अभी हमें पूरा जंगल भी बर्फ से ही होकर पार करना पडेगा, यानी अगले दो ढाई किलोमीटर बर्फ पर ही चलना होगा। हालांकि यहां वो ग्लेशियरों वाली खतरनाक बर्फ नहीं थी, ना ही फिसलकर कहीं गहरी खाईयों में जा पडने का डर था लेकिन फिर भी बर्फ तो बर्फ होती है। हमें दो डण्डे पडे मिले। चेक करने पर मजबूत निकले। साथ ले लिये। बडे काम आये। आखिरकार राम-राम भजते इस बर्फ से बाहर निकले। रास्ते में एक जगह जानवर भी दिखा। काफी दूर था करीब सौ मीटर दूर। मैंने इसे कुत्ते का दर्जा दिया। जबकि विधान ने भेडिया बताया। बाद में मैंने भी उसका दर्जा थोडा बढाकर गीदड तक पहुंचा दिया।
वापस औली पहुंचे। उसी चाय पानी वाली दुकान पर गये। पच्चीस रुपये की एक कप चाय थी। विधान ने कहा कि एक कप चाय बनाओ, और उसे दो कपों में दे दो। लेकिन उन्होंने दो कप बनाई यानी पचास रुपये की। अब लडने की बारी हमारी थी। इसका फायदा ये हुआ कि वो चाय हमें बीस-बीस रुपये की पडी। और स्वाद? घण्टा स्वाद!
उडनतश्तरी बन्द थी। कोई यात्री ही नहीं था, तो वे क्यों उसे खाली घुमाते रहेंगे? उडनतश्तरी वाला सो रहा था। हम दो और चार मुम्बई वाले। कुल छह जने थे नीचे जाने के लिये। उसे जगाया गया। उसने नीचे अपने ‘जोडीदार’ से बात की और मशीन चालू हो गई। हम फिर से उडनतश्तरी पर सवार हो गए। नीचे पार्किंग में कुछ लोग क्रिकेट खेल रहे थे। यहां क्रिकेट खेलने पर कडा नियम ये है कि छक्का नहीं मार सकते। छक्का मारते ही बल्लेबाज आउट हो जाता है। आउट होना तो देखा जाये, बल्लेबाज पर दूसरी मार भी होती है। वो ये कि उसे गेंद कहीं नीचे से ढूंढकर लानी पडती है। और चूंकि औली ढलानदार मैदान जैसा है, तो गेंद पूरी तरह पाताल लोक में नहीं जाती, बीच में ही कहीं अटक जाती है।
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जोशीमठ- औली रोड |
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औली में पार्किंग |
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उडनतश्तरी की कुर्सियां |
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और उडनतश्तरियां उड चलीं। |
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औली से नीती घाटी का नजारा |
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औली में उडनतश्तरी |
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औली की खूबसूरती |
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सीधे हम जा रहे हैं, दाहिने से भी एक रोपवे आ रहा है, वो जोशीमठ से आ रहा है जो आजकल बन्द था। |
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औली में रहने का खर्चीला इंतजाम |
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और अब चलते हैं गोरसों के लिये। यह है विधान। |
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जाट महाराज बर्फ से डरते हैं, इसलिये संभल कर चल रहे हैं। |
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बर्फीला जंगल। इस जंगल को पार करके गोरसों बुग्याल है। |
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जंगल में पडियार देवता का मन्दिर |
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सामने है गोरसों बुग्याल |
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आओ, थोडा ठण्ड झेलें। |
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मैं जब बनियान में बैठा था, तब विधान इस ड्रेस में था। |
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गोरसों बुग्याल |
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बुग्याल में ताल और बर्फ। |
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वो जाटराम है। विधान फोटो खींच रहा है। |
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बुग्याल में अच्छी खासी बर्फ थी। |
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विधान कह रहा था कि और आगे चलते हैं और वो गया भी। जाट बेचारा बडे धर्मसंकट में पड गया। जाऊं तो बरफ में चलना पडेगा, बर्फ से डर लगता है। ना जाऊं तो विधान चला जा रहा है, वो मजाक उडायेगा। आखिरकार जाना ही पडा। |
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विधान की योजना थी कि उस उच्चतम बिन्दु तक चलते हैं लेकिन भला हो बादलों का कि गडगना शुरू कर दिया। विधान इन गडगने से थोडा बहुत डरता है। |
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यह है विधान। |
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यह किसी जानवर का कंकाल बचा हुआ है। यानी यहां मांसाहारी जानवर भी हैं। हमें एक जानवर दिखा भी था, मैंने उसकी पहचान पहले कुत्ते फिर गीदड के रूप में की जबकि विधान ने कहा कि भेडिया है। |
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यह है आवश्यक सूचना कि औली से आगे जाने के लिये परमिट लेना जरूरी है। हमें यह सूचना गोरसों से वापस आकर दिखाई दी। |
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जाटराम औली में। |
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औली से दूर पहाडों का नजारा। |
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औली के ढलान। |
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औली की सुन्दरता |
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पार्किंग में क्रिकेट खेला जा रहा है। यहां छक्का मारने पर बल्लेबाज को छह रन नहीं मिलते, बल्कि आउट माना जाता है। |
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEix5zWs1_ZmC7KlBbO5LcErIw_4UleOmEsMY2pJLSWnHbsAi8mpAh-55T0DKHEncDOyfJTu9lWS-9kMnWBQwKVlp3G_9dGjpOXs3iscghdxnbVhxDJpU2YiX59IRN832xa2hWc0RNUoKCey/s640/31.+AULI.JPG) |
विधान और जाटराम का एकमात्र सम्मिलित फोटो |
अगला भाग: औली से जोशीमठ
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बहुत ईर्ष्या होती है आप लोगों से।
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ReplyDeleteद्विवेदी जी आप ने सही कहा। लेकिन एक बात कहना चाहूँगा नीरज जी कि आप कपड़े पहन ले, नही तो ठण्ड में लेने के देने पड़ जायेगे। विधान जी को देखे कितना कपड़ा पहन रखा है।
Deleteतस्वीरें और उनके केप्शन ..और वृतांत बयाँ करते हैं.
ReplyDeleteनीरज भाई, आपकी घुमक्कड़ी का भी जवाब नहीं, औली खुबसूरत स्थान हैं। और गोरसो बुग्याल पहली बार देखा हैं। बड़ा प्यारा स्थान हैं. आपका बनियान में, और विधान भाई का ठण्ड से सिकुड़ते हुए चित्र अच्छा है। वाकई आपको भगवान का वरदान हैं। भगवान आपको घुमने फिरने की और शक्ति दे। आपके बहाने हम भी उन सब स्थानों के दर्शन कर लेते हैं।
ReplyDeleteneeraj babu,jai ho,hame bhi ghuma rahe hai.thanks
ReplyDeleteजेब्रा जैसी लग रही है घाटी।
ReplyDeleteनीरज भाई, मजा आ गया गौरसों बुग्याल और खासतौर पर बुग्याल में ताल देखकर.............बेहतरीन फोटोस........उत्तम विवरण...........
ReplyDeleteपिछली पोस्ट में लिखा था की विधान जी १० कदम पीछे चलते हैं . इस पोस्ट में विधान जी आगे चल रहें हैं . समय बड़ा बलवान होता हे . विधान जी ने आगे चल के भी कमीज टोपी नहीं उतारी . घमंडी के कपडे उतर गए. हा हा हा . माफ करना भाई.
ReplyDeleteऐसे ही अच्छा अच्छा लिखते रहो तथा चित्र दिखाते रहो.
पिछली पोस्ट में लिखा था की विधान जी १० कदम पीछे चलते हैं . इस पोस्ट में विधान जी आगे चल रहें हैं . समय बड़ा बलवान होता हे . विधान जी ने आगे चल के भी कमीज टोपी नहीं उतारी . घमंडी के कपडे उतर गए. हा हा हा . माफ करना भाई.
ReplyDeleteऐसे ही अच्छा अच्छा लिखते रहो तथा चित्र दिखाते रहो.
आपने चौका ही नहीं छक्का मार दिया भाई साब!!
Deleteमैं भी सहमत हूं सर्वेश जी और विधान से। घमण्डी के कपडे उतर गये। हा हा हा।
Deleteअसल में ऐसा हुआ कि हम जोशीमठ से औली तक और उससे भी आगे गोरसों तक पैदल गये तो हम पसीने से भीग गये थे। मुझे लगने लगी ठण्ड। इसलिये भीगे कपडे उतारकर सूखे कपडे पहने। यह उसी दौरान का फोटो है।
अति सुन्दर ..................................................................................
ReplyDeleteजाट जी को राम राम आपके आने वाले टूर के लिए शुभकामनाएँ व एक लिंक जो आपकी हर की दून यात्रा मे मार्गदर्शक साबित होगा --http://shtrek.blogspot.in/2009/07/har-ki-doon-ruinsara-tal-trek.html
ReplyDeleteहां, राजेश जी, इस पोस्ट को मैंने पढा था। इसमें काम की बात ये है कि वे लोग मई के शुरू में गये थे और हम मई के दूसरे पखवाडे में जायेंगे।
Deleteबहुत बढ़िया लगा औली यात्रा बर्णन .....! फोटो में खूबसूरत औली देखकर मन प्रसन्न हो गया आज....!
ReplyDeleteलिखते रहो.....यात्रा करते रहो...|
बिल्कुल स्वर्ग के दर्शन हैं, फ़ोटू में इतना मजा आ रहा है, तो वहाँ जाकर तो क्या आनंद आयेगा।
ReplyDeletemazedar varnan he photo bhi yatra varnan me char chand laga deti he.
ReplyDeleteजाट भाई हमेशा की तरह तुम्हारी ये प्रस्तुति भी सुन्दर है आजकल मैँ राहुल जी द्वारा रचित विस्म्रत यात्री पढ रहा हूँ जो कि आपके ही जैसे घुमक्कड की कहानी है| खैर जब भी चन्दौसी से होकर जाऐँ दर्शन अवश्य देँ |
ReplyDeleteवाह ! क्या बात हैं ..ओली की ..!!! ज्योशीमठ तो गए थे काश पहले ओली के बारे में पता होता तो एक चक्कर जरुर लगाती ..उस भेडिए का फोटू तो खिंच लाते हमें डराने क लिए .....
ReplyDeleteBahut hi sunder aur sahajata se appka lekh pada !!bahut hi achha laga!!!
ReplyDeletevah bhai neeraj kya bat he lekh aur photo ati sunder app ke sath hum bhi ghum leye - sanjog se hum log bhi 2 april se 4 april baba balak nath se chamunda se palampur se baijnath main main ghum rehe the 5 ko delhi aa gya the. app delhi main he main jarur aap se milna chuhu ga. aap ke lekh padeta rahta hu aur photo dekhta rehta hu. kabhi aap ke sath bhi KAHI JANE KA programme banau ga.
ReplyDeleteROSHAN KALYAN
Accha hua jo aapne piche mudke dekha nahi, ye mera niji anubhav hai ki jyada puchparch se kabhi sahi disa nahi milti
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