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22 अगस्त को सुबह सवेरे साढे छह बजे जैसे ही नई दिल्ली-हावडा एक्सप्रेस (12324) हावडा स्टेशन पर पहुंची और जाट महाराज ने कदम जमीन पर रखे तो पश्चिमी बंगाल भारत का ऐसा महसूस करने वाला 14वां राज्य बन गया (दिल्ली और चण्डीगढ को मिलाकर)। लगभग चौबीस घण्टे हो गये थे मुझे इस ट्रेन में सफर करते-करते। और कम से कम छत्तीस घण्टे हो गये थे नहाये हुए। आजकल पता नहीं क्या हो रहा है कि जल्दी-जल्दी नहाने की तलब लगने लगती है, दो दिन भी नहीं गुजारे जाते बिना नहाये हुए।
फटाफट नहाने का जुगाड ढूंढा गया। स्टेशन के एक कोने में नहाने का बंगाली स्टाइल मिल भी गया। और नहाने वालों की भीड भी जबरदस्त। पता नहीं बंगाली जब घर से निकलते हैं तो नहाकर नहीं निकलते क्या? और अगलों की ‘घ्राण शक्ति’ भी इतनी विकसित कि मुझे खडे देखकर बाथरूम का इंचार्ज बंगाली हिन्दी में बोला कि नहाना है क्या। मेरे हां करने पर बोला कि आओ तो इधर, वहां क्यों खडे हो? लाइन में लग जाओ, बैग यही छोड दो, अन्दर टांगने का कोई इंतजाम नहीं है। मैंने बैग वही रखा और चार्जर निकालकर मोबाइल चार्जिंग पर लगाने लगा तो बाथिंग इंचार्ज साहब बोले कि ओये, इसमें मोबाइल मत लगाना। क्यों? क्योंकि इसमें 1100 वोल्ट की बिजली है। इतनी बिजली तुम्हारे मोबाइल को धराशायी कर देगी। खैर, परदेस का चक्कर और महाराज बहस नहीं किया करते इसलिये उसकी बात मान ली। नहीं तो उसे क्या पता था कि अगला 25000 वोल्ट की लाइनों को देखता है। बंगाल का पहला अनुभव।
मैंने पहले भी बताया था कि मेरा कोलकाता जाने का कोई इरादा नहीं था, अगर अपने कुछ दोस्त वहां नहीं गये होते। उनका कल यानी इतवार को कुछ पेपर-वेपर था और आज दोपहर बाद उन्हें दूरन्तो पकडकर वापस चले जाना था लेकिन जाने से पहले उन्हें कालीघाट मन्दिर देखना था। मैंने हालांकि उनसे पहले ही मना कर दिया था इसलिये उन्हें मेरे बारे में कोई जानकारी नहीं थी। मैंने हावडा स्टेशन से बाहर निकलकर उनमें से एक नितिन सैनी जी महाराज को फोन मिलाया तो पता चला कि वे अभी होटल में ही हैं, थोडी देर बाद कालीघाट के लिये निकलेंगे। मैंने उन्हें अच्छी यात्रा की शुभकामनाएं दीं और फोन काट दिया।
स्टेशन से बाहर निकलते ही हावडा ब्रिज दिख गया। देखते ही सोचने लगा कि यार, यह क्या बला है? कुछ जाना पहचाना सा लग रहा है। फिर अचानक याद आया कि ओहो, महाराज हावडा में हैं तो यह बला दिखनी ही बनती है। इसी पुल के नीचे से गंगा हुगली के नाम से बहती है। मुझे कालीघाट जाने की पडी थी, इसलिये हुगली को वापसी के लिये छोड दिया।
बंगला लिपि- अपने लिये सिर के ऊपर से गुजरने वाली लिपि। अगले ने कभी भी दुनिया की सर्वमान्य प्रतिष्ठित भाषा अंग्रेजी तक को नहीं छुआ, फिर बंगला क्या चीज है। हिन्दी (मतलब देवनागरी- संस्कृत और मराठी भी) को पढने में कभी दिक्कत नहीं, हां गुरमुखी भी पढ लेता हूं। एक बार हम दो दोस्त कहीं जा रहे थे। एक ट्रक पर लिखा था- ਸਤਿਨਾਮ ਵਾਹੇਗੁਰੁ, मैंने जैसे ही बोला कि सतनाम वाहेगुरू तो दोस्त खदक पडा कि यार तू भी पता नहीं क्या क्या बोलता रहता है। मैंने समझाया कि देख, उस ट्रक के पीछे यही तो लिखा है। आज इधर बंगला में भी ऐसा ही नजारा मिला लेकिन अपन इस भाषा के ज्ञान में जीरो हैं। सैंकडों बसें छोड दी, तब जाकर कालीघाट की एक बस मिली। यहां लोकल बसों में अधिकतम किराया आठ रुपये है, कंडक्टर ने आठ रुपये ले लिये। उसने कहा भी होगा कि कालीघाट आ गया लेकिन फिर वही बात कि सुनना ही नहीं आता तो नहीं उतरे और आखिर में गडिया पहुंच गये। वहां उस बस का आखिरी स्टॉप था। पता चला कि कालीघाट तो आठ रुपये पीछे रह गया यानी यहां से भी आठ रुपये ही लगेगा और दोबारा वही बस पकडनी पडेगी।
कालीघाट पहुंचा। पण्डों ने दूर से ही देख लिया कि वो आ रहा परदेसी शिकार। फिर तो मेरे चक्कर में पण्डों में घमासान भी हो गया। उधर मेरी निगाहें ढूंढ रही थीं अपने दोस्तों को। पण्डों से पिण्डा छुडाता मैं आखिर में तीसरे नम्बर वाले गेट पर जाकर खडा हो गया। मेरे खडे होते ही दुकान वाले दौड पडे कि भाई साहब, आ जाओ। सामान यहां रख दो फ्री में, और प्रसाद ले लो। हम आपको अच्छे से दर्शन करायेंगे, पूजा भी करायेंगे। मैंने मना कर दिया और चप्पल पहने-पहने ही अन्दर जाने लगा तो दुकान वालों ने हल्ला मचा दिया। शायद बंगला में एकाध गाली भी दी होगी। मजबूर होकर मैंने बैग उतारा, चप्पलें उतारीं और...। दो-तीन दुकान वाले मुझे घेरे खडे थे। ...और बैग की चैन खोली, दोनों चप्पलें उसमें ठूंस दी। अब उनके पास मुझे रोकने का ‘लाइसेंस’ नहीं था। आराम से नंगे पैर अन्दर चला गया।
मन्दिरों में तो अपना कभी विश्वास रहा ही नहीं। यहां कालीघाट मन्दिर में भी केवल दोस्तों को आश्चर्यचकित करने के लिये आया था, नहीं तो आज इस समय पता नहीं मैं कहां होता। काली मां को अपने दर्शन दिये और फटाफट बाहर निकल गया। अन्दर-बाहर दोस्तों को खूब ढूंढ लिया लेकिन वे नहीं मिले।
घण्टे भर बाद वे मुझे मन्दिर से बाहर निकलकर जाते हुए दिखे। मैं भी हो लिया उनके पीछे-पीछे। वे मेन रोड की तरफ जा रहे थे। उनके पास पहुंचकर मैंने कहा कि भाई साहब, दर्शन करने हैं? आ जाओ आपको दर्शन कराऊंगा। पांचों के मुंह से निकला कि नहीं, हमें दर्शन नहीं करने हैं। लेकिन जल्दी ही वे समझ गये कि दर्शन कराने वाला कोई पण्डा नहीं, बल्कि अपना जाट है। पहले तो आंख फाड-फाडकर देखते रहे, फिर अचानक ... वही जो ऐसे मामलों में होता है। मेरी खूब ‘खातिरदारी’ हुई।
दिल्ली में मुझे रहते हुए तीन साल से ऊपर हो गये लेकिन आज भी अगर कोई मेट्रो से बाहर की जगह पूछता है तो भईया, कान पकड लेते हैं। कभी कभी तो ऐसा भी हो जाता है कि किसी को अगर द्वारका जाना हो तो उसे यह कहकर नोयडा वाली गाडी में बैठा देंगे कि सबसे लास्ट में द्वारका का स्टेशन है। उसके जाते ही ध्यान आता है कि ओहो, गलती हो गई, गलत गाडी में बैठा दिया। जब अब तक दिल्ली ही पल्ले नहीं पडा तो यह कोलकाता क्या चीज है। इसे कैसे मात्र चार घण्टों में समझ लेते? पता नहीं कौन सा मेट्रो स्टेशन था जब हम मेट्रो में घुसे एमजी रोड जाने के लिये।
हम छह में से तीन दिल्ली मेट्रो वाले थे और बाकी तीन ऐसे ही थे। बाकियों ने दिल्ली मेट्रो की टांग खींचनी चाही कि देखो यहां टीवी स्क्रीन लगी हैं, फिल्मी गाने चल रहे हैं जबकि दिल्ली में स्क्रीन तो लगी हैं लेकिन वहां विज्ञापन दिखाये जाते हैं। ये देखो, भीड भी नहीं है, जबकि दिल्ली में पैर रखने तक की जगह नहीं मिलती। मैंने कहा कि भाई, आज जन्माष्टमी है, फिर दोपहर का टाइम है, दिल्ली मेट्रो भी इतनी ही खाली दौडती है। दूसरी बात कि दिल्ली में लोकल रेल सेवा बुरी तरफ फेल हो चुकी है, बस सुबह शाम ड्यूटी टाइम में ही थोडी बहुत भीड दिखाई देती है। इसका सीधा असर मेट्रो पर पडता है। जबकि कोलकाता में मुम्बई की तरह ही लोकल सेवा लोकप्रिय और सफल है। यहां कई ट्रेनें भूमिगत होने के बावजूद भी नॉन एसी हैं। चलते समय पहियों की आवाज खड-खड, खड-खड आती रहती है। कोलकाता मेट्रो में मुझे गार्ड भी दिखाई दिया।
एमजी रोड मेट्रो स्टेशन पर उतर गये। यहां से बस पकडकर हावडा जाना था लेकिन मुझे दिख गई ट्राम। बारिश होने लगी थी और जाम भी लगा था। कुछ दौड-धूप करके ट्राम में जा बैठे। एक सवारी का किराया साढे तीन रुपये था हावडा ब्रिज तक। यह भी एक नया अनुभव था। गांव में जाकर जब मैंने ट्राम के बारे में बताया कि कलकत्ता में एक ऐसी रेल चलती है जिसकी पटरियां सडक पर बिछी हैं, सडक पर अगर जाम लगता है तो ट्राम भी जाम में फंस जाती है। सामने अगर कोई साइकिल वाला भी आ गया तो ट्राम रुक जाती है, तो किसी को यकीन नहीं हुआ। हावडा ब्रिज पर जाकर जब ट्राम सेवा खत्म हो गई तो हमें इच्छा हुई कि इसका सिग्नलिंग सिस्टम देखने की लेकिन कोई सिग्नल होता हो तो दिखे भी। एक डण्डे से पटरियों को इधर से उधर सरका दिया जाता है और ट्राम की लाइन बदल जाती है। तकनीकी रूप से कहें कि पॉइण्ट ऑपरेशन किसी पॉइण्ट मशीन से ना करके डण्डे से किया जाता है तो हमारे लिये बडे कौतूहल की चीज बनती है।
बारिश में भीगते हुए हावडा ब्रिज पार किया। एक बजे अपने पांचों दोस्तों को दिल्ली के लिये विदा किया। मैंने लोकल ट्रेन से खडगपुर जाने का प्रोग्राम बना रखा था। दो बजकर आठ मिनट पर अपनी खडगपुर लोकल (68635) थी।
कोलकाता की एक चीज मुझे बढिया लगी- टैक्सियां। डीटीसी के रेट में काफी दूर तक के लिये टैक्सियां मिल जाती हैं। बडी सस्ती हैं यहां टैक्सियां। वाकई पहली यात्रा में ही कोलकाता ने मुझे बहुत प्रभावित किया।
कालीघाट मन्दिर
ट्राम
बारिश पड रही है, ट्राम की पटरियां पानी के नीचे हैं। पटरियां बदली जा रही हैं।
हावडा ब्रिज
नितिन सैनी जी महाराज- आजकल शास्त्री पार्क मेट्रो स्टेशन पर बैठते हैं।
जाट महाराज- बारिश का मजा लिया जा रहा है।
अगला भाग: हावडा-खडगपुर रेल यात्रा
हावडा पुरी यात्रा
1. कलकत्ता यात्रा- दिल्ली से हावडा
2. कोलकाता यात्रा- कालीघाट मन्दिर, मेट्रो और ट्राम
3. हावडा-खडगपुर रेल यात्रा
4. कोणार्क का सूर्य मन्दिर
5. पुरी यात्रा- जगन्नाथ मन्दिर और समुद्र तट
6. पुरी से बिलासपुर पैसेंजर ट्रेन यात्रा
बहुत सुन्दर वाह!
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति ||
ReplyDeleteआभार महोदय ||
हर हाल में जारी जिन्दगी का सफर.
ReplyDeleteबाबा आदम के जमाने की सरकारी बसों की सवारी नहीं करी के?
ReplyDeleteपहली दो यात्राओं से ये यात्रा अच्छी रही।
ReplyDeleteअरे नीरज को नहाने की कैसे सूझ गयी,
हमें तो मामला सच नहीं लग रहा है।
कभी दिल्ली में भी चलती थी ऐसी ही ट्राम,
शायद 1975 के आस पास बन्द हो गयी थी
सुन्दर प्रस्तुति. कालीघाट मंदिर से निकल कर जब दोस्तों से मिले होगे, तो क्या अनुभूति रही होगी, सोच रहा हूँ.
ReplyDeleteबाबू मोशाय..
ReplyDeleteयह भी खूब रही ... आज आपके साथ साथ हम ने भी फिर से अपनी जन्मभूमि की सैर कर ली और काफी सारी यादें भी ताज़ा हो गई !
ReplyDelete"आजकल पता नहीं क्या हो रहा है कि जल्दी-जल्दी नहाने की तलब लगने लगती है, दो दिन भी नहीं गुजारे जाते बिना नहाये हुए" लगता है "जाट देवता" का असर हो गया है...
ReplyDeleteजब पहली बार एक इंटरव्यू के लिए कोलकाता गया तभी अपनी आदत के अनुसार उसके कई रंग देख लिए थे. अरुणाचल आता-जाता भी उसे देखने के मौके मिलते रहे. ट्राम छुट गई थी आज आपने घुमवा दी.
ReplyDeleteनीरज बाबू बहुत बहुत शुभकामनाए कफनी ग्लेसियर जाने के लिए
ReplyDeleteमैं भी चलना चाहता था लेकिन प्रोग्राम थोडा ज्यादा दिन का है तो भविष्य मैं कभी...........
संभव हुआ तो...........
बाकी एक बार फिर से शुभकामनाएं आपको
चलो पश्चिम बंगाल भी खुश हो गया होगा कि नीरजजाटजी ने देर से ही सही आखिर यहां कदम रख ही दिये। :)
ReplyDeleteहर बार की तरह बहुत मजा आया पोस्ट पढने में।
आज तो आप कफनी के लिये निकल लोगे अतुल को साथ लेकर
उसके साथ आपकी यात्रा के किस्से सुनने के लिये तैयार हैं हम
प्रणाम
बहुत सुन्दर प्रस्तुति| धन्यवाद|
ReplyDeleteघूमे तो हम भी कलकत्ता...मगर ऐसी मौज मस्ती कहाँ..बढ़िया विवरण.
ReplyDeleteनीरज भाई, मैं कोल्कता गया हूँ बहुत बार, कॉलेज के दिनों में जब भी घर आना होता था को बहुत बार कोल्कता से होकर ही आता था..कुछ कुछ याद भी आया इस पोस्ट से!!
ReplyDeleteआपकी कोलकाता यात्रा का विवरण पढ़ा , बहुत अच्छा लगा । शुक्रिया
ReplyDeleteआपकी कोलकाता यात्रा का विवरण पढ़ा , बहुत अच्छा लगा । शुक्रिया
ReplyDeleteआपकी कोलकाता यात्रा का विवरण पढ़ा , बहुत अच्छा लगा । शुक्रिया
ReplyDeleteयाञा मॅ एक कमी है कलकता ग़ये पर बैलूर मठ ना ग़ये , गजबकी जगह है
ReplyDeleteबहुत सुन्दर,,सिर्फ लेखन ही नहीं उत्साह भी ...यात्रा मन के अंनत द्वार खोल देती है..
ReplyDeleteअच्छा यात्रा अनुभव
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर लेखन प्रस्तुति
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