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20 फरवरी 2011 की सुबह-सुबह दिल्ली से निकलकर मैं और अतुल दोपहर तक हल्द्वानी पहुंच गये। हल्द्वानी से लमगडा जाने वाली बस पकडी और मोतियापाथर तक का टिकट ले लिया। हल्द्वानी से मोतियापाथर तक के 60-70 किलोमीटर में बस से साढे तीन चार घण्टे लगते हैं। मैं चार साल पहले भी वहां जा चुका था। लेकिन अतुल के लिये सबकुछ नया था।
धानाचूली बैंड पहुंचे। यहां से एक रास्ता मुक्तेश्वर को भी जाता है। धानाचूली से हिमालय की चोटियां साफ दिखाई देती हैं लेकिन उस दिन मौसम कुछ खराब सा था इसलिये नहीं दिखीं। हमारे यहां परम्परा है कि अगर किसी के घर मेहमान बनकर जा रहे हैं तो खाली हाथ नहीं जाना चाहिये। पिछली बार मैंने यहां से मूंगफली ली थीं। इस बार भी ले ली। पहाडी मूंगफली अपने यहां वाली मैदानी मूंगफली से कुछ ‘बदसूरत’ सी होती हैं लेकिन दाना बिल्कुल लाल होता है। यहां की मूंगफलियां मोटी भी होती हैं।
किसी के घर मूंगफली ले जाना भी अतुल के लिये नई बात थी। उसने खूब मना किया। खाने को दी तो बुरा सा मुंह बनाकर खाने से भी मना कर दिया। एकाध खाई भी लेकिन कहने लगा कि इन्हें फेंक दो, खाने में जरा भी अच्छी नहीं लग रही हैं। यार पचास रुपये की हैं, ऐसे कैसे फेंक दें। ठीक है, लेकिन उनके घर पर ये मूंगफलियां मत देना। मैं पहले भी लिख चुका हूं कि अतुल ठेठ शहरी है। दुनिया में क्या होता है, क्यों होता है, जरा सी भी परख नहीं है।
अतुल के बैग में चार जोडी कपडों के अलावा दुनियाभर की टॉफियां, हल्दीराम के पैकेट, कच्चे पापड और एक डिब्बा और था। मैं कभी भी इन चीजों को नहीं खरीदता हूं। कहने लगा कि पापड और इस डिब्बे को मैं उन्हें दूंगा, वे बहुत खुश होंगे। उन्होंने कभी ये चीजें नहीं देखी होंगी।
खैर, मोतियापाथर पहुंचे। मोतियापाथर पहाड की चोटी पर बसा हुआ गांव है। इसके दोनों तरफ ढलान हैं। बाईं तरफ कम से कम तीन किलोमीटर दूर भागाद्यूनी गांव है। जब कभी मैं नोएडा में नौकरी करता था तो मेरे साथ रमेश भी था। रमेश यही का रहने वाला है। आज उसके नवजात शिशु का नामकरण संस्कार था। इसलिये वे तीनों भाई आज गांव आये होंगे। मोतियापाथर से भागाद्यूनी के लिये पक्का पैदल मार्ग जाता है। नीचे तक ढलान युक्त रास्ता है। इतना ढलान कि सावधानी से चलते हुए भी अतुल एक बार गिर पडा।
पिछली बार जब मैं यहां आया था तो रमेश के साथ आया था। उसने पता नहीं कहां से इस रास्ते को छोड दिया था और खेतों खेत चलते हुए अपने घर पहुंचा था। नतीजा यह हुआ कि हम रास्ता भूल गये। काफी दूर निकलने के बाद एक चाय वाले की दुकान मिली। किस्मत अच्छी थी कि चायवाला रमेश के पिताजी को जानता था। उसने हमें गलत रास्ते से हटाकर सही रास्ते पर भेज दिया। लेकिन थोडा सा ही आगे निकले थे, फिर से भटक गये। पहाड पर गांव में घर दूर दूर होते हैं। सभी घर एक जैसे लगते हैं। मुझे भी लगा था कि वो रहा रमेश का घर। जा पहुंचे। एक महिला मिली। अच्छा हां, घर के पास पहुंचकर असलियत पता पडी कि यह वो घर नहीं है। फिर उस महिला से पता किया तो बोली कि इस गांव में चनीराम नाम का तो कोई नहीं है।
फिर तो जो भी कोई मिलता, हम कभी चनीराम कभी शनीराम के नाम से पूछते लेकिन जवाब मिलता कि इस गांव में इस नाम का कोई नहीं है। आखिर में पता चला कि यह भागाद्यूनी नहीं है। भागाद्यूनी और नीचे जाकर है। नीचे उतरते गये उतरते गये और उतरते उतरते एक स्कूल पर पहुंचे। इस स्कूल का नाम था- जूनियर स्कूल भागाद्यूनी… । यहां जैसे ही चनीराम का नाम लिया, तुरन्त इशारा हो गया कि वो रहा उनका घर।
घर में उत्सव जैसा माहौल था। काफी सारे मेहमान भी आये हुए थे। कुछ तो उसी शाम को वापस चले गये थे, कुछ बाद में अगले दिन गये। हम दिन ढले पहुंचे थे, जो भी कुछ संस्कार होना था, हो चुका था। अब फोटू देखिये, हर फोटू की अपनी कहानी है:
धानाचूली बैंड पहुंचे। यहां से एक रास्ता मुक्तेश्वर को भी जाता है। धानाचूली से हिमालय की चोटियां साफ दिखाई देती हैं लेकिन उस दिन मौसम कुछ खराब सा था इसलिये नहीं दिखीं। हमारे यहां परम्परा है कि अगर किसी के घर मेहमान बनकर जा रहे हैं तो खाली हाथ नहीं जाना चाहिये। पिछली बार मैंने यहां से मूंगफली ली थीं। इस बार भी ले ली। पहाडी मूंगफली अपने यहां वाली मैदानी मूंगफली से कुछ ‘बदसूरत’ सी होती हैं लेकिन दाना बिल्कुल लाल होता है। यहां की मूंगफलियां मोटी भी होती हैं।
किसी के घर मूंगफली ले जाना भी अतुल के लिये नई बात थी। उसने खूब मना किया। खाने को दी तो बुरा सा मुंह बनाकर खाने से भी मना कर दिया। एकाध खाई भी लेकिन कहने लगा कि इन्हें फेंक दो, खाने में जरा भी अच्छी नहीं लग रही हैं। यार पचास रुपये की हैं, ऐसे कैसे फेंक दें। ठीक है, लेकिन उनके घर पर ये मूंगफलियां मत देना। मैं पहले भी लिख चुका हूं कि अतुल ठेठ शहरी है। दुनिया में क्या होता है, क्यों होता है, जरा सी भी परख नहीं है।
अतुल के बैग में चार जोडी कपडों के अलावा दुनियाभर की टॉफियां, हल्दीराम के पैकेट, कच्चे पापड और एक डिब्बा और था। मैं कभी भी इन चीजों को नहीं खरीदता हूं। कहने लगा कि पापड और इस डिब्बे को मैं उन्हें दूंगा, वे बहुत खुश होंगे। उन्होंने कभी ये चीजें नहीं देखी होंगी।
खैर, मोतियापाथर पहुंचे। मोतियापाथर पहाड की चोटी पर बसा हुआ गांव है। इसके दोनों तरफ ढलान हैं। बाईं तरफ कम से कम तीन किलोमीटर दूर भागाद्यूनी गांव है। जब कभी मैं नोएडा में नौकरी करता था तो मेरे साथ रमेश भी था। रमेश यही का रहने वाला है। आज उसके नवजात शिशु का नामकरण संस्कार था। इसलिये वे तीनों भाई आज गांव आये होंगे। मोतियापाथर से भागाद्यूनी के लिये पक्का पैदल मार्ग जाता है। नीचे तक ढलान युक्त रास्ता है। इतना ढलान कि सावधानी से चलते हुए भी अतुल एक बार गिर पडा।
पिछली बार जब मैं यहां आया था तो रमेश के साथ आया था। उसने पता नहीं कहां से इस रास्ते को छोड दिया था और खेतों खेत चलते हुए अपने घर पहुंचा था। नतीजा यह हुआ कि हम रास्ता भूल गये। काफी दूर निकलने के बाद एक चाय वाले की दुकान मिली। किस्मत अच्छी थी कि चायवाला रमेश के पिताजी को जानता था। उसने हमें गलत रास्ते से हटाकर सही रास्ते पर भेज दिया। लेकिन थोडा सा ही आगे निकले थे, फिर से भटक गये। पहाड पर गांव में घर दूर दूर होते हैं। सभी घर एक जैसे लगते हैं। मुझे भी लगा था कि वो रहा रमेश का घर। जा पहुंचे। एक महिला मिली। अच्छा हां, घर के पास पहुंचकर असलियत पता पडी कि यह वो घर नहीं है। फिर उस महिला से पता किया तो बोली कि इस गांव में चनीराम नाम का तो कोई नहीं है।
फिर तो जो भी कोई मिलता, हम कभी चनीराम कभी शनीराम के नाम से पूछते लेकिन जवाब मिलता कि इस गांव में इस नाम का कोई नहीं है। आखिर में पता चला कि यह भागाद्यूनी नहीं है। भागाद्यूनी और नीचे जाकर है। नीचे उतरते गये उतरते गये और उतरते उतरते एक स्कूल पर पहुंचे। इस स्कूल का नाम था- जूनियर स्कूल भागाद्यूनी… । यहां जैसे ही चनीराम का नाम लिया, तुरन्त इशारा हो गया कि वो रहा उनका घर।
घर में उत्सव जैसा माहौल था। काफी सारे मेहमान भी आये हुए थे। कुछ तो उसी शाम को वापस चले गये थे, कुछ बाद में अगले दिन गये। हम दिन ढले पहुंचे थे, जो भी कुछ संस्कार होना था, हो चुका था। अब फोटू देखिये, हर फोटू की अपनी कहानी है:
अतुल ने पहले ही बता दिया था कि उसे पहाडी गांव देखना है। अब जब गांव में आ गये तो सीधी सी बात है कि अतुल के लिये सबकुछ नया था। कोई चाहे कुछ भी कर रहा हो, उसके लिये एक ही प्रश्न था “यह क्या है?” अब शुरू करते हैं अतुलनामा- अतुल के कुछ ऐसे ही कारनामों का सिलसिला।
पीछे बैठा आदमी चिलम से तम्बाकू के घूंट भर रहा था तो अतुल की आवाज गूंजी- यह क्या है? तब इसे इसके बारे में बताया गया। बोला कि मैं भी ऐसे ही करूंगा, एक फोटू खींचो। चूंकि अतुल धूम्रग्रहण नहीं करता है, इसलिये हिदायत दी गई कि घूंट मत भर लेना।
इसके बाद अतुल महाराज को तलब लगी कि स्थानीय ग्रामीण वेशभूषा पहनकर फोटू खिंचवाऊंगा। अब तक बन्दा काफी लोकप्रिय हो चुका था। इसकी हर अदा पर बच्चे लोटपोट हो रहे थे। कहीं कोई नाडा-वाडा ना खींच दे, इसलिये पीछे वाले घर में कुण्डी लगाकर कपडे बदलकर आया। तभी मैंने हवा सी चला दी कि जोकर सा लग रहा है। बस, सब बच्चे तो हो गये शुरू जोकर-जोकर कहने में और अगले दिन तक अतुल का पिण्ड नहीं छोडा।
ये हैं रमेश के पिताजी। जब हुक्के की चिलम भर रहे थे तो अतुल की वही- यह क्या है? बताया गया कि यह हुक्का है। मैंने कहा कि ओये, जा चिलम भर के ले आ। बोला कि कैसे? अरे वहां चूल्हे में से अंगारे भर के ले आ। बंदा तुरन्त ले कर चल पडा। पता तो था नहीं कि चिलम भरी कैसे जाती है। चूल्हे के पास जाते ही ढेर हो गया। तब रमेश के पिताजी आये, अंगारों की मुट्ठी भरी और चिलम में पलट दी।
घोर आश्चर्य की बात है कि हरियाणे के इस ‘सपूत’ को हुक्के-चिलम की भी जानकारी नहीं है।
एक और मजेदार घटना घटी। यहां कुल मिलाकर दर्जन भर से ज्यादा बच्चे थे। इनमें से भी ज्यादातर ‘सिनकसिंह’ थे यानी नाक बह रही थी। अतुल को शुरू में तो कुछ अजीब सा लगा होगा लेकिन जल्दी ही सबसे घुलमिल गया। अपने साथ एक डिब्बा लाया था। इसमें कुछ चॉकलेट के स्वाद वाली सलाई सी थी। कहने लगा कि मैं अभी बैग में से एक डिब्बा लेकर आता हूं, जिस जिस को भी खाना हो वो तब तक लाइन में लग जाये। जैसे ही अतुल गया, मैंने बच्चों को घुट्टी पिलानी शुरू कर दी। “हां भई, ये बताओ कि मिर्च किसे अच्छी लगती है?” सभी ने मना कर दिया। “अतुल जो है, वो दिल्ली की मिर्चें लाया है। इधर देखो, इतनी लम्बी-लम्बी होती हैं दिल्ली में मिर्चें। उसे तो बहुत अच्छी लगती हैं लेकिन बहुत तेज और चरचरी होती हैं। खाओगे तो शाम तक सी-सी करोगे। अगर किसी ने उसकी मिर्चें खा ली तो समझो कि गये काम से।”
इस घुट्टी का असर यह हुआ कि सभी चौकन्ने हो गये। जैसे ही अतुल ने डिब्बा खोला और उसमें से चॉकलेटी सलाई निकाली तो खुसर-पुसर होने लगी- दिल्ली की मिर्चें। बच्चों को क्या पता। अतुल जिसे भी दे, वही लेने से मना कर दे। महाराज परेशान कि मामला क्या है। बच्चे तो चॉकलेट की जिद करते हैं लेकिन यहां मामला उल्टा है। तब अतुल ने खुद खाकर दिखाई, बडों को खिलाई, तब कहीं जाकर बच्चों को यकीन हुआ। और हां, इस ‘घुट्टी पिलाने’ का नतीजा यह हुआ कि मुझे सलाई नहीं मिली। बाद में थोडा सा चूरा मिला था।
गधे पर जाट। यह घटना भी काफी मजेदार है। हुआ ये कि अतुल को तलब लगी खच्चर सवारी करने की। सबसे दाहिने जो चेहरा दिख रहा है वो रमेश के चाचा का लडका है। उनके एक खच्चर है। इस समय उसे सामान ढोने के लिये ले गये हैं। शाम तीन-चार बजे तक वापस लायेंगे। तभी इधर से एक गधे वाला गुजरा। ऊपर मोतियापाथर से सामान लेने जा रहा था। अतुल कहने लगा कि इस पर बैठूंगा। यह सामान ढोने वाला गधा है ना कि यात्रियों को ढोनेवाला। इसलिये पैर रखने के लिये कुण्डा भी नहीं लटका था। अतुल चढे तो कैसे चढे। मैं हंस पडा। अतुल खिसियाकर बोला कि बडा हंस रहा है, तू चढ कर दिखा दे। मैंने कहा कि यार, मुझे सवारी नहीं करनी है। जल्दी से चढ और घूमकर आ। बोला कि तो तू मुझे देखकर हंस क्यों रहा है। तू चढकर दिखा दे। तू जाट है ना, जाट तो हर काम कर सकते हैं। जरा चढकर दिखाना।
जैसे चार फुट ऊंची दीवार पर चढते हैं, जाट तुरन्त चढकर बैठ गया। फिर उतर भी गया। अब अतुल उसी तकनीक का इस्तेमाल करके फिर से चढने की सफल कोशिश कर रहा है।
गधे वाला ले चला अतुल को बैठाकर। मैंने गधे वाले को समझा दिया था कि इसे ले जा, जहां तेरा मन करे छोड देना। खुद वापस आ जायेगा। दस मिनट बाद गधे वाला इसे वापस ले आया। पूरे रास्ते भर इसी तरह तिरछा बैठा रहा। उतरते हुए भी गधे वाले का सहारा लेकर उतर रहा है। जिस तकनीक से जाट उतरा था, गधे पर बैठते ही सब भूल गया। वापस आने के बाद अतुल के शब्द थे- बडा भयानक अनुभव था। अब खच्चर पर भी बैठायें क्या? बोला कि बिल्कुल नहीं।
पिछले भाग में ताऊ ने मुन्स्यारी के बारे में पूछा था।
“मुन्स्यारी उत्तराखण्ड के पिथौरागढ जिले में स्थित एक शानदार जगह है। इसे हिम नगरी भी कहते हैं। यह हिमालय के मिलम और लिलम ग्लेशियरों के लिये बेस कैम्प का भी काम करता है। मुन्स्यारी जाने के लिये पहले किसी भी तरह हल्द्वानी पहुंचना होता है। हल्द्वानी से सुबह-सुबह मुन्स्यारी के लिये बसें और जीपें बहुत मिलती हैं। नहीं तो टैक्सियां भी बहुत हैं। अगर चाहो तो रास्ते में चौकोडी में भी रुक सकते हैं। पाताल भुवनेश्वर भी पास में ही है। दोपहर बाद अगर हल्द्वानी पहुंच रहे हैं तो तुरन्त अल्मोडा पहुंचने की सलाह दूंगा। रात्रि विश्राम अल्मोडा में करके अगले दिन मुन्स्यारी के लिये प्रस्थान करें। मैं कभी भी मुन्स्यारी नहीं गया हूं लेकिन फिर भी अंदाजा है कि गर्मियों में बिना गर्म कपडों के काम चल जायेगा। हां सुबह-शाम हल्के गर्म कपडे जरूर पहनने पडेंगे। सर्दियों में जाना हो तो हल्द्वानी पहुंचते ही जितने कपडे पहन सकते हैं, पहनने में कोई बुराई नहीं है।
आपको यात्रा की बहुत बहुत शुभकामनायें।"
अगला भाग: एक कुमाऊँनी गाँव - भागाद्यूनी
कुमाऊं यात्रा
1. एक यात्रा अतुल के साथ
2. यात्रा कुमाऊं के एक गांव की
3. एक कुमाऊंनी गांव- भागाद्यूनी
4. कौसानी
5. एक बैजनाथ उत्तराखण्ड में भी है
6. रानीखेत के पास भी है बिनसर महादेव
7. अल्मोडा यात्रा की कुछ और यादें
यह यात्र वृत्तान्त तो बहुत रोचक रहा!
ReplyDeleteबहुत ही रोचक. तस्वीरों की वाकई अपनी ही कहानी है.'अतुलनामा' कमाल का है! बच्चों की आँखों में उनके लिए काफी कौतुहल भी दिख रहा है. :-)
ReplyDeleteशुरू से आखिरी तक यह रोचक यात्रा वृतांत पढ गया, तेरे ये किस्से पढकर तो पांच सात दिन की छुट्टियां किसी पहाडी गांव जो प्रकृति की गोद में होते हैं, वहीं बिताने की इच्छा हो रही है.
ReplyDeleteजाट देवता रामप्यारे की पीठ पर बैठा बडा सोणा लग रहा है.:)
मुंशियारी के बारे में बताने के लिये धन्यवाद, मैने पता किया था अभी वहां जाने का रास्ता बंद है, पिछली बार होली पर औली गये थे अबकि बार मुंषियारी का प्रोग्राम है अगर रास्ता खुला तो चले जायेंगे वर्ना तू जाके आयेगा तब यात्रा वृतांत पढकर आनंद ले लेंगे.
रामराम.
भाई नीरज, 'उसे' बर्गर और गाँव वालो को मुंगफली! यह तो कोई इन्साफ नही हुआ --?
ReplyDeleteअतुल बिचारा बड़ा सीधा है --जाट के पल्ले पड़ गया --
बेहद सुन्दर पोस्ट है --आगे का इन्तजार रहेगा.....
हमारे यंहा गधे की सवारी फागुन के महीने में की जाती है | रात्री के समय बचपन में हमने भी बहुत सवारी की है |
ReplyDeleteभाई नीरज,
ReplyDeleteरमेश तक हमारी बधाई पहुंचा दियो।
जो भी कहो, अतुल के जज़्बे को सलाम करने को मन करता है। मेरी तरफ़ से उसे भी शुभकामनायें देना।
और रामबाबू हुआ करता था एक तुम्हारा ढब्बी, उसकी कोई खबर नहीं ली\दी:)
गधे पर खाग्गड़, सॉरी यार, वो वाली फ़ोटो भी बहुत मस्त लगी।
सही घुमक्कड़ी कर रहे हो दोस्त, keep it up.
देखकर आनन्द आ गया।
ReplyDeleteबहुत मस्त लगा सारा विवरण..... ओर गांव के सीधे साधे लोग भी अच्छॆ लगे
ReplyDeleteलगा कि पर्यटन और घुमक्कड़ी साथ-साथ हो रही है.
ReplyDeleteयात्र वृत्तान्त तो बहुत रोचक रहा|धन्यवाद|
ReplyDeleteभाई यो अतुल अमरीका से आया है के। शकल से तो हरियाणा के हांसी-हथीन-झझ्झर-तावड़ू-मंडी अटेली का ही दीखे। लेकिन थारी पोस्ट पढ़-पढ़कर के तो लाग्गे है कि अतुल ना...किसी अलबर्ट की या एंटनी की बात हो री से। घणे ही एटीट्यूड दिखावे है यो अमेरिकन देसी।
ReplyDeletebhai lagta bhool gaya.... ek safar kiya tha sath aaj tak uski yaad taazzza hai...
ReplyDeletebhai mera no. 9650448414 hai apna send kar diyo.....
ReplyDeletelalit bhardwaj
je/s&tc
अरे नीरज भाई जी, काफी दिनों से ब्लॉग में अनियमित हूँ...फ़िलहाल तो तस्वीरें देख के वापस जा रहा हूँ, आता हूँ वापस पढ़ने के लिए इत्मीनान से... :)
ReplyDeleteआपकी घुमक्कड़ी का हमने भी पूरा-पूरा आनंद लिया । गावों का सदा सरल जीवन मनमोहक लगा । उम्दा प्रस्तुति
ReplyDeleteपूरा गाँव दिखा दिया आपने...पहाड़ के गाँव वाले तो सीधे सादे होते हैं लेकिन हरियाणा और वो भी सोनीपत का अतुल भी इतना सीधा है जान कर हैरानी हुई...बहुत ही रोचक वर्णन और फोटो तो बस कमाल की हैं...
ReplyDeleteनीरज
hello niraj ji bahut khubsurti se jo apne sabdon me apni vabnaaye or apni yaatraaon ko dhala hai kabile-tarif hai'''photos or unke barnan bhut acchhe lage.... hmmmmmmmmm ..aapka nature kafi ghumne balon me se hai to ghumte rahiye aap or apni yatra or kahani se hum ru b ru ho te rahenge... wish u very happy journy........plz joine me...
ReplyDeleteयात्रा वृतांत बहुत ही रोचक लगी। लगा जैसे मैं स्वयं ही गाँव घूम आया। उत्तराखण्ड के ऐसे ही रमणीक गाँवो में जाने और वहाँ की जीवन को महसूस करने की बहुत इच्छा है। जाने कब वो इच्छा पूरी होगी। मैं तो छत्तीसगढ का रहने वाला हूँ किंतू 3-4 बार चार-धाम यात्रा पर गया हूँ। अब इच्छा है कि उत्तराखण्ड के किसी पहाडी गाँव जा कर कुछ दिन बिताऊँ। किसी का मार्गदर्शन और जानकारी मिलता तो बहुत अच्छा होता।
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