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4 अप्रैल 2013
साढे आठ बजे सोकर उठे। सभी लोग जाग गये थे। नटवर भी सोने के मामले में मुझसे ऊपर ही है। घोडे बेचकर सोता है। नटवर और सोनू दोनों शिकायत कर रहे थे कि पूरी रात ठण्ड लगती रही, नींद नहीं आई लेकिन मैंने यह शिकायत नहीं की। गीले कपडे उतारकर सूखे कपडे पहनने के बाद तो जैसे मैं नींदलोक में ही चला गया था। पूरी रात अच्छी नींद आई।
सोनू के लिये चामुण्डा आराध्या देवी हैं। उन्होंने इसे कई संकटों से उबारा है। जब सोनू का कम्बल धर्मशाला के कम्बलों में खो गया तो इसे ढूंढने की कोशिश भी नहीं की। हमें कम्बल वापस देकर सौ रुपये वापस ले लेने थे लेकिन मैंने उनकी रसीद कटवा ली। आखिर इतनी ठण्ड में तीस के करीब कम्बल और रात खाना हमने मुफ्त में ही तो खाया था।
सोनू ने बताया कि यहां से आगे बर्फीले पहाडों में माता का एक मन्दिर और है- खरगोशनी माता। उसकी भी उसने महिमा बतानी शुरू कर दी। ये देवी-देवता पूरे हिमालय में हैं और इस दुर्गम इलाके में आदमी के डर को कम करने व सहारा देने के लिये देवता बडे काम के हैं।
नटवर ने कहा कि जाटराम, आज चालीस रुपये वाले घर में रुकेंगे। कण्ड गांव में जिस दुकान पर हमने चाय पी थे, वे अपने घर में यात्रियों को चालीस रुपये प्रति व्यक्ति की दर से बिस्तर मुहैया कराते हैं। मेरे साथ सोनू ने भी हामी भर ली। तय हुआ कि चूंकि हमें बारह-तेरह किलोमीटर ही चलना है और सारी यात्रा नीचे उतरने की है, इसलिये अति धीरे धीरे चलते हुए, ढेर सारे फोटो खींचते हुए शाम तक ही कण्ड पहुंचेंगे। रास्ते में जितनी भी चाय की दुकानें मिलेंगी, चाय पीते चलेंगे। सभी समहत हो गये।
मन्दिर से दो सौ मीटर चलते ही एक छोटा सा कुण्ड मिला। इसके एक किनारे पर बर्फ भी थी। पानी गन्दला था। नाम रखा गया नटवर कुण्ड। मैंने विरोध किया कि नहीं, राजस्थान में गंजे लोगों को नटवर कहते हैं, जबकि हमारे यहां टकला कहते हैं, इसलिये इसका नाम टकला कुण्ड होना चाहिये।
कुछ और आगे चले तो वही दुकान खुली मिली जो रात बन्द थी और मालिक सोया पडा था। चाय बनाने को कह दिया। बातचीत में पता चला कि कल यहां खाना बना हुआ था। मालिक ने यह भी कहा कि हमें उसे जगा देना चाहिये था।
रात मन्दिर की धर्मशाला में काफी लोग थे। वे सभी अब नीचे उतर रहे थे। उन्होंने शॉर्टकट अपनाया। हमें एक तो नीचे उतरने की कोई जल्दी नहीं थी, दूसरा मैंने जीपीएस नॉन-स्टॉप चालू कर रखा था, ताकि सटीक पैदल दूरी पता चल सके, इसलिये बनी बनाई पगडण्डी से चलते रहे।
और नीचे उतरे तो वही अन्धेरी दुकान मिली जिसमें कल चाय पी थी, बल्कि कहना चाहिये कि आग सेंकी थी। बारिश के बाद जब हमें आग की जरुरत थी तो यहां आग मिली थी। आज मालिक दुकान के सामने बैठे थे। हमने भी उन्हें देखने ही चाय बनाने को कह दिया जबकि हम बीस मिनट पहले ही चाय पीकर आये थे। अभी ग्यारह भी नहीं बजे थे, हमें दस किलोमीटर नीचे और उतरना था और शाम छह बजे से पहले किसी भी हालत में हम कण्ड नहीं पहुंचना चाहते थे। इसलिये जी भरकर समय बिताते हुए मटरगश्ती करते हुए चलना था।
इसी दुकान पर चाय पीकर तय हुआ कि जंगल जाते हैं। लोटा तो था नहीं, लेकिन बोतल थी। यहां भी वही अधिकतम समय लगाने वाली बात। पहले मैं गया, पूरे आधे घण्टे में लौटा। इसके बाद नटवर गया और पांच मिनट में ही लौट आया। बताया कि मक्खियों ने बैठने भी नहीं दिया। पूछने लगा कि यार तू आधे घण्टे तक कैसे बैठा रहा? मक्खियों ने तुझे तंग नहीं किया क्या? मैंने कहा कि तू जरूर पैण्ट खोलकर बैठा होगा।
दुकान के मालिक बाबाजी लाल फूलों की पंखुडियों को तोडने में लगे थे, चटनी बनायेंगे। फूलों के परागकण अभक्ष्य होते हैं, इसलिये उन्हें निकालकर फेंक देना होता है। यहां इन फूलों और चटनी का हमारे ऊपर इतना प्रभाव पडा कि तय हो गया कि नीचे जहां भी कहीं भोजन करेंगे, चटनी अवश्य बनवायेंगे।
कल बारिश होने पर जिस झौंपडी में शरण ली थी, आज उसके पास कुछ यात्री बैठे भोजन बनाने की तैयारी कर रहे थे। लकडियां गीली थीं, फिर भी इन्होंने सूखी लकडियों का इंतजाम कर लिया। समस्या आई माचिस की। पता नहीं कब मिली होगी इन्हें माचिस। तब तक खाली भगोने में चावल और पानी डालकर सूखी लकडियों के ऊपर रखकर ही बैठे रहे।
कुछ पैराग्लाइडर ऊपर उडते दिखने लगे। ये अवश्य ही बिलिंग से आये होंगे। आखिर बिलिंग पैराग्लाइडिंग के क्षेत्र में विश्व प्रसिद्ध है और यहां से ज्यादा दूर भी नहीं।
आखिरकार वो दुकान आ गई जो इस यात्रा मार्ग के बीचोंबीच स्थित है। इसकी समुद्र तल से ऊंचाई 2100 मीटर है। खाने की बात की तो पता चला कि दाल चावल हैं। हमें तो यहां रुकना ही था, भले ही एक एक कप चाय पीकर जायें। यहां अगर एक घण्टे तक न रुके तो कण्ड में तीन बजे तक ही पहुंच जायेंगे। फिर वहां रुकने का मन नहीं करेगा। चावल की बात सुनकर सोनू मना करने लगा। आखिरकार परांठों की बात तय हुई। हम तीनों दो-दो परांठे खायेंगे।
दुकान के सामने एक बडी चट्टान इस तरह पडी है कि इस पर पांच छह आदमी आराम से लेट सकते हैं। अच्छी धूप निकली थी, ऊंचाई और हवा के कारण गर्मी नहीं थी। जाकर पड गये। जब तीनों को घोडे बेचने वाली नींद आ रही थी, तो कम्बख्त दुकान वाले ने आवाज लगा दी कि आ जाओ, परांठे खा लो। परांठे खाने के बाद किसी की इच्छा नहीं हुई पुनः लेटने की। हां, परांठों के साथ वो लाल फूलों वाली चटनी भी मिली। वाकई स्वादिष्ट लगी। इन फूलों का अचार भी डलता है। हम पता नहीं डिब्बाबन्द चीजों के नाम पर क्या-क्या खा जाते हैं, असली स्वाद तो यहां है।
बारह बजे यहां आ गये थे, एक बजे चल दिये। नौ बजे के चले हुए थे हम मन्दिर से, आधी दूरी तय करने में जितना समय लगा, उससे हम पूरी तरह सन्तुष्ट थे। फिर भी छह बजे तक कण्ड पहुंचने के लिये और ज्यादा आवारागर्दी की आवश्यकता है।
यहां से आगे हम मुख्य पगडण्डी से भटक गये और शॉर्ट-कट से चल पडे। पता ही नहीं चला कि कब पगडण्डी छोड दी। बडा खतरनाक शॉर्ट कट है यह। बजरी और छोटे छोटे पत्थर। और ढलान भी बहुत ज्यादा। पौने दो बजे हम अपनी कल वाली बादाम फोडने वाली जगह पर पहुंच गये। यहीं वो जगह है, जहां हमारी कल सोनू से मुलाकात हुई थी और यही वो जगह है जहां आज सोनू से वियोग हो गया। सोनू हमसे कुछ आगे चल रहा था। अचानक हमें यह जगह दिखाई दी। कल की याद ताजा करने के लिये तय हुआ कि बैठकर कुछ बादाम फोडे जायें। आगे मार्ग में अत्यधिक ढलान होने के कारण सोनू कब कहां पहुंच गया, हमें दिखाई ही नहीं पडा। हालांकि सोनू ने बाद में नीचे चरागाह और कण्ड में हमारी प्रतीक्षा की थी लेकिन हमारा कुछ पता न लगने के कारण वो चला गया।
आधे घण्टे बैठे रहने के बाद यहां से भी चल दिये। बीस मिनट चलकर हम चरागाह में पहुंचे। एक दुकान थी यहां भी। मालिक था नीशू। नटवर ने शेखी बघारते हुए कह दिया कि हम अखबार वाले हैं। बस, नीशू सिर हो गया कि मेरा फोटू खींच लो और अखबार में डाल देना। जब मैं चरागाह में लेटने लगा तो कुछ कांच के टुकडे भी पडे थे। मैंने नीशू से कहा तो वो शुरू हो गया। कहने लगा कि सर, यहां नीचे के लोगों ने माहौल खराब कर रखा है। यहां आते हैं, दारू पीते हैं और बोतल फोड-फाडकर चले जाते हैं। आप अखबार में लिखना यह सब। मेरा फोटू भी खींचो, नीशू नाम है मेरा। छाप देना।
मैंने सोचा कि वो अब रोज अखबार देखा करेगा, रोज मित्रों से बताया करेगा कि अखबार में फोटो आने वाला है। फोटो आयेगा नहीं, उसका विश्वास टूटेगा। इसलिये मैंने समझाया कि भाई, हम दिल्ली के रहने वाले हैं। अखबार में हम दस फोटो भेज देंगे, वे छापेंगे मात्र दो ही। इसलिये हो सकता है कि तेरा फोटो न छपे। दूसरी बात कि अगर छपेगा भी तो दिल्ली के अखबार में छपेगा, कांगडा के अखबार में नहीं। हालांकि कहा तो मैंने झूठ ही था लेकिन नीशू के विश्वास को सतह पर लाने के लिये ऐसा करना जरूरी था। अब वो अखबार में अपना फोटो नहीं ढूंढेगा।
साढे तीन बजे यहां से चले, बेहद धीमे धीमे चलते रहे। आडे तिरछे होकर तितलियों आदि के फोटो लेने की असफल कोशिश करते रहे, फिर भी चार बजे तक हम कण्ड गांव में प्रवेश कर चुके थे। यहां से ऊपर मन्दिर तक जाने में हमें छह घण्टे लगे थे, वापस नीचे उतरने में सात घण्टे। उसी दुकान पर गये, चाय बनवाई। अच्छा-खासा दिन था। आंखों ही आंखों में तय हो गया कि चाय पीयो और खिसक लो यहां से। अगर छह बजे का समय होता, दिन छिपने की कगार पर होता तो यहां रुकने की सोची भी जा सकती थी, लेकिन जैसे ही चाय खत्म हुई, हममें से वो उससे आगे, वो उससे आगे।
यहां से आगे वैसे तो सडक भी बनी है लेकिन हमने शॉर्ट कट पकडा। साढे पांच बजे तक हम मुख्य रोड पर थे। यहां से चामुण्डा डेढ किलोमीटर दूर ही है। पैदल चले गये। सोनू नहीं दिखाई दिया। शायद उसने दिल्ली की बस पकड ली होगी।
चामुण्डा मन्दिर के पास ही एक कमरा ले लिया। अन्धेरे में मन्दिर घूमने गये। लेकिन अत्यधिक थके होने के कारण शीघ्र ही लौट आये।
कल कहां जायेंगे? तय हुआ कि उठकर सबसे पहले चिडियाघर जायेंगे। नटवर की दिलचस्पी चिडियाघर में बहुत ज्यादा थी, फोटोग्राफर जो ठहरा। उसके बाद गग्गल पहुंचकर ततवानी और मसरूर देखकर शाम तक डलहौजी चले जायेंगे। परसों दिल्ली जाने के लिये हमारा आरक्षण पठानकोट से चलने वाली धौलाधार एक्सप्रेस में है।
आज एक बात सीखी कि मैं फोटोग्राफर नहीं हूं। इसलिये मैन्यूअल मोड में फोटो नहीं खींचूंगा। नटवर ने अहमदाबाद-उदयपुर रेल यात्रा में मुझे मैन्यूअल मोड में फोटो खींचने की कला सिखाई थी, आज उसकी यह कला साभार वापस लौटा दी।
हिमानी चामुण्डा मन्दिर |
मन्दिर के पीछे धौलाधार के चार हजार मीटर ऊंचे पर्वत। |
हिमानी चामुण्डा के सामने बनी धर्मशाला, जहां हम रात रुके। |
अलविदा चामुण्डाये... फिर मिलेंगे। |
‘नटवर’ कुण्ड |
हिमानी चामुण्डा से दिखती कांगडा घाटी |
यही वो दुकान है जो रात बन्द थी और हम भूखे इसमें खाना ढूंढने आये थे। |
नटवर और सोनू |
माचिस दे दो कोई। |
पैराग्लाइडर बिलिंग से यहां तक धावा मारते हैं। |
2100 मीटर की ऊंचाई पर भोजन। |
पानी दो भाई पानी... मुंह जल गया। |
बादाम फोड तीर्थ |
रास्ता तीव्र ढलान वाला और फिसलाऊ है। |
चरागाह में धूप स्नान। |
यह है नीशू... कह रहा था कि मेरा फोटो अखबार में डाल देना। |
चिल्लर पार्टी |
नीचे चामुण्डा मन्दिर के पास बने होटल में। |
अगला भाग: एक बार फिर बैजनाथ
कांगडा यात्रा
1. एक बार फिर धर्मशाला
2. हिमानी चामुण्डा ट्रेक
3. हिमानी चामुण्डा से वापसी
4. एक बार फिर बैजनाथ
5. बरोट यात्रा
6. पालमपुर का चिडियाघर और दिल्ली वापसी
नीरज बाबू, माता की यात्रा में आनंद आ रहा हैं. नई नई जगह, लोकेशन देखने को मिल रही हैं..लगे रहो, लगे हाथ हाटू पीक भी हो आओ...आपके फोटो कहर ढहा रहे हैं..बहुत सुन्दर...
ReplyDeleteनीरज भाई ,यात्रा वृतांत पढ़कर और फोटो देखकर मन अति प्रसन्न हुआ ! धन्यवाद !!
ReplyDeleteजाट महाराज नमस्कार! आपके लिखे लेख को पढ़कर मन रोमांच से भर गया, यात्रा कि आधी बात तो आपके फोटो ने ही कह दी, लेकिन एक आप से एक चीज पूछना चाहता हूँ कि एक पक्षी तो फख्ता है लेकिन दूसरे पक्षी का नाम याद नही आ रहा है, कृपया बताने का कष्ट करे।
ReplyDeleteआपने तो फाख्ता को पहचान भी लिया, मैं किसी को नहीं पहचान पाया।
Deleteजी, ऊपर वाला कठफोड़वा है और नीचे वाला फाख्ता....
DeleteGoood
ReplyDeleteइस यात्रा में मेरे सर्वाधिक फ़ोटो आये हैं .. और यह नीरज की बदोलत .. शुक्रिया नीरज भाई , यात्रा में मेरी उपस्थिति मैं खुद भी देख रहा हूँ .. इन यादगार सुंदर फोटोग्राफ के लिए आभार ..
ReplyDeleteरोचक व रोमांचक..
ReplyDeleteमहाराज नीशू का फोटो हमारे अपने अखबार में तो आ ही गया....
ReplyDeletewho says you can not take good pics in manual mode? fairly good photos. learn more. and good u didn't make unnecessary comments on your co-travellers.
ReplyDeleteRajiv Mehta
मेहता जी, मैन्यूअल फोटो खींचने में समय ज्यादा लगता है। या यह समझ लीजिये कि नाच न जाने आंगन टेढा।
Deleteऔर रही बात सहयात्री पर कमेंट की तो नटवर से मेरी अच्छी बनी। जिनकी भी आपस में अच्छी बनती है, उनमें आंखों ही आंखों में इशारे और फैसले हो जाते हैं, मुंहजोरी करने की आवश्यकता नहीं पडती। नटवर के अलावा कुछ और भी लोग हैं, जिनसे मेरी अच्छी बनती है।
आज की ब्लॉग बुलेटिन गुरु और चेला.. ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteNeeraj Ji Aapke es yatra me maja Aa gaya......
ReplyDeleteपालमपुर तो मैं भी गई थी और मैंने भी चाय के खेत देखे पर चामुंडा मंदिर न देख सके न चिड़ियाँ घर --- क्योकि किसी ने बताया कि दोपहर को माता के दरवाजे बंद हो जाते है इसलिए हम सीधे धर्मशाला ही चल दिए --- ऐसी निर्जन जगहो पर खाना और चाय- पानी मिल जाये चाहे किसी भी कीमत पर वो अमृत के बराबर है ---सोचो ,इतनी ठंडी में वो लोग कैसे रहते है और कैसे इतनी ऊपर रसद पहुचते होगे ? फिर खाना तैयार करके खिलाना बहुत बड़ी बात है ---तुम्हारे साथ -साथ उनको भी सलाम !!!
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