6 अप्रैल 2017,
पंकज कुशवाल जी रैथल के रहने वाले हैं, तो उन्होंने हमें रैथल जाने के लिये प्रेरित किया। रैथल के ऊपर दयारा बुग्याल है। तो ज़ाहिर है कि दयारा का एक रास्ता रैथल से भी जाता है। दयारा बहुत बड़ा बुग्याल है और इसके नीचे कई गाँव हैं। सबसे प्रसिद्ध है बरसू। रैथल भी प्रसिद्ध होने लगा है। और भी गाँव होंगे, जहाँ से दयारा का रास्ता जाता है, लेकिन उतने प्रसिद्ध नहीं।
आज हमें रैथल ही रुकना था, तो सोचा कि क्यों न भटवाड़ी से 15 किलोमीटर आगे गंगनानी में गर्म पानी में नहाकर आया जाये। हमें नहाये कई दिन हो गये थे। इस बहाने नहा भी लेंगे और नया अनुभव भी मिलेगा। तो जब भटवाड़ी की ओर जा रहे थे तो रास्ते में और भी दूरियाँ लिखी दिखायी पड़ीं। इनमें जिस स्थान ने हमारा सबसे ज्यादा ध्यान आकर्षित किया, वो था हरसिल - गंगनानी से 30 किलोमीटर आगे। हम दोनों का मन ललचा गया और हम ख्वाब देखने लगे हरसिल में चारों ओर बर्फ़ीले पहाड़ों के बीच बैठकर चाय और आलू की पकौड़ियाँ खाने के। कार में ही बैठे बैठे हमने गंगोत्री तक जाने के सपने देख लिये। अप्रैल में - कपाट खुलने से भी पहले - गंगोत्री। रणविजय ने कहा कि हमने आज पंकज जी को रैथल का वचन दे रखा है। मैंने कहा - वचन तोड़ने में एक फोन भर करना होता है।
रणविजय भी खुश, मैं भी खुश। गर्म पानी में नहाकर एक घंटे कार चलायेंगे और हम हरसिल में होंगे।
भटवाड़ी रुक गये। हरसिल के पकौड़े तो पता नहीं कब मिलें? भटवाड़ी में पकौड़े खाते हैं। एक निहायत गंदी-सी दुकान में पकौड़ियाँ रखी दिखीं तो यहीं किनारे कार रोक दी। पकौड़ियाँ जितनी ठंड़ी थीं, चाय उतनी ही गर्म। लेकिन रणविजय खाने में मामले में नखरे नहीं करता। कैसी भी जगह हो, कैसा भी खाना हो - सब उदरस्थ। एक प्लेट पकौड़ियाँ खाने के बाद मैंने पूछा - और लें? बोला - हाँ, ले लेते हैं। अच्छी तो नहीं लग रहीं, लेकिन अच्छी भी लग रही हैं।
रैथल का रास्ता भटवाड़ी से अलग हो जाता है। हमने इसे छोड़ दिया और गंगोत्री रोड़ पर ही चलते रहे। इसके बाद ख़राब सड़क आ गयी। एक तो इसे चौड़ा बनाने का काम चल रहा है, फिर कल बारिश पड़ गयी थी। तो बहुत बेहतरीन कीचड़ के नज़रे-दीदार हुए। रणविजय अपने एक रिश्तेदार के बारे में बताने लगे कि अगर वो भी आ जाते तो कीचड़ में कार चलाते हुए हिमालय सिर पर उठा लेते।
लेकिन...
जब गंगनानी दो किलोमीटर रह गया - केवल दो किलोमीटर। भला दो किलोमीटर भी कोई दूरी होती है? एक भूस्खलन मिला। गाड़ियाँ कतार में खड़ी हुई थीं। हम सबसे आगे जा लगे। हमारे रुकते ही मानो बाकी ड्राइवर हँसने लगे - जाओ, जाओ, निकलो आगे।
अच्छा खासा भूस्खलन था। बी.आर.ओ. वाले रास्ते को जल्द से जल्द खोलने की जुगत में थे। सड़क पर आ गिरी चट्टानें नीचे लुढ़कायी जा रही थीं। एक चट्टान के गिरने से दूसरी चट्टान आकर उसका स्थान ले लेती। और नीचे भागीरथी में गिरती चट्टान बड़ी भयावह लगती।
रास्ता कम से कम दो घंटे तक नहीं खुलने वाला। हरसिल धरा रह गया, गंगोत्री भी और गर्म पानी में नहाना भी। रणविजय ने ठहाका मारते हुए कहा - एक तो हम पहले ही अव्वल दर्ज़े ने नहाक्कड़ हैं, फिर ऊपर वाला भी सोचे बैठा है कि नहाने नहीं दूँगा।
वापस मुड़ गये। भटवाड़ी पहुँचे और रैथल की चढ़ाई आरंभ कर दी। भटवाड़ी से रैथल की सड़क पी.डब्लू.डी. ने बनायी है। और बहुत अच्छी हालत में है। हालाँकि इस पर ट्रैफिक नहीं था, लेकिन बी.आर.ओ. की सड़क से तुलना करने के लिये पर्याप्त अच्छी थी। मैं बी.आर.ओ. की कार्यप्रणाली का आलोचक हूँ। इनकी प्रकृति विध्वंसक जैसी है। ये लोग पहाड़ तोड़कर गाड़ियाँ चलाने लायक रास्ता बनाना जानते हैं, अच्छी सड़क बनाना नहीं। हालाँकि कहीं-कहीं इनकी अच्छी सड़कें भी हैं, लेकिन नगण्य। अगर आपको अठारहवीं शताब्दी की गाड़ियाँ देखने का शौक है, तो बी.आर.ओ. की किसी भी सड़क पर चले जाइये। सैन्य प्रतिष्ठान होने के कारण स्थानीय प्रशासन इन गाड़ियों पर कोई आपत्ति भी नहीं कर सकता। आपको अगर एक दिन का काम एक साल में होते हुए देखना है, तो ज्यादा दूर जाने की आवश्यकता नहीं है।
तो मैं यह बता रहा था कि भटवाड़ी से रैथल का रास्ता बहुत अच्छा बना है। खेतों के बीच से होता हुआ। गेहूँ के खेत थे। अभी पके नहीं थे, इसलिये हरे-भरे थे। उत्तर में और पूरब में बर्फ़ीले पहाड़ थे। मैं भी खुश और रणविजय भी खुश।
हमें सुमन सिंह राणा के यहाँ जाना था। पंकज जी ने ही उनके बारे में बताया था।
रैथल से दो-तीन किलोमीटर पहले थे तो एक बूढ़ी महिला किनारे खड़ी दिखीं। रणविजय ने गाड़ी रोक ली - अम्मा, रैथल जाओगी क्या? अम्मा को सामान समेत बैठा लिया गया। -अम्मा, आपके घर के आगे तक कार चली जायेगी क्या? -हाँ चली जायेगी। -तो आपको घर तक छोड़ेंगे।
-अम्मा, सुमन जी का होटल कहाँ है यहाँ? -अरे, वो तो मेरा भतीजा है। हमारे घर के सामने ही होटल है।
तो यह था हमारा रैथल प्रवेश। फिर तो दो रात और एक पूरे दिन यहाँ रुके रहे, आनंदवर्षा होती रही।
सुमन जी के दो लड़के हैं और एक लड़की है। एक लड़के को जबरदस्ती देहरादून भेज रखा है, ताकि वह ‘आत्मनिर्भर’ हो सके। हमने समझाया - देखो अंकल जी, दयारा बुग्याल बड़ी तेजी से प्रसिद्ध हो रहा है।
- हाँ जी, बहुत सारे ट्रैकर्स आते हैं यहाँ।
- आने वाले समय में यहाँ से आपको बेतहाशा कमाई होगी।
- हाँ जी, यह बात तो है।
- आप अपने काम को बढ़ाओ। दो-चार कमरे और बनाओ। ट्रैकिंग वगैरा करवाओ। ऑनलाइन हो जाओ। बहुत कमाई होगी।
- हाँ जी, धीरे-धीरे कर रहे हैं। ये सारे कमरे सीजन में फुल रहते हैं और आठ-आठ सौ तक के उठते हैं। मैं ट्रैकिंग करवाने भी जाता हूँ। कैंपिंग भी कराते हैं। यह होटल दस लाख रुपये का लोन लेकर बनाया है। काम तो आने वाले समय में बढ़ेगा ही।
- तो अपने लड़के को देहरादून से वापस बुलाओ। उसे भी इसी काम में लगाओ। वहाँ वो किसी शोरूम में चौकीदारी करता है, उससे अच्छा यहाँ रहेगा।
- नहीं भाई जी, वो तो जाने को तैयार ही नहीं था। मैंने जबरदस्ती भेजा उसे।
- इसीलिये तो समझा रहे हैं आपको।
लेकिन अंकल जी न मानने थे, न माने। कमाई बढ़ेगी, आमदनी होगी, बहुत रोजगार होगा; इस बात में तो हाँ में हाँ होती रही; लेकिन जैसे ही बड़े लड़के को बुलाने की बात आती, वे इधर-उधर घुमा देते।
पलायन बहुत गहरा है... बहुत ही ज्यादा। हमारी सोच से भी ज्यादा। केवल पर्यटन को बढ़ावा देकर या गाँव में ही रोजगार देकर इसे नहीं रोका जा सकता।
गाँव में एक लड़की की शादी हरियाणा में होने वाली है। हरियाणा वाले लड़की देख गये हैं। शायद इसी सीजन में शादी हो जाये, अन्यथा अगले सीजन में तो हो ही जायेगी। बेचारी पहाड़ की लड़की हरियाणा में कैसे गुज़ारा करेगी? और पता नहीं लड़की के बाप को कितने पैसे मिले होंगे?
इनका एक पुश्तैनी घर है - पाँच मंजिला। लकड़ी और पत्थर का बना हुआ। ऐसे घर भूकंपरोधी होते हैं। कई सौ साल पुराना बताते हैं। होगा भी कई सौ साल पुराना। अब इसमें कोई नहीं रहता। किसी विदेशी ने पता नहीं कितने वर्षों के लिये इसे किराये पर लेने का इरादा किया है। यह हेरीटेज इमारत है। गाँव में दो-तीन घर इस तरह के हैं। हम भी छोटे लड़के भीम के साथ इसे देखने गये। जीर्ण-शीर्ण हालत में है। कोई सुधारने को तैयार नहीं। सबने अपने-अपने कंक्रीट के मकान बना लिये हैं। इसके सामने एक भंडारघर भी है, जिसमें अनाज आदि रखते थे। भंडारघर का दरवाजा कोई चुपके से खोल न ले, उसके लिये एक ‘अलार्म’ भी लगा है। एक जंजीर भंडारघर के दरवाजे से सीधे इसकी पाँचवीं मंजिल तक आती है। दरवाजा खुलेगा तो जंजीर खिंचेगी और अलार्म बज जायेगा।
एक बड़ा भव्य मंदिर भी है। ये असल में दो मंदिर हैं - जगदंबा मंदिर और शिव मंदिर। एक-दूसरे से सटे हुए। भव्य! बड़े शानदार लगते हैं।
एक ग्रामीण की तीन गायें मर गयीं। ज़ाहिर है कि उसका भयंकर नुकसान हो गया। आसमान में गिद्ध मंड़रा रहे थे। उन्हें दावत की खुशबू आ रही होगी। किसी की मौत किसी के लिये जश्न की चीज होती है - यही प्रकृति का नियम है।
और हाँ, रणविजय सिंह जी के लिये गिद्ध फोटो लेने की चीज थे। बाद में फेसबुक पर लगायेंगे - तरह-तरह की सूक्तियों से सजाकर।
राणा जी के होटल में एयरटेल का नेटवर्क नहीं आता। कुछ दूर जाना पड़ता है इसके लिये। एक दिन हम टहलते-टहलते चले गये। नेटवर्क आया तो नेट भी आ गया। एक-दो बार ‘नॉटीफिकेशन’ की टोन भी बजी, तो रणविजय तिरछी निगाहों ने मुझे देख लेता। उसका मोबाइल उत्तरकाशी छोड़ते ही शांत जो हो गया था। फिर बूँदाबाँदी हुई, हम डटे रहे। फिर ओले पड़ने लगे तो जान बचाकर भागे।
एक दिन नटीण गाँव की ओर चल दिये। कार से। रैथल से दो किलोमीटर आगे नटीण है। पक्की सड़क यहीं तक बनी है। इसके बाद कच्चा रास्ता है। कार जा सकती थी, लेकिन नहरी गाड़ के पुल पर कार एक तरफ़ लगा दी और जंगल में पैदल टहलते रहे। यह सड़क आगे गंगोरी के पास मेन-रोड़ में मिल जायेगी। फिर उत्तरकाशी से ऊपर ही ऊपर रैथल आया जा सकता है। और तब यह सड़क उत्तराखंड़ की बेहतरीन सड़कों में से एक होगी।
यहाँ चीड़ का जंगल था और बुराँश भी। अप्रैल का महीना बुराँश के खिलने का महीना होता है, तो जंगल में लाल-लाल फूल शानदार लग रहे थे।
कुल मिलाकर अच्छा समय कट रहा था। एकदम रिलैक्स। मैंने इतनी आरामदायक यात्रा कभी नहीं की थी। सोचता तो खूब था कि यात्राओं में आराम भी किया करेंगे, कहीं किसी गाँव में दो-तीन दिन निठल्ले बैठे रहेंगे। लेकिन ऐसा होता नहीं है। शहरी संस्कृति इतनी हावी हो गयी है कि हमेशा कुछ न कुछ करते रहने का मन करता है। खाली नहीं बैठा जाता। यार लोग पूछते हैं कि ऐसी जगह बताओ जहाँ भीड़भाड़ न हो, अच्छा मौसम हो, हिमालय के दर्शन होते हों। तो ऐसी एक जगह है रैथल। लेकिन इतना भी कहे देता हूँ कि यदि आपका मन दयारा जाने का नहीं है, तो आप यहाँ बोर हो जाओगे।
यहाँ नागदेवता का एक स्थान है। हिमालय में प्रत्येक स्थान पर नाग मंदिर मिल जायेंगे। लेकिन यह मंदिर बेहद जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है। इसके पुनर्निर्माण के लिये प्रशासन से धनराशि मंज़ूर हो चुकी है। जल्द ही अच्छा मंदिर बनेगा।
शाम को दयारा वाले ट्रैक पर एक किलोमीटर टहलने निकल गये। मनरेगा योजना की ऐसी-तैसी होते देखकर ख़राब भी लगा। किसी के खेत के चारों तरफ़ चार पत्थर रख दिये और लिख दिया - फलाने सिंह के खेत में सुरक्षा दीवार का निर्माण - एक लाख रुपये।
पिछले दो वर्षों से अधिक बारिश के कारण यहाँ काफ़ी नुकसान हुआ है। यात्री भी कम हो गये और मरम्मत का खर्च भी बढ़ गया। कुछ के तो घर और खेत ही बह गये। मुआवजे से भला कुछ होता है? बैंक के लोन को कम करवाने के लिये देहरादून तक के चक्कर काटे, लेकिन कोई फ़ायदा नहीं हुआ।
हमने छोटे लड़के भीम के खूब कान भरे - तेरा बापू तुझे भी अगर बाहर जाने को कहे, तो जाना मत। तुम्हारे यहाँ आमदनी के इतने मौके हैं कि पूरे पहाड़ में ऐसे मौके कहीं और नहीं। थोड़ा कम्प्यूटर का कोर्स कर ले और निम से पर्वतारोहण भी कर ले। उतना मुश्किल नहीं है। और पहाड़ में ही रहना। बाहर के आदमी पहाड़ में आकर अपना व्यवसाय खड़ा कर रहे हैं और तुम लोग देहरादून जाने को तैयार बैठे हो।
लड़के ने कुछ नहीं सुना। खाली गर्दन हिलाता रहा। यह लड़का अगर बाहर चला गया तो कभी भी पहाड़ में नहीं लौटेगा। और हाँ, ज़िंदगी भर सरकार को, सिस्टम को और ‘बाहरियों’ को कोसेगा - बढ़ते पलायन से चिंतित होकर।
तीसरे दिन बारी थी वापस लौटने की। सीधे उत्तरकाशी, चिन्यालीसौड़ और फिर मसूरी। चिन्यालीसौड़ से मसूरी की पूरी सड़क अब शानदार बन गयी है। देहरादून से छुटमलपुर की सड़क भी शानदार है। और झबरेड़ा वाली सड़क भी। मैं पहली बार झबरेड़ा से होकर गुज़रा। मंगलौर और रूड़की के जाम में फँसने से कई गुना अच्छा है यह झबरेड़ा वाला रास्ता। कभी उत्तरकाशी जाना हो तो मैं इसी रास्ते को चुनूँगा।
और यह नाम क्या रखा इनके बुज़ुर्गों ने? झबरेड़ा। जैसे किसी झबरू को बुला रहे हों।
समाप्त।
सड़क खुलने की प्रतीक्षा... |
भटवाडी से रैथल का रास्ता |
रैथल में कमरे की खिड़की से बाहर का नज़ारा |
पुराने पाँच मंजिला मकान में ऊपर चढ़ने के लिये सीढ़ियाँ |
नटीण की तरफ़ भ्रमण |
रैथल में नाग मंदिर |
यही होटल था, जिसमें हम ठहरे थे... |
चिन्यालीसौड़ से मसूरी की सड़क |
1. उत्तरकाशी भ्रमण: पंकज कुशवाल, तिलक सोनी और चौरंगीखाल
2. उत्तरकाशी में रैथल गाँव का भ्रमण
3. उत्तरकाशी में रणविजय सिंह की फोटोग्राफी
पलायन पहाड़ की गहरी समस्या है लेकिन शहरों में रहने वाले लोग इसको नहीं समझ सकते। यह केवल रोजगार की बात नहीं है (वो भी एक मुख्य कारण है) बल्कि जीवनशैली की भी बात है। शहरी चमकधमक भी युवाओं को आकर्षित करती है।
ReplyDeleteसुन्दर विवरण। तस्वीरें भी आकर्षक हैं।
आपने सही कहा विकास जी...
Deleteतस्वीरें देखी. समझ में नहीं आया कि अन्य पहाड़ी गाँव से ये अलग कैसे है. मैंने कहीं पढ़ा हर सातवा आदमी विस्थापित है. पलायन प्रकृति जैसा है. न रुका है, न रुकेगा.
ReplyDeleteधन्यवाद शशि मोहन सर...
Deleteपहाड़ो का जीवन बहुत कठिन होता है, एक को देखकर एक पलायन कर रहे हैं।
ReplyDeleteसही कहा अहमद साहब, पहाड़ों का जीवन कठिन तो होता है...
Deleteबहुत बढिया संस्मरण शनिवार को जब मैं गया तब रास्ता खुला हुआ था।पलायन रोकने के लिए पहाड़ों मे मॉल बनाने पड़ेंगे😃
ReplyDeleteexcellent post
ReplyDeleteBina koi yojna banaye yatra karna ek alag hi anand deta hai, Jo aapki post me dikha.
ReplyDeletePhoto acche hai.
लगे रहो
ReplyDeleteGood description of Raithal... But have you posted video on YouTube of this.. please inform
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