4 जून को दिल्ली से निकल जाने की योजना है और 27 जून को दिल्ली वापस आने की। पिछले साल साइकिल ली थी ना, बडी महंगी थी; पता नहीं था कि ऐसी साइकिलें सस्ती भी आती हैं, करण के चक्कर में ले बैठा। तभी से दिमाग में सनक थी कि इसे लद्दाख ले जाऊंगा।
एक बार ऋषिकेश ले गया नीलकण्ठ तक, पता चल गया कि लद्दाख जैसी अत्यन्त ऊंची जगहों पर साइकिल चलाना आसान नहीं होगा। उसके बाद चार पांच दिनों तक राजस्थान में भी चलाई, इतना थक गया कि आगे न चलाने की प्रतिज्ञा कर ली। लेकिन जैसे ही थकान उतरी, फिर से धुन चढ गई।
हिसाब लगाया। श्रीनगर से लेह के रास्ते मनाली 900 किलोमीटर है। रोज पचास किलोमीटर के औसत से भी चलाऊंगा तो अठारह दिन में मनाली पहुंचूंगा। यानी कम से कम बीस दिन की छुट्टी तो लेनी ही पडेगी। छुट्टी सीमा बीस से बढाकर सत्ताइस दिन कर दी और इसमें नुब्रा घाटी, पेंगोंग झील व चामथांग भी शामिल कर दिये। मोरीरी झील चामथांग का मुख्य आकर्षण है। लेकिन सत्ताइस दिन की छुट्टी मिलना आसान नहीं।
साहब से छुट्टी के बारे में बात की, तय हुआ कि बीस ही दिन की मिल सकती है। मैंने सत्ताइस दिन हटाकर बीस दिन की लगा दी। अभी पास नहीं हुई है, पूरी उम्मीद है कि पास हो जायेगी।
यात्रा की तैयारियां मंथर गति से चल रही हैं। जनवरी में लेह गया था तो अत्यधिक क्रान्तिक तापमान में रहना पडा था। इस यात्रा में इतना तो पक्का है कि इतने क्रान्तिक तापमान में नहीं रहना पडेगा लेकिन पांच हजार मीटर से ऊंचे कई दर्रों पर खराब मौसम और शून्य से कम तापमान की पूरी सम्भावना है।
श्रीनगर-लेह सडक अप्रैल में ही खुल गई थी। उस सडक का सामरिक महत्व अत्यधिक है। दूसरे वहां जोजीला और फोतूला दो दर्रे ही हैं जो ज्यादा ऊंचे नहीं हैं। फोतूला तो जनवरी में भी खुला था, जोजीला खुलना था कि पूरा मार्ग खुल गया।
मनाली-लेह मार्ग ज्यादा मुश्किलों भरा है। अभी भी वो दो दिनों के लिये खुलता है, चार दिनों के लिये बन्द हो जाता है। रोहतांग तो है ही उसके बाद बारालाचाला, तंगलंगला जैसे ऊंचे दर्रे हैं। तंगलंगला तो 5300 मीटर से भी ऊंचा है। इस कारण उस मार्ग के ज्यादा खराब होने की उम्मीद है। ताजी और पुरानी जम चुकी बर्फ में भी साइकिल चलानी पड सकती है।
अगर नुब्रा की तरफ जाने का विचार बना तो दुनिया की सबसे ऊंची मोटर सडक कही जाने वाली खारदुंगला को भी पार करना पडेगा। पेंगोंग झील के लिये चांग ला है जो सडक मार्ग होने के बावजूद भी दुर्गम ही माना जाता है।
यात्रा की शुरूआत श्रीनगर से होगी। मनाली से शुरू करने के मुकाबले इसके कई कारण हैं। एक तो एक्लीमेटाइजेशन यानी ऊंचाई के अनुकूल ढलना। मनाली से निकलते ही रोहतांग की चढाई शुरू हो जाती है जो शरीर के लिये खतरनाक है। श्रीनगर से चलेंगे तो कम से कम सौ किलोमीटर बाद जोजीला आयेगा। इन सौ किलोमीटर में शरीर वातावरण के अनुसार ढलना शुरू हो जायेगा। दूसरी बात कि मनाली-लेह मार्ग अभी अभी खुला है। आज के मुकाबले अगर पन्द्रह दिन बाद इस मार्ग पर यात्रा की जाये तो यह ज्यादा बेहतर ही मिलेगा। तीसरी बात, पेंगोंग झील के लिये लेह से परमिट लेना होता है और लेह-मनाली रोड पर करीब चालीस किलोमीटर कारू तक जाना होता है। कारू से पेंगोंग का रास्ता अलग होता है। अगर मनाली से आ रहे हैं तो कारू के ही रास्ते आना पडेगा, लेकिन परमिट के लिये लेह जाना होगा और पुनः कारू आना पडेगा। श्रीनगर के रास्ते जा रहे हैं तो लेह से परमिट लेकर कारू और पेंगोंगे देखते हुए मनाली जाना ज्यादा आसान भी है।
श्रीनगर से कारगिल 200 किलोमीटर है। यही मेरे लिये यात्रा का शुरूआती और सबसे मुश्किल भरा सफर साबित होने वाला है। कहने को तो यह दूरी चार दिन में पूरी होनी चाहिये लेकिन रुकने का ठिकाना देखते हुए तीन ही दिन में पूरा करना पडेगा। श्रीनगर से सोनामार्ग 85 किलोमीटर है। पूरा रास्ता मामूली चढाई युक्त है। पहले दिन यह दूरी तय करनी ही पडेगी। सोनामार्ग से जोजीला 25 किलोमीटर है, तीव्र चढाई। जोजीला के बाद द्रास रुकने का ठिकाना है। द्रास के बाद कारगिल है। जोजीला से कारगिल तक उतराई है। अगर तीन दिनों में श्रीनगर से कारगिल पहुंच गया तो अगले तीन दिनों में लेह जाना और भी आसान है। क्योंकि कारगिल तक पहुंचते पहुंचते शरीर भी कठिनाईयों को स्वीकार कर लेगा।
श्रीनगर से छह दिनों में 434 किलोमीटर का सफर तय करके लेह पहुंचने से लग रहा है कि नुब्रा भी जाया जा सकता है।
तैयारी: यात्रा के लिये स्लीपिंग बैग तो साथ रखूंगा ही, हालांकि रुकने की ज्यादा मुश्किलें आने की उम्मीद नहीं है। दूसरी बात टैण्ट भी रखना होगा। टैण्ट रखने का एक दूसरा पहलू और है। टैण्ट आज नहीं तो कल लेना ही है। अगर इस साइकिल यात्रा में दस दिन भी टैण्ट लगा लिया तो 2500 रुपये के टैण्ट की कीमत वसूल हो जायेगी। एक तरह से टैण्ट मुझे मुफ्त में मिलने वाला है। ताजा बात यह है कि कल मैंने टैण्ट ले लिया है- 2700 रुपये का है दो आदमियों का।
कपडों की तरफ से पूरी तैयारी है। लेकिन अभी भी साइकिल लद्दाख यात्रा के लिये फिट नहीं है। इसके दोनों टायर और ट्यूब बदलवाने हैं। पंक्चर किट लेनी है, पंक्चर लगाना सीखना है। पिछले पहिये में हालांकि डिस्क ब्रेक हैं लेकिन कैरियर की वजह से ठीक काम नहीं कर रहे हैं। कैरियर लगाना जरूरी है, इसलिये पिछले पहिये से डिस्क ब्रेक हटाकर साधारण ब्रेक लगवाने पडेंगे। अगले पहिये में डिस्क ब्रेक हैं। यात्रा में एक सप्ताह भी नहीं बचा, यह समय साइकिल के साथ मित्रता मजबूत करने में बिताया जायेगा।
साइकिल खोलनी और पुनः जोडनी भी आ गई है। साइकिल खोलकर एक बोरे में बांधकर आसानी से ट्रेन में फ्री में ले जाई जा सकती है और बस में भी जा सकती है सीट के नीचे रखकर।
बाकी.. देखते हैं आगे क्या होता है। अभी तो छुट्टी पास होनी ही बाकी है।
और हां, अगर किसी कारण से ये बीस दिन की छुट्टियां भी ना मिलीं तो दस दिन की ही ले लूंगा तथा स्पीति में दौड लगाऊंगा- मनाली से काजा के रास्ते रामपुर या शिमला चण्डीगढ तक।
खर्चा: यात्रा में दस से पन्द्रह हजार तक खर्च हो जाने की सम्भावना है। कुछ खर्चा हो चुका है, कुछ होना बाकी है। अंग्रेजी वालों को प्रायोजक मिल जाते हैं, हिन्दी वालों को नहीं मिल सकते क्या?
यात्रा वृत्तान्त पढने के लिये यहां क्लिक करें।
रोमांचक यात्रा रहेगी, प्रायोजक की व्यवस्था हिन्दी वालों को भी मिलेगी।
ReplyDeleteसाइकिल यात्रा कि शुभकामनाएं
ReplyDeleteआपकी यात्रा मंगलमय हो
ReplyDeletetumhara jawab nahi niraj ghumakkadi ho to aaisa.subh-kamnaye,happy journy my friend
ReplyDeleteनीरज जी आपके ज़ज्बे को सलाम---घुमक्कड़ हो तो आप जैसा .
ReplyDeleteशुभकामनाएँ. अकेले हो या फिर कोई संगी भी है ?!!
ReplyDeletehurrey
ReplyDeleteनीरज भाई साइकिल यात्रा के लिए में आंशिक योगदान देना चाहता हूँ कृपया आपका बैंक खाता लिखें
ReplyDeleteजैन साहब, यह बात आप नीरज भाई से फोन पर भी पुछ सकते थे, यहाँ पर लिखने की क्या जरुरत ! कहीं आप भी नीरज पर अहसान तो नहीं जताओगे !
ReplyDeleteनहीं भाई मुझे कोई अहसान नहीं जताना मेरी दिली इच्छा है नीरज भाई को प्रोत्साहित करने की
Deleteजैन साहब, क्षमा करना। पिछले साल एक छोटा सा प्रयोग किया था व्यक्तिगत रूप से सहायता लेने का। बेशक वो प्रयोग सफल रहा हो, लेकिन उस प्रयोग को अब दोहराने की इच्छा नहीं है।
Deleteमैं व्यक्तिगत रूप से कोई सहायता नहीं लूंगा। अगर कोई कम्पनी या समूह प्रोत्साहित करना चाहे तो स्वागत है।
आपका बहुत बहुत धन्यवाद।
Chinta mat karo ...Discovery wale khojete -khojte JAT tak pahunch hi jayenge.....
ReplyDeleteडिस्कवरी वालों को तो अभी तक नीरज भाई तक पहुँच जाना चाहिए
Deletebhai vaah neeraj bhai............
ReplyDeleteSecure Best Pan Network Packages In Co
ReplyDeleteAlso visit my web page underclothes
5 Facts to consider When Selecting a Meeting Bedroom For Rent payments
ReplyDeleteHere is my homepage :: Optoma HD33
http://www.jatland.com/home/Human_Beings_are_Vegetarians में स्वामी ओमानन्द सरस्वती की लिखी पुस्तक "मांस मनुष्य का भोजन नहीं " में राहुल सांस्कृत्यायन के पागल होने के बारे में पुस्तक के कुछ अंश :
ReplyDelete"रही अण्डों की बात । मैं स्वयं सेवा-भाव से रोगियों की चिकित्सा करता हूँ । कुछ दिन पूर्व मेरे पास एक युवक आया जो मस्तिष्क का रोगी था । पागलपन के कारण उसकी सरकारी नौकरी छूट गई थी । उसके घर वाले उसे मेरे पास लाये । वे पाकिस्तान से आये पंजाबी भाई थे । मैंने देखकर कहा कि इस रोगी युवक ने बहुत गर्म पदार्थ अधिक मात्रा में खाये हैं, इसकी चिकित्सा बहुत कठिन है । पूछने पर उन्होंने बताया कि वह बहुत अण्डे खाता रहा है, इसी के कारण पागल हुआ । एक दिन एक और दूसरा इसी प्रकार का रोगी मेरे पास आया । बह भी अधिक अण्डे खाने से पागल हो गया था । इसी प्रकार एक भारत के वाममार्गी को पागलावस्था में मैंने कलकत्ता के हस्पताल में स्वयं देखा, जो बुरी तरह पागल था । कभी रोता था, कभी हंसता था । उसकी दुर्गति देखकर मुझे बड़ी दया आई पर मैं क्या कर सकता था ? जो व्यक्ति अपने वाममार्गी साहित्य द्वारा मद्य-मांस और व्यभिचार का प्रचार करता रहा, स्वयं को महाविद्वान् प्रकट करता हुआ लोगों को पागल बनाता रहा, उसे भगवान् ने अन्तिम समय में पागल बनाकर उसको तथा उस पर झूठा विश्वास करने वाले लोगों को शिक्षा देकर सावधान किया । देश विदेश में चिकित्सा करवाने पर तथा सहस्रों रुपया पानी की भांति व्यय करने पर भी वह तथाकथित विद्वान् एवं महापण्डित अच्छा न हो सका और उसी पागल अवस्था में ही मृत्यु का ग्रास बन गया । वह था मांस, शराब और व्यभिचार का खुला प्रचार करने वाला राहुल सांस्कृत्यायन । उसे ही क्या, अपितु सभी को अपने पाप पुण्य का फल भगवान् की व्यवस्थानुसार भोगना ही पड़ता है । बौद्ध भिक्षु होने पर पुनः गृहस्थी बनना, मांस शराब का सेवन करना, बुढ़ापे में तीसरा विवाह करना, ऐसे पाप थे जिनका फल करने वाले के अतिरिक्त कौन भोगता ? स्पष्ट है कि मांस भक्षण आदि का दुःखरूपी पल सभी मांसाहारियों को भोगना पड़ता है । अतः अण्डा मनुष्य का भोजन नहीं है । "
राहुल सांस्कृत्यायन सिर्फ पागल नही हुआ । उसी पागल अवस्था में ही मृत्यु का ग्रास बन गया ।
Deleteस्वामी जी ओमानन्द सरस्वती की लिखी पुस्तक "मांस मनुष्य का भोजन नहीं " में शाकाहारी जाटों के बारे में बहुत कुछ लिखा है । पूरी पुस्तक http://www.jatland.com/home/Human_Beings_are_Vegetarians पर उपलब्ध है ।पुस्तक के कुछ और अंश :
ReplyDeleteइस प्रकार मा० चन्दगीराम की देशव्यापी ख्याति, कुश्ती कला की जानकारी, लम्बा श्वास वा दम, उनकी हाथों की फौलादी पकड़ से देशवासियों के हृदयों में नवीन आशाओं का संचार होने लगा है । पुनः मल्ल्युद्ध (कुश्ती) के प्रति श्रद्धा और प्रेम उत्पन्न हो गया है ।
मा० चन्दगीराम का विजय उनका अपना विजय नहीं है, यह शाकाहारियों का मांसाहारियों पर विजय है । यह ब्रह्मचर्य का व्यभिचार पर विजय है क्योंकि मा० चन्दगीराम सात मास के पश्चात् अब अपने घर पर गया था, वह गृहस्थ होते हुये भी ब्रह्मचारी है । अगले दिन प्रातःकाल पुनः दिल्ली को चल दिया । इस श्रेष्ठ आर्ययुवक हरयाणे के नरपुंगव की जीत आबाल वृद्ध वनिता सभी अपनी जीत समझते हैं । मा० चन्दगीराम को यह सदाचार की प्रेरणा आर्यसमाज की शिक्षा महर्षि दयानन्द के पवित्र जीवन से ही मिली है । वे इसे अपने भाषणों में बार-बार स्वयं कहते रहते हैं ।
इससे बढ़कर और क्या उदाहरण हो सकता है जिस से यह सिद्ध होता है कि घी-दूध ही बल का भण्डार है । घृतं वै बलम् - घृत ही बल है, मांस नहीं । मांस से बल बढ़ता है, इस भ्रम को मा० चन्दगीराम ने सर्वथा दूर कर दिया है ।
एक बार हरयाणे के पहलवानों को एक मुस्लिम पहलवान कटड़े ने जो झज्जर का था, छुट्टी दे दी । फिर ब्रह्मचारी बदनसिंह आर्य पहलवान निस्तौली निवासी से इसकी कुश्ती झज्जर में ही हुई । उस कसाई पहलवान का शरीर बड़ा भारी भरकम था और ब्र० बदनसिंह चन्दगीराम के समान हलका फुलका था । उस कसाई पहलवान के पिता ने कहा इस बालक को मरवाने के लिये क्यों ले आये ? शुभराम भदानी वाले पहलवान को लाओ, उसकी और इसकी जोड़ है । किन्तु भदानियां शुभराम पहलवान कुश्ती लड़ना नहीं चाहता था । उसके पिता जी ही पहलवान बदनसिंह को कुश्ती के लिये निस्तौली से लाये थे । कुश्ती हुई । ब्र० बदनसिंह ने पहले तो बचाव किया । कसाई कट्टा पहलवान पहले तो खूब उछलता-कूदता रहा, फिर १५-२० मिनट के पीछे उसका दम फूलने लगा, जैसे कि मांसाहारियों का दम फूलता ही है । फिर क्या था, ब्र० बदनसिंह का उत्साह बढ़ने लगा और अन्त में भीमकाय कसाई पहलवान को चारों खाने चित्त मारा । ब्र० बदनसिंह को कसाई पहलवान के पिता ने स्वयं पगड़ी दी और छाती से लगाया ।
इस प्रकार की सैंकड़ों घटनायें और लिखी जा सकती हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि मांसाहारी बली वा शक्तिशाली नहीं होता, और न ही मांस से बल मिलता है । किन्तु घी दूध ही बल और शक्ति प्रदान करते हैं ।
मांसाहारी वीर नहीं होते
स्वामी जी ओमानन्द सरस्वती की लिखी पुस्तक "मांस मनुष्य का भोजन नहीं " में शाकाहारी जाटों के बारे में बहुत कुछ लिखा है । पूरी पुस्तक http://www.jatland.com/home/Human_Beings_are_Vegetarians पर उपलब्ध है । पुस्तक के कुछ और अंश :
ReplyDeleteन जाने लोग मांस क्यों खाते हैं ! न इसमें स्वाद है और न शक्ति । मांस स्वाभाविक नहीं । मांस में बल नहीं, पुष्टि नहीं । वह स्वास्थ्य का नाशक और रोगों का घर है । मनुष्य मांस को कच्चा और बिना मसाले के खाना पसन्द नहीं करते । पहले-पहल मांस के खाने से उल्टी आ जाती है । डा० लोकेशचन्द्र जी तथा लेखक की रूस की यात्रा में मांस की दुर्गन्ध से कई बार बुरी अवस्था हुई, वमन आते-आते बड़ी कठिनाई से बची । फिर भी लोग इसे खाते हैं । कई लोग तो बड़ी डींग मारते हैं कि मांसाहार बड़ा बल और शक्ति बढ़ाता है । यह भी मिथ्या है । नीचे के उदाहरण से यह सिद्ध हो जायेगा ।
कुछ वर्ष पूर्व लोगों की यह धारणा थी कि कुश्ती लड़नेवाले पहलवानों और व्यायाम करनेवालों को मांसाहार करना आवश्यक है । इसलिये योरोप, अमेरिका और पश्चिमी देशों के पहलवान अधपके मांस और अन्य उत्तेजक पदार्थ खाते थे । पर अब उनकी यह धारणा बदल गई और वे शाकाहारी बनते जा रहे हैं । तुर्की के सिपाही मांस बहुत कम खाते हैं, इसलिये वे योरोप भर में बली और योद्धा समझे जाते हैं । १९१४ के विश्वयुद्ध में ६ नं० जाट पलटन ने अपनी वीरता के कारण सारे संसार में प्रसिद्धि पाई । इस पलटन के अनेक वीर सैनिकों ने अपनी वीरता के फलस्वरूप विक्टोरिया क्रास पदक प्राप्त किये । इस छः नम्बर पलटन में सभी हरयाणे के सैनिक निरामिषभोजी थे । उन्हें युद्ध के क्षेत्र में खाने के लिए जब बिस्कुट दिये गए, तो उन्होंने इस सन्देह से कि कभी इनमें अण्डा न हो, उन्हें छुआ तक नहीं । सूखे भुने हुए चने चबाकर लड़ते रहे । इन्हीं की वीरता के कारण अंग्रेजों की जीत हुई । अभी पाकिस्तान के साथ हुये सन् १९६५ के युद्ध में हरयाणे के निरामिषभोजी वीर सैनिकों ने हाजी पीर दर्रे, स्यालकोट, डोगराई, खेमकरण आदि के मोर्चों पर मांसाहारी पाकिस्तानियों को भयंकर पराजय (शिकस्तपाश) दी । खेमकरण के मोर्चे पर हरयाणे के पहलवानों ने ४८ टैंकों से पाकिस्तान के २२५ टैंकों से टक्कर ली और उनको हराकर टैंक छीन लिए, कितने ही टैंकों की होली मंगला दी । डोगराई का मोर्चा तो हरयाणे के वीर सैनिकों की वीरता का इतिहास प्रसिद्ध मोर्चा है । उसे विजय करके भारत तथा हरयाणे के यश और कीर्ति को चार चांद लगा दिए । इनकी वीरता का इतिहास कभी पृथक् लिखने का विचार है ।
स्वामी जी ओमानन्द सरस्वती की लिखी पुस्तक "मांस मनुष्य का भोजन नहीं " में शाकाहारी जाटों के बारे में बहुत कुछ लिखा है । पूरी पुस्तक http://www.jatland.com/home/Human_Beings_are_Vegetarians पर उपलब्ध है । पुस्तक के कुछ और अंश :
ReplyDeleteहमारे निरामिषभोजी सैनिक
मैं ६ नं० जाट पलटन की चर्चा पहले कर चुका हूँ । इसी प्रकार ७ नं० रिसाले की गाथा है जिसमें अंग्रेज अफसर जे० एम० कर्नल बारलो थे । बर्मा में उस समय हमारी सेना गई हुई थी । वहां सेना में बलपूर्वक मांस खिलाने की बात चली । हरयाणा के सैनिक जाट, अहीर, गूजर उस समय प्रायः सब शाकाहारी थे । सब पर बड़ा दबाव दिया गया । यहां तक धमकी दी गई कि जो मांस नहीं खायेगा, सबको गोली मार दी जायेगी । उस रेजिमेन्ट में १२०० सैनिक थे । केवल हरयाणे के तीस-चालीस युवक थे जिन्होंने स्पष्ट रूप से मांस खाने से निषेध कर दिया । इन सब के नेता आर्य सैनिक जमादार रिसालसिंह भालौठ जिला रोहतक हरयाणा के रहने वाले थे । उन्हें सब सैनिकों से अलग करके कैद में बन्दी के रूप में बंद कर दिया । फिर तीन दिन के पश्चात् पुनः विचार करने के लिये छोड़ दिया गया । उन्हीं दिनों सारी रिजमेंट की लम्बी दौड़ होनी थी । उस दौड़ में जमादार रिसालसिंह (शाकाहारी) ने भाग लिया । वे सारी रेजिमेंट में १२०० आदमियों में से सर्वप्रथम दौड़ में आये । वह अंग्रेज कर्नल इससे बड़ा प्रसन्न हुआ । रिसालसिंह को बड़ी शाबाशी और पुरस्कार दिया । किन्तु दस दिन के पीछे फिर बलपूर्वक मांस खिलाने की चर्चा चली । इन्कार करने पर फिर रिसालसिंह की पेशी उस अंग्रेज आफिसर के आगे हुई । रिसालसिंह ने निर्भय होकर कह दिया, हमारे बाप-दादा सदैव से शाकाहार करते आये हैं, हम मांस नहीं खा सकते और मांस खाने की आवश्यकता भी नहीं । हम बिना मांस खाये किस कार्य में पीछे हैं वा किस से निर्बल हैं ? मैं १२०० सैनिकों में लम्बी दौड़ तथा अन्य खेलों में सर्वप्रथम आय हूँ, फिर हमें मांस खाने के लिये क्यों तंग वा विवश किया जा रहा है ? अंग्रेज अफसर की समझ में आ गया और उसने रिसालसिंह को छोड़ दिया और यह घोषणा कर दी कि मांस खाना आवश्यक नहीं, जो न खाना चाहे वह न खाये, जबरदस्ती (बलपूर्वक) किसी को न खिलाया जाये । इस प्रकार के संघर्ष फौजों में हरयाणे के सैनिक बहुत करते रहे । कप्तान दीवानसिंह बलियाणा निवासी को मांस न खाने के कारण बर्मा से लखनऊ जेल वापिस भेज दिया था । इनको उन्नति (प्रमोशन) भी नहीं मिली ।
सर्वश्री कप्तान रामकला धांधलाण रोहतक, सूबेदार-मेजर खजानसिंह रोहद रोहतक, पं० जगदेवसिंह सिद्धान्ती, रघुनाथ सिंह खरहर, छोटूराम (ब्रह्मदेव) नूनामाजरा, उमरावसिंह खेड़ी-जट, श्री रिसालसिंह महराणा, देवीसिंह हलालपुर, नेतराम भापड़ौदा, दफेदार रिसालसिंह बेरी, सुच्चेसिंह रोहणा निवासी इत्यादि हरयाणे के सैंकड़ों फौजी सिपाहियों ने मांस न खाने के कारण अंग्रेजी काल में फौज में बड़े-बड़े कष्ट सहे हैं । कितनों को जेल हुई, कितनों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा, कितनों को तरक्की नहीं मिली । दफेदार रिसालसिंह बेरी के सैंकड़ों शिष्य कप्तान, मेजर आदि बन गये किन्तु वे दफेदार रहते रहते ही दफेदारी की पेंशन लेकर चले आये, किन्तु मांस नहीं खाया । शुद्ध शाकाहारी रहते हुये हरयाणे के इन वीरों ने जो वीरता दिखलायी, उसकी चर्चा अन्यत्र कर चुका हूँ ।
सन् १९१७ में स्वामी सन्तोषानन्द जी महाराज ११३ नं० सेना में बगदाद में थे । उस समय हवलदार थे । इनका नाम भवानीसिंह था । अंग्रेज उस समय सैनिकों को मांस और शराब बलपूर्वक खिलाते थे, युद्ध के समय इस विषय में अधिक कठोरता बरतते थे । सब से पूछने पर अनेक व्यक्तियों ने मांस खाने का निषेध (इन्कार) कर दिया । उनमें प्रमुख व्यक्ति रामजीलाल हवलदार कितलाना (महेन्द्रगढ़), हुकमसिंह गुड़गावां, चिरंजीलाल भरतपुर (राज्य), अमरसिंह गुड़गावां तथा भवानीसिंह (स्वामी सन्तोषानन्द जी) थे । अंग्रेज आफिसर ने मांस न खाने वाले ९ सैनिकों को पृथक् छांट लिया और गोली मारने का भय दिखाया गया । उस समय भवानीसिंह ने अंग्रेज आफिसर से यह निवेदन किया कि हमें गोली मारनी है तो भले ही मार लेना, हम तैयार हैं । मांस नहीं खायेंगे । किन्तु हम मांस खाने वालों से किस कार्य में पीछे हैं या हम उनसे कोई निर्बल हैं ? हमारा उन से मुकाबला करवा के देख लें । कुश्ती, रस्साकसी, कबड्ड़ी सब खेल कराये गये । स्वामी सन्तोषानन्द जी (माजरा), शिवराज रेवाड़ी वाले (भवानीसिंह) की कुश्ती मांसाहारी रामभजन तगड़े पहलवान से हुई थी । उसे बुरी प्रकार से हराया । जीत होने पर सब ओर जयघोष होने लगा । फौजी अफसरों ने सबको शाबासी दी और घी-दूध का भोजन देना आरम्भ कर दिया । निरामिषभोजियों की संख्या बढ़ गई । उनका सर्वत्र मान होने लगा । सब अंग्रेज आफिसर भी उनसे प्रसन्न रहने लगे ।
स्वामी जी ओमानन्द सरस्वती की लिखी पुस्तक "मांस मनुष्य का भोजन नहीं " में शाकाहारी जाटों के बारे में बहुत कुछ लिखा है । पूरी पुस्तक http://www.jatland.com/home/Human_Beings_are_Vegetarians पर उपलब्ध है । पुस्तक के कुछ और अंश :
ReplyDeleteसन् १९५७ के हिन्दी सत्याग्रह में भी इसी प्रकार मांसाहारी तथा हरयाणे के शाकाहारी सत्याग्रहियों में संघर्ष रहता था । तो फिरोजपुर जेल तथा संगरूर जेल में कबड्ड़ी-कुश्ती में दोनों पक्षों का मुकाबला हुवा । उस में दोनों जेलों में कुश्ती तथा कबड्ड़ी में हरयाणे के निरामिषभोजी सत्याग्रहियों ने मांसाहारी सत्याग्रहियों को बहुत बुरी तरह हराया ।
इसी प्रकार हैदराबाद के सत्याग्रह में हरयाणे के निरामिषभोजी सत्याग्रही मांसाहारियों को कबड्ड़ी, कुश्ती आदि खेलों में सदैव हराते रहते थे ।
अण्डा और मछली
कुछ लोग अण्डे और मछली को मांस ही नहीं मानते । इससे बड़ी मूर्खता और धूर्तता और क्या हो सकती है ! क्या अण्डे मछली गाजर, मूली की भांति कंद मूल अथवा किन्हीं वृक्षों के फल हैं ? कुछ अकल के अंधे और गांठ के पूरे व्यक्ति कहते हैं कि अण्डे में जीव नहीं होता और मछलियां जल तोरियां हैं, अतःएव ये दोनों भक्ष्य हैं । मछलियां तो चलते फिरते जन्तु हैं और इनमें जीव नहीं ! मैं समझता हूं कि इस स्वार्थ निहित असत्य कल्पना को कोई भी विचारवान् व्यक्ति नहीं मान सकता । मछली का मांस सबसे खराब होता है । उसकी भयंकर दुर्गन्ध और दोषों की चर्चा पहले हो चुकी है । वह खाने की तो क्या, छूने की वस्तु भी नहीं है । वह सब रोगों का घर है । बहुत से अयोग्य, निकम्मे डाक्टरों ने मछली का तेल दवाई के रूप में पिला पिला कर सब का दीन भ्रष्ट कर डाला है । इनसे सावधान रहना चाहिये । इसी प्रकार के दुष्ट प्रकृति के डाक्टर अण्डों के खाने का प्रचार अनेक प्रकार की भ्रांतियां फैला कर करते हैं । “अण्डे में सब प्रकार के अर्थात् ए. बी. सी. डी. सभी प्रकार के विटामिन होते हैं, एक अण्डे में एक सेर दूध के समान शक्ति व बल होता है, एक अण्डा खा लिया मानो एक सेर दूध पी लिया - और अण्डे के खाने से जीव हिंसा का पाप भी नहीं लगता क्योंकि अंडे में जीव ही नहीं होता - फिर हिंसा किसकी होगी ? अतः अण्डे खाने चाहियें ।” इस प्रकार का नीचतापूर्ण भ्रामक प्रचार डाक्टर तथा अनेक अध्यापक और प्रोफेसर लोग खूब करते हैं । इनमें सार कुछ नहीं है । अण्डे में यदि जीव नहीं है तो अण्डज सृष्टि पक्षी, सर्प आदि की उत्पत्ति कैसे होती है ? बिना जीव के जीवन नहीं हो सकता और जीवन के बिना शरीर की वृद्धि व विकास नहीं हो सकता । अण्डा गर्भावस्था है । जिस अण्डे में जीव नहीं होता वह सड़ कर कुछ काल में समाप्त हो जाता है । प्रश्न अण्डे में जीव का ही नहीं, अपितु भक्षाभक्ष्य का भी है । अण्डे में जीव नहीं है यह थोड़ी देर के लिये मान भी लिया जाये तो वह मनुष्य का भोजन है यह कैसे माना जा सकता है ? अण्डे की उत्पत्ति रज वीर्य से होती है । वह मल-मूत्र के स्थान से बाहर आता है । जो गुण कारण में होते हैं वे ही कार्य में पाये जाते हैं - कारणगुण - पूर्वकाः कार्ये गुणाः दृष्टा - इसके अनुसार जो गुण कारण में होते हैं वे ही उसके कार्य में आते हैं । जैसे जो गुण गेहूं में हैं वे ही उसके बने पदार्थों रोटी, दलिया, पूरी, कचौरी आदि में भी मिलते हैं । अन्य पदार्थों के मिलाने से उन पदार्थों के गुण-दोष भी उनमें आ जाते हैं । अण्डे सारे संसार में मुर्गियों के ही खाये जाते हैं । मुर्गी गन्दे से गन्दे पदार्थ को खा जाती है । जैसे सभी के थूक, खखार, मल-मूत्र और टट्टी आदि एवं कीड़े-मकौड़े, चीचड़ आदि खाती है । गन्दी, सड़ी नालियों के कीड़ों और दुर्गन्धयुक्त मलमूत्र वाले पदार्थों को मुर्गी बड़े चाव से खाती है । किसी भी गन्दगी को वह नहीं छोड़ती । भूमि को शुद्ध करने के लिये भगवान् ने सच्चे भंगी मुर्गी और सूअरों को बनाया है । लोग इनको तथा इनके अण्डे एवं बच्चे सब कुछ हजम कर जाते हैं । अण्डों में सारे विटामिन होने की दुहाई देते हैं । फिर जो वस्तु थूक, खखार, श्लेष्मा, नाक के मल और टट्टी आदि को मुर्गी खा जाती है उन सब में भी विटामिन होने चाहियें ! तो फिर इन मुर्गी के अण्डों को खाने की क्या आवश्यकता है ! विटामिन का भंडार तो थूक और टट्टी आदि ही हुये ! इन्हें क्यों घर से बाहर फेंकते हो ? अच्छा हो उन्हें ही खा लिया करो ! इन मुर्गी आदि तथा इनके अण्डे और गर्भों में बच्चों के प्राण तो बच जायेंगे और मांसाहारियों के विटामिन्ज की पूर्ति बिना हिंसा के, सस्ते में ही मुर्गी पाले बिना हो जायेगी । कितनी विडम्बना, प्रवञ्चना और बुद्धि का दिवालियापन है कि इतनी गन्दी वस्तु भी मनुष्य का भोजन वा भक्ष्य है तो फिर अभक्ष्य क्या है ?
स्वामी जी ओमानन्द सरस्वती की लिखी पुस्तक "मांस मनुष्य का भोजन नहीं " में शाकाहारी जाटों के बारे में बहुत कुछ लिखा है । पूरी पुस्तक http://www.jatland.com/home/Human_Beings_are_Vegetarians पर उपलब्ध है । पुस्तक के कुछ और अंश :
ReplyDeleteकहां हमारे पूर्वज ऋषि महर्षि, कहां हम उनकी सन्तान । भयंकर पतन और सर्वनाश आज हमारी दशा देखकर मुख फाड़े खड़ा है । मनु महाराज लिखते हैं - अभक्ष्याणि द्विजातीनाममेध्यप्रभवाणि च । अर्थात् उन्होंने मल, मूत्र आदि गन्दगी से उत्पन्न होने वाले सभी पदार्थों को अभक्ष्य ठहराया है । जिन खेतों में मनुष्य के मल-मूत्र की खाद पड़ती है उनमें उत्पन्न हुई शाक सब्जियां तथा अन्न भी नहीं खाना चाहिये । जिन पदार्थों (लहसुन, प्याज, शलगम आदि) से दुर्गन्ध आती है, वे कभी खाने योग्य नहीं होते ।
योरुप के कुछ विचारशील डाक्टर अब मानने लगे हैं कि अण्डे में एक भयंकर विष होता है जो सिर दर्द, बेचैनी पागलपन आदि भयंकर रोगों को उत्पन्न करता है । रूस के कुछ डाक्टर तो यह मानते हैं कि अण्डे, मांस के खाने से बुढापे में अनेक भयंकर रोग उत्पन्न हो जाते हैं और उनके कारण मृत्यु से पूर्व ही मांसाहारी लोग चल बसते हैं । उनकी रीढ़ की हड्डी कठोर होकर बुढ़ापा शीघ्र आ जाता है । मांसाहारी मनुष्य कुबड़ा हो जाता है । रीढ़ की हड्डी का कमान बन जाता है । आंखों के रोग मोतियाबिन्द आदि हो जाते हैं । यह मत डॉ. प्रो० मैचिनकॉफ आदि अनेक रूसी विद्वानों का है ।
जो लोग अण्डों में जीव नहीं मानते, उनके लिए एक परीक्षा लिखी है ।
(१) जिन अण्डों में जीव का जीवन होता है, उन्हें आप किसी जल से भरे पात्र में डाल दें । वे सब डूब जायेंगे तथा नीचे सतह में चले जायेंगे ।
(२) जिन अण्डों में कुछ मरने के लक्षण उत्पन्न होने लगेंगे तो वे अण्डे पानी की तह में नीचे खड़े हो जायेंगे ।
(३) जिस अण्डे में जीवन समाप्त हो जाता है वह अण्डा ऊपर की तह पर मृत शव के समान तैरता रहेगा, डूबेगा नहीं । अतः अण्डों में जीव नहीं है, यह मिथ्या भ्रम उपर्युक्त परीक्षणों से दूर हो जाता है । अण्डों में जीव स्वीकार ही करना पड़ेगा और इस नाते उनका प्रयोग भी एक प्रकार से अमानुषिक और घृणित कार्य है ।
Place Vacations Indian Offers Varies Different kinds of Packages
ReplyDeleteAlso visit my page ... hurricane
Getting Home entertainment system Projector Tv screen
ReplyDeleteAlso visit my page: payday