Skip to main content

मुखबा-हर्षिल यात्रा


12 जून 2018
धराली के एकदम सामने मुखबा दिखता है - भागीरथी के इस तरफ धराली, उस तरफ मुखबा। मुखबा गंगाजी का शीतकालीन निवास है। आप जानते ही होंगे कि उत्तराखंड के चारों धामों के कपाट शीतकाल में बंद रहते हैं। तब इनकी डोली मुख्य मंदिरों से चलकर नीचे दूसरे मंदिरों में लाई जाती है और वहीं पूजा होती है। गंगाजी की डोली भी गंगोत्री से मुखबा आ जाती है। मुखबा में भी गंगोत्री मंदिर की तर्ज पर एक मंदिर है। यह मंदिर धराली से भी दिखता है।
पैदल भी जा सकते थे, ज्यादा दूर नहीं है, लेकिन मोटरसाइकिलों से ही जाना उचित समझा। हर्षिल होते हुए मुखबा पहुँच गए। हर्षिल से मुखबा की सड़क पक्की है, लेकिन बहुत तेज चढ़ाई है।
मंदिर में लकड़ी का काम चल रहा था और बिहारी मजदूर जी-जान से लगे हुए थे। कुछ बच्चे कपड़े की गेंद से कैचम-कैच खेल रहे थे। गेंद मजदूरों के पास पहुँच जाती, तो मुँह में गुटखा दबाए मजदूर उन्हें भगा देते। हालाँकि गेंद बच्चों को मिल जाती, बच्चे धीरे-धीरे खेलने लगते, लेकिन अगले एक मिनट में ही वे पूरे रोमांच पर पहुँच जाते और गेंद फिर से मजदूरों के पास जा पहुँचती।
क्या? क्या बोले आप?
जी हाँ, मैंने पूछा था... मजदूर सीतामढ़ी के थे।






वैसे उत्तराखंड में लकड़ी का बहुत बड़ा कारोबार होता है। ज्यादातर घर अभी भी लकड़ी के ही बनाए जाते हैं। तो स्थानीय बढइयों को क्यों नहीं लगाया यहाँ काम पर? कुछ प्रभावशाली दिखने वाले लोग मंदिर के बराबर वाली दुकान पर बैठे गप्पें मार रहे थे, मुझे उन्हें डिस्टर्ब करना ठीक नहीं लगा।

मुखबा में बहुत पुराने-पुराने घर हैं और सभी लकड़ी और पत्थर के बने हैं। पलायन की वजह से बहुत सारे घर खाली पड़े हैं, बहुत सारों में ताला लगा है और बहुत सारे टूटने भी लगे हैं।
मंदिर बंद था। मुझे लगा कि चूँकि गंगाजी की पूजा ग्रीष्मकाल में गंगोत्री में होती है, तो शायद इसे बंद ही रखते होंगे। किसी से पूछा नहीं। 15 दिन बाद पता चला कि इस मंदिर में भी रोज ही पूजा होती है। पुजारी यहीं इसी गाँव का रहने वाला है। शायद आज अभी कहीं इधर-उधर गया हो। हम दर्शन-दुर्शन किए बिना ही लौट आए।
मुखबा से पूरा धराली दिखता है और धराली के ऊपर सातताल का ट्रैक और सारा जंगल, उसके ऊपर बुग्याल और ग्लेशियर और श्रीकंठ चोटी भी दिखती है।

अब बारी थी बगोरी जाने की और वहाँ से लौटकर हर्षिल में भागीरथी किनारे बैठने की, लेकिन सुमित के पास बुलेट थी और बुलेट एक बार चलती है, तो उसे रोकना बड़ा मुश्किल होता है। सुमित न बगोरी वाले मोड पर रुका और न ही हर्षिल में कहीं। उसके पीछे-पीछे उसे गालियाँ देते हम भी चलते गए।
बगोरी नेलांग घाटी के विस्थापितों का गाँव है। 1962 में भारत-चीन लड़ाई के बाद भैरोंघाटी से ऊपर समूची नेलांग घाटी के निवासियों को हटा दिया गया और किसी को बगोरी में जगह मिली, किसी को उत्तरकाशी के पास डुंडा में।
वैसे मैं इस विस्थापन के विरुद्ध हूँ। नेलांग घाटी में आज केवल सेना और आई.टी.बी.पी. ही हैं। इस घाटी के वास्तविक निवासियों को साल में केवल एक बार अपने उन घरों में जाने का मौका मिलता है, वह भी स्थानीय प्रशासन से परमिशन लेकर। आज भी वहाँ इनके घर हैं, वहाँ इनके देवता हैं। यह वाकई बहुत ज्यादा ज्यादती है। भैरोंघाटी से तिब्बत सीमा लगभग 100 किलोमीटर दूर है। इस समूचे क्षेत्र में एक भी सिविलियन नहीं रहता। असल में स्थानीय प्रशासन बहुत डरपोक है। हिमाचल में तिब्बत सीमा के एकदम नजदीक तक बसावट है और लद्दाख में तो मेरक और चुशुल जैसे गाँव एकदम सीमा पर स्थित हैं। वहाँ तो स्थानीय भेड़पालक कबीले बेरोकटोक सीमा क्षेत्र में घूमते रहते हैं। कुमाऊँ क्षेत्र में भी सीमा के पास तक बहुत-से आबाद गाँव हैं।
लेकिन उत्तरकाशी में ऐसा नहीं है। मैं इसके लिए सेना को दोष नहीं दूंगा, बल्कि स्थानीय प्रशासन को ही दोष दूंगा। इनके यहाँ गंगोत्री और यमुनोत्री जैसे स्थान हैं। इन दो स्थानों से ही इन्हें इतना रेवेन्यू मिल जाता है कि इन्हें कुछ भी करने की जरूरत नहीं होती। ये लोग नहीं चाहते कि गंगोत्री-यमुनोत्री के अलावा भी इनके यहाँ कोई आए।
1999 में युद्ध के समय कारगिल और द्रास से भी सभी निवासी विस्थापित हो गए थे, लेकिन युद्ध समाप्त होते ही फिर से लौट आए और आज उनका जीवन अच्छा चल रहा है। 1962 के बाद भारत और तिब्बत के बीच व्यापार और आवागमन समाप्त हो गया, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि आप स्थानीय लोगों को विस्थापित करोगे। स्थानीय लोग अपने लिए काम ढूँढ़ लेते। पशुपालन और पर्यटन - इन दो चीजों से नेलांग घाटी खुशहाल रहती।

खैर, बगोरी नहीं गए, अच्छा हुआ। अन्यथा दुख होता।













मुखबा से पूरा धराली दिखता है...

और श्रीकंठ पर्वत भी...

मुखबा के घर...

मुखबा में गंगाजी का मंदिर








हर्षिल हैलीपैड के पास निम वालों का ट्रेनिंग सीजन

कभी भी इधर जाओ तो सूर्यास्त का समय हर्षिल-मुखबा सड़क पर गुजारना...

हर्षिल से धराली जाते समय बाएँ हाथ भागीरथी के उस तरफ यह जलप्रपात दिखता है... कुछ यात्री इसे ‘राम तेरी गंगा मैली’ फिल्म के आधार पर मंदाकिनी वाटरफाल भी कहते हैं... लेकिन वास्तविकता यह है कि अब मंदाकिनी वाटरफाल कहीं भी नहीं है... 2013 में यह समाप्त हो गया... यह धराली से गंगोत्री की तरफ दो-तीन किलोमीटर चलकर था...

अब कुछ फोटो सुमित के कैमरे से...

मुखबा भ्रमण













1. मोटरसाइकिल यात्रा: सुकेती फॉसिल पार्क, नाहन
2. विकासनगर-लखवाड़-चकराता-लोखंडी बाइक यात्रा
3. मोइला डांडा, बुग्याल और बुधेर गुफा
4. टाइगर फाल और शराबियों का ‘एंजोय’
5. बाइक यात्रा: टाइगर फाल - लाखामंडल - बडकोट - गिनोटी
6. बाइक यात्रा: गिनोटी से उत्तरकाशी, गंगनानी, धराली और गंगोत्री
7. धराली सातताल ट्रैकिंग
8. मुखबा-हर्षिल यात्रा
9. धराली से दिल्ली वाया थत्यूड़




Comments

  1. मैं तो पिछले सात आठ वर्ष से आप के ब्लाग को पढ़ रहा हूं आप अपने यात्रा वृत्तांत को इतना सहज लिखते हैं कि पढ़ते पढ़ते ही आंखों के सामने सारी यात्रा के दृश्य जीवंत हो उठ े हैं।

    ReplyDelete
  2. 70 साल की उम्र तक मैं राजस्थान से बाहर और घूमने के नाम पर राजस्थान में भी कहीँ नहीँ गया। पिछले 7-8 साल से आपके यात्रा विवरण पढकर इतना प्रेरित हुआ कि गत 2 वर्ष में अधिकतर भारत और नेपाल भूटान की यात्राएं कर ली है।
    आभार जीवंत और प्रेरक लेखन और सुंदर छायांकन के लिये।

    ReplyDelete
  3. कुमायूं का अनुभव है मुझे इसलिए कह सकता हूँ कि तिब्बत बिल्कुल नजदीक सा लगता है , मुश्किल से 8 -10 किलोमीटर दूर रह जाता है बॉर्डर और फिर भी वहां बाहर के हम जैसे लोगों को जाने की इजाजत मिल जाती है !! अब नेलांग में क्यों नहीं जाने देते ये सोचनीय विषय हो सकता है लेकिन मुझे लगता है सिर्फ स्थानीय प्रशासन इस तरह से आवागमन नहीं रोकेगा , कुछ न कुछ ऐसा हुआ होगा जिसके लिए वो लोग बाध्य हुए होंगे !!

    ReplyDelete
  4. मैं तो आपके ब्लाग पढने का इस कदर शौकीन हूँ कि पढते पढते वहां जाने घूमने रहने की अनूभूति हों जाती है।

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

दिल्ली से गैरसैंण और गर्जिया देवी मन्दिर

   सितम्बर का महीना घुमक्कडी के लिहाज से सर्वोत्तम महीना होता है। आप हिमालय की ऊंचाईयों पर ट्रैकिंग करो या कहीं और जाओ; आपको सबकुछ ठीक ही मिलेगा। न मानसून का डर और न बर्फबारी का डर। कई दिनों पहले ही इसकी योजना बन गई कि बाइक से पांगी, लाहौल, स्पीति का चक्कर लगाकर आयेंगे। फिर ट्रैकिंग का मन किया तो मणिमहेश परिक्रमा और वहां से सुखडाली पास और फिर जालसू पास पार करके बैजनाथ आकर दिल्ली की बस पकड लेंगे। आखिरकार ट्रेकिंग का ही फाइनल हो गया और बैजनाथ से दिल्ली की हिमाचल परिवहन की वोल्वो बस में सीट भी आरक्षित कर दी।    लेकिन उस यात्रा में एक समस्या ये आ गई कि परिक्रमा के दौरान हमें टेंट की जरुरत पडेगी क्योंकि मणिमहेश का यात्रा सीजन समाप्त हो चुका था। हम टेंट नहीं ले जाना चाहते थे। फिर कार्यक्रम बदलने लगा और बदलते-बदलते यहां तक पहुंच गया कि बाइक से चलते हैं और मणिमहेश की सीधे मार्ग से यात्रा करके पांगी और फिर रोहतांग से वापस आ जायेंगे। कभी विचार उठता कि मणिमहेश को अगले साल के लिये छोड देते हैं और इस बार पहले बाइक से पांगी चलते हैं, फिर लाहौल में नीलकण्ठ महादेव की ट्रैकिंग करेंग...

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

लद्दाख साइकिल यात्रा का आगाज़

दृश्य एक: ‘‘हेलो, यू आर फ्रॉम?” “दिल्ली।” “व्हेयर आर यू गोइंग?” “लद्दाख।” “ओ माई गॉड़! बाइ साइकिल?” “मैं बहुत अच्छी हिंदी बोल सकता हूँ। अगर आप भी हिंदी में बोल सकते हैं तो मुझसे हिन्दी में बात कीजिये। अगर आप हिंदी नहीं बोल सकते तो क्षमा कीजिये, मैं आपकी भाषा नहीं समझ सकता।” यह रोहतांग घूमने जा रहे कुछ आश्चर्यचकित पर्यटकों से बातचीत का अंश है। दृश्य दो: “भाई, रुकना जरा। हमें बड़े जोर की प्यास लगी है। यहाँ बर्फ़ तो बहुत है, लेकिन पानी नहीं है। अपनी परेशानी तो देखी जाये लेकिन बच्चों की परेशानी नहीं देखी जाती। तुम्हारे पास अगर पानी हो तो प्लीज़ दे दो। बस, एक-एक घूँट ही पीयेंगे।” “हाँ, मेरे पास एक बोतल पानी है। आप पूरी बोतल खाली कर दो। एक घूँट का कोई चक्कर नहीं है। आगे मुझे नीचे ही उतरना है, बहुत पानी मिलेगा रास्ते में। दस मिनट बाद ही दोबारा भर लूँगा।” यह रोहतांग पर बर्फ़ में मस्ती कर रहे एक बड़े-से परिवार से बातचीत के अंश हैं।