Skip to main content

बीनू कुकरेती का The Jayalgarh Resort



16 नवंबर 2019
आज मैं करोड़ों वर्ष बाद ऋषिकेश से देवप्रयाग वाली सड़क पर बाइक चला रहा था। इससे पहले तब गया था, जब चारधाम परियोजना का काम शुरू नहीं हुआ था। अब चारधाम परोयोजना का काम जोर-शोर से चल रहा था, लेकिन ज्यादातर सड़क बन चुकी थी। बाइक फर्राटे से चलती गई। हाँ, कहीं-कहीं ज्यादा जोर-शोर से काम होता, तो कई जगहों पर गाड़ियों की एक-एक किलोमीटर लंबी लाइन मिली। ऐसे में बहुत सारे ड्राइवर रोंग साइड पर चलकर अपनी गाड़ी को सबसे आगे ले जाते हैं और सामने से आने वाली गाड़ियों का रास्ता बंद कर देते हैं। मैं ऐसे सभी ड्राइवरों को गालियाँ देता हुआ रोंग साइड में चलकर अपनी बाइक को सबसे आगे ले जाकर खड़ी कर देता।

आज मैं जा रहा था बीनू कुकरेती के यहाँ। वह पौड़ी गढ़वाल जिले के बरसूड़ी गाँव का रहने वाला है और कई सालों से दिल्ली में ट्रांसपोर्ट का धंधा कर रहा था। पूरा परिवार दिल्ली में ही रहता है, लेकिन बीनू का मन पहाड़ों में लगता है, तो वह अपना धंधा छोड़कर पहाड़ में आ गया और श्रीनगर के पास जमीन खरीदकर एक रिसोर्ट बना लिया। मैं भी कई दिनों से हरिद्वार-देहरादून क्षेत्र में ही मंडरा रहा था, तो बीनू कई बार श्रीनगर आने को कह चुका था। आज मैं वहीं जा रहा था।

श्रीनगर से दस किलोमीटर पहले जयालगढ़ नामक स्थान है। यहीं पर The Jayalgarh Resort नाम से बीनू का ठिकाना है। उसने पहले ही बता दिया था कि सड़क के किनारे नीले रंग का बोर्ड लगा मिलेगा, लेकिन मेरा भरोसा गूगल मैप पर ज्यादा होता है और हमेशा यह मेरे भरोसे पर खरा उतरता है। अंधेरा हो चुका था और नीले रंग का बोर्ड मुझे नहीं दिखा। अगर गूगल गर्ल न चिल्लाती, तो मैं श्रीनगर पहुँच गया होता।


मेरा स्वागत बीनू और उसके जर्मन शेफर्ड ने किया, लेकिन बीनू से ज्यादा वजनी जर्मन शेफर्ड है। बीनू को लग रहा था कि मैं और दीप्ति दोनों आएँगे, लेकिन मुझे अकेले को देखकर वह सड़क की ओर दौड़ा। वापस आकर बोला - “दीप्ति बहन कहाँ है?”
“वह नहीं आई। मैं अकेला ही आया हूँ।”
“अबे, सही-सही बता... मजाक मत कर।”
“तो जा ढूँढ ले।”

उसने एक-दो आवाजें लगाईं, लेकिन दीप्ति होती, तो प्रत्युत्तर भी मिलता।
“तो तू अकेला क्यों आया है?”
“मैं आजकल अकेला ही घूम रहा हूँ। उसे दिल्ली में कुछ काम था।”
तभी बीनू दहाड़ा - “ओ... ओये मोनू... इधर आ... नीरज का बिस्तर उस लक्जरी टैंट से हटाकर स्टोर रूम में लगा दे... जर्मन शेफर्ड के बराबर में...”
...
बीनू ने अपने गाँव बरसूड़ी में कई बार घुमक्कड़ सम्मेलन किए थे। उसकी इच्छा बरसूड़ी को उत्तराखंड के पर्यटन नक्शे में लाने की थी। वह सफल भी हो जाता। एक बार तो मैं भी गया था। फिर मैंने अपने अनुभव एक अखबार में भेज दिए, जिन्हें पढ़कर दिल्ली-देहरादून में स्थायी रूप से रह रहे बरसूड़ीवासियों ने खूब खरी-खोटी सुनाई। ये वे बरसूड़ीवासी थे, जो हमेशा के लिए अपना गाँव छोड़ चुके हैं। ये खुद कभी भी अपने गाँव नहीं लौटेंगे। इनके बच्चे तो गाँव का नाम तक भूल जाएँगे। लेकिन इन्हें फेसबुक पर अपने गाँव की बड़ी चिंता रहती है। कमेंट और मैसेज करके मुझे धमकियाँ तक दीं।
तब बीनू मेरे पक्ष में खड़ा हुआ था।

“बरसूड़ी में क्या चल रहा है?” मैंने पूछा।
“कुछ भी नहीं... कुच्छ भी नहीं चल रहा बरसूड़ी में। बस, राजनीति चल रही है।”
“और यह जयालगढ़ का क्या किस्सा है?”

“देख नीरज भाई, दिल्ली मुझे बिल्कुल भी पसंद नहीं है। मुझे पहाड़ पर ही रहना है। बीवी-बच्चों को पहाड़ पसंद नहीं हैं। तो एक बीच का रास्ता निकाला गया... कि वे देहरादून रहेंगे और मैं पहाड़ में। चारधाम परियोजना पूरी हो जाएगी, तो जयालगढ़ से तीन घंटे में देहरादून पहुँचा जा सकता है। यहाँ जयालगढ़ में मैंने एक बेकार जमीन ली थी। इस जमीन पर पहले एक शानदार रिसोर्ट हुआ करता था, लेकिन 2013 की प्रलय में वह बह गया। जमीन सस्ती हो गई, मैंने खरीद ली। दिल्ली में कमाया सारा पैसा लगाकर इसे समतल किया। अलकनंदा यहाँ से सौ फीट नीचे बहती है।
यहाँ कुछ स्विस टैंट हैं, दो स्वीमिंग पूल हैं। लेकिन मेरा उद्देश्य यहाँ टूरिज्म बढ़ाना नहीं है। अब मैं स्थानीय लोगों के लिए कुछ करना चाहता हूँ। वीकएंड पर श्रीनगर-पौड़ी और टिहरी तक से स्कूली बच्चे यहाँ आते हैं और कुछ सीखकर जाते हैं।
देखो भाई, दिल्ली-देहरादून में बैठकर ही पलायन की बातें होती हैं। सब लोग राजधानियों में बैठकर ही पलायन पर चिंतित होते हैं। पहाड़ में कोई नहीं आना चाहता।”

खैर, चूल्हे पर दाल उबलती रही और हमारी बातें पलायन से फेसबुक पर आ गईं। और आपको पता होना चाहिए कि हम जब भी एक साथ बैठते हैं, तो फेसबुक के बहुत सारे दोस्तों-दुश्मनों और ग्रुपों की बुराई करते हैं। गालियाँ दे-देकर बुराई करते हैं। उन गालियों को यहाँ लिखना ठीक नहीं है।

रात दस बजे तक फाइनल हो गया कि मैं उसी ‘लक्जरी टैंट’ में सोऊँगा।
“इसमें लक्जरी क्या है बे??” मैंने टैंट के अंदर घुसकर बीनू से पूछा - “इसमें तो दो बैड हैं और एक पंखा है, बस।”
“आठ सौ रुपये वाला सैंट भी छिड़का था।”
“अच्छा ठीक है... गुड नाइट।”

17 नवंबर 2019
“गुड मोर्निंग बीनू भाई... मैं जा रहा हूँ नाश्ता करके।”
“नहीं, तू आज कहीं नहीं जा रहा। यहीं रुकेगा।”
“नहीं नहीं, मुझे आगे निकलना है।”
“ओके... ठीक है... चला जा... लेकिन अभी थोड़ी देर में तिवारी जी आने वाले हैं।”
“कौन तिवारी?”
“पी.एस. तिवारी।”
“क्या???? सच्च??? फिर तो मैं रुकता हूँ।”

तिवारी जी को आज सुबह ही आ जाना था, लेकिन गाड़ी से आ रहे थे और एक-एक किलोमीटर वाले उन अनगिनत जामों में ऐसे फँसे कि उन्हें आते-आते अंधेरा हो गया। इस दौरान मैं स्वीमिंग पूल में नहा भी लिया और एक वीडियो भी तैयार कर ली।

तिवारी जी रहने वाले तो शाहदरा के हैं, लेकिन वे भारतीय उच्चायोग में आइसलैंड में भी कार्यरत थे और उसके बाद अफ्रीका के किसी देश में भी रहे। फिलहाल सेवानिवृत होकर दिल्ली में द्वारका में रहते हैं। हमारी जान-पहचान पता नहीं कब से शुरू हुई, लेकिन वे हमेशा आइसलैंड को याद करते हैं। अभी पिछले दिनों मैंने एक किताब पढ़ी - भूतों के देश में... प्रवीन कुमार झा साहब की... तो किताब पढ़ते-पढ़ते भी तिवारी जी ही याद आते रहे।
“सर, झा साहब ने अपनी किताब में भूतों का जिक्र किया है...”
“अरे, आइसलैंड तो है ही भूतों का देश। ऑफिशियली भूतों को माना जाता है और सम्मान भी किया जाता है।”
“क्या आपने भूत देखे हैं??”
“कई बार... किस्से सुनाऊँ?”
“नहीं नहीं... रहने दो..."

अब रात का समय था और मैं नहीं चाहता था कि सोते हुए मुझे अकेले को टैंट में भूत दिखें... या मुझे जर्मन शेफर्ड के साथ स्टोर रूम में बिस्तर साझा करना पड़े।







तिवारी जी...





Videos:





Comments

  1. Wah.. mera zikr bhi ho gaya.. tks. It was great meeting you after many years

    ReplyDelete
  2. श्रीनगर को श्रीनगर (उत्तराखंड ) कर दें , प्लीज । यह आपको बुरा लग सकता है पर अभी भी बहुत सारे लोग केवल कश्मीर वाले श्रीनगर को जानते हैं ।

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

दिल्ली से गैरसैंण और गर्जिया देवी मन्दिर

   सितम्बर का महीना घुमक्कडी के लिहाज से सर्वोत्तम महीना होता है। आप हिमालय की ऊंचाईयों पर ट्रैकिंग करो या कहीं और जाओ; आपको सबकुछ ठीक ही मिलेगा। न मानसून का डर और न बर्फबारी का डर। कई दिनों पहले ही इसकी योजना बन गई कि बाइक से पांगी, लाहौल, स्पीति का चक्कर लगाकर आयेंगे। फिर ट्रैकिंग का मन किया तो मणिमहेश परिक्रमा और वहां से सुखडाली पास और फिर जालसू पास पार करके बैजनाथ आकर दिल्ली की बस पकड लेंगे। आखिरकार ट्रेकिंग का ही फाइनल हो गया और बैजनाथ से दिल्ली की हिमाचल परिवहन की वोल्वो बस में सीट भी आरक्षित कर दी।    लेकिन उस यात्रा में एक समस्या ये आ गई कि परिक्रमा के दौरान हमें टेंट की जरुरत पडेगी क्योंकि मणिमहेश का यात्रा सीजन समाप्त हो चुका था। हम टेंट नहीं ले जाना चाहते थे। फिर कार्यक्रम बदलने लगा और बदलते-बदलते यहां तक पहुंच गया कि बाइक से चलते हैं और मणिमहेश की सीधे मार्ग से यात्रा करके पांगी और फिर रोहतांग से वापस आ जायेंगे। कभी विचार उठता कि मणिमहेश को अगले साल के लिये छोड देते हैं और इस बार पहले बाइक से पांगी चलते हैं, फिर लाहौल में नीलकण्ठ महादेव की ट्रैकिंग करेंग...

लद्दाख साइकिल यात्रा का आगाज़

दृश्य एक: ‘‘हेलो, यू आर फ्रॉम?” “दिल्ली।” “व्हेयर आर यू गोइंग?” “लद्दाख।” “ओ माई गॉड़! बाइ साइकिल?” “मैं बहुत अच्छी हिंदी बोल सकता हूँ। अगर आप भी हिंदी में बोल सकते हैं तो मुझसे हिन्दी में बात कीजिये। अगर आप हिंदी नहीं बोल सकते तो क्षमा कीजिये, मैं आपकी भाषा नहीं समझ सकता।” यह रोहतांग घूमने जा रहे कुछ आश्चर्यचकित पर्यटकों से बातचीत का अंश है। दृश्य दो: “भाई, रुकना जरा। हमें बड़े जोर की प्यास लगी है। यहाँ बर्फ़ तो बहुत है, लेकिन पानी नहीं है। अपनी परेशानी तो देखी जाये लेकिन बच्चों की परेशानी नहीं देखी जाती। तुम्हारे पास अगर पानी हो तो प्लीज़ दे दो। बस, एक-एक घूँट ही पीयेंगे।” “हाँ, मेरे पास एक बोतल पानी है। आप पूरी बोतल खाली कर दो। एक घूँट का कोई चक्कर नहीं है। आगे मुझे नीचे ही उतरना है, बहुत पानी मिलेगा रास्ते में। दस मिनट बाद ही दोबारा भर लूँगा।” यह रोहतांग पर बर्फ़ में मस्ती कर रहे एक बड़े-से परिवार से बातचीत के अंश हैं।