Skip to main content

एक बार फिर बैजनाथ

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें
5 अप्रैल 2013
आठ बजे आंख खुली। आज हमें सबसे पहले चिडियाघर जाना था, उसके बाद ततवानी और मसरूर। लेकिन मैं तरुण गोयल को फोन मिला बैठा। बोले कि मूर्ख, चामुण्डा में क्या कर रहा है? तुझे तो इस समय बरोट होना चाहिये था। मैंने कहा कि भाई, हम हिमानी चामुण्डा से आये हैं। बोले कि आंख मीचकर बरोट चले जाओ। वहां से बडाग्रां तक बस जाती है और बडाग्रां से बिलिंग की ट्रेकिंग करो। मैंने कहा कि बरोट तक जाया जा सकता है, लेकिन हम ट्रेकिंग के मूड में नहीं हैं। दोनों के पैर हिमानी चामुण्डा ने दुखा रखे हैं।
कांगडा रेल की समय सारणी मेरी जेब में थी। बैजनाथ पपरोला से जोगिन्द्र नगर की गाडी देखी, नौ पचास पर छूटेगी। अभी साढे आठ बजे हैं। नटवर, जल्दी कर जितनी जल्दी हो सके। क्या हुआ? बहुत कुछ हो गया। अब हम पहले बैजनाथ जायेंगे।
चामुण्डा से पहले पालमपुर जाना होता है, फिर बैजनाथ। बैजनाथ तक का कुल रास्ता डेढ घण्टे का है। बिना नहाये धोये नौ बजे चामुण्डा से निकल पडे। अड्डे पर पालमपुर की बस खडी थी। जब यह नदी पार करके सीधे पालमपुर जाने की बजाय नगरोटा की तरफ चल पडी तो मन ने कहा कि बेटा, भूल जा रेल को।
दस बजे पालमपुर पहुंचे। जाते ही बैजनाथ की बस मिल गई। रेल कभी की जा चुकी थी, इसलिये पपरोला में उतरने का कोई औचित्य नहीं था, मन्दिर पर ही उतरे।
चार साल पहले मेट्रो में नौकरी लगते ही पहली यात्रा इधर की ही हुई थी। तब से पहले पहाड के नाम पर मैंने सिर्फ ऋषिकेश और भागादेवली ही देखे हुए थे। उत्तराखण्ड का मुझे पता था कि रात में बसें नहीं चलतीं। यही नियम हिमाचल पर भी लागू था मेरी निगाह में। पठानकोट तक रामबाबू के साथ रेल से पहुंचे, उसके बाद पपरोला तक छोटी रेल से। वह गाडी चूंकि जोगिन्द्र नगर ही जा रही थी, लेकिन हम आगे इसलिये नहीं थे कि कहीं जोगिन्द्र नगर से वापस बैजनाथ आने के लिये कोई साधन न मिले। मुझे कुछ नहीं पता था उस समय। कभी होटल में कमरे भी नहीं लिये थे। यह भी नहीं पता था कि जोगिन्द्र नगर बैजनाथ से भी ज्यादा समृद्ध नगर है। इस रेल मार्ग का पपरोला से जोगिन्द्र नगर वाला खण्ड अभी तक मैंने नहीं देखा है।
बस से उतरकर सबसे पहले परांठे खाये गये। इसके बाद 13वीं शताब्दी में निर्मित शिव मन्दिर को देखने चल दिये। मन्दिर प्रांगण में फोटो लिये जा सकते हैं, लेकिन अन्दर फोटो लेने की मनाही है। इस मन्दिर को स्थानीय लोग बारह ज्योतिर्लिंगों में भी मानते हैं, लेकिन झारखण्ड वाला बैद्यनाथ इसे पीछे छोडकर बाजी मार ले जाता है।
बाकी लोगों की तरह नटवर ने भी नन्दी के कान में कुछ फुस-फुस की। मैंने पूछा तो बताया कि इससे मनोकामना पूरी होती है। इसी फुसफुसाहट में लोग नन्दी के सिर पर प्रसाद भी रख देते हैं, जिसे थोडी थोडी देर बाद आकर बन्दर उठा ले जाते हैं। कुछ लोग नन्दी के पिछवाडे में भी सिर मारते हैं। वाह रे भक्ति!
खैर, मन्दिर की मूर्तिकला व वास्तुकला तो दर्शनीय है ही।
यहां से पांच किलोमीटर दूर महाकाल मन्दिर भी है। हम महाकाल जाने वाली बस में बैठे लेकिन बस स्टार्ट नहीं हुई। लोगों ने मिलकर खूब कोशिश की, बस खाली करवाकर धक्के भी लगाये लेकिन बस ने स्टार्ट न होने की कसम खा ली। पौने घण्टे तक यह कोशिश होती रही। एक बजे के आसपास हम भी निराश होकर जोगिन्दर नगर वाली बस में जा बैठे।

बैजनाथ मन्दिर



नन्दी के कान में फुस-फुस करने की परम्परा है।


















पैंट फट गई थी, मरम्मत हो रही है।
अगला भाग: बरोट यात्रा

कांगडा यात्रा
1. एक बार फिर धर्मशाला
2. हिमानी चामुण्डा ट्रेक
3. हिमानी चामुण्डा से वापसी
4. एक बार फिर बैजनाथ
5. बरोट यात्रा
6. पालमपुर का चिडियाघर और दिल्ली वापसी

Comments

  1. अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा

    ReplyDelete
  2. वैसे सभी जगह नंदीजी के कान में लोग मनोकामना कहते हैं, वह भी दूसरा कान बंद करके जिससे कहीं उनकी मनोकामना नंदीजी सुने ही नहीं और दूसरे कान से बाहर निकाल दें :)

    और हमारे नंदी जी कुछ कर भी नहीं पाते, उनको चुपचाप मनोकामना सुनना पड़ती है।

    ReplyDelete
  3. लेख में कंजूसी ? बाबु मोशाय, इ चोलबे ना !!

    ReplyDelete
  4. बहुत सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति!
    साझा करने के लिए धन्यवाद!

    ReplyDelete
  5. अति उत्तम पर नीरज बाबु आपसे अपेक्षाएं बढ़ गयी हैं हिमाचल दोबारा जाने के बजाये उन स्थानों को नापो जहाँ आप
    नहीं गए हैं जैसे की तमिलनाडु , आन्ध्र , केरला ,सिक्किम

    ReplyDelete
    Replies
    1. जैन साहब, चार दिन की छुट्टियों में हम दिल्ली वाले हिमाचल, उत्तराखण्ड तक ही पहुंच पाते हैं।

      Delete
  6. सच कहा जैन साहेब ने अब दूसरी जगह भी जाओ

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

डायरी के पन्ने- 30 (विवाह स्पेशल)

ध्यान दें: डायरी के पन्ने यात्रा-वृत्तान्त नहीं हैं। 1 फरवरी: इस बार पहले ही सोच रखा था कि डायरी के पन्ने दिनांक-वार लिखने हैं। इसका कारण था कि पिछले दिनों मैं अपनी पिछली डायरियां पढ रहा था। अच्छा लग रहा था जब मैं वे पुराने दिनांक-वार पन्ने पढने लगा। तो आज सुबह नाइट ड्यूटी करके आया। नींद ऐसी आ रही थी कि बिना कुछ खाये-पीये सो गया। मैं अक्सर नाइट ड्यूटी से आकर बिना कुछ खाये-पीये सो जाता हूं, ज्यादातर तो चाय पीकर सोता हूं।। खाली पेट मुझे बहुत अच्छी नींद आती है। शाम चार बजे उठा। पिताजी उस समय सो रहे थे, धीरज लैपटॉप में करंट अफेयर्स को अपनी कापी में नोट कर रहा था। तभी बढई आ गया। अलमारी में कुछ समस्या थी और कुछ खिडकियों की जाली गलकर टूटने लगी थी। मच्छर सीजन दस्तक दे रहा है, खिडकियों पर जाली ठीकठाक रहे तो अच्छा। बढई के आने पर खटपट सुनकर पिताजी भी उठ गये। सात बजे बढई वापस चला गया। थोडा सा काम और बचा है, उसे कल निपटायेगा। इसके बाद धीरज बाजार गया और बाकी सामान के साथ कुछ जलेबियां भी ले आया। मैंने धीरज से कहा कि दूध के साथ जलेबी खायेंगे। पिताजी से कहा तो उन्होंने मना कर दिया। यह मना करना मुझे ब...

डायरी के पन्ने-32

ध्यान दें: डायरी के पन्ने यात्रा-वृत्तान्त नहीं हैं। इस बार डायरी के पन्ने नहीं छपने वाले थे लेकिन महीने के अन्त में एक ऐसा घटनाक्रम घटा कि कुछ स्पष्टीकरण देने के लिये मुझे ये लिखने पड रहे हैं। पिछले साल जून में मैंने एक पोस्ट लिखी थी और फिर तीन महीने तक लिखना बन्द कर दिया। फिर अक्टूबर में लिखना शुरू किया। तब से लेकर मार्च तक पूरे छह महीने प्रति सप्ताह तीन पोस्ट के औसत से लिखता रहा। मेरी पोस्टें अमूमन लम्बी होती हैं, काफी ज्यादा पढने का मैटीरियल होता है और चित्र भी काफी होते हैं। एक पोस्ट को तैयार करने में औसतन चार घण्टे लगते हैं। सप्ताह में तीन पोस्ट... लगातार छह महीने तक। ढेर सारा ट्रैफिक, ढेर सारी वाहवाहियां। इस दौरान विवाह भी हुआ, वो भी दो बार। आप पढते हैं, आपको आनन्द आता है। लेकिन एक लेखक ही जानता है कि लम्बे समय तक नियमित ऐसा करने से क्या होता है। थकान होने लगती है। वाहवाहियां अच्छी नहीं लगतीं। रुक जाने को मन करता है, विश्राम करने को मन करता है। इस बारे में मैंने अपने फेसबुक पेज पर लिखा भी था कि विश्राम करने की इच्छा हो रही है। लगभग सभी मित्रों ने इस बात का समर्थन किया था।

लद्दाख बाइक यात्रा-4 (बटोट-डोडा-किश्तवाड-पारना)

9 जून 2015 हम बटोट में थे। बटोट से एक रास्ता तो सीधे रामबन, बनिहाल होते हुए श्रीनगर जाता ही है, एक दूसरा रास्ता डोडा, किश्तवाड भी जाता है। किश्तवाड से सिंथन टॉप होते हुए एक सडक श्रीनगर भी गई है। बटोट से मुख्य रास्ते से श्रीनगर डल गेट लगभग 170 किलोमीटर है जबकि किश्तवाड होते हुए यह दूरी 315 किलोमीटर है। जम्मू क्षेत्र से कश्मीर जाने के लिये तीन रास्ते हैं- पहला तो यही मुख्य रास्ता जम्मू-श्रीनगर हाईवे, दूसरा है मुगल रोड और तीसरा है किश्तवाड-अनन्तनाग मार्ग। शुरू से ही मेरी इच्छा मुख्य राजमार्ग से जाने की नहीं थी। पहले योजना मुगल रोड से जाने की थी लेकिन कल हुए बुद्धि परिवर्तन से मुगल रोड का विकल्प समाप्त हो गया। कल हम बटोट आकर रुक गये। सोचने-विचारने के लिये पूरी रात थी। मुख्य राजमार्ग से जाने का फायदा यह था कि हम आज ही श्रीनगर पहुंच सकते हैं और उससे आगे सोनामार्ग तक भी जा सकते हैं। किश्तवाड वाले रास्ते से आज ही श्रीनगर नहीं पहुंचा जा सकता। अर्णव ने सुझाव दिया था कि बटोट से सुबह चार-पांच बजे निकल पडो ताकि ट्रैफिक बढने से पहले जवाहर सुरंग पार कर सको। अर्णव को भी हमने किश्तवाड के बारे में नहीं ...