Skip to main content

पालमपुर का चिडियाघर और दिल्ली वापसी

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें
6 अप्रैल 2013
बरोट में थे हम। सोकर उठे तो दिन निकल गया था। साढे आठ बज चुके थे। कल तय हुआ था कि आज हम रेल की पटरी के साथ साथ पैदल चलेंगे और जोगिन्दर नगर पहुंचेंगे। अपनी यह मंशा हमने चौकीदार को बताई तो उसने हमें जबरदस्त हतोत्साहित किया। रास्ता बडा खतरनाक है, भटक जाओगे, घोर जंगल है, भालू काफी सारे हैं, कोई नहीं जाता उधर से। हमने कहा कि भटकेंगे क्यों? रेल की पटरी के साथ साथ ही तो जाना है। बोला कि मेरी सलाह यही है कि उधर से मत जाओ।
नटवर से गुफ्तगू हुई। हिमानी चामुण्डा जाने से पैरों में जो अकडन हुई थी, वो अभी तक मौजूद थी। चौकीदार के हतोत्साहन से पैरों की अकडन भी जोश में आ गई और एक सुर में दोनों ने चौकीदार से पूछा कि अब जोगिन्दर नगर की बस कितने बजे है? सवा नौ बजे।
सवा नौ बजे लुहारडी से आने वाली बस आ गई और पौने दो घण्टे में इसने हमें जोगिन्दर नगर पहुंचा दिया। जाते ही पठानकोट जाने वाली बस मिल गई। इसमें टिकट लिया गया पालमपुर तक का। पालमपुर से आगे एक चिडियाघर है। मैंने तो खैर यह देखा हुआ है, नटवर की बडी इच्छा थी इसे देखने की। अगर नटवर की जिद न होती तो हम कांगडा उतरते और ततवानी तथा मसरूर देखते। आज रात दस बजे पठानकोट से हमारी ट्रेन है, इसलिये उसका भी ख्याल रखना पडेगा।
पालमपुर से चामुण्डा रोड पर चामुण्डा से पांच-छह किलोमीटर पहले एक चिडियाघर है, छोटा सा है। काला भालू, तेंदुआ, जंगली सूअर और कुछ चिडियां यहां हैं। काला भालू तो खैर खुले में है, लेकिन बाकी सभी जानवर तथा पक्षी दोहरे जाल वाले पिंजरे में है। इतनी घनी जाली होगी तो भला फोटो कैसे खिंचे जा सकते हैं? इस बात से नटवर बडा खिन्न हुआ और मुझसे बहुत पहले ही चिडियाघर से बाहर निकल गया।
चार साल पहले भी मैं यहां आया था। अब यह ज्यादा उजाड दिखाई दिया। पहले सेही भी थी, अब गायब। शायद बाघ भी था, हालांकि बब्बर शेर अवश्य है। बहुत सारे पिंजरे खाली पडे हैं।
यहां से निकले तो मसरूर जाने का भी मन था लेकिन हम ‘बेगनासताल’ नहीं बनना चाहते थे। यहीं से कांगडा की बस मिल गई, जहां से सीधे पठानकोट।
आठ बजे के आसपास बस ने हमें चक्कीबैंक स्टेशन के सामने उतार दिया। यहां से पठानकोट स्टेशन पांच किलोमीटर के आसपास है। पैदल चलने का निश्चय हुआ। साथ ही यह भी निश्चय हुआ कि आज परम्परागत डिनर नहीं करेंगे। चलते चलेंगे और जो भी मन करेगा, खाते चलेंगे। सबसे पहले चाट, फिर जलेबी। कई दिनों से मन था कि मोमो खाये जायें। वो ख्वाहिश आज पूरी हुई पठानकोट में। नटवर मना करने लगा कि यह विदेशी चीज है, बल्कि चीनी आइटम है, इसलिये हम भारतीयों को नहीं खाना चाहिये। मेरा तर्क था कि शाकाहारी मोमो विशुद्ध भारतीय है। हां, तरीका जरूर बाहर से आया है लेकिन मोमो यानी भाप में पका समोसा।
पैदल ही जा रहे थे कि एक सरदारजी टम्पू लेकर बराबर में रुक गये। बोले कि बैठो, कहां जाना है। स्टेशन जाना है, कितने पैसे लोगे? बीस रुपये दे देना। नटवर ने तुरन्त मोलभाव किया, दस रुपये कहकर बैठ गये।
फिर भला कितनी देर लगती स्टेशन पहुंचने में?
ठीक समय पर धौलाधार एक्सप्रेस चल पडी।



तेंदुआ











हिमालयन काला भालू
हिमाचल कांगडा यात्रा समाप्त।

कांगडा यात्रा
1. एक बार फिर धर्मशाला
2. हिमानी चामुण्डा ट्रेक
3. हिमानी चामुण्डा से वापसी
4. एक बार फिर बैजनाथ
5. बरोट यात्रा
6. पालमपुर का चिडियाघर और दिल्ली वापसी

Comments

  1. अति सुन्दर चित्र, एक दो फोटो पठानकोट के भी हो जाते, और मोमो की बात सुनकर तो मुह में पानी आ गया....

    ReplyDelete
  2. सुन्दर चित्र

    ReplyDelete
  3. चित्र बहुत सुंदर हैं ..
    हम भी चिडियाघर घूम लिए ..

    ReplyDelete
  4. चिड़ियाघर वाकई में अच्छा है, हमें पता नहीं था, बिच रस्ते में भाई ने ये जगह का जिक्र किया और फिर हम यहाँ हो लिए.

    ReplyDelete
  5. Gopalpur Chidiaghar -Ultimate

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

शीतला माता जलप्रपात, जानापाव पहाडी और पातालपानी

शीतला माता जलप्रपात (विपिन गौड की फेसबुक से अनुमति सहित)    इन्दौर से जब महेश्वर जाते हैं तो रास्ते में मानपुर पडता है। यहां से एक रास्ता शीतला माता के लिये जाता है। यात्रा पर जाने से कुछ ही दिन पहले मैंने विपिन गौड की फेसबुक पर एक झरने का फोटो देखा था। लिखा था शीतला माता जलप्रपात, मानपुर। फोटो मुझे बहुत अच्छा लगा। खोजबीन की तो पता चल गया कि यह इन्दौर के पास है। कुछ ही दिन बाद हम भी उधर ही जाने वाले थे, तो यह जलप्रपात भी हमारी लिस्ट में शामिल हो गया।    मानपुर से शीतला माता का तीन किलोमीटर का रास्ता ज्यादातर अच्छा है। यह एक ग्रामीण सडक है जो बिल्कुल पतली सी है। सडक आखिर में समाप्त हो जाती है। एक दुकान है और कुछ सीढियां नीचे उतरती दिखती हैं। लंगूर आपका स्वागत करते हैं। हमारा तो स्वागत दो भैरवों ने किया- दो कुत्तों ने। बाइक रोकी नहीं और पूंछ हिलाते हुए ऐसे पास आ खडे हुए जैसे कितनी पुरानी दोस्ती हो। यह एक प्रसाद की दुकान थी और इसी के बराबर में पार्किंग वाला भी बैठा रहता है- दस रुपये शुल्क बाइक के। हेलमेट यहीं रख दिये और नीचे जाने लगे।

डायरी के पन्ने- 5

1 अप्रैल 2013, सोमवार 1. महीने की शुरूआत में ही उंगली कटने से बच गई। पडोसियों के यहां एसी लगना था। सहायता के लिये मुझे बुला लिया। मैं सहायता करने के साथ साथ वहीं जम गया और मिस्त्री के साथ लग गया। इसी दौरान प्लाई काटने के दौरान आरी हाथ की उंगली को छूकर निकल गई। ज्यादा गहरा घाव नहीं हुआ। 2 अप्रैल 2013, मंगलवार 1. सुबह चार बजे ही नटवर दिल्ली आ गया। हम हिमाचल की ओर कूच कर गये। शाम होने तक धर्मशाला पहुंच गये।