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अशोक व मधुर को शक था कि हम ठीक रास्ते पर जा रहे हैं। या फिर सर्वसुलभ जिज्ञासा होती है सामने वाले से हर बात पूछने की। हालांकि मैंने हर जानकारी जुटा रखी थी। उसी के अनुसार योजना बनाई थी कि आज दर्रे के जितना नजदीक जा सकते हैं, जायेंगे। कल दर्रा पार करके मलाणा गांव में रुकेंगे और परसों मलाणा से जरी होते हुए कुल्लू जायेंगे और फिर दिल्ली। रोरिक आर्ट गैलरी 1850 मीटर की ऊंचाई पर है। चन्द्रखनी 3640 मीटर पर। दूरी कितनी है ये तो पता नहीं लेकिन इस बात से दूरी का अन्दाजा लगाया जा सकता है कि आमतौर पर हम जैसे लोग इस दूरी को एक दिन में तय नहीं करते। दो दिन लगाते हैं। इससे 18-20 किलोमीटर होने का अन्दाजा लगाया जा सकता है। 18 किलोमीटर में या 20 किलोमीटर में 1850 से 3640 मीटर तक चढना कठिन नहीं कहा जा सकता। यानी चन्द्रखनी की ट्रैकिंग कठिन नहीं है।
अब बात आती है कि रास्ता कितना चलता-फिरता है। मलाणा देश-दुनिया से बिल्कुल कटा हुआ गांव है। इसके लिये मलाणी स्वयं जिम्मेवार हैं। उन्होंने कभी बाहर वालों से सम्पर्क नहीं किया। वे अपनी ही छोटी सी घाटी में जीते रहे। इससे पता चलता है पहले कभी इस दर्रे से आवाजाही नहीं के बराबर रही होगी। अब चूंकि मलाणा अन्तर्राष्ट्रीय पटल पर आ चुका है तो निश्चित ही आवाजाही बढी है। फिर मलाणा तक सडक भी बन चुकी है तो जिसे मलाणा जाना है, वह सडक मार्ग से जाना पसन्द करेगा। इस वजह से भी लग रहा था कि चन्द्रखनी दर्रे पर आवाजाही नहीं मिलेगी।
लेकिन मनाली से नजदीकी व आसान होना इसे लोकप्रिय बनाते हैं। कुछ फोटो भी मैंने देखे थे जिनमें जंगल के बीच पर्याप्त चौडी पगडण्डी साबित करती है कि यहां से खूब आवागमन होता है। और सबसे बडी बात कि गर्मियों में हिमाचल के अन्य भागों की तरह यहां भी गद्दी व गुज्जर गुजर-बसर करते हैं। इन सब बातों की जानकारी मुझे पहले से ही थी। यह सब अशोक व मधुर को भी बता रखा था, फिर भी वे नग्गर में स्थानीयों से पूछ बैठे। उन्होंने जो गुमराह करने की कोशिश की, अशोक भाई परेशान हो गये कि बिना गाइड के तो वहां जाना ठीक नहीं है। लेकिन पुनः मेरे समझाने से मान गये।
रोरिक आर्ट गैलरी से आगे कच्ची सडक शुरू हो जाती है। यह सडक यहां से चार-पांच किलोमीटर आगे एक गांव तक जाती है। उस गांव का नाम फिलहाल ध्यान नहीं आ रहा है। इसी सडक पर करीब एक किलोमीटर चलने के बाद दाहिने हाथ कुछ सीढियां ऊपर की तरफ जाती दिखाई देती हैं। हमें इन्हीं पर चल देना है। ये सीढियां रूमसू गांव जाने का लघुपथ है, अन्यथा सडक भी थोडा चक्कर लगाकर रूमसू से गुजरती है।
उधर सुरेन्द्र नग्गर पहुंच चुका था और खाना खा रहा था।
अभी तक हम सडक के रास्ते ही आये थे, उतनी ज्यादा मेहनत नहीं करनी पडी। लेकिन अब जब पगडण्डी पर चलना शुरू कर दिया, तो तीनों के समझ में आ गया कि यात्रा आसान नहीं होने वाली। दस मिनट बाद ही सभी धराशायी होकर इधर-उधर बैठ गये। मेरे मुंह से हांफते हुए निकला- किसने कहा था चन्द्रखनी आने को? मधुर ने मरी सी आवाज में कहा- तुमने। मैंने तुरन्त कहा- तो मना नहीं कर सकते थे? समझा नहीं सकते थे? ... आज के बाद ट्रैकिंग बन्द।
आगे चले तो जरा ही देर में रूमसू गांव दिख गया। एक से पूछा तो पता चला कि यहां चाय नहीं मिलेगी। हमें चाय की जरुरत महसूस होने लगी थी। बाकियों का तो पता नहीं लेकिन अगर मैं हिमालय के किसी भी हिस्से में ट्रैकिंग कर रहा हूं तो चाहे मुझे दस दस मिनट में चाय पिलाये जाओ, कभी मना नहीं करूंगा। ऐसी थकान में चाय का अलग ही आनन्द होता है।
शीघ्र ही हम रूमसू के हृदय स्थान पर पहुंच गये। यहां जमलू देवता का मन्दिर था। मन्दिर के आसपास भी बडे बडे लकडी व पत्थर के मकान थे जो अब पुराने होने के कारण जर्जर होने लगे थे। ऐसे मकान भूकम्परोधी होते हैं। मैं यहां जमलू को देखकर आश्चर्यचकित रह गया क्योंकि जमलू मलाणा घाटी का आराध्य देव है। मेरी जानकारी के अनुसार केवल मलाणा और उससे कुछ ही दूर स्थित रसोल गांव में ही जमलू की सत्ता चलती है। मैंने यहां बैठे बुजुर्गों से पूछा भी कि यहां जमलू कहां से आ गया? उन्होंने ज्यादा तो कुछ नहीं कहा, बस इतना ही कहा कि यहां भी मलाणा की तरह जमलू की पूजा की जाती है। एक गलती और कर दी मैंने। मुझे यह भी पता लगाना था कि अगर यहां जमलू है तो मलाणी इस गांव में शादी भी करते होंगे। अभी तक पता था कि मलाणी केवल रसोल वालों से ही विवाह सम्बन्ध रखते हैं। रसोलियों की मलाणियों से और मलाणियों की रसोलियों से। हजारों सालों से यही होता आ रहा है। लेकिन यहां जमलू के होने से मुझे पक्का यकीन है कि रूमसू के साथ साथ आसपास के कुछ गांवों का विवाह सम्बन्ध उधर मलाणा घाटी से अवश्य होगा। और हां, जमलू देव अपने मन्दिर को किसी बाहरी व्यक्ति को छूने की इजाजत नहीं देते। हमें भी इजाजत नहीं थी, इसलिये बाहर से ही फोटो खींचकर काम चला लिया।
सुरेन्द्र रोरिक आर्ट गैलरी से आगे निकल आया था।
तभी निगाह पडी मन्दिर के पीछे घास के एक मैदान पर। वहां काफी सारी लडकियां मस्ती कर रही थीं और एक-दूसरे के फोटो खींच रही थीं। पहले तो सोचा कि वे भी चन्द्रखनी जा रही हैं। हम तीनों ने दिवास्वप्न देखने शुरू कर दिये कि वे भले ही कितना भी धीमा चलें, हमें उनसे आगे नहीं निकलना है। उनके साथ ही रहना है। कुछ देर बाद वे वापस हमारी तरफ आने लगीं। बहुत सारी थीं, बाद में पता चला कि चालीस थीं। हम जमलू मन्दिर के सामने एक छोटी सी दीवार पर बैठे थे। वे भी जमलू के सामने आ गईं और फोटो खींचने लगीं। और सारी की सारी एक से बढकर एक खूबसूरत। यह एक स्वर्गीय नजारा था। वाह जमलू, तेरी माया!
जल्दी ही वे नीचे की तरफ चली गईं यानी नग्गर की तरफ। हमने ग्रामीणों से पूछा तो उन्होंने बताया कि ये मनाली से आई थीं और हर दूसरे तीसरे दिन कोई न कोई ग्रुप आता रहता है। असल में यह सारा काम यूथ हॉस्टल का था। किसी और का भी हो सकता है। यूथ हॉस्टल इसी तरह के आयोजन करता है। हो सकता है कि यह आयोजन कोई ‘केवल महिलाओं के लिये’ हो। यहां आना, ग्रामीण संस्कृति को देखना, जंगल में घूमना आदि उनके इस आयोजन का ही हिस्सा होता है।
उनके साथ कुछ लडके भी थे। वे निश्चित ही ग्रुप लीडर रहे होंगे। मैं जला-भुना जा रहा था उन लडकों को देखकर। उल्लू जैसी सबकी शक्लें, पता नहीं इन्हें घर पर कोई काम-धाम नहीं होता क्या? यूथ हॉस्टल वाले किसी को भी बना देते हैं ग्रुप लीडर। बस उनके दो कैम्पों में भाग लो और आप ग्रुप लीडर बनने की योग्यता हासिल कर लोगे। वैसे मैं भी यूथ हॉस्टल का आजीवन सदस्य हूं। लूंगा... अब उनके किन्हीं दो कैम्पों में भाग लूंगा और ग्रुप लीडर बनूंगा। इसी तरह कोई लडकियां लीड करने को मिलेंगी तो ग्रुप लीडर बन जाऊंगा, अन्यथा अगली बार के लिये इन्तजार कर लूंगा।
मधुर ने एक बडी प्यारी बात कही- नीरज भाई, मैं आपके साथ बहुत दिन से घूमना चाहता था। अशोक भी घूमना चाहता था। और भी बहुत से लोग होंगे जो आपसे कहते होंगे कि साथ घूमना है। क्या कभी किसी लडकी ने भी कहा है साथ घूमने को? मेरा मुंह लटक गया। मैं भला क्या जवाब देता?
तभी सुरेन्द्र का फोन आया कि उसने रूमसू में प्रवेश कर लिया है, अब कहां जाए? मैंने बताया कि लडकियों की लाइन दिख रही है? बोला कि हां, यह तो बडी लम्बी लाइन है। ... तो बस, वे सब अभी कुछ ही देर पहले हमारे पास थीं। वह समझ गया और हाय, हाय करता हुआ हमसे आ मिला। हाय हाय जहां हिन्दी में विलाप का सूचक है, वहीं अंग्रेजी में हालचाल पूछने-बताने का। वैसे तो सुरेन्द्र रंग के हिसाब से सांवला है लेकिन अन्दर से बिल्कुल काला है। आते ही बोला कि इतनी सारी लडकियां? मैं भी मनाली जा रहा हूं। हालांकि हमें पता था कि वो वापस जाने के लिये नहीं आया है।
यहां मन्दिर के पास ही परचून की एक दुकान थी, शायद रूमसू की एकमात्र दुकान हो। यहां कुछ बिस्कुट-नमकीन खा लिये, कुछ साथ ले लिये। कोल्ड ड्रिंक की एक बोतल भी ले ली। परांठे तो पहले से ही रखे थे।
तीन बजे जब चलने का इरादा बना तो बूंदाबांदी होने लगी। उसी दुकान में शरण ले ली। चन्द्रखनी की तरफ व ब्यास के दूसरी तरफ बडा भंगाल की चोटियों पर खूब काले बादल जमा थे। हिमालय में दोपहर बाद ऐसा होना ताज्जुब की बात नहीं है। तभी एक प्रभावशाली दिखने वाला बुजुर्ग हमारे पास आया। पूछने लगा कि आप कभी चन्द्रखनी गये हो? ... नहीं गये।... तो आपके लिये अकेले उधर जाना बहुत खतरनाक है। आप रास्ता भटक जाओगे। कोई गाइड ले लो।... नहीं, वहां तक अच्छा रास्ता बना है। अगर भटकेंगे तो किसी से पूछ लेंगे। उसने हमें और डराने की कोशिश की कि मौसम खराब है, रास्ते में कोई नहीं मिलेगा, भालू भी हैं। लेकिन इन बातों का हम पर कोई असर नहीं होना था। वे बुजुर्ग बेचारे फिर मन्दिर के सामने चबूतरे पर जा बैठे।
बारिश पांच-दस मिनट में फिर थम गई। थमते ही हम निकल पडे। संयोग से सुरेन्द्र कुछ पीछे रह गया, हम तीनों आगे निकल गये। करीब सौ मीटर जाने पर जब देखा कि सुरेन्द्र कहीं नहीं दिखाई दे रहा तो कुछ देर उसकी प्रतीक्षा की। यहां फोन नेटवर्क था तभी उसका ही फोन आया। असल में वह किसी दूसरी पगडण्डी पर चला गया था। मैं जहां भी कहीं जाता हूं तो उस जगह का भूगोल गौर से देखता हूं। उम्मीद थी कि वह किधर गया है और जिधर भी गया है, अगर बढता रहे तो आगे जल्दी ही हम मिल जायेंगे। हम ज्यादा दूर नहीं थे लेकिन घनी झाडियों व पेडों की वजह से देख नहीं पा रहे थे। मधुर ने आवाज लगाई, कुछ ऊपर से सुरेन्द्र की जवाबी आवाज आई। फिर तो वह अपनी पगडण्डी पर बढता गया और हम अपनी पर। आखिरकार थोडा आगे जाने पर मिल गये।
मधुर गौड |
अशोक भार्गव |
जाटराम |
रूमसू गांव |
जमलू मन्दिर |
रूमसू से दिखतीं बडा भंगाल की चोटियां |
अगला भाग: चन्द्रखनी ट्रेक- पहली रात
चन्द्रखनी ट्रेक
1. चन्द्रखनी दर्रे की ओर- दिल्ली से नग्गर
2. रोरिक आर्ट गैलरी, नग्गर
3. चन्द्रखनी ट्रेक- रूमसू गांव
4. चन्द्रखनी ट्रेक- पहली रात
5. चन्द्रखनी दर्रे के और नजदीक
6. चन्द्रखनी दर्रा- बेपनाह खूबसूरती
7. मलाणा- नशेडियों का गांव
``मधुर ने एक बडी प्यारी बात कही- नीरज
ReplyDeleteभाई, मैं आपके साथ बहुत दिन से
घूमना चाहता था। अशोक
भी घूमना चाहता था। और भी बहुत से लोग
होंगे जो आपसे कहते होंगे कि साथ घूमना है।
क्या कभी किसी लडकी ने भी कहा है साथ
घूमने को? मेरा मुंह लटक गया। मैं
भला क्या जवाब देता?
''
so sad bhai ji...
vaise bahut hi rochak, jivant aur umda varnan
लडकियों की फोटो कहां है? :-)
ReplyDeleteऔर टीशर्ट निक्कर में जाटराम..............अच्छा लग रहा है ;-)
राम राम
👍
ReplyDeletemalana k liye kasol se bhi rasta hai jahan pe videshi log rhte hai .. per ek aur sach yah ki kasol bahut sunder jagah hai....aur sabse jayada parties wahan pe hoti hai malai k sath
ReplyDeleteकसोल से सीधा कोई रास्ता मलाणा नहीं जाता है। एकमात्र सडक जरी से जाती है जो कसोल से काफी पहले है।
Deletejat ji delhi me rent par tent kahn pr milta hain plzzz tell .. thanks
ReplyDeleteJamia university ke pass Noor nagar hai.. waha arshi dairy hai...uske barabar mai ek cyber cafe hai...waha rent par tent nd sleeping bag milta hai....rates bhi bohut sahi hai...http://www.rentongo.com/CompanyDetails.php?vendor_name=Shady%20Tents&spl=134&city=delhi/ncr
Deletethnx madhur 4 reply.. this url not so any rent shop near jamia.. any contact no
DeleteNeeraj bhai phir se maza aa gaya....chandrakhani trek ka anand ghar baithe phir se aa raha hai.....
ReplyDeleteघुम्मक्कडी जिन्दाबाद...
ReplyDeleteनीरज भाई यह रसोल गांव क्या कसौल का ही दूसरा नाम है,जो मणिकर्ण के रास्ते में आता है?
नहीं, सचिन भाई। रसोल और कसोल अलग अलग गांव हैं। पार्वती नदी के इस तरफ सडक के किनारे बसा हुआ कसोल है जबकि रसोल पार्वती के दूसरी तरफ काफी लम्बी ट्रैकिंग करके पहुंचा जा सकता है।
Deleteghumakkadi ka pura maja humko dene ke liye dhanyawad neeraj bahi
ReplyDeleteउत्कृष्ट लेख बधाई हो आपको
ReplyDeleteलड़कियों को देखकर हमेशा ही जाटराम की लार टपकती है ---शादी क्यों नही कर लेता ---:)
ReplyDeleteबहुत बहुत ही दिलचस्प लेख और सभी फोटो अद्भुत हैं.
ReplyDeleteyou should always go with your friend this type journey also in future also.
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