Skip to main content

छत्तीसगढ यात्रा- सिहावा- महानदी का उद्गम

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें
1 मार्च 2013
सुबह आराम से सोकर उठे। मैं पहले भी बता चुका हूं कि यह क्षेत्र घोर आध्यात्मिक क्षेत्र है। कई पौराणिक ऋषियों के आश्रम यहां हैं। ये आश्रम एक ही स्थान पर न होकर दूर-दूर हैं लेकिन कुल मिलाकर इसे सिहावा क्षेत्र ही कहा जाता है।
गुरूजी शिवेश्वरानन्द जी महाराज भी हमारे साथ चलने को तैयार हो गये। गुरूजी बस्तर क्षेत्र के अच्छे ज्ञाता हैं। इनके साथ होना मेरे लिये बेहद शुभ था। मैं, डब्बू, तम्बोली, गुरूजी तथा एक और, कुल मिलाकर पांच जने कार में बैठे और चल पडे।
कुछ दूर तक वही रास्ता था, जिससे कल आये थे। कल यहां आते समय अन्धेरा हो गया था, लेकिन मैं रास्ते को अच्छी तरह पहचान सकता था। कुछ दूर चलकर एक चौराहा आया, जहां से सीधे रास्ता जामगांव, बायें कांकेर और दाहिने नगरी जा रहा था। हम कल जामगांव से आये थे और अब दाहिने मुडकर नगरी की तरफ चल पडे। यहां से पांच छह किलोमीटर आगे गुरूजी ने एक और रास्ते का इशारा करके बताया कि यह रास्ता भी आश्रम जाता है।
एक जगह सडक के ऊपर स्वागत द्वार लगा था- धमतरी जिले में आपका स्वागत है। इसी के दूसरी तरफ लिखा था- कांकेर जिले में आपका स्वागत है। यानी आश्रम कांकेर जिले में स्थित है।
नगरी पहुंचे। यहां कुछ देर बैठकर चाय पी। कल कार एक गड्ढे में फंस गई थी, जिसे निकालते समय मेरी चप्पल टूट गई। अब नंगे पैर रहना पड रहा था लेकिन गुरूजी भी नंगे पैर ही थे, इसलिये ज्यादा अखरा नहीं।
फरसिया गांव के पास महामाई का मन्दिर है। यहीं एक कुण्ड है। कहा जाता है कि यहीं कुण्ड महानदी का उद्गम है। मन्दिर प्रांगण में ही एक रजवाहा भी बह रहा है। रजवाहे में बहते पानी को देखते ही मैंने अन्दाजा लगा लिया कि यह रजवाहा कहीं दूर से आ रहा है। बाद में पता चला कि सोण्ढूर बांध से यह रजवाहा आ रहा है।
कुण्ड चारों तरफ से पक्का बना है। एक कोने में एक नाली निकलकर खेतों में बहती चली गई है। गुरूजी ने बताया कि यही महानदी है और यहीं से यह अपनी यात्रा शुरू कर देती है।
यह इलाका एक मैदानी इलाका है लेकिन पूर्वी घाट के पहाड यहां से ज्यादा दूर नहीं। अगर आसपास ऊंची जमीन हो तो निचले इलाकों में धरती से स्वतः पानी निकलना कोई बडी बात नहीं है। अब यहां भी पानी निकलता है या नहीं निकलता, लेकिन पहले जरूर निकलता होगा। अब इस कुण्ड को रजवाहे से खूब पानी मिल रहा है। कुण्ड का पानी भी साफ है और नाली की शक्ल में बहती महानदी में भी अच्छा प्रवाह है। अगर यहां रजवाहा न होता तो कुण्ड का पानी कभी का सड जाता क्योंकि मैदानी इलाकों में भूगर्भ से ज्यादा मात्रा में पानी नहीं निकला करता।
यहां महामाई के मन्दिर के पुजारी और साधु गुरूजी को अच्छी तरह जानते हैं। हमारा भी बढिया सत्कार हुआ।
पुनः कार लेकर चले। अबकी बार जंगल में घुस गये और भृगु ऋषि आश्रम जाने लगे। यह आश्रम एक अभयारण्य में स्थित है। असल में उदन्ती और सीतानदी अभयारण्य दोनों जुडवां अभयारण्य हैं। पता नहीं कि महामाई मन्दिर से निकलकर हम उदन्ती में घुसे या सीतानदी में।
भृगु आश्रम जाने का रास्ता बिल्कुल कच्चा था लेकिन कार कूदती-फांदती निकल गई। कुछ दूर नंगे पैर पैदल भी चलना पडा।
यहां भी बिल्कुल सन्नाटे में और वीराने में एक छोटी सी कुटिया है। एक साधु रहते हैं। बताते हैं कि यहां एक के बाद एक सात छोटे छोटे तालाब हैं। दो तो मुझे दिखे, बाकी घना जंगल होने के कारण नहीं दिखे। इन दोनों में पानी नहीं था। सर्दियों के बाद हिमालय तक सूख जाता है, भला छत्तीसगढ की क्या औकात।
डब्बू ने यहां ध्यान लगाया। ध्यान से उठते ही गुरूजी से पूछने लगा कि गुरूजी, इस जगह पर मामला क्या है? गुरूजी बोले कि यह स्थान शापित है।
पहले ऋषि मुनि अपने अपने तरीके से तपस्या करते थे और ध्यान लगाते थे। एक की पद्धति दूसरे से भिन्न हो गई तो दोनों में लडाई हो गई कि मैं श्रेष्ठ और मैं श्रेष्ठ। बस, इसी बात पर एक ने दूसरे के स्थान को श्राप दे दिया। तभी से यह शापित है। मुझे तो खैर इन बातों का तजर्बा नहीं है, लेकिन विश्वास न करने की कोई वजह भी नहीं। गुरूजी ने बताया कि वे इस स्थान का श्राप काटने के लिये प्रयत्नरत हैं। जब तक श्राप नहीं कटेगा, तब तक इस स्थान को विकसित नहीं किया जा सकता।
मेरी इच्छा इस यात्रा में एक राष्ट्रीय उद्यान या अभयारण्य में घूमने की थी। मैं हालांकि घूम तो लिया लेकिन इच्छा पूरी नहीं हुई। एक तो नंगे पैर, दूसरे बडी जल्दबाजी में थे हम। करीब आधा घण्टा यहां भृगु आश्रम पर रुके और तुरन्त ही वापस लौट आये। पुनः महामाई के मन्दिर पर पहुंच गये।
यहां खाना पीना हुआ। छत्तीसगढ को भारत का धान का कटोरा कहा जाता है। धान का कटोरा है भी। इस मौसम में भी यानी सर्दी उतरने के बाद भी यहां धान के खेत देखे जा सकते हैं। छत्तीसगढ आकर चावल न खाये तो आपकी भी बेकद्री है और छत्तीसगढ की भी।
वापस आ रहे थे तो कर्णेश्वर धाम रास्ते में पडा। यहां दो दिनों से मेला लगा था। आज उजडने लगा। इसे 13वीं शताब्दी में कल्चुरी राजाओं ने बनवाया। मन्दिर में पाली में लिखा एक शिलालेख भी है। गुरूजी की यहां के चप्पे चप्पे में अच्छी घुसपैठ है, इसलिये उन्होंने ही हमारी तरफ से कुछ पूजा-पाठ की। हमें मुंह मीठा करने को थोडा सा मिष्ठान्न भी मिला।
जब मेला क्षेत्र से गुजर रहे थे तो एक जगह चप्पल जूतों की दुकान देखकर डब्बू ने कहा कि जाटराम, चप्पल ले ले। मैंने मना कर दिया। कुछ ही आगे बढे तो मोची बैठा दिख गया। दस रुपये लगाकर टूटी चप्पल ऐसी ठीक हुई कि आज तक बढिया काम कर रही है। कम से कम ढाई सौ रुपये बच गये।
शृंगी ऋषि आश्रम- यह सिहावा का एक प्रमुख आश्रम है। सप्तऋषियों में से एक है। शृंगी ऋषि ही थे जिनके आशीर्वाद से राजा दशरथ को पुत्र प्राप्ति हुई। यहां एक बंजर सी पहाडी है जिस पर बडे बडे पत्थर और कुछ पौधे दिखाई देते हैं। नीचे बराबर में ही महानदी बहती है। अपने उद्गम से मुकाबले यहां यह कुछ बडी हो गई है। अब यह नाली में नहीं बहती बल्कि अब इसका अपना क्षेत्र है।
गुरूजी तो नीचे आश्रम में ही रह गये, हम तीनों प्राणी ऊपर की ओर चले। रास्ता कुछेक जगह खतरनाक भी है लेकिन अच्छी आवाजाही लगी रहती है। पक्की सीढियां भी बनी हैं लेकिन वे आश्रम से कुछ दूर थीं, इसलिये हम सीधे रास्ते से गये।
ऊपर पहाडी पर एक छोटा सा गड्ढा है जिसकी तली में दो घूंट पानी दिखाई दे रहा था। कहते हैं कि महानदी का एक उद्गम यह भी है। इसका सीधा सम्बन्ध नीचे बह रही महानदी से है। अगर इस कुण्ड में फूल आदि डाले जायें तो वे महानदी में पहुंच जाते हैं। इस शुष्क पथरीली पहाडी के शीर्ष पर पानी का कुण्ड होना अज्ञानियों के लिये चमत्कार ही है। मैं भी चूंकि इस मामले में अज्ञानी हूं, इसलिये मेरे लिये भी यह चमत्कार है। कोई भूविज्ञानी ही बता सकता है कि यहां कुण्ड में पानी क्यों है। वो भी ऐसे कुण्ड में जो सीधा नीचे महानदी से जुडा है। पहाडी चूंकि पथरीली है इसलिये पत्थरों और चट्टानों की दरारों के बीच से नदी तक कोई छोटी सी सुरंग बन गई होगी, यह तो मुमकिन है लेकिन पानी का क्या करें?
एक ऐसी ही पहाडी पर उत्तराखण्ड के चम्पावत जिले में पूर्णागिरी है। वहां भी पहाडी के शीर्ष में एक छेद है जिसमें प्रसाद आदि चढाएं तो वो नीचे बह रही काली नदी में जा पहुंचता है। लेकिन वहां छेद में पानी नहीं है। बताते हैं कि यहां पानी का तल घटता बढता रहता है। इस समय यह न्यूनतम था।
यह भी प्रसिद्ध है कि यहां पहाडी पर खोखले पत्थर हैं जो बजते हैं। हम एडी मार-मारकर पत्थर ढूंढते रहे लेकिन एडियां दुखने लगीं, पत्थर ना मिलने थे, ना मिले।
नीचे आये तो चाय हमारी प्रतीक्षा कर रही थी। साधुओं के आश्रम में कल से हमारा दाना-पानी हो रहा है, बडी शान की बात है। साधु ही वे लोग हैं जो सबसे बडे घुमक्कड होते हैं। एक साधु बिना पैसे के पूरे देश में घूम लेगा, उसे कहीं भी न बोलने चालने की असुविधा होगी, न खाने-पीने की और न उठने बैठने की।
यहां से निकले तो सीधे कर्क आश्रम ही रुके। रास्ते में गुरूजी के कुछ शिष्य मिले जो आश्रम में काफी देर तक उनकी प्रतीक्षा करके निराश होकर लौट रहे थे। वे बडे लोग थे और उनकी बात का मुख्य मुद्दा यहां कुम्भ आयोजन ही रहा। मैं यहां कुम्भ आयोजन के विरुद्ध हूं। इनका तर्क है कि इससे छत्तीसगढ में पर्यटन बढेगा और स्थानीय लोगों को रोजगार मिलेगा। वैसे कुम्भ तो राजिम में भी हो रहा है। वो भी तो छत्तीसगढ में ही है। उसके विरुद्ध यह साजिश क्यों?
मुझे गन्ध मिल रही है कि इसका छत्तीसगढ से कोई लेना-देना नहीं है। कभी राजिम में कुम्भ की शुरूआत हुई थी, तो पुराने ग्रंथों के आधार पर ही हुई होगी। सारा मामला राजिम और सिहावा के मठाधीशों के वर्चस्व का लग रहा है।

महानदी की यात्रा शुरू

यही वो कुण्ड है जहां से महानदी का उद्गम है।

श्री शिवेश्वरानन्द जी महाराज

महानदी का नक्शा

रजवाहे से कुण्ड में आता पानी।

कुण्ड और महामाई का मन्दिर

सोण्ढूर बांध से आता रजवाहा।

रजवाहा और उसके किनारे महानदी का उद्गम



भृगु आश्रम की ओर

अभयारण्य के अन्दर बना आश्रम



अभयारण्य के अन्दर रास्ता

कर्णेश्वर महादेव

कर्णेश्वर


श्रृंगी आश्रम की ओर

ऊपर पहाडी पर जलयुक्त दरार।

पहाडी से दिखता सिहावा का दृश्य




श्रृंगी आश्रम के पास से बहती महानदी




आश्रम वापस लौटते समय मिले गुरूजी के शिष्य
अगला भाग: छत्तीसगढ यात्रा- पुनः कर्क आश्रम में और वापसी

छत्तीसगढ यात्रा
1. छत्तीसगढ यात्रा- डोंगरगढ
2. छत्तीसगढ यात्रा- माडमसिल्ली बांध
3. छत्तीसगढ यात्रा- सिहावा- महानदी का उद्गम
4. छत्तीसगढ यात्रा- पुनः कर्क आश्रम में और वापसी

Comments

  1. प्रगति की चकाचौंध के बीच इन ग्रामीण तस्वीरों की अपनी अलग जगह है...अतुलनीय चित्र...

    ReplyDelete
  2. यह सब पढ़ते-पढ़ते पुरा-कथाओं जैसा आभास होने लगता है!

    ReplyDelete
  3. नीरज जी भारत के तो कोने कोने में अध्यात्म और धार्मिकता बिखरी पड़ी हैं..और कण कण में भगवान हैं...आपने महानदी के उदगम और वन्य, ग्रामीण परिवेश का अच्छा चित्रण किया हैं....वन्देमातरम...

    ReplyDelete
  4. आपके साथ छत्तीसगढ़ की यात्रा करके अच्छा लगा ..... महानदी का उद्गम एक खेत के बीच बहती नाली के रूप में देखकर तो सहज विश्वास ही नहीं होता कि यह भारत की प्रमुख विशाल नदी का उद्गम हैं....| चित्रों ने आपके यात्रा की कहानी ही कह दी ...

    ReplyDelete
  5. चकाचक फोटो
    बढ़िया वृतांत

    ReplyDelete
  6. बहुत ही सुन्दर चित्र और वर्णन..

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब