2 नवंबर, 2016
पता नहीं क्या बात थी कि हमें चोपता से तुंगनाथ जाने में बहुत दिक्कत हो रही थी। चलने में मन भी नहीं लग रहा था। हालाँकि चोपता से तुंगनाथ साढ़े तीन किलोमीटर दूर ही है, लेकिन हमें तीन घंटे लग गये। तेज धूप निकली थी, लेकिन उत्तर के बर्फ़ीले पहाड़ बादलों के पीछे छुपे थे। धूप और हाई एल्टीट्यूड़ के कारण बिलकुल भी मन नहीं था चलने का। यही हाल निशा का था।
थोड़ा-सा चलते और बैठ जाते और दस-पंद्रह मिनट से पहले नहीं उठते।
दूसरे यात्रियों को देखा, तो उनकी भी हालत हमसे अच्छी नहीं थी। तुंगनाथ के पास एक कृषि शोध संस्थान है। मैं सोचने लगा कि जो भी कृषि-वैज्ञानिक इसमें रहते होंगे, वे खुश रहते होंगे या इसे काला पानी की सज़ा मानते होंगे। हालाँकि सरकारी होने के कारण उन्हें हर तरह की सुविधाएँ हासिल होंगी, पैसे भी अच्छे मिलते होंगे, इनसेंटिव भी ठीक मिलता होगा, लेकिन फिर भी उन्हें अकेलापन तो खलता ही होगा।
हम सुबह आराम से - मतलब बड़े आराम से - ग्यारह बजे चोपता से चले थे। दो बजे तुंगनाथ पहुँचे। मैं पहले भी यहाँ आ चुका हूँ, लेकिन अप्रैल में अक्सर इसके कपाट नहीं खुलते और बर्फ़ भी रहती है। तब मैं बर्फ़ के कारण चंद्रशिला तक नहीं पहुँच सका था। आज बर्फ़ का नामोनिशान नहीं था, तो मौका था चंद्रशिला भी जाने का। तुंगनाथ जी के दर्शन करके हम चंद्रशिला की ओर चल दिये। निशा का कतई मन नहीं था, लेकिन उसने हिम्मत दिखायी।
यहीं से एक पगडंडी गोपेश्वर की तरफ़ जाती भी दिखती है, जो नीचे घने जंगलों में खो जाती है। हालाँकि यह वर्तमान में गोपेश्वर तो नहीं जाती होगी, नीचे सड़क पर चली जाती होगी, लेकिन किसी जमाने में गोपेश्वर से यहाँ श्रद्धालु आया करते होंगे। आज जबकि गोपेश्वर से यहाँ तक अच्छी-खासी सड़क बनी है, तो कौन आता होगा इस पगडंडी से?
घास पीली पड़ने लगी थी, मतलब सूखने लगी थी। यह सर्दी के आगमन का संकेत था। संकेत भी था और तैयारी भी। कुछ दिन पहले यहाँ भयंकर हरियाली रही होगी। समुद्र तल से 3500 मीटर की ऊँचाई पर पेड़ अक्सर नहीं होते, घास के मैदान ही होते हैं।
यहाँ ब्रह्मकमल नहीं होता। बताया गया कि यहाँ से उत्तर में जो धार चली गयी है, उधर कहीं तीन दिन के रास्ते पर ब्रह्मकमल होता है। ब्रह्मकमल के मौसम में कुछ लोग उधर जाते हैं और ब्रह्मकमल लेकर आते हैं। मैंने पूछा कि वहाँ से तो मदमहेश्वर भी नज़दीक ही होगा। बोले कि बीच में गौंडार वाली नदी है, अन्यथा नज़दीक ही होता।
चंद्रशिला के लिये चले तो मौसम ख़राब होने लगा। इसे अच्छा तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन इस बार हम चंद्रशिला नहीं छोड़ने वाले थे। फ़िर कभी आना हो न हो। हम चलते रहे। हमारे आगे एक ग्रुप और चल रहा था।
जब चंद्रशिला पहुँचने वाले ही थे, तो हल्की-हल्की बर्फ़बारी शुरू हो गयी। आगे चलने वाले चार लड़कों में खलबली मच गयी। वे वापस मुड़ ही चुके थे, लेकिन हमें चलते देख उनमें भी हिम्मत जगी और आख़िरकार वे भी चंद्रशिला पहुँचे।
कहते हैं कि चंद्रशिला 4000 मीटर पर स्थित है, लेकिन ऐसा है नहीं। गूगल मैप के अनुसार इसकी ऊँचाई 3650 मीटर है। हमने मोबाइल में जी.पी.एस. चलाया, लेकिन इसके सिग्नल नहीं मिले। शायद ख़राब मौसम के कारण ऐसा हुआ हो, हालाँकि अक्सर ऐसा होता नहीं है। या फ़िर हो जाता होगा। लेकिन यह 4000 मीटर तो कतई नहीं है। गूगल मैप पर पक्का भरोसा है मुझे।
चारों तरफ़ घने बादल थे। तेज हवा चल रही थी। रुक-रुक कर हल्की बर्फ़बारी भी हो रही थी। वैसे इतनी ऊँचाई पर बर्फ़ ही पड़ती है, ऐसा नहीं है। बारिश भी हो जाया करती है। हमें बारिश का अंदेशा था। हम बर्फ़ में ‘भीग’ सकते थे, लेकिन बारिश में नहीं। अगर अभी बारिश होने लगती, तो छोटे-से मंदिर में शरण ले लेते।
जो बाकी चार लड़के थे, उनमें से तीन तो लगभग हमारी ही उम्र के थे, जबकि एक कुछ अधेड़ थे। वे तीनों उन्हें ‘सर’ से संबोधित कर रहे थे। तीनों जमकर मस्ती कर रहे थे, चहचहा रहे थे, सेल्फियाँ ले रहे थे; जबकि ‘सर जी’ सीरियस किस्म के थे। उन्हें जबरदस्ती फ्रेम में आने के लिये खींचा जाता, जबरदस्ती मुस्कुराने को बाध्य किया जाता।
जब यहाँ से चलने को हुए तो पूर्व दिशा में बादल हट गये और घाटी दूर तक दिखने लगी। मैं और निशा दोनों उत्साहित हो गये और दौड़कर मंदिर के पीछे ‘रिज’ के किनारे पर पहुँच गये। यहाँ से पूर्व की तरफ़ का दूर-दूर तक नज़ारा दिखायी दे रहा था। जंगल ही जंगल। अनुसुईया और रुद्रनाथ के बीच में स्थित नेवला पास यहाँ से ज्यादा दूर नहीं है। हमें दिख तो रहा होगा, लेकिन हम पहचान नहीं पाये।
बादलों से ऊपर होने का अलग ही मज़ा है। और अगर आपके नीचे के बादल बरस रहे हों और आपको नीचे गिरता पानी दिख भी रहा हो, तो इससे विलक्षण दृश्य कुछ नहीं है। हमने कुछ फोटो अवश्य खींचे, लेकिन कैमरे की एक सीमा भी होती है। बड़ी देर तक बैठकर हम इस अदभुत दृश्य को देखते रहे। इस समय यह बिलकुल भी ख़्याल नहीं आया कि कुछ ही देर में ये बादल ऊपर हमारे पास आ जायेंगे और हमें भिगो देंगे। अदभुत!
कुछ बौद्ध झंड़ियाँ भी लगी मिलीं - ॐ मणि पद्मे हुं - वाली।
वाकई कमाल की जगह है चंद्रशिला। मौसम खुला होता, तो हमें बंदरपूँछ के परे से लेकर नंदादेवी के परे तक की चोटियाँ दिखतीं। और चौखंबा राज करती।
नीचे उतरने लगे तो बजरी गिरने लगी। छोटी-छोटी बजरी। जितनी ज्यादा तेज हवा चलेगी, ये उतनी ही मोटी होंगी। फिलहाल जितनी तेज हवा चल रही थी, उससे जो बजरियाँ बन रही थीं, उनसे हमें कोई दिक्कत नहीं थी। यदि हवा की गति बढ़ी, तो इनकी मोटाई भी बढ़ेगी और तब ये हमें नुकसान पहुँचा सकती हैं। लेकिन हवा की स्पीड़ नहीं बढ़ रही थी, हम भी निश्चिंत थे।
पूर्व के बादल अब हमारे ऊपर आ गये थे और वे ही ‘बजरी-वर्षा’ कर रहे थे। अब पश्चिम में मौसम खुल गया था और सूरज जी महाराज अपनी धूप हम पर फेंक रहे थे। एक तरफ़ ‘हिमवर्षा’, दूसरी तरफ़ ‘तापवर्षा’। दोनों एक साथ। लगता कि वरुणदेव ने और भास्करदेव ने हमें केंद्र मानकर ठान ली हो कि कौन विजयी होता है। लेकिन भास्करदेव के आगे कोई कभी विजयी हुआ है भला? वरुणदेव को अपनी हार माननी पड़ी और तुंगनाथ पहुँचते-पहुँचते आसमान में बादलों का नाम भी नहीं रहा। चौखंबा और कई अन्य चोटियाँ दिखने लगीं। अदभुत दृश्य!
हम पाँच बजे तुंगनाथ में ही थे। कुछ दुकानदार ताश खेल रहे थे। यात्री कोई नहीं था। सब नीचे जा चुके थे। मुझे उनका बेफ़िक्री में ताश खेलना बड़ा अच्छा लगा। हम चाय पीने लगे, वे ताश में व्यस्त रहे। एक-दो फोटो खींचे तो एक ने फोटो लेने को मना किया। कुछ देर में एक साधु आये और उन दुकानदारों को ताश खेलने के लिये लताड़ा। चारों मुस्कुराते हुए ज़मीन में आँखें गड़ाये उठे और चारों दिशाओं में विलीन हो गये।
दुकान पर हरे रंग की कोई सब्जी रखी थी थाली में। हमने पूछा तो बताया - यह मीठा करेला है।
- मतलब यह मीठा होता है?
- नहीं, मीठा नहीं होता, लेकिन कड़वा भी नहीं होता।
- तो मीठा करेला क्यों कहते हो?
- बस, ऐसे ही।
साढ़े पाँच बजे जब सूर्य के पास आख़िरी किरणें ही बची थीं, वे सभी उसने चौखंबा को दे दी। चौखंबा खुशी के मारे लाल हो उठी।
जिस दिशा में सूर्य अस्त हुआ, उसी दिशा में चंद्र उदय हो गया। बेचारा कुछ ही देर टिकेगा।
चोपता से तुंगनाथ जाने का रास्ता |
हाई एल्टीट्यूड़ कृषि प्रयोगशाला |
तुंगनाथ से सीधी पगडंडी गोपेश्वर जाती है जबकि बायें चंद्रशिला |
चंद्रशिला पर |
दूर जो रिज दिख रहे हैं, उनमें बीच वाला शायद नेवला पास वाला रिज है |
नीचे घाटी में बारिश होती हुई |
हिम-बजरी |
चौखंबा दर्शन |
बिना पूँछ का चूहा |
चौखंबा का सायंकालीन नज़ारा |
आज बस इतना ही। अच्छा लगा हो, प्रोत्साहन देना न भूलें। ख़राब तो नहीं लगेगा, यह मैं जानता हूँ।
अगला भाग: चोपता से दिल्ली बाइक यात्रा
1. बाइक यात्रा: मेरठ-लैंसडौन-पौड़ी
2. खिर्सू के नज़ारे
3. देवरिया ताल
4. तुंगनाथ और चंद्रशिला की यात्रा
5. चोपता से दिल्ली बाइक यात्रा
सुंदर फोटो और यात्रा तो अच्छी है अकेले का पढा था आज दुकेले का भी पढ़ लिया
ReplyDeleteधन्यवाद गुप्ता जी...
Deleteशानदार जानदार मज़ेदार....
ReplyDeleteआमतौर पर प्रकृति की तारीफ़ के क़सीदे नहीं गढ़ते हो...
लेकिन इस बार पाठको को भी सराबोर कर दिया...
धन्यवाद भाई...
Deleteइस बार अच्छा मूड़ बना हुआ था।
बड़े नए नए शब्द मिल रहे हैं , हिम वर्षा , ताप वर्षा , बजरी वर्षा ! बहुत बढ़िया ! खच्चर भी चलते हैं क्या इस मार्ग पर ? चौखम्बा का सांयकालीन शानदार दर्शन
ReplyDeleteहाँ जी, इस मार्ग पर खच्चर भी मिल जाते हैं। धन्यवाद आपका।
Deleteगजब की लेखन शैली और यात्रा
ReplyDeleteधन्यवाद पंडित जी...
Deleteहमें भी फूल टू दर्शन करा दिए।
ReplyDeleteएक शब्द में कहूँ तो शा न दा र ।
ReplyDeleteअच्छी जानकारी भी दी और साथ में तुंगनाथ ,चंद्शिला की यात्रा भी करायी .
ReplyDeleteबहुत बढ़िया। अलग शैली में पढ़ना भी अच्छा लगा। नेवला पास से ही मैं रुद्रनाथ से मंडल उतरा था। बजरी वर्षा नया शब्द मिला। :)
ReplyDeleteइस यात्रा वर्णन मैं... कौवा, खरगोश, और वो पंछी ...वाह क्या बात है !... वह कौन सा पंछी है ???
ReplyDeleteचाय कि फोटो भी .. बहुत बढिया
शानदार यात्रा विवरण
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत अच्छा सर जी
ReplyDeleteneeraj bhai kya december 29 to 31 me chopta tungnath ja sakte hain ?
ReplyDeleteहाँ जी, बिलकुल जा सकते हैं।
Deletedhanyawaad jat bhai
Deleteबहुत अच्छा लेख और सभी प्रकार के फ़ोटो देख मजा आ गया ।
ReplyDeletekase na accha lage main bhi to ak kabira hu neeraj bhi..
ReplyDeleteबहुत खूब सर।
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