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शकुंतला रेलवे: मुर्तिजापुर से अचलपुर

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24 अगस्त 2017
आज की योजना थी मुर्तिजापुर से यवतमाल जाकर वापस मुर्तिजापुर आने की। इसलिये दो दिनों के लिये कमरा भी ले लिया था और एडवांस किराया भी दे दिया था। कल अर्थात 25 अगस्त को मुर्तिजापुर से अचलपुर जाना था।
लेकिन कल रात अचानक भावनगर से विमलेश जी का फोन आया - "नीरज, एक गड़बड़ हो गयी। मैंने अभी मुर्तिजापुर स्टेशन मास्टर से बात की। यवतमाल वाली ट्रेन 27 अगस्त तक बंद रहेगी।"
मैं तुरंत स्टेशन भागा। वाकई यवतमाल की ट्रेन बंद थी। लेकिन अचलपुर की चालू थी। अब ज्यादा सोचने-विचारने का समय नहीं था। यवतमाल तो अब जाना नहीं है, तो कल मैं अचलपुर जाऊंगा। यवतमाल के लिए फिर कभी आना होगा। अब एक दिन अतिरिक्त बचेगा, उसे भी कहीं न कहीं लगा देंगे। कहाँ लगायेंगे, यह अचलपुर की ट्रेन में बैठकर सोचूंगा।
टिकट लेकर नैरोगेज के प्लेटफार्म पहुँचा तो दो-चार यात्री इधर-उधर बैठे थे। ट्रेन अभी प्लेटफार्म पर नहीं लगी थी।





यह रेलवे लाइन 'शकुंतला रेलवे' का भाग है। इसका इतिहास बड़ा रोचक है और वर्तमान और भी ज्यादा। पिछले साल अख़बारों में खूब छाया रहा कि देश मे अभी भी एक लाइन ऐसी है, जो भारतीय रेलवे की नहीं है। हमेशा सरकारों से नाखुश रहने वाले 'देशभक्त' लोग इससे नाराज हो गए - यह भारत की गुलामी का सूचक है, सरकार निकम्मी है। जो लोग बाजार में आलू और चीकू में फर्क नहीं कर सकते, वे सरकार को राजकाज में सलाह देते।
तो ऐसा हुआ कि बीसवीं शताब्दी के पहले दशक में यानी 1900 और 1910 के बीच ये लाइनें बनीं। मकसद था कपास की ढुलाई। आरंभ में केवल कपास ढोने वाली मालगाड़ियाँ ही चलती थीं, बाद में इनमे यात्री डिब्बे भी जोड़े जाने लगे। आपको शायद पता होगा कि अंग्रेजी राज में बनी सभी लाइनें किसी न किसी कंपनी की होती थीं। यह लाइन भी किसी कंपनी ने ही बिछायी थी। बड़ी कंपनियों में जी.आई.पी.आर., बी.बी. एंड़ सी.आई. आदि थे। वर्तमान की मध्य रेलवे की अधिकांश लाइनें उस समय की जी.आई.पी.आर. की लाइनें हुआ करती थीं। तो वह कंपनी जो यवतमाल से कपास लाती थी, मुर्तिजापुर में वो कपास जी.आई.पी.आर. की ट्रेनों द्वारा मुंबई पहुँचाई जाती थी, जिसे जहाजों से इंग्लैंड भेज दिया जाता था। फिर एक समय ऐसा आया कि कपास की ढुलाई में तेजी व सुगमता लाने के लिए जी.आई.पी.आर. ने यवतमाल लाइन को उस कंपनी से किराये पर ले लिया। अब ट्रेनें जी.आई.पी.आर. चलाती, मरम्मत भी जी.आई.पी.आर. ही करती, लेकिन लाइन का मालिकाना हक उस कंपनी का बना रहा।
1947 में देश को आज़ादी मिली। 1951 में रेलवे का राष्ट्रीयकरण हुआ तो सरकार को सभी रेलवे कंपनियों से संपर्क करके रेलवे का अधिग्रहण करना पड़ा। जी.आई.पी.आर. ने भी अपने सारे अधिकार सरकार को दे दिए। यूँ समझिए कि सरकार ने इन सभी कंपनियों से रेलवे खरीद ली। इसके बदले कुछ पैसा भी अवश्य देना पड़ा होगा। इसी सिलसिले में सरकार यवतमाल वाली लाइन को अपने अधिकार में करना भूल गयी। चूँकि इस लाइन का सारा कामकाज जी.आई.पी.आर. करती थी और इसकी मालिक कंपनी का कार्यालय तक भी भारत में नहीं था। रेलवे राष्ट्रीय सम्पत्ति हो गयी, लेकिन यह लाइन प्राइवेट ही बनी रही। जी.आई.पी.आर. इस पर किराये पर ट्रेनें चलाता था, सरकार भी चलाती रही। मालिक बदल गए, लेकिन कार्यप्रणाली वही रही।
अब 2016 में इस कांट्रेक्ट का (उस कंपनी व जी.आई.पी.आर. के बीच - वर्तमान में कंपनी व भारतीय रेलवे के बीच) नवीनीकरण होना था। ज़ाहिर है कि 1951 में हुई भूल को सरकार अब नहीं दोहराएगी। इसका नवीनीकरण नहीं होगा। लेकिन इसकी मालिक कंपनी कैसे इसे छोड़ेगी? देश मे भी कंपनी के पक्ष में पर्याप्त कानून हैं, अंतरराष्ट्रीय कानून भी हैं। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कंपनी इंग्लैंड की है या जापान की। सरकार बदल गयी तो इसका यह अर्थ नहीं कि कंपनियों को बलपूर्वक देश से निकाल देंगे। तो यह सरकार 1951 में इस कंपनी से संपर्क करना भूल गयी। अब 2016 में सरकार नवीनीकरण तो करेगी नहीं, इस बात को कंपनी भी जानती है। इसलिए उसने इस लाइन को भारतीय रेलवे को देने के बदले मनमाफ़िक पैसे मांगे। रेलवे ने नहीं दिए और इसे मनाने में लगी रही। फिलहाल आज भी यह मामला सुलझा है या नही, ये तो नहीं पता चल सका। लेकिन इसी साल 2017 में यवतमाल वाली लाइन के लिए रेलवे ने कुछ करोड़ रुपये स्वीकृत किये हैं। इससे यह लगता है कि अब यह लाइन पूरी तरह भारतीय रेल का हिस्सा बन गयी है।
भारतीय रेलवे लगातार घाटे में यहाँ ट्रेनें भी चलाती रही और प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये कंपनी को भी देती रही। इसलिए यहाँ मरम्मत के सभी काम ठप हो गए। पटरियों के नीचे लोहे के स्लीपर हैं। वो भी मिट्टी में दबे हुए। लोग मोटरसाइकिल चलाते हैं पटरियों के बीच में।
डिब्बे भी प्राचीन काल के ही हैं। गार्ड का केबिन यात्री डिब्बे के अंदर ही है। गार्ड को पहले यात्रियों के बीच मे चढ़ना होता है, फिर अपने केबिन में जाता है। सभी स्टेशनों पर टिकट भी गार्ड ही देता है, तो सुविधा के लिए उसने अपना टिकट बक्सा यात्रियों के बीच ही रख लिया। यात्रियों को इस दो-तीन सीटों पर बैठने की अनुमति नहीं। वैसे भी चार डिब्बों की पूरी ट्रेन खाली ही रहती है। यात्री आराम से बेटिकट ट्रेन में चढ़ते। गार्ड और यात्रियों के बीच पैसों व टिकट का आदान-प्रदान भीतर ही भीतर हो जाता।
सभी फाटक मानवरहित हैं। तो ट्रेन के साथ गेटमैन भी यात्रा करता है। ट्रेन फाटक से पहले रुकती है, गेटमैन उतरकर गेट बंद करता है। कुछ गेट टूट भी गए हैं, तो वह अपने साथ एक बोरी में जंजीर लेकर चलता है। ट्रेन फाटक पार करके पुनः रुकती है। गेटमैन गेट खोलकर या जंजीर समेटकर फिर से ट्रेन में जा चढ़ता है। इस दौरान बिना स्टेशन भी यात्री आ जाते हैं और गार्ड बुला बुलाकर उन्हें टिकट देता है।
गेटमैन ने मुझसे कहा - “यही हमारी मेट्रो है साहब। यात्री घर से भी हाथ देते हैं, तो हम रोक लेते हैं।”
पुरानी हो चुकी पटरियों, जर्जर पुलों व गेट के कारण ट्रेन धीमी चलती है। टाइम टेबल 30 kmph की स्पीड के अनुसार बनाया गया है। लेकिन अधिकतम गति 20-25 ही रहती है। नतीजा 76 किमी की दूरी तय करने में ट्रेन दो-ढाई घंटे लेट हो ही जाती है।
कल एक जूनियर इंजीनियर ने मुझे बताया था कि यवतमाल की लाइन पर तो बारिश में पानी भर जाता है और पटरियाँ पानी में डूबकर दिखनी बंद हो जाती हैं। तो ऐसे में असिस्टेंट लोको पायलट को नीचे उतरकर ट्रेन के आगे-आगे पानी मे चलना पड़ता है, यह देखते हुए कि पटरियाँ सलामत हैं कि नहीं। और जब पानी ज्यादा बढ़ जाता है, तो ट्रेन बंद भी करनी पड़ती है। आजकल वह लाइन इसी कारण बंद है। 28 जुलाई को 5 दिन के लिए बंद की, लेकिन पानी बढ़ता देख इसे एक महीना कर दिया। और 27 अगस्त आने वाला है, बारिश फिर से होने लगी है। तो संभावना है कि 27 के बाद फिर से इसका एक्सटेंशन कर दिया जाएगा।
खेतों में सोयाबीन व मूँग, अरहर की फसल लहरा रही है। कपास भी है, जिनमें सर्दियों में रुई आएगी।
“क्या इधर अंगूर भी होते हैं?”
“नहीं, अंगूर नाशिक की तरफ होते हैं।”
मैंने कुछ साल पहले नाशिक की तरफ ही भरपेट अंगूर खाये थे। द्राक्षा बोलते हैं अंगूरों को यहाँ।
इंजन को भी देखने का मौका मिला। मैं यह देखकर हैरान रह गया कि ड्राइवरों को सामने कुछ भी नहीं दिखता। इन्हें खिड़की से सिर बाहर निकाले रखना पड़ता है पूरी यात्रा के दौरान।
“बारिश में भी?”
“ट्रेन तो चलानी ही है।”
मुझे देश की अन्य नैरोगेज लाइनें याद आ गयीं। सबसे ज्यादा कमाई करने वाली कालका-शिमला ट्रेन याद आयी। आधुनिक इंजन हैं वहाँ। दोनो तरफ आरामदायक केबिन। ग्वालियर नैरोगेज पर भी नए इंजन आ रहे हैं। इधर भी आने चाहिए। जब ब्रॉडगेज में बदलोगे, तब बदलते रहना। लेकिन इंजन तो ठीक हों।



इंजनों को एक निश्चित अंतराल पर नेरल वर्कशॉप भेजा जाता है। मुर्तिजापुर में एक बफ़र स्टॉप के पास एक गड्ढा बना हुआ है। तो उस गड्ढे में ट्रक खड़ा किया जाता है। बफ़र स्टॉप के बफ़र हटाये जाते हैं। कुछ रेल की पटरियाँ बफ़र से ट्रक तक बिछायी जाती हैं। सब काम मैन्युअली। चोट भी लग जाती है कई बार।
मुर्तिजापुर में रनिंग रूम भी है, लेकिन खस्ताहाल है। गार्ड ड्राइवर को बड़नेरा रनिंग रूम में सोना पड़ता है। सुबह चार बजे वाली ट्रेन से ये मुर्तिजापुर आते हैं और रात तक बडनेरा लौटते हैं। रेलवे में अगर कोई काम करता दिखता है, तो केवल गार्ड ड्राइवर। मेरी इनसे हमेशा ही सहानुभूति रही है। बारिश हो, धूप हो, लू हो, कोहरा हो, बर्फबारी हो, आधी रात हो या तड़के-तड़क हो। ये मुस्तैद नज़र आते हैं।
अचलपुर से काफी पहले ही मेलघाट की पहाड़ियाँ दिखने लगती है। ये सतपुड़ा की ही पहाड़ियाँ हैं। जिनसे होकर खंडवा-अकोला मीटरगेज लाइन गुजरती थी। जो अब गेज परिवर्तन के लिए बंद है।
“चार का आँकड़ा”, गार्ड ने बताया, “उधर चार का आँकड़ा बड़ा प्रसिद्ध है। लेकिन अब उसे उखाड़ लिया जाएगा। नयी लाइन उधर से जाएगी ही नहीं।”
गौरतलब है मेलघाट में खंड़वा-अकोला मीटरगेज लाइन अपने ही ऊपर बने पुल से होकर गुजरती है। इससे अंग्रेजी की 4 की आकृति बन जाती है, जिसे “चार का आँकड़ा” कहते हैं।
और अचलपुर तक पहुँचते-पहुँचते तय कर चुका था कि बड़नेरा से सूरत जाऊँगा और कल सूरत से भुसावल तक पैसेंजर ट्रेन में यात्रा करूँगा।
अचलपुर का कोड़ ELP है। इसे पहले एलिचपुर कहते थे।
बस पकड़कर अमरावती पहुँच गया। वहाँ नागपुर पैसेंजर तैयार खड़ी थी। साढ़े तीन बजे तक बड़नेरा जा पहुँचा।
...
बडनेरा
प्लेटफार्म 2 पर मुंबई की तरफ से एक ट्रेन आयी। आयी होगी कोई, बिजी रूट है। मैं प्रतीक्षालय में बैठा था। इसकी उद्घोषणा भी नहीं हुई। लेकिन मेरे कान इसका इंजन देखते ही खड़े हो गए - डीजल इंजन। तो क्या यह पूर्णा-अकोला रूट से आयी है? लेकिन नहीं, इस पर लिखा था लोकमान्य तिलक - गुवाहाटी एक्सप्रेस। फिर इसमें डीजल इंजन क्यों? कटिहार या मालदा, जिस रूट से भी जाएगी, उस रूट पर लगना चाहिए था डीजल इंजन। इंजन आगे निकला तो जनरल डिब्बे आये। एकदम खाली। शयनयान आये। गिने चुने यात्री। चक्कर क्या है? गुवाहाटी की ट्रेन खाली! मैं प्लेटफार्म पर आ गया। गाड़ी नम्बर देखा - 15645/46. इसकी तो पड़ताल करनी पड़ेगी।
पड़ताल की तो पता चला कि इसका नम्बर 15645 है। लेकिन यह क्या? इसका रुट तो भुसावल से इटारसी, जबलपुर होकर है। फिर यह यहाँ बड़नेरा में क्या कर रही है? क्या उस रूट पर कोई दुर्घटना हो गयी है और इसे डायवर्ट कर दिया है? पता नहीं। आगे पड़ताल की तो पता चला कि यह गाड़ी आज के दिन तो चलती ही नहीं है। बुधवार को चलती है मुंबई से। और भुसावल भी बुध को ही आती है। तो क्या यह 24 घंटे लेट चल रही है? अब तो इसकी पूरी पड़ताल करके रहूंगा। लेकिन हैरान तब रह गया, जब देखा कि 23 तारीख वाली ट्रेन तो रद्द है। जब यह ट्रेन रद्द है तो चल क्यों रही है? मामला क्या है? यह ट्रेन तो पहेली बन गयी।
लेकिन इधर जाटराम बैठा है। ऐसे हार नी मानेगा। ट्रेन 15645 रद्द क्यों है, वो तो मुझे नहीं पता, लेकिन यह 15645 नहीं है। उस रद्द ट्रेन के डिब्बों को मध्य रेलवे ने स्पेशल ट्रेन बना दिया और 01272 नंबर के साथ करमाली-अजनी स्पेशल के तौर पर चला दिया। फिलहाल यह साढ़े छह घंटे लेट चल रही थी।


‘मुर्तिजापुर’ बनाम ‘मूर्तिजापुर’

चल पड़ी अचलपुर की ट्रेन

पुरानी पटरियाँ... स्लीपर तो मिट्टी में धँस चुके हैं...


काला बैग मेरा है। सामने जो दरवाजा है, वो गार्ड के केबिन का दरवाजा है, लेकिन गार्ड साहब यहीं बैठे हैं। सीट पर टिकट बक्सा रखे हुए हैं और यहीं से यात्रियों को टिकट पकड़ा देते हैं।

रास्ते में कई पुल हैं। सभी पुलों पर गल चुकी लकड़ी के स्लीपर हैं। और ट्रेन 5 की स्पीड़ से पुल पार करती है।









बनोसा स्टेशन पर मुर्तिजापुर और आकोट स्टेशनों की समय-सारणी लगी थी।


लेह में रेल भले ही न पहुँची हो, लेकिन लेहगाँव तक पहुँच चुकी है।









नौबाग स्टेशन








अगला भाग: सूरत से भुसावल पैसेंजर ट्रेन यात्रा


1. नागपुर-अमरावती पैसेंजर ट्रेन यात्रा
2. शकुंतला रेलवे: मुर्तिजापुर से अचलपुर
3. सूरत से भुसावल पैसेंजर ट्रेन यात्रा
4. भुसावल से नरखेड़ पैसेंजर ट्रेन यात्रा
5. नागपुर से इटारसी पैसेंजर ट्रेन यात्रा




Comments

  1. नीरज भाई, बढ़िया लगा इस ट्रेन यात्रा के बारे में जानकर, फोटो हमेशा की तरह शानदार आए है, एक बात जानना चाह रहा था ऐसे रूट की जानकारी कहाँ से खोज कर निकालते हो ?

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  2. मैंने कुछ साल पहले नाशिक की तरफ ही भरपेट अंगूर खाये थे। द्राक्षा बोलते हैं अंगूरों को यहाँ।
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    आपके लिखावट में 'द्राक्षा' जैसा मराठी वर्ड आया.... हाला कि उसे 'द्राक्षे' कहते है क्यों कि वह समुच्च्यय / एक साथ होते है .........

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  3. ऐसे routes और उनके चित्र अजीब सा एहसास करते है बहुत अच्छा लगता है ये सब जानकर

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  4. बहुत रोचक और जानकारी से भरी हुई पोस्ट। अभी तक लोगों को यह समझ में नहीं आता था कि भारत की यह एक मात्र रेलवे अभी तक विदेशी रेल कंपनी के अधीन कैसे रह गया? कोई सही कारण नहीं बता पाता था । अब सब कुछ क्लियर हो गया। फोटो इत्यादि तो खूबसूरत तो हैं ही।

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  5. नीरज भाई सूरत से भुसावल पैसेंजर यात्रा का जो लिंक आपने दिया है जिसपर क्लिक करने पर मूर्तिजापुर अचलपुर वाला ही पेज खुलकर आ रहा है।

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    1. इसे ठीक कर दिया है... आपका बहुत-बहुत धन्यवाद...

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