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Showing posts from November, 2015

रुद्रनाथ यात्रा- पंचगंगा-रुद्रनाथ-पंचगंगा

27 सितम्बर 2015    सुबह छह बजे उठे और चाय-बिस्कुट खाकर रुद्रनाथ की ओर चल दिये। रुद्रनाथ यहां से तीन किलोमीटर दूर है। पंचगंगा समुद्र तल से 3660 मीटर पर है जबकि रुद्रनाथ 3510 मीटर पर। जाहिर है कि ढलान है। पंचगंगा ही वो स्थान है जहां मण्डल से आने वाला रास्ता भी मिल जाता है। हमें चूंकि अनुसुईया और मण्डल के रास्ते वापस जाना था, इसलिये रुद्रनाथ जाकर पंचगंगा आना ही पडता, इसलिये अपना सारा सामान यहीं रख दिया। पानी की एक बोतल, ट्रेकिंग पोल लेकर ही चले। अच्छी धूप निकली थी, रेनकोट की कोई आवश्यकता नहीं थी।    करीब एक किलोमीटर बाद लोहे के सरिये को ऐसे ही मोडकर एक द्वार बना रखा है। यहां से रुद्रनाथ के प्रथम दर्शन होते हैं। बडा ही मनोहारी इलाका है यह। दूर दूर तक फैले बुग्याल, कोई जंगल नहीं। हम वृक्ष-रेखा से ऊपर जो थे। रुद्रनाथ के पीछे के पहाडों पर बादल थे, अन्यथा पता नहीं कौन-कौन सी चोटियां दिखतीं।

रुद्रनाथ यात्रा- पुंग बुग्याल से पंचगंगा

26 सितम्बर 2015 आंख सात बजे से पहले ही खुल गई थी। बाहर निकले तो कोहरा था। चटाई बिछ गई और हम वहां जा भी बैठे। आलू के परांठे बनाने को कह दिया। परांठे खाये तो नीचे से एक ग्रुप आ गया। ये लोग खच्चर पर सवार थे। मुम्बई की कुछ महिलाएं थीं। सबसे पहले एक आईं, इनका नाम नीता था। 35 के आसपास उम्र रही होगी। भारी-भरकम कद-काठी। निशा ने धीरे से मुझसे कहा कि बेचारे खच्चर पर कैसी बीत रही होगी। खैर, अगले तीन दिनों तक हम मिलते रहे। उन्होंने पूर्वोत्तर समेत भारत के ज्यादातर इलाकों में भ्रमण कर रखा है। अच्छा लगता है जब कोई महिला इस तरह यात्रा करती हुई मिलती है। आठ बजे पुंग बुग्याल से चल दिये। घना जंगल तो है ही। आज कुछ चहल-पहल दिखी। कई बार तो ऊपर से लोग आते मिले और मुम्बई वाला ग्रुप हमारे पीछे था ही। खूब चौडी पगडण्डी है। जंगल होने के बावजूद भी कोई डर नहीं लगा। जितना ऊपर चढते जाते, नीचे पुंग बुग्याल उतना ही शानदार दिखता जाता। चारों ओर घना जंगल और बीच में घास का छोटा सा मैदान। हम आश्चर्य भी करते कि रात हम वहां रुके थे और अब इतना ऊपर आ गये।

रुद्रनाथ यात्रा: गोपेश्वर से पुंग बुग्याल

25 सितम्बर 2015 पांचों केदारों में केवल रुद्रनाथ ही अनदेखा बचा हुआ था, बाकी चारों केदार मैंने देख रखे हैं। सभी के लिये कुछ न कुछ पैदल अवश्य चलना पडता है। लेकिन रुद्रनाथ की यात्रा को कठिनतम माना जाता है। मैंने इसके कई यात्रा-वृत्तान्त पढ रखे हैं लेकिन एक बात का हमेशा सन्देह रहा। गोपेश्वर से रुद्रनाथ जाने के दो रास्ते हैं- एक तो मण्डल, अनुसुईया होते हुए और दूसरा सग्गर होते हुए। मुझे मण्डल का तो पता चल गया कि यह चोपता रोड पर गोपेश्वर से पन्द्रह किलोमीटर दूर है। लेकिन कभी यह पता नहीं चला कि सग्गर कहां है। चोपता रोड पर ही है या किसी और सडक पर है। सग्गर से आगे भी कोई सडक जाती है या सग्गर में ही सडक समाप्त हो जाती है- इस बात को जानने की मैंने खूब कोशिश कर ली लेकिन मैं यात्रा पर जाने तक नहीं जान पाया था कि सग्गर कहां है। गूगल मैप पर भी सग्गर की कोई स्थिति नहीं है। जब आपको यह आधारभूत जानकारी ही नहीं होगी तो आपको आगे का कार्यक्रम बनाने में भी परेशानी आयेगी।

गैरसैंण से गोपेश्वर और आदिबद्री

25 सितम्बर 2015    दिल्ली से चले थे तो हमारी योजना बद्रीनाथ और सतोपंथ जाने की थी लेकिन रात जब सतोपंथ के बारे में नेट पर पढने लगे तो पता चला कि वहां जाने का परमिट लेना होता है और गाइड-पोर्टर और राशन-पानी भी साथ लेकर चलना होता है। तभी मैंने सतोपंथ जाना स्थगित कर दिया और विचार किया कि रुद्रनाथ जायेंगे। निशा तो तुरन्त राजी हो गई लेकिन करण को समझाना पडा क्योंकि वह बद्रीनाथ और सतोपंथ का ही विचार किये बैठा था। आखिरकार वह भी मान गया।    सुबह सवा आठ बजे बिना नाश्ता किये गैरसैंण से चलना पडा क्योंकि रेस्टोरेंट का रसोईया आज नहीं आया था। यहां से आदिबद्री ज्यादा दूर नहीं है। वहीं नाश्ता करेंगे।    कुछ दूर तक चढाई है, फिर उतराई है। यहां हमें चाय की खेती दिखाई दी। उत्तराखण्ड में अक्सर चाय नहीं होती लेकिन यहां कुछ जगहों पर चाय की खेती होती है। यह इलाका मुझे बडा पसन्द आया। एक तो यह काफी ऊंचाई पर है, फिर चीड का जंगल। कहीं 2000 मीटर से ऊंची जगह पर अगर आपको चीड का जंगल मिले तो समझना कि आप वहां पूरा दिन भी बिता सकते हैं। बार-बार रुकने को मन करता है। खूब फोटो खींचने को मन करता है।

दिल्ली से गैरसैंण और गर्जिया देवी मन्दिर

   सितम्बर का महीना घुमक्कडी के लिहाज से सर्वोत्तम महीना होता है। आप हिमालय की ऊंचाईयों पर ट्रैकिंग करो या कहीं और जाओ; आपको सबकुछ ठीक ही मिलेगा। न मानसून का डर और न बर्फबारी का डर। कई दिनों पहले ही इसकी योजना बन गई कि बाइक से पांगी, लाहौल, स्पीति का चक्कर लगाकर आयेंगे। फिर ट्रैकिंग का मन किया तो मणिमहेश परिक्रमा और वहां से सुखडाली पास और फिर जालसू पास पार करके बैजनाथ आकर दिल्ली की बस पकड लेंगे। आखिरकार ट्रेकिंग का ही फाइनल हो गया और बैजनाथ से दिल्ली की हिमाचल परिवहन की वोल्वो बस में सीट भी आरक्षित कर दी।    लेकिन उस यात्रा में एक समस्या ये आ गई कि परिक्रमा के दौरान हमें टेंट की जरुरत पडेगी क्योंकि मणिमहेश का यात्रा सीजन समाप्त हो चुका था। हम टेंट नहीं ले जाना चाहते थे। फिर कार्यक्रम बदलने लगा और बदलते-बदलते यहां तक पहुंच गया कि बाइक से चलते हैं और मणिमहेश की सीधे मार्ग से यात्रा करके पांगी और फिर रोहतांग से वापस आ जायेंगे। कभी विचार उठता कि मणिमहेश को अगले साल के लिये छोड देते हैं और इस बार पहले बाइक से पांगी चलते हैं, फिर लाहौल में नीलकण्ठ महादेव की ट्रैकिंग करेंगे और वापस रोहतांग स

पातालकोट से इंदौर वाया बैतूल

पातालकोट हम घूम चुके और अब बारी थी वापस इन्दौर जाने की। एक रास्ता तो यही था जिससे हम आये थे यानी पिपरिया, होशंगाबाद, भोपाल होते हुए। इस रास्ते को हम देख चुके थे। दूसरा रास्ता था बैतूल होते हुए। मैं इसी बैतूल वाले से जाना चाहता था। नया रास्ता, नई जगह देखने को मिलेगी। तामिया से दोनों रास्ते अलग होते हैं। हम बायें मुड गये और जुन्नारदेव के लिये ग्रामीण रास्ता पकड लिया। तामिया से जुन्नारदेव 28 किलोमीटर है और सारा रास्ता अच्छा बना है। सडक सिंगल लेन है यानी पतली सी है और कोई ट्रैफिक नहीं। ऊंची-नीची छोटी-छोटी पहाडियां इस रास्ते को बाइक चलाने के लिये शानदार बनाती हैं। आधा घण्टा लगा जुन्नारदेव पहुंचने में। शाम के चार बज चुके थे। बैतूल अभी भी लगभग 100 किलोमीटर था। मुझे इस दूरी को तय करने में लगभग तीन घण्टे लगेंगे, अगर सडक अच्छी हुई तो। यानी बैतूल पहुंचने में अन्धेरा हो जाना है। मैं अन्धेरे में बाइक चलाना पसन्द नहीं करता इसलिये तय कर लिया कि रात बैतूल रुकना है। उधर सुमित पहले ही काफी लेट हो रहा था। उन्हें जल्द से जल्द इन्दौर पहुंचना था इसलिये आज वे बैतूल नहीं रुक सकते थे। सहमति बनी और हम जुन्नारदे

पातालकोट भ्रमण और राजाखोह की खोज

   अगले दिन यानी 24 अगस्त को आराम से साढे आठ बजे सोकर उठे। तेज हवाएं अभी भी चल रही थीं। बाहर निकले तो घना कोहरा था। अगस्त में कोहरा आमतौर पर नहीं होता लेकिन यहां के भूगोल, तेज हवाओं और अगस्त के नम वातावरण की वजह से यहां ऊपर बादल बन गये थे जो कोहरे जैसे लग रहे थे। नीचे घाटी में कोई कोहरा नहीं होगा। अदभुत अनुभव था।    मैं और सुमित बाइक पर दूध लेने चल दिये। चौकीदार ने बताया कि गांव में किसी के यहां दूध मिल जायेगा। डिब्बा लेकर हम एक घर में पहुंचे। आवाज देने पर एक लडका बाहर आया। पूछने पर उसने पहले तो हमें विस्मय से देखा, फिर बोला- अभी हमारी गईया नहीं ब्याई है। फिर हमने किसी और से नहीं पूछा और सीधे पहुंचे तीन किलोमीटर दूर छिन्दी बाजार में। बाजार खुलने लगा था और हलवाई के यहां हमारी उम्मीदों के विपरीत ताजा पोहा उपलब्ध था। कल हमें बताया गया था कि यहां खाने को कुछ नहीं मिलता। अगर पोहे का पता होता तो हम आज खिचडी नहीं बनाते। देर-सबेर यहां आना ही था। हम सभी पोहे को बडे चाव से खाते हैं, तो आराम से भरपेट खाते।

पचमढ़ी से पातालकोट

23 अगस्त 2015 बहुत दिनों से सोच रखा था कि जब भी पचमढी जाऊंगा, तब पातालकोट भी जाना है। मेरे लिये पचमढी से ज्यादा आकर्षक पातालकोट था। अब जब हम पचमढी में थे और हमारे पास बाइक भी थी, तो इतना तो निश्चित था कि हम पातालकोट भी अवश्य जायेंगे। पातालकोट का रास्ता तामिया से जाता है, तामिया का रास्ता मटकुली से जाता है और मटकुली पचमढी जाते समय रास्ते में आता है। मटकुली में एक तिराहा है जहां से एक सडक पिपरिया जाती है, एक जाती है पचमढी और तीसरी सडक जाती है तामिया होते हुए छिन्दवाडा और आगे नागपुर। डेढ बजे पचमढी से चल दिये और एक घण्टे में ही मटकुली पहुंच गये। रास्ता पहाडी है और ढलान भरा है। हम रात के अन्धेरे में पचमढी आये थे। तब यह रास्ता बहुत मुश्किल लग रहा था, अब उतना मुश्किल नहीं लगा। पचमढी में मौसम अच्छा था, लेकिन जितना नीचे आते गये, उतनी ही गर्मी बढती गई।