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हमारा आज का दिन बडी भागदौड में बीता। इस प्राचीन और आध्यात्मिक स्थल को देखने समझने का मौका नहीं मिला। कई दिन का काम एक दिन में निपटाना पडा। स्वयं कर्क आश्रम इलाके को विस्तार से देखने के लिये दो तीन दिन चाहिये। जब हम शाम को आश्रम पहुंचे तो दिन ढलने लगा था। इतने उजाले में भी गुरूजी की कोशिश थी कि हम अधिकतम देख सकें।
यहां चट्टानों की भरमार हैं। चट्टानों में जगह-जगह आकृतियां उभरी हैं। गुरूजी ने इन्हें देवी देवताओं से सम्बद्ध कर दिया। देवताओं से सम्बद्ध करने का उनका आधार था अध्यात्म और ध्यान। ध्यान की उच्च अवस्था के दौरान आदमी की आत्मा शरीर से निकलकर इधर उधर घूमने चल पडती है। उसे दूसरी आत्माएं भी मिलती हैं। प्राचीन ऋषि मुनि भी मिल जाते हैं। कभी कभी शिवजी और हनुमानजी भी मिलते हैं। ऐसा मैंने कई योगियों और ध्यानियों से सुना है। यहीं से पता चलता है कि कौन सा स्थान किस देवता का है या किस ऋषि मुनि का है।
मैं अध्यात्म को मानता जरूर हूं लेकिन जरूरी नहीं कि उनके इस तरह चट्टान से देवताओं को सम्बद्ध करना भी मान लिया।
यहां एक बडा हैरतअंगेज दृश्य है। तीन विशालकाय चट्टानें एक के ऊपर एक रखी हैं। उनके ऊपर शीर्ष पर तीन अपेक्षाकृत छोटी चट्टाने हैं। ये सब मिलकर एक चट्टान दण्ड का निर्माण करती हैं। हैरत की बात यह है कि यह दण्ड सीधा न होकर तिरछा है। तिरछा भी इतना कि पीसा की झुकी मीनार भी शर्म से लाल हो जाये। नीचे फोटो है, स्वयं देख लेना। सब प्राकृतिक है, आदमी के बस की बात नहीं।
अन्धेरा हो जाने के बाद जब खाने की तैयारी हो रही थी, तभी सुनील भाई का फोन आया कि आज ही वापस आ जाओ। मेरी कल दुर्ग से बारह बजे की ट्रेन है, इसलिये सोच रखा था कि सुबह निकल चलेंगे, तीन घण्टे में पहुंच जायेंगे। लेकिन जब भाई का निर्देश आया, तो तुरन्त निकलना पडा। गुरूजी भी चूंकि भाई का अत्यधिक सम्मान करते हैं, इसलिये इन्होंने भी मना नहीं किया। अन्धेरे में डब्बू भूल गया कि गाडी कहां खडी थी।
यहां से जामगांव, नरहरपुर, सुरही और धमतरी होते हुए भिलाई आने में कोई विशेष बात नहीं हुई। हां, नरहरपुर में जब हम एक तिराहे पर गाडी से उतरकर किसी से रास्ता पूछने जा रहे थे तो सामने थाने में से आवाज आई कि यहां गाडी मत रोको। हमने रास्ता पूछा, तुरन्त बता दिया और गाडी चलती बनी। थाने में अन्धेरा पसरा पडा था। डब्बू ने बताया कि यहां चौकसी के लिये बडे कडे इंतजाम रहते हैं। नक्सलियों का उद्देश्य थानों पर हमला करना भी रहता है ताकि हथियार मिलते रहें।
धमतरी से हमने सीधे दुर्ग वाली सडक पकड ली। लेकिन इस सडक पर ब्रेकर इतने हैं कि बीस किलोमीटर चलते चलते अपना सिर फोड लेने का मन करता है। सडक शानदार बनी है लेकिन ब्रेकरों ने इस सारी शानदारिता पर पानी फेर दिया।
एक गांव में सडक पर एक जबरदस्त मोड था। गाडी अपनी रफ्तार पर थी तो डब्बू ने सडक से उतारकर गाडी एक दुकान के सामने खडी कर दी। हमने पूछा कि क्या हुआ। बोला कि यह दुकान सामने कहां से आ गई? सडक कहां गई?
रात ग्यारह बजे जब दुर्ग स्थित डब्बू के घर पहुंचे तो खीर के साथ स्वादिष्ट खाना हमारी प्रतीक्षा कर रहा था।
डब्बू चूंकि मेरे यात्रा वृत्तान्त पढता है, इसलिये मेरी आदत से परिचित है। फिर भी हममें इतनी आत्मीयता स्थापित हो गई कि जब खाने के लिये उनकी घरवाली मेज आदि लगाने की तैयारी कर रही थी, तो डब्बू का आदेश आया कि जाटराम, रसोई में चलो। वहीं नीचे बैठकर खाना खायेंगे। साथ ही घरवाली को आदेश दिया कि सुबह भले ही नीरज को जाना हो लेकिन इसके लिये पानी वानी गर्म करने की कोई जरुरत नहीं है। मुझे पता है कि यह नहीं नहायेगा। यह इतना आलसी है कि अगर ग्यारह बजे तक घर से न निकला तो धक्के मार-मारकर इसे भगा देना। नहीं तो इसकी ट्रेन छूट जायेगी।
यात्रा भले ही यादगार रही हो लेकिन इसमें कुछ कमियां भी रहीं। तिवारी जी के साथ पहले दिन की कई डोंगरगढ यात्रा बेशक शानदार थी लेकिन डब्बू के साथ की गई सिहावा यात्रा शानदार नहीं रही। इसका सबसे बडा कारण था इस स्थान की कहीं भी कोई जानकारी न होना। इंटरनेट पर भी इसके बारे में बस इतनी ही जानकारी है कि यहां से महानदी निकलती है। सप्तऋषियों के बारे में तो कुछ है ही नहीं। अगर किसी स्थान के बारे में पहले से जानकारी हो तो वहां जाने का आनन्द बढ जाता है।
हम एक ही दिन ऋषिपुरी में रहे जोकि अपर्याप्त था। उस पर भी पूरे दिन कार से इधर से उधर घूमते रहे जो आवश्यक नहीं था। उस दिन जरुरत थी केवल कर्क ऋषि आश्रम को विस्तार से देखने की। बराबर में सिहावा बांध है ही। बताते हैं कि बांध के उस तरफ पहाडी पर भी कोई गुफा है जिसमें काफी पुरातात्विक सामग्री है।
इस भागदौड के कारण मेरे पल्ले उतना नहीं पडा, जितना पडना चाहिये था। वृत्तान्त लिखते समय मुझे कई बार डब्बू से फोन करके तथ्य पूछने पडे।
गुरूजी से भी कुछ बातें करनी थीं, खासकर उनके प्रारम्भिक जीवन के बारे में। वे कौन हैं, क्या हैं, कहां के हैं, यहां कैसे आये आदि? उनमें परम्परागत साधुओं वाले गुण नहीं हैं। वे हर बात को गौर से सुनते हैं, सुनकर बाद में कुछ निष्कर्ष निकालते हैं। मैं एकाध मामलों को छोडकर कभी भी उनके निष्कर्षों से असन्तुष्ट नहीं हुआ। उनकी एक बात मुझे बुरी लगी कि वे भी यहां कुम्भ के पचडे में पडे हुए हैं।
अगले दिन सुबह उठा तो सुनील भाई सामने थे। डब्बू ने ही उनका परिचय कराया। मेरी एक शिकायत और भी है कि सुनील भाई से वार्तालाप करने का बेहद अल्प समय मिला। ये भी छत्तीसगढ के बारे में गुरूजी से कम नहीं हैं। डब्बू तो सुनील-समुद्र के सामने बूंद बराबर भी नहीं है। यह यात्रा सुनील द्वारा ही आयोजित थी। हम किसी भी तिराहे चौराहे पर खडे होकर उनसे पूछते तो जनाब तुरन्त समझ जाते कि हम कहां हैं। फिर आगे के निर्देश मिलते।
भाई ही मुझे दुर्ग स्टेशन छोडने आये। यहां से सम्पर्क क्रान्ति एक्सप्रेस पकडनी थी। मेरा आरक्षण भाटापारा से था। वो इसलिये कि मुझे इन चार दिनों में उम्मीद थी कि दुर्ग से शुरू करके घूमते घामते बिलासपुर तक पहुंच जाऊंगा। बिलासपुर से वेटिंग टिकट मिल रहा था, जबकि भाटापारा से पक्की सीट। लेकिन अप्रत्याशित रूप से सिहावा जाना पड गया। और यात्रा की दिशा ही बदल गई। भाटापारा तक जनरल टिकट लेकर जनरल डिब्बे में बैठ गया। दुर्ग से ही बनकर चलती है यह गाडी, भीड नहीं थी।
भाटापारा में सुधीर पाण्डे जी मिले। उनके भाई सुनील पाण्डे जी ने आग्रह किया था कि अगर मैं सिरपुर आऊं तो याद करना। सिरपुर जाना नहीं हो सका। वे मुझसे मिलने ही सपत्नी पचास साठ किलोमीटर दूर भाटापारा स्टेशन आये। यहां गाडी का दो मिनट का ठहराव है और मुझे भी जनरल डिब्बे से निकलकर अपने आरक्षित डिब्बे में जाना था। मिनट भर ही बातचीत हो सकी। फोटो की इच्छा थी, इच्छा ही रह गई।
बिलासपुर में प्रकाश यादव जी को आना था। जब मैं जनवरी में लद्दाख गया था तो उनका भी मन था साथ चलने का लेकिन समयाभाव के कारण नहीं जा सके। रायगढ में रहते हैं। जब पता चला कि मैं बिलासपुर से होकर जाने वाला हूं तो उन्होंने लंच करने को कह दिया। गाडी यहां आधे घण्टे रुकती है। यहां भी समयाभाव आडे आ गया। लेकिन उन्होंने लंच की इज्जत रखी और एक रिश्तेदार के माध्यम से गाडी में ही लंच आ गया। खाने के साथ मिठाई का एक डिब्बा और आधा किलो अंगूर भी थे।
कितनी आत्मीयता मिली इस यात्रा में! दुर्ग में ट्रेन से उतरने से लेकर बिलासपुर में ट्रेन के छूटने तक; कभी भी अकेला नहीं रहा। खर्च क्या होता है, मुझे पता ही नहीं चला। इन चार दिनों में मेरी जेब से मात्र पचपन रुपये खर्च हुए, वो भी दुर्ग से भाटापारा के टिकट के। ऐसी यात्राएं सबकी हों और मेरी तो हमेशा हों, यहीं दुआ है।
कर्क ऋषि आश्रम |
कर्क ऋषि आश्रम के सामने एक टापू। अब बांध में पानी न्यूनतम है, इसलिये वहां जाने का रास्ता दिख रहा है, नहीं तो सब जलमग्न रहता है। |
गुरूजी आश्रम के आसपास की चीजों का अवलोकन कराते हुए। |
कुछ फोटो सूर्यास्त के। |
रात को छत्तीसगढ के जंगलों में। |
पेण्ड्रा रोड से अमरकण्टक के लिये रास्ता जाता है जहां से नर्मदा और सोन निकलती हैं। |
छत्तीसगढ यात्रा
1. छत्तीसगढ यात्रा- डोंगरगढ
2. छत्तीसगढ यात्रा- मोडमसिल्ली बांध
3. छत्तीसगढ यात्रा- सिहावा- महानदी का उद्गम
4. छत्तीसगढ यात्रा- पुनः कर्क आश्रम में और वापसी
नीरज जी राम राम, वाह, क्या गज़ब फोटो हैं. एक के ऊपर एक तीन चट्टानें, सोच कर आश्चर्य होता हैं की ये कैसे किया होगा..सूर्यास्त का चित्र गज़ब हैं, रात के समय गाड़ी की रौशनी में लिए फोटो का भी ज़वाब नहीं...बहुत खूब....वन्देमातरम...
ReplyDeleteनीरज भाई, बहुत सुंदर वर्णन ! फोटो हमेशा की तरह खुबसूरत !!
ReplyDeleteयात्रा विवरण अच्छा लगा। पर पूरे विवरण से पता नहीं लगता कि आप किस तारीख को कहाँ थे। वैसे जब तुम छत्तीसगढ़ घूम रहे थे। उन्हीं में से
ReplyDeleteएक दिन मैं भी भिलाई में था।
blog lok kyo kiya
ReplyDeleteबहुत सुंदर वर्णन. रात के समय गाड़ी की रौशनी में लिए फोटो खुबसूरत हैं.
ReplyDeleteThanks for Everybody who help Neeraj Jat in this journey, Above all Mr. Dabbuji.
ReplyDeleteफ़ोटो बेजोड़ हैं दोस्त ! यात्रा हमेशा की तरह रोमांचक !!
ReplyDeleteऐसी यात्राएं सबकी हों और मेरी तो हमेशा हों, यहीं दुआ है।
ReplyDeletehehehehehe.. gazab hain rai JAT
सोन नद, सोनकुंड (पेंड्रारोड से लगभग 15 किलोमीटर) से निकलती है न कि अमरकंटक से।
ReplyDeleteअतुलनीय चित्र एवं वर्णन. आप सभी. जो इस यात्रा में सहयोगी थे, को दिल से आभार. अभूतपूर्व रहेगी यह घुमक्कडी क्यूंकि अप्रचलित जगहों पर जाने का कोई सोचता भी नहीं.. अतः सिहावा क्षेत्र का आप दुःख ना करें, वो कोई प्रचलित टूरिस्ट स्पोट तो था नहीं जो आपको जानकारी मिलती, जितना घूमे सर्वश्रेष्ठ रहा.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लेख....और फोटो
ReplyDeletewww.safarhainsuhana.blogspot.com
अत्यन्त मनोरंम दृश्य
ReplyDeleteNiraj Ji , Aap jis bhatapara ki bat kar rahe the , mai vaha se keval 23 K M dur Baloda Bazar ka nivasi hu. Mujhe pata hi nahi chala ki Aap Bhataara tak Aye the. Vaise Jabhi Agali Yatra Chhattisgarh ki Tay kare to Sirpur, Turturiya, Sivarinarayan, Barnavapara, Giroudpuri ko Avshya shami kare .
ReplyDeletebhot acche neraj bhai
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