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आठ बजे सोकर उठे। आज मेरी छुट्टी का आखिरी दिन था। लाखामण्डल यहां से लगभग सवा सौ किलोमीटर दूर है और हम लाखामण्डल जाकर रात होने तक दिल्ली किसी भी हालत में नहीं पहुंच सकते थे। इसलिये लाखामण्डल जाना रद्द कर दिया था। आज के लिये तय था कि मसूरी से देहरादून उतर जायेंगे और फिर आगे अपने घर चले जायेंगे।
लेकिन अब जब चलने की तैयारी करने लगे तो अरुण ने कहा कि एक दिन की ही बात है, लाखामण्डल चलते हैं। मेरे लिये एक दिन की छुट्टी बढवाना कोई मुश्किल नहीं था। सबसे ज्यादा मुश्किल आई सचिन को। उसने पहले ही कह रखा था कि आज शाम तक हर हाल में उसे अपने घर जाना है। हमने उसे अपना निर्णय बताया। उसने पहले तो स्पष्ट मना कर दिया। लेकिन कुछ हमारी काउंसलिंग के बाद वह इस शर्त पर चलने को राजी हो गया कि कल दोपहर तक उसे घर पहुंचना ही पहुंचना है। हम उसकी बात पर राजी हो गये हालांकि जानते थे कि उसे कल भी घर पहुंचने में शाम हो जायेगी।
साढे आठ बजे यहां से चल पडे। सोच रहे थे कि रात में ओस पडेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। समुद्र तल से 2600 मीटर की ऊंचाई पर ठण्ड काफी थी। ऐसे में अक्सर सर्दियों में मोडों पर ओस जम जाती है, यह दिखती भी नहीं है। इसे ब्लैक आइस कहते हैं। इसका पता तब चलता है जब मोटरसाइकिल वाले फिसलकर गिर पडते हैं। मुझे इसका डर था लेकिन रात ओस न गिरने से यह कुछ कम हो गया था।
पन्द्रह मिनट में ही छह किलोमीटर दूर धनोल्टी पहुंच गये और इको पार्क के सामने रुक गये। बाकी तीनों पार्क में घूमने चले गये। मैं यहीं धूप में चायवाले की कुर्सी डालकर बैठ गया। मैं पहले यहां आ चुका हूं इसलिये पार्क में घूमने की इच्छा नहीं थी। घण्टे भर बाद सभी आये और आगे बढे।
यह सडक है तो सिंगल लेन ही लेकिन इस पर ट्रैफिक बिल्कुल नहीं था और बनी भी शानदार है। आपके दाहिनी तरफ जहां भी आप रिज पर होते हैं, आपको गढवाल हिमालय की बर्फीली चोटियां दिखती रहती हैं। एक बार ऐसी ही एक जगह पर दीपक ने पूछा कि वहां तक तो कोई भी नहीं जाता होगा। मैंने मुस्कुराते हुए कहा- मैं वहां तक गया हूं।
खैर, मसूरी से लगभग चार किलोमीटर पहले बाईपास आता है। सचिन यहीं बीचोंबीच खडा मिला। हमें चूंकि मसूरी से ही होकर जाना था, इसलिये हम बाईपास छोडकर शहर में घुस गये। बाद में पता चला कि हमने यहां गलती कर दी। भविष्य के लिये सबक मिल गया। सडक बिल्कुल खराब और टूटी-फूटी व जब मसूरी शहर शुरू हो जाता है तो तंग गलियां आपका दिमाग खराब करने लगती हैं। कदम कदम पर रास्ता पूछना पडता है और कई जगह तो बडी भयंकर चढाई भी है। ऐसे ही कहीं अरुण व दीपक हमसे बिछड गये। हम पूछते-पाछते गांधी चौक पहुंचे, तब अरुण का फोन आया। मैंने बता दिया कि मुझे यहां का कुछ नहीं पता, बस तुम गांधी चौक पहुंचो।
ग्यारह बजे तीनों मसूरी से रवाना हो गये। 15 किलोमीटर दूर कैम्पटी फाल पहुंचने में 40 मिनट लगे। पूरा रास्ता ढलानयुक्त है। अब तक भूख लगने लगी थी। मोटरसाइकिलें सडक किनारे खडी कीं और आलू के परांठे बनाने को कह दिया। तब तक अरुण व दीपक कैम्प्टी फाल देखकर आ गये। मैंने और सचिन ने इसे पहले ही देख रखा था।
चाय के साथ भरपेट आलू के परांठे खाने के बाद यहां से साढे बारह बजे चल पडे। आधे घण्टे में यमुना पुल पहुंच गये। यहां हम विकासनगर-बडकोट मुख्य सडक पर आ गये। यही सडक आगे यमुनोत्री चली जाती है। सडक शानदार बनी है और टू लेन है। कोई ट्रैफिक न होने के कारण अब बाइक चलाने में आनन्द भी आ रहा था और स्पीड भी मिल रही थी। बस एक जगह दो-तीन किलोमीटर की खराब सडक मिली।
तीन बजे उस स्थान पर पहुंच गये जहां से लाखामण्डल की सडक अलग होती है। यहां तिराहे पर एक सूचना-पट्ट भी लगा है जिसमें दिखा रखा है कि सीधी सडक लाखामण्डल जाती है और दाहिने वाली बडकोट। जबकि असल में दाहिने कोई सडक ही नहीं है, बाएं वाली सडक लाखामण्डल जाती है और सीधी बडकोट। सचिन को शायद पता था या फिर गूगल मैप में देख लिया होगा। मुझे भी पता था कि यहां से हमें यमुना पार करनी है जो हमारे बायीं ओर बह रही थी। जबकि अरुण व दीपक को नहीं पता था। उन्होंने बोर्ड देखा कि सीधी सडक लाखामण्डल जाती है तो वे बिना रुके सीधे ही चले गये। उस समय मैं उनसे पचास मीटर पीछे ही था। मैं इस तिराहे पर रुक गया और अरुण को फोन किया लेकिन फोन नहीं उठाया। मोटरसाइकिल चलाते हुए पता नहीं चल रहा होगा। आखिरकार बडी देर बाद फोन उठाया, मैंने केवल इतना कहा- वापस आ जाओ। बिना कुछ पूछे अरुण ने कहा- ठीक है।
लोहे के एक पुल से यमुना पार की। यह बिल्कुल ग्रामीण सडक है जो आगे चकराता चली जाती है। अगर धनोल्टी-मसूरी सडक सिंगल है तो यह सिंगल भी नहीं है। ऊपर से खराब भी। लाखामण्डल यहां से छह किलोमीटर दूर है। यहां पर्यटन जैसा कुछ नहीं दिखता। एक साधारण हिमालयी गांव ही है लाखामण्डल। एक जगह लिखा दिखा- प्राचीन मन्दिर और अवशेष, तो पक्का हो गया कि यह लाखामण्डल ही है।
लाखामण्डल की भी वही कहानी है, जो लाक्षागृह की है। यहां कौरवों ने पाण्डवों के लिये एक महल का निर्माण कराया था। पाण्डव जब इसमें रहने लगे तो कौरवों ने इसमें आग लगा दी। पाण्डव सुरंगों के रास्ते बचकर निकल गये थे। यहां कई सुरंगें हैं। एक सुरंग तो हमें यहां आते समय रास्ते में भी मिली थी। बराबर में एक टीले पर भी कई सुरंगें बताई जाती हैं। समयाभाव के कारण हम वहां नहीं गये। यहां से बन्दरपूंछ चोटी भी दिखती है।
मुख्य मन्दिर के अन्दर फोटो खींचने की मनाही है। इसमें पत्थरों पर देवी-देवताओं की शानदार मूर्तियां उकेरी गई हैं। वास्तव में ये मूर्तियां अचम्भित कर देने वाली हैं। मुख्यतः यह शिव मन्दिर है, इसलिये शिव परिवार के साथ-साथ दूसरे कई देवी-देवता यहां विराजमान हैं। मन्दिर का पुजारी धार्मिक होने के साथ साथ समझदार भी था। उसने बताया कि लाखामण्डल में पाण्डवों को जलाने की कोई कोशिश नहीं हुई। यहां अज्ञातवास के समय पाण्डव आये थे और शिवालय की स्थापना की थी। मैंने जब कहा कि आपके यहां एक बोर्ड पर लिखा भी है कि यहां पाण्डवों को जलाने की कोशिश हुई थी तो उसने कहा कि सब गलत है। जलाने की कोशिश होती तो राख आदि कुछ अवशेष भी मिलते। मैंने बताया कि हस्तिनापुर के पास लाक्षागृह है, पुजारी ने तुरन्त कहा कि असली लाक्षागृह वही है। कोई हस्तिनापुर से यहां बीहड पहाडों में रहने के लिये महल बनाने नहीं आयेगा।
मन्दिर के बाहर भी कई देवताओं की मूर्तियां हैं। मुख्य द्वार पर दो बैल बैठे मिले। पुजारी ने बताया कि हर शिव मन्दिर में एक ही बैल होता है और वो है नन्दी। लेकिन यहां दो हैं- एक नन्दी और दूसरा भृंगी। वास्तव में नन्दी और भृंगी दो यक्ष थे जिन्हें किसी कारणवश श्राप मिला हुआ था कि वे बैल की जिन्दगी जीयेंगे। हमारे धार्मिक मित्रों को इस कथा की ज्यादा जानकारी होगी। यहां द्वारपाल के रूप में ये दोनों यक्ष बैल के रूप में बैठे हुए दिखते हैं। पत्थर का बना होने के कारण एक की कमर से पत्थर का एक टुकडा अलग हो गया है, दूसरा सही-सलामत है।
मन्दिर पत्थरों से बना है लेकिन पत्थरों को किसी भी तरीके से जोडा नहीं गया है। बस सभी पत्थर एक के ऊपर एक रखे हुए हैं। फिर इन पत्थरों पर शानदार कलाकारी भी की गई है जिससे यह शिव मन्दिर अपनी तरह का अनोखा मन्दिर बन जाता है। पुरातत्व विभाग ने मन्दिर को आकाशीय बिजली से बचाने के लिये इसकी चोटी पर एक उपकरण लगाकर इसे भूसम्पर्कित भी कर रखा है। मैंने अभी तक किसी मन्दिर में इस तरह की ‘अर्थिंग’ नहीं देखी है। गौरतलब है कि हिमालय में बडे पैमाने पर बिजलियां गिरती हैं। ज्यादातर घर व मन्दिर लकडी के बने हैं। हर साल बहुत से घर व मन्दिर ऐसी ही बिजलियों से जलकर राख हो जाते हैं। हालांकि यह मन्दिर पत्थर का है लेकिन इसके ऊपर लकडी का कुछ लगा हुआ है। ऐसी जगह पर अर्थिंग बहुत जरूरी हो जाती है।
एक और शिवलिंग है जो खुले में है। इसके बारे में प्रचलित है कि जब इस पर जल चढाते हैं तो अपना चेहरा इसमें दिखता है। इसका कारण इसका खुले में होना है। अमूमन शिवलिंग मन्दिर के गर्भगृह के अन्दर अन्धेरे में होते हैं। जब जल चढाते हैं तो प्रतिबिम्ब नहीं बनता। लेकिन खुले में होने के कारण भरपूर प्रकाश इस पर पडता है, जल चढाते ही प्रतिबिम्ब बनने लगता है और अपने चेहरे के साथ-साथ पीछे की सभी चीजें इसमें दिखने लगती हैं।
लाखामण्डल में ही हमें साढे चार बज गये थे। घण्टे भर बाद अन्धेरा हो जायेगा। आज हमारा इरादा चकराता रुकने का था जो यहां से करीब 70 किलोमीटर दूर है। इसका अर्थ है कि कम से कम तीन घण्टे लगेंगे। यह उपयुक्त स्थिति नहीं थी। काफी लम्बा सफर अन्धेरे में तय करना पडेगा। एक बार तो मन में आया कि यहीं रुक लेते हैं लेकिन आखिरकार चल पडे।
अगला भाग: लाखामण्डल से चकराता- एक खतरनाक सफर
लाक्षागृह-लाखामण्डल बाइक यात्रा
1. लाक्षागृह, बरनावा
2. मोटरसाइकिल यात्रा- ऋषिकेश, नीलकण्ठ और कद्दूखाल
3. लाखामण्डल
4. लाखामण्डल से चकराता- एक खतरनाक सफर
5. चकराता से दिल्ली मोटरसाइकिल यात्रा
मंदिर के बाहर ही एक लकड़ी का बना मकान है. जिस पर नक्कासी बड़ी शानदार की गई है. बताया जाता है यह मकान हजारों साल पुराना है.
ReplyDeleteधन्यवाद प्रकाश जी...
Deletejai ho neeraj baba ki
ReplyDeleteजय हो गुप्ता जी की...
Deleteनीरज भाई इस यात्रा मे हम तो आपकी मोटरसाईकिल पर बिताए अनुभव पसंद आ रहे है,
ReplyDeleteकभी आप (सिख्खड)के पिछे कोई बैठ जाता है,कभी आप फिसल जाते हो वाकई यह खट्टे- मिठ्ठे अनुभव आपने हमारे साथ बांटे यह बहुत बढिया रहा..
धन्यवाद सचिन भाई...
Deleteबढ़िया वर्णन, नीरज भाई
ReplyDeleteमेरे लिए इस यात्रा का लाखामंडल से चकराता का चार घंटे सफ़र ज्यादा रोमांचक और यादगार रहेगा..!
अगली पोस्ट में वही लिखा है...
Deleteयात्रा शानदार चल रही है। प्रतिबिम्ब वाले फोटो में कुछ तो चमत्कार है। आप भले ही कुछ कहें।
ReplyDeleteचलिये, होगा चमत्कार अहमद साहब।
DeleteThanks Neeraj bhai
ReplyDeleteAapki yadshakti tej he Jo aap yatra karkne k bad aap ae sab likh shakte ho .
धन्यवाद जोशी जी...
Deleteलाखामंडल का शिव मंदिर बहुत अच्छा लगा...... लेख और फोटो तो हमेशा की तरह शानदार लगे....
ReplyDeleteधन्यवाद गुप्ता जी...
Deleteहिन्दुस्थान में मंदिरो की भरमार है -- नई मोटरसाइकिल पर पहाड़ो को लांगना कैसा लगता है ,हाथ जमा हुआ नहीं है तो चौराहे पर पहाड़ से गिरने का डर नहीं लगता नीरज
ReplyDeleteग्यारह बजे तीनों मसूरी से रवाना हो गये या चारो ।???
ReplyDeleteयात्रा काफ़ी रोमांचक के साथ साथ खतरनाक भी थी।
ReplyDeleteमोटरसाइकिल यात्रा की बधाई neeraj अभी काफी अनुभव मिलेंगे आपको मोटरसाइकिल यात्रा में ,बहुत सुन्दर यात्रा वृतांत |
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