26 सितम्बर 2015
आंख सात बजे से पहले ही खुल गई थी। बाहर निकले तो कोहरा था। चटाई बिछ गई और हम वहां जा भी बैठे। आलू के परांठे बनाने को कह दिया। परांठे खाये तो नीचे से एक ग्रुप आ गया। ये लोग खच्चर पर सवार थे। मुम्बई की कुछ महिलाएं थीं। सबसे पहले एक आईं, इनका नाम नीता था। 35 के आसपास उम्र रही होगी। भारी-भरकम कद-काठी। निशा ने धीरे से मुझसे कहा कि बेचारे खच्चर पर कैसी बीत रही होगी। खैर, अगले तीन दिनों तक हम मिलते रहे। उन्होंने पूर्वोत्तर समेत भारत के ज्यादातर इलाकों में भ्रमण कर रखा है। अच्छा लगता है जब कोई महिला इस तरह यात्रा करती हुई मिलती है।
आठ बजे पुंग बुग्याल से चल दिये। घना जंगल तो है ही। आज कुछ चहल-पहल दिखी। कई बार तो ऊपर से लोग आते मिले और मुम्बई वाला ग्रुप हमारे पीछे था ही। खूब चौडी पगडण्डी है। जंगल होने के बावजूद भी कोई डर नहीं लगा। जितना ऊपर चढते जाते, नीचे पुंग बुग्याल उतना ही शानदार दिखता जाता। चारों ओर घना जंगल और बीच में घास का छोटा सा मैदान। हम आश्चर्य भी करते कि रात हम वहां रुके थे और अब इतना ऊपर आ गये।
पौने ग्यारह बजे मौली खरक (30.468068°, 79.339388°) पहुंचे। यहां एक दुकान है। पुंग से इसकी दूरी पांच किलोमीटर है। यह समुद्र तल से 3015 मीटर की ऊंचाई पर है यानी पुंग से 760 मीटर ऊपर। यह काफी तेज चढाई है। लेकिन हमें चढते समय बिल्कुल भी एहसास नहीं हुआ कि हम इतनी तीव्र चढाई पर चढ रहे हैं। मौली खरक जाकर मैंने जीपीएस देखे बिना घोषणा कर दी थी कि हम तकरीबन 2800 मीटर पर हैं और जब देखा कि यह तो 3000 मीटर से भी ज्यादा है तो बडा आश्चर्य भी हुआ और खुशी भी मिली। 3000 मीटर का अर्थ यह है कि अब जंगल समाप्त हो जायेगा और घास के मैदान शुरू हो जायेंगे। हिमालय में ट्रैकिंग के लिये जंगल के मुकाबले घास के मैदान हमेशा ही अच्छे होते हैं। एक तो जानवरों का उतना डर नहीं लगता और दूसरे, चारों तरफ के अच्छे नजारे देखने को मिलते हैं।
मौली खरक में भी रुकने-खाने का इंतजाम है। यहां हमने चाय-बिस्कुट खाये। आधा घण्टा यहां रुके और चल दिये। यहां से सामने ही एक झरना दिखता है, जो काफी ऊंचा है। पता नहीं झरने तक जाने का मार्ग है या नहीं। शायद नहीं है।
मौली खरक से एक किलोमीटर आगे ल्वीटी बुग्याल (30.467702°, 79.343778°, ऊंचाई 3200 मीटर) है। अब तक पेड तो समाप्त हो ही चुके थे। चारों ओर घास ही थी। फिर यहां एक समतल मैदान है जहां एक दुकान है और गायें भी पाली जाती हैं। अपना टैंट भी लगाया जा सकता है। मुम्बई की महिलाओं को यह जगह इतनी पसन्द आई कि उन्होंने आज यहीं रुकने का फैसला कर लिया। हमने यहां भी चाय पी। चाय का निराला ही आनन्द है- बाहर गुनगुनी धूप में पत्थर पर बैठकर और जूते उतारकर। ठण्ड में चाय पीने से ज्यादा इसके गिलास को दोनों हाथों की हथेलियों से पकडने का भी अलग ही मजा होता है।
ल्वीटी बुग्याल से दो किलोमीटर आगे पनार बुग्याल है। यहां से पनार तक चढाई भरा रास्ता दिखता है। पनार इस यात्रा का अहम पडाव है। सग्गर से पनार तक तीव्र चढाई है। पनार के बाद राहत भरा रास्ता शुरू होता है।
पनार बुग्याल- 30.470207°, 79.346655°, ऊंचाई 3450 मीटर। गजब की शानदार जगह। यह काफी बडा बुग्याल है। बुग्याल यानी घास का मैदान। यहां उर्गम से आने वाला रास्ता भी मिल जाता है। उर्गम एक घाटी है जिसमें कल्पेश्वर स्थित है। तो यह कल्पेश्वर-रुद्रनाथ के मार्ग पर स्थित है यानी चौथे केदार और पांचवे केदार को जोडने वाले मार्ग पर। यहां तो हमें काफी देर रुकना ही था। अब तेज चढाई समाप्त हो चुकी थी। रास्ते का अन्दाजा इस बात से ही लगा सकते हैं कि हम अभी 3450 मीटर पर हैं, रुद्रनाथ लगभग 3500 मीटर पर है और यहां से रुद्रनाथ की दूरी 8 किलोमीटर है। इसका अर्थ ये है कि अब रास्ता चढाई-उतराई भरा है। लगातार 13 किलोमीटर तेज चढाई चढने के बाद ये आंकडे बडी राहत प्रदान करते हैं।
डेढ बजे पनार पहुंच गये। यहां और भी कई यात्री थे। एक ही दुकान थी। सभी खाना खाने में व्यस्त थे। हमने अपना ऑर्डर दे दिया- रोटी और अण्डा भुजिया। जब तैयार हो जाये तो बता देना- यह कहकर हम रजाईयां ओढकर सो गये। आज अभी तक हम 9 किलोमीटर चल चुके थे और 1100 मीटर ऊपर भी आ गये थे। मुझे ट्रैकिंग के दौरान एक दिन में 800 मीटर ऊपर आने पर समस्या होने लगती है, 1000 मीटर ऊपर आने पर तो बहुत समस्या होती है। एल्टीट्यूड सिकनेस। एक घण्टा जमकर सोया। आखिरकार अपने आप ही आंख खुल गई। हमारे लिये अण्डा भुजिया तैयार हो रहे थे। फिर तो बिल्कुल चूल्हे के पास बैठकर गर्मागरम सिकती हुईं जो अनगिनत रोटियां खाईं, उसकी तारीफ करने को मेरे पास शब्द नहीं हैं।
तीन बजे यहां से चल दिये। तेज हवा चल रही थी और बादल भी आ गये थे। इसका अर्थ है कि बारिश भी पडेगी। हिमालय की इन ऊंचाईयों पर दोपहर बाद मौसम खराब होना आम बात है। इससे घबराने की जरुरत नहीं है। कुछ दूर रेनकोट पहनना पडेगा, बस।
पनार से इस उम्मीद में चले कि अब चढाई नहीं मिलेगी लेकिन इसके बाद भी चढाई जारी रही। 3500 मीटर, 3600 मीटर और 3700 मीटर का लेवल भी पार हो गया। आखिरकार चढाई से मुक्ति मिली पितरधार पहुंचकर। पितरधार लगभग 3750 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। इसके बाद ढलान शुरू हो जाती है।
पितरधार से पहले ही बारिश शुरू हो गई। अच्छा हुआ कि हमें एक खुली गुफा मिल गई। बैग में से रेनकोट निकालकर पहन लिये। बारिश रुकने का इंतजार करना अच्छा नहीं था। बारिश होती रहेगी, रुक-रुककर हो या लगातार हो। आज रुक-रुक कर हुई।
करण कुछ आगे निकल गया। मैं और निशा साथ चल रहे थे। तभी पेट में गुडगुड हुई और दबाव बन गया। इस इलाके में जंगल न होने के कई फायदे हैं लेकिन यह एक नुकसान है कि आप अपनी मर्जी से कहीं बैठ भी नहीं सकते। कुछ दूर तो दबाव को दबाये चलता रहा कि आगे पंचगंगा पर करूंगा लेकिन आखिरकार हद पार हो गई और कोई छुपाव की जगह ढूंढने लगा। छुपाव की क्या, बैठने तक की भी कोई जगह नहीं मिली। इधर पहाड था, उधर गहरी खाई थी। आखिरकार बडी देर बाद एक बडी सी चट्टान दिखी। फट से बैग उतारकर रख दिया और पहले चट्टान के ऊपर चढा और फिर इसके पीछे चला गया। मामला निपट गया, बडी राहत मिली।
तभी निशा ने कहा कि नीरज, यहां तो लोगों ने पैसे चढा रखे हैं। गौर से देखा तो वास्तव में चट्टान की दरारों में और हर उस जगह पर जहां सिक्के रखे जा सकते थे, एक-दो रुपये के सिक्के रखे हुए थे। अधजली धूपबत्तियां भी खूब थीं। जाहिर था कि यह कोई पूजा-स्थान है। एक हिमालय-प्रेमी ऐसे निर्जन स्थानों पर बने पूजा-स्थानों को बडी इज्जत देता है। मैं भी बडी इज्जत देता हूं। ज्यादातर मामलों में ऐसे स्थानों पर कोई देवता बैठा रहता है जिसे स्थानीय लोग बडे लाड-प्यार से और शान से पूजते हैं। गलती का एहसास तो मुझे हो ही गया। तुरन्त जेब में हाथ डाला, दो का सिक्का निकाला और हाथ जोडकर माफी मांगते हुए रख दिया- हे देवता जी, बुरा मत मानना, यात्रा सही सलामत पूरी होने देना। इसके अलावा मेरे पास और कोई चारा नहीं था।
और वास्तव में देवता ने मेरी बात समझी, बुरा नहीं माना और यात्रा सही-सलामत पूरी हुई।
इससे थोडा ही आगे पितरधार है। यहां एक द्वार बना है और खूब चूडियां, गहने-आभूषण, पैसे चढे हुए हैं। पितर का तो अर्थ ही होता है मरे हुए पूर्वज। और अभी दो दिन बाद ही पितृ-पक्ष आरम्भ होने वाला है जिसमें भारत भर में पितरों की पूजा की जाती है।
छह बजे पंचगंगा पहुंचे। यहां एक दुकान है। रुद्रनाथ यहां से तीन किलोमीटर दूर है। अन्धेरा होने लगा था। हम यहीं रुक गये। हमें यहीं रास्ते में तीन बंगाली बुजुर्ग मिले। उनके साथी आगे रुद्रनाथ चले गये थे। हमने उन्हें समझाया कि अब अन्धेरे में फिसलन भरे रास्ते पर चलना ठीक नहीं है, आप यहीं रुक जाओ लेकिन वे नहीं माने।
पंचगंगा में आज केवल हम ही थे। यहां खाने के साथ दही भी मिली जिसने खाने का जायका कई गुना बढा दिया। इसी अस्थायी घर के आधे हिस्से में इसने यात्रियों के ठहरने का इंतजाम और रसोई बना रखी है और बाकी आधे में गायें बंधी हैं। दूध होता है और दही भी जम जाती है। यहां आने वाले सभी लोग दही नहीं लेते तो दो-तीन दिनों की दही इकट्ठी करके यह कढी बना लेता है। हम तीनों ही दही के पक्के पियक्कड थे, इसलिये कह दिया कि सुबह जितनी भी दही हो सके, दे देना।
यहीं मैंने धीरे से पूछा- वो जो कुछ पीछे चट्टान पर सिक्के चढे हुए हैं, वो क्या मामला है? यहीं पता चला कि वो पितरधार है। लोग अपने पितरों के सम्मान में कुछ चीजें रख देते हैं। हालांकि मैंने उसे नहीं बताया कि वहां हमने क्या किया, बता देता तो वो बुरा मान जाता।
पुंग बुग्याल में निशा |
पुंग से आगे घना जंगल है. |
मुम्बई की एक यात्री |
मौली खरक |
मौली खरक के बाद पेड़ कम होने लगे. |
ल्वीटी बुग्याल |
ल्वीटी बुग्याल |
बीचोंबीच एक छोटा सा मैदान दिखाई दे रहा है, वही पुंग बुग्याल है जहाँ हम रात रुके थे. |
पनार बुग्याल |
पनार में खाना |
पनार बुग्याल |
बारिश पड़ने लगी तो रेनकोट पहन लिए, |
यही थी वो चट्टान |
पितरधार |
पंचगंगा की ओर. |
अगला भाग: रुद्रनाथ यात्रा- पंचगंगा-रुद्रनाथ-पंचगंगा
1. दिल्ली से गैरसैंण और गर्जिया देवी मन्दिर
2. गैरसैंण से गोपेश्वर और आदिबद्री
3. रुद्रनाथ यात्रा: गोपेश्वर से पुंग बुग्याल
4. रुद्रनाथ यात्रा- पुंग बुग्याल से पंचगंगा
5. रुद्रनाथ यात्रा- पंचगंगा-रुद्रनाथ-पंचगंगा
6. रुद्रनाथ यात्रा- पंचगंगा से अनुसुईया
7. अनुसुईया से जोशीमठ
8. बद्रीनाथ यात्रा
9. जोशीमठ-पौडी-कोटद्वार-दिल्ली
अदभुत..
ReplyDeleteबेहतरीन लेखन...शानदार चित्र
निचे से पांचवा चित्र किस जानवर का है..?
कुत्ता है। हमारे हिमालय में ऐसे ही कुत्ते होते हैं। बड़े बड़े झबरीले लेकिन सीधे सादे।
DeleteIt's a Bhutia Dog named after local tribe "Bhutia"
Deleteवाह। क्या यात्रा थी। अगर पता होता तो शायद चल पड़ता।मगर कार्यक्रम बद्रीनाथ का बना था इसलिए छोड़ दिया।
ReplyDeleteकोई बात नहीं सर। अगली बार चलेंगे।
Deleteवाह. . . . अद्भुत. . . अहा हा और 'आह' भी! जलन जो हुई! :) :)
ReplyDeleteधन्यवाद निरंजन जी।
Deleteक्या नजारे है आप का जवाब नही
ReplyDeleteधन्यवाद विनोद जी।
Deleteपोस्ट में निरंतरता आ गई है...
ReplyDeleteकाफी अच्छा लगता हे जब दौ पोस्ट के बीच ज्यादा इंतजार नहीं करना होता है...
काफी समय से पूछना चाह रहा था कि..सुबह सुबह 5 बजे ही अधिकतर पोस्ट छपती है...इतनी जल्द सुबह तुम्हारी फितरत में तो नहीं..फिर यह कैसे हो जाता है...
पोस्ट शेड्यूल करने का विकल्प भी होता है। एक बार लिखकर कई सारी पोस्ट सुबह पांच बजे का टाइम लगाकर शेड्यूल कर देता हूँ। अपने टाइम पर छपती रहती हैं।
Deleteगजब भाई
ReplyDeleteGood photography
गजब लेखन
Good writer
धन्यवाद अमित जी।
Deleteमजेदार यात्रा !
ReplyDeleteधन्यवाद मुकेश जी।
Deleteनीरज जी ,
ReplyDeleteनमस्कार
७ ,२२ ओर लास्ट वाले फोटो जबरदस्त हे.
पुंग बुग्याल मे रात रुकने के कितने पैसे लिये उनोने …. कृपया । करके mention करते जाईये …. मार्गदर्शन होगा … अगर कोई जाना चाहता हो तो …
धन्यवाद .
रात रुकने के कितने पैसे थे- यह तो नहीं पता लेकिन हम तीनों के रात रुकने, डिनर, ब्रेकफास्ट और लंच का सब मिलाकर 800 रूपये लगे थे।
Deleteनीरज भाई आपकी यात्रा गति इतनी धीमी कैसे है इस बार | मदमहेश्वर वृतांत पड़ने क बाद तो मुझे उत्तराखंडी होने पे शर्म आ गई थी की आप शहरी हो कर भी हमसे तेजी से चड़ गए , साथ ही बाकी के हिमालयी वृत्तांतों मे भी आपकी चड़ने की गति काफी अच्छी मालूम होती थी |
ReplyDeleteफोटोग्राफी, ग्रुप या उम्र व फ़िटनेस का असर , या कुछ और कारण ?
यह कमेंट इसलिए क्यूंकी 30 may 2014 को रुद्रनाथ यात्रा की थी और गोपेश्वर से प्रारंभ कर तकरीबन 12 घंटो में ( पुंग मे चाय , ल्विटी मे खाना, फिर पनार मे चाय के साथ ) रुद्रनाथ पहुँच गए थे | और इसलिए भी की आपकी यात्रागति के आधार पर ही मेरी कई यात्रा योजनाएं बनती हैं |
नीचे से चौथी तस्वीर वाली जगह पर हम भी 10 minute रुकते हुए गए थे |
राहुल जी निशा भाभी और करण को कम्फर्ट रहे
Deleteशायद इसलिए नीरज भाई सामान्य रफ़्तार से बढ़ रहे हैं
राहुल जी निशा भाभी और करण को कम्फर्ट रहे
Deleteशायद इसलिए नीरज भाई सामान्य रफ़्तार से बढ़ रहे हैं
राहुल जी, आप 12 घण्टे में गोपेश्वर से रुद्रनाथ पहुँच गए थे। कृपया इस बात की तुलना मत कीजिये। आपको मेरी स्पीड कम लग रही होगी लेकिन मेरे लिए यह पर्याप्त थी। मैं इसी स्पीड से चलता हूँ। कभी दिन भर में 20 किमी तय कर लेता हूँ तो कभी 10।
Deleteसाथ ही इस पंचगंगा वाली तस्वीर में रास्ते के अलावा जो भी जगह दिख रही है उस वक़्त ये पूरी तरह से सफेद बुरांश से भरी हुई थी |
ReplyDeleteअप्रैल मई में बुरांश की बात ही कुछ और होती है।
DeleteWoh aap jis jharnay ki baat kar rahe thay meri jaankari kay anusaar wahan jaya jaa sakta hai. humnay bhi apni yatra kay doran Pung Bugyal lay dhabay waalay aur sath he ek local porter say pata kiya tha usnay btaya tha ki wahan Gadariyon kay ghar hai wahan woh bhed bakriyan paaltay hain aur ghoday bhi hain.
ReplyDeleteकुछ भी हो लेकिन वो झरना अच्छा लग रहा था। धन्यवाद आपका।
Deleteशरिर मे रक्त संचार को दौड़ाने वाली यात्रा वृत्तांत । पढने से ही शरिर मे स्फूर्ती आ जाती है ।
ReplyDeleteएक प्रश्न है ।-जहां रात को रूकते है वहा आस पास घर गांव है या नही ।
सग्गर गांव के बाद कोई गांव नहीं है। पुंग बुग्याल, पनार बुग्याल आदि सभी जगह स्थायी ठिकाने हैं। वहां यात्रा सीजन के दौरान यात्रियों को रुकने और खाने पीने की सुविधाएँ मिल जाती हैं।
Deleteभाई जी आनंद आ गया |ज्यादा शब्द नहीं हैं कहने को |
ReplyDeleteधन्यवाद रूपेश जी।
Deleteआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ब्लॉग बुलेटिन - जन्म दिवस स्वर्गीय हरिवंश राय 'बच्चन' में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteनीरज भाई 18वें चित्र में तो गजब का पोज है बस हाथ जेब से निकाल के फैला लेते फिर शाहरूख भी पनाह मांगता.
ReplyDeleteवैसे गलती से ही सही पर पितरधार प्रकरण भी खूब रहा, प्राकृतिक बुलावे पे किसका जोर चला है.....
धन्यवाद निशांत जी।
Deleteखाने का जायदा (जायका) बढ गया ।नजर पङे तो ऐडिट कर लेना।बाकी सब हर बार की तरह धाॅशू व प्रेरणात्मक
ReplyDeleteधन्यवाद नीरज जी, त्रुटि को ठीक कर दिया है.
Deleteनीरज जी हिमालय की शानदार यात्रा की यादगार वृतांत और मनमोहक चित्र साझा करने के लिए शुक्रिया आपका,चूल्हे की निकली ताज़ी रोटी और अंडा भुजिया
ReplyDeleteका स्वाद ,हिमालय के नज़ारे,कोहरे से घिरी वादियाँ,और क्या चाहिए एक इंसान को जब वो शहर की भागती दौड़ती जिंदगी से कुछ पल चुराकर इन वादियों के पास आता है,एक अरसा बीत गया उत्तराखंड गए हुए पर इस बार निश्चय कर लिया है की बाइक से फिर एक बार फिर निकल पड़ना है आखिर हिमालय प्रेमी हम भी ठहरे, लिखते रहिये आपके लिखे हर शब्द हमें आपके साथ यात्रा कराने का आभास देती है ..धन्यवाद
हाँ जी, मौका मिलते ही अवश्य जाइये हिमालय में...
Deleteबॉम्बे की मोटी महिला देखकर अपनी बुआ की याद कोनी आई से
ReplyDeleteनीरज जी, सितम्बर में भी रास्ते में पुंग बुग्याल, ल्वीटी बुग्याल, पनार बुग्याल, पंचगंगा आदि में रुकने के ठिकाने होते होंगे या केवल यात्रा सीजन (मई-जून) में ही होते हैं?
ReplyDeleteएक और प्रश्न, बारिश के मद्देनजर पोंछो बेहतर रहता है या रेनकोट?
यात्रा सीजन कपाट खुलने से लेकर कपाट बंद होने तक रहता है... तो रास्ते में ठिकाने पूरे सीजन (मई से अक्टूबर) खुले रहते हैं...
Deleteमैंने कभी पोंचो इस्तेमाल नहीं किया है...