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Showing posts from January, 2014

जैसलमेर में दो घण्टे

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । तीन बजे मैं जैसलमेर पहुंचा। संजय बेसब्री से मेरा इंतजार कर रहा था। वह नटवर का फेसबुक मित्र है। मुझसे पहचान तब हुई जब उसे पता चला कि नटवर और मैं साथ साथ यात्रा करेंगे। पिछले दिनों ही वह मेरा भी फेसबुक मित्र बना। उसने मेरा ब्लॉग नहीं पढा है, केवल फेसबुक पृष्ठ ही देखा है। मेरे हर फोटो को लाइक करता था। मैं कई दिनों तक बडा परेशान रहा जब जमकर लाइक के नॉटिफिकेशन आते रहे और सभी के लिये संजय ही जिम्मेदार था। मैं अक्सर लाइक को पसन्द नहीं करता हूं। ब्लॉग न पढने की वजह से उसे मेरे बारे में कुछ भी नहीं पता था। मेरा असली चरित्र मेरे ब्लॉग में है, फेसबुक पर नहीं। सवा पांच बजे यानी लगभग दो घण्टे बाद मेरी ट्रेन है। इन दो घण्टों में मैं जैसलमेर न तो घूम सकता था और न ही घूमना चाहता था। मेरी इच्छा कुछ खा-पीकर स्टेशन जाकर आराम करने की थी। फिर साइकिल भी पार्सल में बुक करानी थी।

थार साइकिल यात्रा- लोंगेवाला से जैसलमेर

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 27 दिसम्बर 2013 सैनिकों की बैरक में भरपेट खा-पीकर दोपहर बाद दो बजे मैं रामगढ के लिये निकल पडा। रामगढ यहां से 43 किलोमीटर है। फौजियों ने बता दिया था कि इसमें से आधा रास्ता ऊंचे नीचे धोरों से भरा पडा है जबकि आखिरी आधा समतल है। अर्थात मुझे रामगढ पहुंचने में चार घण्टे लगेंगे। यहां से निकलते ही एक गांव आता है- कालीभर। मुझे गुजरते देख कुछ लडके अपनी अपनी बकरियों को छोडकर स्टॉप स्टॉप चिल्लाते हुए दौडे लेकिन मैं नहीं रुका। रुककर करना भी क्या था? एक तो वे मुझे विदेशी समझ रहे थे। अपनी अंग्रेजी परखते। जल्दी ही उन्हें पता चल जाता कि हिन्दुस्तानी ही हूं तो वे साइकिल देखने लगते और चलाने की भी फरमाइश करते, पैसे पूछते, मुझे झूठ बोलना पडता। गांव पार हुआ तो चार पांच बुजुर्ग बैठे थे, उन्होंने हाथ उठाकर रुकने का इशारा किया, मैं रुक गया। औपचारिक पूछाताछी करने के बाद उन्होंने पूछा कि खाना खा लिया क्या? मैंने कहा कि हां, खा लिया। बोले कि कहां खाया? लोंगेवाला में। लोंगेवाला में तो खाना मिलता ही नहीं। फौजियों की बैरक में खा लिया था। कहने लगे कि अगर न

लोंगेवाला- एक गौरवशाली युद्धक्षेत्र

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । लोंगेवाला- एक निर्णायक और ऐतिहासिक युद्ध का गवाह। 1971 की दिसम्बर में जैसलमेर स्थित वायुसेना को सूचना मिली कि पाकिस्तान ने युद्ध छेड दिया है और उसकी सेनाएं टैंकों से लैस होकर भारतीय क्षेत्र में घुस चुकी हैं। वह 3 और 4 दिसम्बर की दरम्यानी रात थी। पूर्व में बंगाल में अपनी जबरदस्त हार से खिन्न होकर पाकिस्तानियों ने सोचा कि अगर भारत के पश्चिमी क्षेत्र के कुछ हिस्से पर कब्जा कर लिया जाये तो वे भारत पर कुछ दबाव बना सकते हैं। चूंकि उनके देश का एक बडा हिस्सा उनके हाथ से फिसल रहा था, इसलिये वे कुछ भी कर सकते थे। उन्होंने जैसलमेर पर कब्जा करने की रणनीति बनाई। उस समय भारत का भी सारा ध्यान पूर्व में ही था, पश्चिम में नाममात्र की सेना थी। जब पता चला कि पाकिस्तान ने आक्रमण कर दिया है तो कमान मेजर कुलदीप सिंह चांदपुरी के हाथों में थी। उन्होंने ऊपर से सहायता मांगी। चूंकि यह रात का समय था, जवाब मिला कि या तो वहीं डटे रहकर दुश्मन को रोके रखो या रामगढ भाग आओ। चांदपुरी ने भागने की बजाय वही डटे रहने का निर्णय लिया। सहायता कम से कम छह घण्टे बाद म

थार साइकिल यात्रा- तनोट से लोंगेवाला

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 26 दिसम्बर 2012 की सुबह आराम से सोकर उठे। वैसे तो जल्दी ही उठ जाने की सोच रखी थी लेकिन ठण्ड ही इतनी थी कि जल्दी उठना असम्भव था। असली ठण्ड बाहर थी। यहां धर्मशाला में तो कुछ भी नहीं लग रही थी। तापमान अवश्य शून्य से नीचे रहा होगा। आज का लक्ष्य लोंगेवाला होते हुए असूतार पहुंच जाने का था जिसकी दूरी लगभग 80 किलोमीटर है। ऐसा करने पर कल हम सम पहुंच सकते हैं। दस बजे तक तो वैसे भी अच्छी धूप निकल जाती है। कोहरा भी नहीं था, फिर भी ठण्ड काफी थी। माता के दर्शन करके कैण्टीन में जमकर चाय पकौडी खाकर और कुछ अपने साथ बैग में रखकर हम चल पडे। आज हमें रास्ते भर कुछ भी खाने को नहीं मिलने वाला। जो भी अपने साथ होगा, उसी से पेट भरना होगा। तनोट से लोंगेवाला वाली सडक पर निकलते ही सामना बडे ऊंचे धोरे से होता है। यह एक गंजा धोरा है, इस पर झाडियां भी नहीं हैं। हमें बताया गया कि कल के मुकाबले हमें आज ज्यादा ऊंचे धोरों का सामना करना पडेगा। इन सब बातों के मद्देनजर हमने चलने की स्पीड दस किलोमीटर प्रति घण्टा रखने का लक्ष्य रखा जिसे हमने पूरा भी किया क्योंकि धो

तनोट

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । अक्टूबर 1965 में एक युद्ध हुआ था- भारत और पाकिस्तान के मध्य। यह युद्ध देश की पश्चिमी सीमाओं पर भी लडा गया था। राजस्थान में जैसलमेर से लगभग सौ किलोमीटर दूर पाकिस्तानी सेना भारतीय सीमा में घुसकर आक्रमण कर रही थी। उन्होंने सादेवाला और किशनगढ नामक सीमाक्षेत्रों पर कब्जा कर लिया था और उनका अगला लक्ष्य तनोट नामक स्थान पर अधिकार करने का था। तनोट किशनगढ और सादेवाला के बीच में था जिसका अर्थ था कि इस स्थान पर दोनों तरफ से आक्रमण होगा। जबरदस्त आक्रमण हुआ। पाकिस्तान की तरफ से 3000 से भी ज्यादा गोले दागे गये। साधारण परिस्थियों में यह छोटा सा स्थान तबाह हो जाना चाहिये था लेकिन ऐसा नहीं हुआ। परिस्थितियां साधारण नहीं थीं, असाधारण थीं। कोई न कोई शक्ति थी, जो काम कर रही थी। ज्यादातर गोले फटे ही नहीं और जो फटे भी उन्होंने कोई नुकसान नहीं पहुंचाया। विश्वास किया जाता है कि तनोट माता के प्रताप से ऐसा हुआ। बाद में जब भारतीय सेना हावी हो गई, उन्होंने जवाबी आक्रमण किया जिससे पाकिस्तानी सेना को भयंकर नुकसान हुआ और वे पीछे लौट गये। 1971 में भी ऐसा ही

थार साइकिल यात्रा- सानू से तनोट

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 25 दिसम्बर 2013, जब आधी दुनिया क्रिसमस मनाने की खुशी से सराबोर थी, हम पश्चिमी राजस्थान के एक छोटे से गांव में सडक किनारे एक छप्पर के नीचे सोये पडे थे। यहां से 45 किलोमीटर दूर जैसलमेर है और लगभग इतना ही सम है जहां लोग क्रिसमस और नये साल की छुट्टियां मनाने बडी संख्या में आते हैं। आज वहां उत्सव का माहौल बन रहा होगा और इधर हम भूखे प्यासे पडे हैं। आठ बजे जब काफी सूरज निकल गया, तब हम उठे। दुकान वाला दुकान बन्द करके जा चुका था। ताला लटका था। हमने कल पांच कप चाय पी थी- कम से कम पच्चीस रुपये की थी। हमें टैंट उखाडते देख कुछ ग्रामीण आकर इकट्ठे हो गये। उन्होंने सूखी झाडियां एकत्र करके आग जला ली। उन्होंने बताया कि यह दुकान केवल रात को ही खुली रहती है, दिन में वह सोने घर चला जाता है। घर हालांकि इसी गांव में था, हम आसानी से जा सकते थे। जब हमने उसके घर का पता पूछा तो ग्रामीणों ने बताया कि वह ऐसा अक्सर करता रहता है। लोगों को फ्री में चाय पिला देता है। वैसे भी अब वह सो गया होगा, उठाना ठीक नहीं। ऐसा सुनकर हमने उसके घर जाने का विचार त्याग दिया।

थार साइकिल यात्रा: जैसलमेर से सानू

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । ट्रेन डेढ घण्टे की देरी से जैसलमेर पहुंची। पोखरण तक यह ठीक समय पर चल रही थी लेकिन उसके बाद हर स्टेशन पर बडी देर देर तक रुकी। एक बार जैसलमेर-जोधपुर पैसेंजर क्रॉस हुई, इसके बाद जैसलमेर-लालगढ एक्सप्रेस, फिर एक और, फिर एक भी नहीं, बस ऐसे ही खडी रही। नटवर का फोन आता रहा- कहां पहुंचा? पोखरण। कुछ देर बाद फिर पूछा। कहां पहुंचा? ओडानिया... लाठी... चांदण। और आखिरकार जब जैसलमेर की सूचना दी तो बोला कि जल्दी बाहर निकल, मैं स्टेशन के बाहर प्रतीक्षा कर रहा हूं। पार्सल वालों ने साइकिल को पार्सल डिब्बे से बाहर निकाला। बेचारी लगभग खाली डिब्बे में गिरी पडी थी। दिल्ली से जोधपुर तक यह एक मोटरसाइकिल के ऊपर चढकर आई थी, अगल बगल में बडे बडे पैकेट थे, कहीं नहीं गिरी। एक हस्ताक्षर किया और साइकिल मेरे हवाले कर दी गई। उडती उडती निगाह डाली, कहीं कोई कमी नहीं दिखी। बाकी चलाने पर पता चलेगा। बाहर निकला। दोनों तरह के नजारे थे- शान्त भी और हलचली भी। दोनों ही नजारे होटल वालों ने बना रखे थे। सस्ते होटल वाले यात्रियों को घेर-घेर कर पकड रहे थे। इधर से उधर धकिया र

थार साइकिल यात्रा का आरम्भ

जब लद्दाख गया था ना साइकिल लेकर, तो सोच लिया था कि यह आखिरी साइकिल यात्रा है। इसके बाद कोई साइकिल नहीं चलानी। हालांकि पहले भी ज्यादा साइकिल नहीं चलाई थी। फिर भी जब सपने पूरे होते हैं, तो उन्हें जीने में जो आनन्द है वो अगले सपने बुनने में नहीं है। बस, यही सोच रखा था कि एक सपना पूरा हुआ, इसी को जीते रहेंगे और आनन्दित होते रहेंगे। लेकिन यह सपना जैसे जैसे पुराना पडता गया, आनन्द भी कम होता गया। फिर से नये सपने बुनने की आवश्यकता महसूस होने लगी ताकि उसे पूरा करने के बाद नया आनन्द मिले। थार साइकिल यात्रा की यही पृष्ठभूमि है। इसी कारण राजस्थान के धुर पश्चिम में रेत में साइकिल चलाने की इच्छा जगी। समय खूब था अपने पास। कोई यात्रा किये हुए अरसा बीत चुका था, उसका वृत्तान्त भी लिखकर और प्रकाशित करके समाप्त कर दिया था। बिल्कुल खाली, समय ही समय। तो इस यात्रा की अपनी तरफ से अच्छी तैयारी कर ली थी। गूगल अर्थ पर नजरें गडा-गडाकर देख लिया था रेत में जितने भी रास्ते हैं, उनमें अच्छी सडकें कितनी हैं। एक तो ऊंटगाडी वाला रास्ता होता है, कच्चा होता है, रेतीला होता है, साइकिल नहीं चल सकती। इसके लिये पक्की सडक चाह

रेलयात्रा सूची: 2014

2005-2007   |   2008   |   2009   |   2010   |   2011   |   2012   |   2013   |   2014   |   2015   |   2016   |   2017  |  2018  |  2019 क्रम सं कहां से कहां तक ट्रेन नं ट्रेन नाम दूरी (किमी) कुल दूरी दिनांक श्रेणी गेज 1 नई दिल्ली लुधियाना 12497 शान-ए-पंजाब एक्स 312 106558 06/01/2014 सेकण्ड सीटिंग ब्रॉड 2 लुधियाना लोहियां खास 74969 लुधियाना- लोहियां खास डीएमयू 77 106635 06/01/2014 साधारण ब्रॉड 3 लोहियां खास मल्लांवाला खास 74937 जालंधर- फिरोजपुर डीएमयू 42 106677 06/01/2014 साधारण ब्रॉड 4 मल्लांवाला खास जम्मू तवी 19225 भटिंडा- जम्मू तवी एक्स 378 107055 06/01/2014 शयनयान ब्रॉड 5 जम्मू तवी ऊधमपुर 12445 उत्तर सम्पर्क क्रान्ति एक्स 53 107108 07/01/2014 साधारण ब्रॉड 6 बनिहाल श्रीनगर 74629 बनिहाल- बारामूला डीएमयू 80 107188 07/01/2014 साधारण ब्रॉड 7 श्रीनगर बारामूला 74625 बनिहाल- बारामूला डीएमयू 58 107246 08/01/2014 साधारण ब्रॉड 8 बारामूला बनिहाल 74628 बारामूला- बनिहाल डीएमयू 138 107384 08/01/2014 साधारण ब्रॉड 9 जम्मू तवी दिल्ली आजादपुर 09022 जम्मू तवी- बान्द्रा स्पेशल 569 107953

डायरी के पन्ने- 19

चेतावनी: ‘डायरी के पन्ने’ मेरे निजी और अन्तरंग विचार हैं। कृपया इन्हें न पढें। इन्हें पढने से आपकी धार्मिक और सामाजिक भावनाएं आहत हो सकती हैं। 18 दिसम्बर 2013, सोमवार 1. साहिबाबाद दीदी के यहां चला गया। मेरे ठिकाने से उनका घर बारह किलोमीटर है, साइकिल से गया, पौन घण्टा लगा। इनके यहां एक विचित्र रिवाज देखा- मच्छरों को न आने देने का रिवाज। मुख्य प्रवेश द्वार पर दो दरवाजे हैं- एक जालीदार और दूसरा ठोस। दोनों दरवाजों पर हमेशा कुण्डी लगी रहती है। जब भी किसी को अन्दर आना होता है या बाहर जाना होता है तो दिन में तो मच्छरों के आने का कोई खतरा नहीं है लेकिन रात को यह आना-जाना जोखिम भरा होता है। दरवाजा खुले तो मच्छरों के आ जाने का डर रहता है। इसलिये कुण्डी खोलने से पहले सबसे पहले घर की लाइटें बन्द की जाती हैं, फिर कुण्डी खोलकर झट से बन्द कर दी जाती है। लाइटें इसलिये बन्द की जाती हैं ताकि अन्धेरे में मच्छरों को रास्ता न दिखे। यही बात बडी विचित्र है क्योंकि मच्छर सामान्यतः एक रात्रिचर कीट है जिसे अन्धेरा पसन्द होता है। फिर भी अगर कोई मच्छर अन्दर आ जाता है तो उसका काम तमाम होते देर नहीं लगती। घर से सभ