Skip to main content

नेलांग घाटी

इस यात्रा-वृत्तांत को आरंभ से पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें
27 सितंबर 2017
नेलांग घाटी के इतिहास के बारे में पिछली पोस्ट में बताया जा चुका है। आज हम अपना यात्रा-वृत्तांत और कुछ फोटो दिखायेंगे।
जब हम गरतांग गली देख चुके तो उत्सुकता थी नेलांग घाटी में जाने की। वैसे तो पिछले दो-तीन वर्षों से वहाँ यात्री जा रहे हैं, लेकिन आज पहला मौका होगा, जब कोई ‘सिविलियन’ दल नेलांग में रात रुकेगा। केवल इतना ही नहीं, कल हमें नेलांग से भी आगे जादुंग, उससे भी आगे नीलापानी और उससे भी आगे कहीं जाना है। 1962 के बाद कोई भी यात्री-दल नेलांग से आगे नहीं गया है। इसी बात की उत्सुकता थी - मुझे भी और बाकी सभी को भी।
और यह सब इंतज़ाम करने के लिये तिलक सोनी ने किस लेवल तक मेहनत की है, आप समझ सकते हैं।
भैंरोघाटी में बी.आर.ओ. के यहाँ भरपेट लंच करने के बाद बारी थी नेलांग वाली सड़क पर चलने की। यहाँ वन विभाग की एक चौकी है। तिलक भाई ने परमिट दिखाये, आवश्यक कागज़ी खानापूर्ति की और चल पड़े। यहाँ से नेलांग 23 किलोमीटर है।
उत्तराखंड का यह इलाका वर्षा-विमुख क्षेत्र में आता है अर्थात यहाँ अमूमन बारिश नहीं होती। ठीक लद्दाख और स्पीति की तरह। उसी तरह का भूदृश्य यहाँ है। तिलक सोनी ने बताया कि नीलापानी के पास का इलाका तो बिल्कुल स्पीति जैसा है। आप स्पीति और नीलापानी को फोटो में देखकर इंच बराबर भी अंतर नहीं निकाल सकते।
23 किलोमीटर की इस दूरी को तय करने में दो घंटे लग गये। रास्ता पर्याप्त चौड़ा है, लेकिन उतना ही ख़राब भी। इस रास्ते पर टू-व्हीलर से जाने की अनुमति नहीं है। कुछ नाले भी पड़ते हैं, जो ख़तरनाक भी हो जाते होंगे, लेकिन इस समय ये ख़तरनाक नहीं थे।
नदी के उस तरफ समूची गरतांग गली दिखती है, लेकिन इसके फोटो लेने के लिये अच्छी ज़ूमिंग के कैमरे की आवश्यकता होती है। गरतांग गली के बाद भी नेलांग जाने वाली वो पुरानी पगडंडी दिखती रहती है। और कुछ छोटे-छोटे मंदिर भी दिखते हैं।
भरल तो गंगोत्री नेशनल पार्क की शान हैं। इसे अंग्रेजी में ‘ब्लू शीप’ कहते हैं। यह खतरनाक से खतरनाक चट्टान पर आसानी से चढ़ जाता है। यहाँ भी खूब भरल दिखे।




नेलांग से एक किलोमीटर पहले एक नाले के पास एक ‘मेमोरियल’ बना है। यहाँ पानी की बहुत सारी बोतलें रखी थीं। तिलक भाई ने बताया:
“6 अप्रैल 1994 को नेलांग से सेना के तीन जवान यहाँ इस नाले से पानी लेने आये, लेकिन ठीक उसी समय हिमस्खलन हो गया और तीनों की मृत्यु हो गयी। चूँकि वे प्यासे थे और यहाँ पानी लेने आये थे, तो उनकी याद में इस मेमोरियल पर पानी चढ़ाया जाता है।”
पानी ज्यादातर शराब की बोतलों में था, कुछ प्लास्टिक की बोतलें भी थीं, कुछ सेब भी रखे थे और कुछ जड़ी-बूटियाँ भी।
“भारतीय सेना आपका नेलांग घाटी में स्वागत करती है।” इसी के पास चेकपोस्ट थी और बैरियर लगा था। आज नेलांग गाँव में कोई भी नहीं रहता, सिवाय सेना और आई.टी.बी.पी. के। हमारा रात रुकने का इंतज़ाम आई.टी.बी.पी. के यहाँ था। सेना के संतरी ने आई.टी.बी.पी. में बात की और हमें बैरक तक जाने की अनुमति दे दी।
आई.टी.बी.पी. के पास हमारे आने के बारे में पहले ही पूरी जानकारी थी और वे हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। कमांडिंग ऑफिसर (सी.ओ.) बड़े जोश से मिले। सबका स्वागत किया और एक प्रार्थना भी की:
“हम मानव सभ्यता से बहुत दूर, बहुत दुर्गम में, बेहद विपरीत माहौल में दिन-रात यहाँ रहते हैं। हमें आम नागरिक, सिविलियन कभी-कभार ही देखने को मिलते हैं। हमारी आँखें तरस जाती हैं। और जब जब आप जैसा कोई आता है तो हमारी खुशी की कोई सीमा नहीं होती। उधर हमारी कैंटीन है, इधर पुरुषों के रुकने का इंतज़ाम है और उधर महिलाओं के रुकने का। फौजी बैरकें ऐसी ही होती हैं, शायद आपको अच्छी न लगें। हम आपको वे सब सुविधाएँ उपलब्ध नहीं करा सकते, जो आप होटलों में पाते हैं। आपको खाना खाने या चाय पीने उधर कैंटीन में जाना होगा। प्लीज आप लोग अपनी बैरक में चाय या कुछ भी मंगाने को मत कहना। हम सब फौजी हैं। आप चाय या भोजन या कुछ भी अपने बिस्तर पर मंगायेंगे तो लड़के आपको मना नहीं करेंगे, लेकिन इससे उनके आत्मसम्मान को ठेस पहुँच सकती है। आप प्लीज उनसे होटल के कर्मचारियों जैसा व्यवहार नहीं करेंगे।”
“मैं यह बात आपको इसलिये बता रहा हूँ कि ऐसा एक बार हो चुका है। कुछ परिवार आये थे और उन्होंने हमारे सैनिकों को होटल का वेटर मान लिया था।”
...
और मेरा अनुभव कहता है दुर्गम इलाकों में इन सैनिकों से अच्छा मेजबान कोई नहीं होता। डिनर व अगले दिन नाश्ते का स्वाद ही बता रहा था कि इन लोगों ने हमारी कितनी शानदार अगवानी की।
अगले दिन हमें नेलांग से भी बहुत आगे तक जाकर वापस उत्तरकाशी लौटना था। इसकी अनुमति तिलक भाई ने पहले ही आई.टी.बी.पी. से ले रखी थी और आई.टी.बी.पी. की आगे की पोस्टों को हमारे आगमन की जानकारी भी थी और हमें लंच भी उधर ही किसी पोस्ट में करना था। लेकिन ऐन टाइम पर सेना ने मना कर दिया। सेना के कोई बड़े अधिकारी आने वाले थे, इसलिये तमाम कोशिशों और मिन्नतों के बाद भी हमें नेलांग से आगे नहीं जाने दिया गया।
और इस समय का सदुपयोग किया गंगोत्री जाकर। मंदिर में दर्शन किये, गंगोत्री की आध्यात्मिकता को महसूस किया और सूर्यकुंड के भी दर्शन किये। इससे पहले मैं एक बार ही गंगोत्री आया था, गौमुख भी गया था और तपोवन भी; लेकिन गंगोत्री के प्रमुख आकर्षण सूर्यकुंड को आज देखा। यहाँ भागीरथी खड़ी चट्टानों से गिरकर एक जलप्रपात बनाती है। इसे ही गंगा का धरती पर अवतरण माना जाता है। पानी की वजह से ये चट्टानें चिकनी भी हो गयी हैं और विचित्र कटाव भी बन गये हैं, जिनसे गिरते पानी को देखना अलग ही अनुभव होता है।







नेलांग मार्ग से दिखती गरतांग गली



भरल






वो सामने नेलांग है।

हिमस्खलन में शहीद जवानों को यहाँ पानी चढ़ाया जाता है।


नेलांग में हमारा रात का ठिकाना

कैमरे ने अपनी सीमाओं से बाहर जाकर यह फोटो लिया।





इतनी उत्कृष्ट खातिरदारी के लिये आई.टी.बी.पी. का धन्यवाद तो बनता है।





यह श्रीकंठ पर्वत है या गंगोत्री पर्वत... इस बारे में तो नफ़ेराम यादव जी ही बता सकते हैं।


पर्वतों की चोटियों को देखते ही नफ़ेराम जी की बाहें फड़कने लगती हैं।








अब कुछ फोटो गंगोत्री से



गंगोत्री स्थित सूर्यकुंड












तिलक सोनी जी से उनकी लिखित कॉफी टेबल बुक `Uttarkashi Himalayas' ग्रहण करते हुए।




टिहरी बांध चिन्यालीसौड़ तक भरा हुआ था।

मालिक का ध्यान चाऊमीन बनाने पर और हमारा ध्यान यहाँ...






Comments

  1. बहुत्वही रोचक ओर महत्वपूर्ण जानकारी नेलांग वेली की फोटो भी शानदार

    ReplyDelete
  2. photos ka jawab nhi! Maja aa gya hoga.

    ReplyDelete
  3. शानदार... ज़बरदस्त... ज़िंदाबाद...

    ReplyDelete
  4. कुछ प्रश्न हैं।
    क्या नेलांग के लिए उत्तरकाशी से टैक्सी मिल सकती है, या भैरो घाटी से ही मिलेगी ?
    आप नेलांग में रात में रुके, लेकिन सभी के लिए यह संभव नहीं है। इस स्थिति में कहाँ रुकना सही रहेगा ? उत्तरकाशी, हर्सिल या भैरो घाटी ?
    क्या नेलांग जाने के लिए सरकार से अनुमति लेनी होती है ? यदि हाँ तो वह कैसे और कहाँ मिलेगी ?

    ReplyDelete
    Replies
    1. ऑनलाइन परमिट मिल जाता है... लेकिन वो कैसे मिलेगा, यह आपको देखना होगा... परमिट ज़रूरी है।
      टैक्सी उत्तरकाशी से ही लेनी ठीक रहेगी, भैंरोघाटी में टैक्सी का कोई भरोसा नहीं।
      तब तक गंगोत्री के कपाट भी खुल चुके होंगे, तो आप भैंरोघाटी, हरसिल या गंगोत्री कहीं भी रुक सकते हैं।
      केवल नेलांग तक ही जा सकते हैं यानी भैंरोघाटी से 23 किमी आगे तक।

      Delete

Post a Comment

Popular posts from this blog

तिगरी गंगा मेले में दो दिन

कार्तिक पूर्णिमा पर उत्तर प्रदेश में गढ़मुक्तेश्वर क्षेत्र में गंगा के दोनों ओर बड़ा भारी मेला लगता है। गंगा के पश्चिम में यानी हापुड़ जिले में पड़ने वाले मेले को गढ़ गंगा मेला कहा जाता है और पूर्व में यानी अमरोहा जिले में पड़ने वाले मेले को तिगरी गंगा मेला कहते हैं। गढ़ गंगा मेले में गंगा के पश्चिम में रहने वाले लोग भाग लेते हैं यानी हापुड़, मेरठ आदि जिलों के लोग; जबकि अमरोहा, मुरादाबाद आदि जिलों के लोग गंगा के पूर्वी भाग में इकट्ठे होते हैं। सभी के लिए यह मेला बहुत महत्व रखता है। लोग कार्तिक पूर्णिमा से 5-7 दिन पहले ही यहाँ आकर तंबू लगा लेते हैं और यहीं रहते हैं। गंगा के दोनों ओर 10-10 किलोमीटर तक तंबुओं का विशाल महानगर बन जाता है। जिस स्थान पर मेला लगता है, वहाँ साल के बाकी दिनों में कोई भी नहीं रहता, कोई रास्ता भी नहीं है। वहाँ मानसून में बाढ़ आती है। पानी उतरने के बाद प्रशासन मेले के लिए रास्ते बनाता है और पूरे खाली क्षेत्र को सेक्टरों में बाँटा जाता है। यह मुख्यतः किसानों का मेला है। गन्ना कट रहा होता है, गेहूँ लगभग बोया जा चुका होता है; तो किसानों को इस मेले की बहुत प्रतीक्षा रहती है। ज्...

जाटराम की पहली पुस्तक: लद्दाख में पैदल यात्राएं

पुस्तक प्रकाशन की योजना तो काफी पहले से बनती आ रही थी लेकिन कुछ न कुछ समस्या आ ही जाती थी। सबसे बडी समस्या आती थी पैसों की। मैंने कई लेखकों से सुना था कि पुस्तक प्रकाशन में लगभग 25000 रुपये तक खर्च हो जाते हैं और अगर कोई नया-नवेला है यानी पहली पुस्तक प्रकाशित करा रहा है तो प्रकाशक उसे कुछ भी रॉयल्टी नहीं देते। मैंने कईयों से पूछा कि अगर ऐसा है तो आपने क्यों छपवाई? तो उत्तर मिलता कि केवल इस तसल्ली के लिये कि हमारी भी एक पुस्तक है। फिर दिसम्बर 2015 में इस बारे में नई चीज पता चली- सेल्फ पब्लिकेशन। इसके बारे में और खोजबीन की तो पता चला कि यहां पुस्तक प्रकाशित हो सकती है। इसमें पुस्तक प्रकाशन का सारा नियन्त्रण लेखक का होता है। कई कम्पनियों के बारे में पता चला। सभी के अलग-अलग रेट थे। सबसे सस्ते रेट थे एजूक्रियेशन के- 10000 रुपये। दो चैप्टर सैम्पल भेज दिये और अगले ही दिन उन्होंने एप्रूव कर दिया कि आप अच्छा लिखते हो, अब पूरी पुस्तक भेजो। मैंने इनका सबसे सस्ता प्लान लिया था। इसमें एडिटिंग शामिल नहीं थी।

अदभुत फुकताल गोम्पा

इस यात्रा-वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें ।    जब भी विधान खुश होता था, तो कहता था- चौधरी, पैसे वसूल हो गये। फुकताल गोम्पा को देखकर भी उसने यही कहा और कई बार कहा। गेस्ट हाउस से इसकी दूरी करीब एक किलोमीटर है और यहां से यह विचित्र ढंग से ऊपर टंगा हुआ दिखता है। इसकी आकृति ऐसी है कि घण्टों निहारते रहो, थकोगे नहीं। फिर जैसे जैसे हम आगे बढते गये, हर कदम के साथ लगता कि यह और भी ज्यादा विचित्र होता जा रहा है।    गोम्पाओं के केन्द्र में एक मन्दिर होता है और उसके चारों तरफ भिक्षुओं के कमरे होते हैं। आप पूरे गोम्पा में कहीं भी घूम सकते हैं, कहीं भी फोटो ले सकते हैं, कोई मनाही व रोक-टोक नहीं है। बस, मन्दिर के अन्दर फोटो लेने की मनाही होती है। यह मन्दिर असल में एक गुफा के अन्दर बना है। कभी जिसने भी इसकी स्थापना की होगी, उसी ने इस गुफा में इस मन्दिर की नींव रखी होगी। बाद में धीरे-धीरे यह विस्तृत होता चला गया। भिक्षु आने लगे और उन्होंने अपने लिये कमरे बनाये तो यह और भी बढा। आज इसकी संरचना पहाड पर मधुमक्खी के बहुत बडे छत्ते जैसी है। पूरा गोम्पा मिट्टी, लकडी व प...