पिछली बार हमने आपको चण्डीगढ के रॉक गार्डन में घुमाया था। इसके पास में ही है सुखना झील। पास में मतलब एक डेढ किलोमीटर दूर। मैं तो पैदल ही चला गया था। चण्डीगढ की यही तो बात अच्छी लगती है। एक तो चौडी-चौडी सडकें हैं, अभी ट्रैफिक भी ज्यादा नहीं है, फिर सडकों के किनारे चौडे-चौडे फुटपाथ, छायादार पेड; पैदल चलने में मजा आ जाता है।
मेरी हालत तो आपको पता ही है। पूरी रात जगा रहा, नाइट शिफ्ट की थी, फिर चार-साढे चार घण्टे का जनरल डिब्बे में सफर करके चण्डीगढ पहुंचा, यहां घण्टे भर लाइन में खडा होकर कालका मेल से वापसी का रिजर्वेशन कराया, फिर रॉक गार्डन में पैदल ही घूमता रहा, अब वहां से यहां सुखना तक भी पैदल घिसटन। दोपहर बाद का टाइम तो रॉक गार्डन में ही हो गया था। मेरी जगह खुद को रखकर देखो, अब तक तो कहने लगते कि छोडो सुखना-वुखना, कोई होटल ढूंढते और सो जाते। रखकर देखो तो सही, थोडी बहुत थकान महसूस हो ही जायेगी। मुझे भी उस समय बहुत भयंकर थकावट हो रही थी।
यह तीन वर्ग किलोमीटर में फैली कृत्रिम झील सुखना चो नामक बरसाती धारा पर सन 1958 में बनायी गयी थी। ली कार्बुजियर, जो चण्डीगढ के जन्मदाता थे, यह झील इन्ही की एक योजना का हिस्सा थी। झील के दक्षिणी हिस्से में गोल्फ कॉर्स भी है। जाडे के दिनों में यहां विदेशी पक्षी खासकर साइबेरियन पक्षी देखने को मिलते हैं।
घण्टे भर तक मैं सुखना किनारे सीढियों पर ही बैठा रहा, अपनी जगह से हिला नहीं। फोटू खींचता रहा। सामने सुखना थी। इसमें असंख्य पैडल बोट थीं। उस पार हिमाचल के पहाड दिख रहे थे। पहले तो छोटी-छोटी पहाडियों की श्रंखला है, फिर उनके पीछे धुंधले से पर्वत हैं। उन पर्वतों के उस पार भी बहुत कुछ है। कभी गया नहीं हूं, जाऊंगा तो बताऊंगा।
आज का दिन तो मुझे चण्डीगढ में ही बिता देना है, रात का पता नहीं। कल भी खाली हूं, कहीं ना कहीं तो जाऊंगा। चण्डीगढ में नहीं रहूंगा। बचा-खुचा चण्डीगढ फिर कभी। कल कहां जाऊं? सुखना किनारे थका बैठा सोचे जा रहा हूं। एक बत्तख है, किनारे पर सीढियों पर चढ आयी है, पर्यटकों के साथ मस्ती कर रही है। पर्यटक अचम्भित हैं। अरे, यह बत्तख डर नहीं रही है। लेकिन बत्तख का तो रोज का काम है। यहीं पैदा हुई, पली-बढी, इसके लिये सब-कुछ नॉर्मल है। बाकी दिन भी इसे ऐसे ही काट देने हैं। इधर मैं हूं, मैं भी तो ऐसा ही हूं। मेरा भी तो रोज का काम है, घूमना ही घूमना चाहता हूं। अभी तो चण्डीगढ में हूं। रात का पता नहीं, कल का भी नहीं पता।
भई वाह!!!! कितने अच्छे-अच्छे विचार मन में आ रहे हैं। इंसान जब थका-हारा हो, कहीं सोने की सम्भावना ना हो लेकिन सुकून से बैठना नसीब हो जाये तो मन में अच्छे-अच्छे विचार आने तय हैं। सुकून से बैठने में ‘वो उकडू’ बैठना भी शामिल है। मैं जब किसी उलझन में होता हूं, और मान लो प्रेशर बन जाये, तो उकडू बैठते ही उलझन खत्म। पांच-दस मिनट शान्ति से तसल्लीबख्श होकर सोचने का मौका जो मिलता है।
घण्टे भर बाद, सुखना किनारे का काम खत्म और चूंकि अभी दिन था, मैं किसी और ठिकाने की तरफ बढ चला।
मेरी हालत तो आपको पता ही है। पूरी रात जगा रहा, नाइट शिफ्ट की थी, फिर चार-साढे चार घण्टे का जनरल डिब्बे में सफर करके चण्डीगढ पहुंचा, यहां घण्टे भर लाइन में खडा होकर कालका मेल से वापसी का रिजर्वेशन कराया, फिर रॉक गार्डन में पैदल ही घूमता रहा, अब वहां से यहां सुखना तक भी पैदल घिसटन। दोपहर बाद का टाइम तो रॉक गार्डन में ही हो गया था। मेरी जगह खुद को रखकर देखो, अब तक तो कहने लगते कि छोडो सुखना-वुखना, कोई होटल ढूंढते और सो जाते। रखकर देखो तो सही, थोडी बहुत थकान महसूस हो ही जायेगी। मुझे भी उस समय बहुत भयंकर थकावट हो रही थी।
यह तीन वर्ग किलोमीटर में फैली कृत्रिम झील सुखना चो नामक बरसाती धारा पर सन 1958 में बनायी गयी थी। ली कार्बुजियर, जो चण्डीगढ के जन्मदाता थे, यह झील इन्ही की एक योजना का हिस्सा थी। झील के दक्षिणी हिस्से में गोल्फ कॉर्स भी है। जाडे के दिनों में यहां विदेशी पक्षी खासकर साइबेरियन पक्षी देखने को मिलते हैं।
घण्टे भर तक मैं सुखना किनारे सीढियों पर ही बैठा रहा, अपनी जगह से हिला नहीं। फोटू खींचता रहा। सामने सुखना थी। इसमें असंख्य पैडल बोट थीं। उस पार हिमाचल के पहाड दिख रहे थे। पहले तो छोटी-छोटी पहाडियों की श्रंखला है, फिर उनके पीछे धुंधले से पर्वत हैं। उन पर्वतों के उस पार भी बहुत कुछ है। कभी गया नहीं हूं, जाऊंगा तो बताऊंगा।
आज का दिन तो मुझे चण्डीगढ में ही बिता देना है, रात का पता नहीं। कल भी खाली हूं, कहीं ना कहीं तो जाऊंगा। चण्डीगढ में नहीं रहूंगा। बचा-खुचा चण्डीगढ फिर कभी। कल कहां जाऊं? सुखना किनारे थका बैठा सोचे जा रहा हूं। एक बत्तख है, किनारे पर सीढियों पर चढ आयी है, पर्यटकों के साथ मस्ती कर रही है। पर्यटक अचम्भित हैं। अरे, यह बत्तख डर नहीं रही है। लेकिन बत्तख का तो रोज का काम है। यहीं पैदा हुई, पली-बढी, इसके लिये सब-कुछ नॉर्मल है। बाकी दिन भी इसे ऐसे ही काट देने हैं। इधर मैं हूं, मैं भी तो ऐसा ही हूं। मेरा भी तो रोज का काम है, घूमना ही घूमना चाहता हूं। अभी तो चण्डीगढ में हूं। रात का पता नहीं, कल का भी नहीं पता।
भई वाह!!!! कितने अच्छे-अच्छे विचार मन में आ रहे हैं। इंसान जब थका-हारा हो, कहीं सोने की सम्भावना ना हो लेकिन सुकून से बैठना नसीब हो जाये तो मन में अच्छे-अच्छे विचार आने तय हैं। सुकून से बैठने में ‘वो उकडू’ बैठना भी शामिल है। मैं जब किसी उलझन में होता हूं, और मान लो प्रेशर बन जाये, तो उकडू बैठते ही उलझन खत्म। पांच-दस मिनट शान्ति से तसल्लीबख्श होकर सोचने का मौका जो मिलता है।
घण्टे भर बाद, सुखना किनारे का काम खत्म और चूंकि अभी दिन था, मैं किसी और ठिकाने की तरफ बढ चला।
अगला भाग: चंडीगढ़ का गुलाब उद्यान
चण्डीगढ यात्रा श्रंखला
1. रॉक गार्डन, चण्डीगढ
2. चण्डीगढ की शान- सुखना झील
3. चण्डीगढ का गुलाब उद्यान
लेकिन बत्तख का तो रोज का काम है। यहीं पैदा हुई, पली-बढी, इसके लिये सब-कुछ नॉर्मल है। बाकी दिन भी इसे ऐसे ही काट देने हैं। इधर मैं हूं, मैं भी तो ऐसा ही हूं। मेरा भी तो रोज का काम है, घूमना ही घूमना चाहता हूं। अभी तो चण्डीगढ में हूं। रात का पता नहीं, कल का भी नहीं पता।
ReplyDeleteक्या बात है भटकती आत्मा आज दार्शनिक होरही है?
रामराम.
यहां घण्टे भर लाइन में खडा होकर कालका मेल से वापसी का रिजर्वेशन कराया
ReplyDeleteआप नेट व कम्प्यूटरों का प्रयोग करते ही हैं, तो ऑनलाइन रिजर्वेशन क्यों प्रयोग नहीं करते. नेट बैंकिंग या तथा एसबीआई एटीएम कार्डों से यह बेहद आसान है. मैंने तो जमाने से काउंटर पर जाना छोड़ दिया है.
सुखना झील की सैर करने के लिए आभार. बत्तख बड़े सुन्दर लग रहे हैं.
ReplyDeleteआज दर्शन है या चिंतन या मनन
ReplyDeleteआपने सही कहा जी - शौच मे सोचने का समय मिल जाता है :-)
पी एन जी कह रहे हैं आपका आभार जो आपने सुखना झील की सैर की
मेरा भी धन्यवाद स्वीकार करें - सैर के लिये नहीं फोटोज के लिये
राम-राम
very nice ! very charming !
ReplyDeleteआपकी यायावरी अच्छी भी लगती है और अचंभित भी करती है! खैर दुनिया घूमने का सपना मेरा भी है...कौन जाने कब पूरा होगा?
ReplyDeleteसुन्दर चित्र अपने आप में सारी कहानी कह रहे हैं ।
ReplyDeleteसुन्दर चित्र अपने आप में सारी कहानी कह रहे हैं ।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया रही चित्रमय प्रस्तुति!
ReplyDeleteबहुत सुंदर लगा जी ओर चित्र भी बहुत सुंदर एक से बढ कर एक
ReplyDeleteनीरज, हमेशा की तरह बहुत बढ़िया विवरण दिया। अगली पोस्ट का इंतजार रहेगा।
ReplyDeletemein to roj jati hu sukhna lake aur kabhi dil nahi bharta.. wahan ek kinare per baith kar ghanton sochna... aur planning karna.. routine mein hai mere... nice post..
ReplyDeleteमजा आ गया पढ़ के भाई...
ReplyDeleteआपसे थोड़ी जलन भी हो रही है, की मैं अभी तक वो सब जगह नहीं घुम पाया जहाँ आप हो के आ गए :)
नीरज भैया एक बार मैंने आपसे गुजारिस की थी की आप लेह लधाख घूम के आओ और यात्रा विवरण दो , पर आज तक आपने इस बात पर गौर नहीं किया है . फिर गर्मियां आ गयी है , लेह जाने का यही सबसे बेहतरीन मौसम है क्या ख्याल है ? हो जाए इस बार .
ReplyDeleteवैसे नाहान के बारे में अब तक नहीं बताया आपने ?
This comment has been removed by the author.
ReplyDeletewakayi mein bahut khubsurat hai...
ReplyDeletechandigarh ke paas hi rahta hoon...aksar aana jaana ho jata hai...
aapne bhi achhi sair kara di..
regards...
http://i555.blogspot.com/
हमारे जमाने में क्यों नहीं पैदा हुए? मिलकर खूब घूमते। मुझे पैदल चलना बहुत पसन्द है। बहुत चलती थी। एक दिन में २५ मील की चढ़ाई उतराई भी की है। चलिए आप मेरे शहर में घूमे अच्छा लगा।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
chandigarh ka sandaar chitran kiya hai aapne.....badhai.
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