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हर की दून यात्रा- गंगाड से दिल्ली

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5 अक्टूबर 2013 की सुबह आठ बजे आंख खुली। खुलने को तो छह बजे भी खुली थी। जब देखा कि उजाला हो गया है, बाहर हलचल भी शुरू हो गई है तो डर भी कम हो गया और दो घण्टे के लिये गहरी नींद आ गई। यह स्थान नदी की पूर्व दिशा में है, ऊंचे ऊंचे पहाडों के नीचे इसलिये धूप देर से यहां पहुंचेगी। उठकर सबसे पहला काम किया कि बिस्कुट के दोनों पैकेट निपटा दिये, ऊपर से पानी पी लिया।
दोनों एडियों में छाले पडकर फूट चुके थे। रात सोते समय जुराबें बदलकर सोया था, इसलिये अब छालों पर खाल चिपक सी गई थी। लेकिन जब चलना शुरू करूंगा तो कुछ दूर जाते ही यह फिर से अलग हो जायेगी।
बाहर निकला। सामने गंगाड गांव पूरी तरह धूप में नहाया हुआ था। बराबर में पुल है, एक बंगाली आया हर की दून की तरफ से और यहीं बैठ गया। ये कई लोग हैं जिनमें दो महिलाएं व एक बुजुर्ग भी शामिल हैं। बाकी लोग धीरे धीरे आ रहे हैं और पीछे हैं।
टैण्ट पूरी तरह भीग चुका था। यथासम्भव इसे हिलाकर और झाडकर ओस को दूर करने के प्रयत्न किये, फिर पैक कर दिया। तब तक और भी बंगाली आ गये थे। इनके साथ दो खच्चर वाले भी थे। सभी मेरी तारीफ कर रहे थे कि इतने जंगल में रातभर अकेला रहा और डर नहीं लगा। मेरे खाने के प्रबन्ध के बारे में पूछा तो मैंने कहा कि बिस्कुट खाये हैं। उन्होंने चिउडे का एक पैकेट दे दिया। मुझे इसकी आवश्यकता थी, ले लिया। मैं चिउडा खाने लगा, वे आगे निकल गये। उन्हें भी नीचे वाले रास्ते से ही जाना था।
यहां से तालुका जाने के दो रास्ते हैं- एक ऊपर वाला और दूसरा नीचे वाला। मैं कल ऊपर वाले से आया था। ऊपर वाला रास्ता खच्चरों के लिये उपयुक्त है। जाहिर है कि नीचे वाला अपेक्षाकृत खतरनाक होगा। जिस रास्ते पर मनुष्य चल सकता है लेकिन खच्चर नहीं चल सकता, वह खतरनाक ही कहा जायेगा। इसके बावजूद मैंने भी इसी नीचे वाले से जाने का फैसला किया।
बंगालियों के जाने के पन्द्रह मिनट बाद मैं भी चल पडा। इच्छा थी कि पूरा पैकेट खाकर चलूंगा लेकिन जंगल में मैं अकेला नहीं चलना चाहता था। उस ग्रुप के सबसे धीरे चलने वाले सदस्य से तेज तो चल ही सकता हूं, कुछ आगे जाकर उन्हें पकड लूंगा। सवा नौ बजे यहां से चल पडा।
अलविदा हर की दून। फिर मिलेंगे। बेटा याद रखना, इतना गया गुजरा नहीं हूं जितना कि अब दिख रहा हूं। तेरे तीन तरफ जो पांच पांच हजार मीटर ऊंचे दर्रे हैं, उन्हें लांघने की औकात रखता हूं।
आधा किलोमीटर ही चला होऊंगा कि एक ढाबा मिला। इसमें चाय का सामान और कुछ बिस्कुट भी रखे थे। एक बुजुर्ग इसे देख रहे थे। रुकने की इच्छा नहीं थी, इसलिये नहीं रुका और न ही पूछताछ की।
रास्ता टोंस नदी के किनारे किनारे है, बहाव के साथ है तो कुल मिलाकर उतराई वाला ही होगा। लेकिन कभी कभी छोटी-छोटी तीव्र चढाईयां भी आ जातीं। चढाई पर कतई जान निकल जाती। पूरा वजन एडी पर आ जाता, छाले पर दबाव पडता और अन्दर ही अन्दर चीख निकल जाती।
यहां कुछ भू-स्खलन वाले क्षेत्र भी हैं। मिट्टी खिसकी तो पगडण्डी भी खिसक गई। अब नया रास्ता इसके कुछ ऊपर से बनेगा। यह बनाया नहीं जाता बल्कि लोगों के आने जाने से अपने आप बन जाता है। मिट्टी पर ऊपर चढना तो मेरे लिये नरक यात्रा थी। घोर यातना के समान। जैसे ही मिट्टी पर पैर रखते हैं तो पैर के दबाव से उसे कुछ न कुछ नीचे सरकना ही होता है, भले ही इंच भर सरके। और जब इंच भर पैर झटके से नीचे सरकता तो छाले पर भी झटके से दबाव पडता और उस दर्द को कभी नहीं भूला जा सकता। कई बार तो ऐसी मामूली चढाईयां देखकर मैं नीचे ही रुक जाता- हे भगवान! इससे तो कल ऊपर मन्दिर के पास ही रुक जाता तो कम से कम इस रास्ते से तो बच जाता। जब धाटमीर से निकलते ही छाला फूट गया था, तो यहां तक आकर मरने की क्या जरुरत थी? कल ही क्यों धाटमीर में नहीं रुक गया? अच्छा-खासा झारखण्ड जा रहा था, आज हावडा वाली पैसेंजर में बैठा होता, कल अमन साहब के यहां होता। किन्नौर ही क्यों नहीं चला गया? ये मनहूस जूते पहनकर कहीं चलना फिरना तो नहीं पडता।
सामने से आते एक व्यक्ति से पूछा कि आगे बंगाली जा रहे हैं, अभी कितना आगे हैं? बोला कि बस सामने ही हैं। घोर जंगल की वजह से वे नहीं दिख रहे थे। लेकिन उनकी अदृश्य उपस्थिति भी मुझे निर्भय कर रही थी।
ऊपर सामने जब धाटमीर के खेत दिखने लगे तो जान में जान आई। यहां एक नाला है। नाला पार करने के लिये टोंस से कुछ दूर जाना होता है और पार करके फिर पास आना होता है। अंग्रेजी के ‘यू’ अक्षर की तरह। जंगल कुछ कम था, इसलिये मुझे सामने नाला पार कर चुके बंगाली दिख गये। अर्थात वे अभी भी मुझसे करीब एक किलोमीटर दूर हैं। मेरी इच्छा यहां कुछ देर रुकने की थी, एक समतल पत्थर भी मिल गया था और मैं बैठ भी गया था। लेकिन बंगालियों के दिखते ही फिर जान में जान आई और मैं चल पडा। धाटमीर के खेत जब समाप्त हो जायेंगे तो पुनः जंगल में चलना पडेगा। इस जंगल में उनके जितना नजदीक रहूं, उतना ही अच्छा।
टोंस पर एक पुल मिला, लकडी का। इसका यहां क्या औचित्य? उस तरफ भी जंगल है, बल्कि सीधा खडा पहाड है। कोई गांव भी नहीं। फिर यह पुल क्यों? अवश्य यह किसी पुराने व्यापारिक मार्ग का हिस्सा रहा होगा।
कुछ सीढियां भी ऊपर जाती मिलीं। ये अवश्य ऊपर बसे धाटमीर जा रही हैं। इन पर मानवीय हलचल का कोई निशान नहीं था। धाटमीर का मुख्य सम्पर्क तालुका से है। वहां जाने के लिये अच्छा खासा रास्ता है। या फिर गंगाड, ओसला, सीमा व हर की दून से है, वहां के लिये भी ऊपर ही ऊपर रास्ता है। मैं कल उसी रास्ते पर जा रहा था। फिर ये सीढियां क्यों? अवश्य उस पुल तक पहुंचने के लिये बनाई गई होंगी।
एक छोटा सा मैदान मिला। मैदान के उस छोर पर पचास मीटर दूर बंगाली दल का आखिरी सदस्य दिखा। लगा कि मैं भी इसी दल का हिस्सा हूं। सारा डर जाता रहा। बैठ गया। ट्रेकिंग में मैं कभी भी बैठना पसन्द नहीं करता। खडे खडे ही आराम करना पसन्द करता हूं। लेकिन आज ग्रह नक्षत्र उल्टे घूम रहे थे, इसलिये हर दस मिनट में बैठना पड रहा था। रही सही कसर रकसैक ने पूरी कर दी। मैं इसे ढोने में समर्थ नहीं था। कन्धे बुरी तरह दर्द कर रहे थे।
जब अचानक वो मैदान आया जहां से कल मैंने धाटमीर वाला रास्ता पकड लिया था, तो खुशी से उछल पडा। पूरा बंगाली दल यहीं बैठा था और भी कुछ स्थानीय लोग। मैं जाकर लेट गया। इन्हीं स्थानीय लोगों में एक लडकी भी थी। तेरह चौदह साल की रही होगी। जबरदस्त सुन्दर। और सुन्दरता के साथ साथ चेहरे पर मासूमियत भी थी। मैं देखता ही रह गया। जब वे चले तो उन्होंने नीचे वाली पगडण्डी पकडी अर्थात वे धाटमीर के नहीं थे। गंगाड, ओसला या सीमा के होंगे।
यहां से तालुका तीन किलोमीटर रह जाता है। मुझे वह आखिरी चढाई खाये जा रही थी जिसे चढते ही मैं तालुका के बाजार में प्रवेश कर जाऊंगा। गनीमत थी कि यह कंक्रीट की बनी थी, कच्ची नहीं थी। पैर जहां रखता, वहीं जमा रहता। आडे तिरछे पैर रख-रखकर चढना पडा।
अब लक्ष्य था सांकरी पहुंचना। लेकिन जब सामने दाल चावल परोसे जा रहे हों तो भूखे के सामने इससे बडा लक्ष्य और क्या हो सकता है? कल सुबह जब यहां से हर की दून के लिये प्रस्थान किया था, तभी कुछ खाया था। पिछले 28 घण्टों से मैंने मात्र बिस्कुट के पांच पांच वाले तीन पैकेट और कुछ टॉफियां व जरा सा चिउडा ही खाया था। रोटी का मन था, रोटी ही खाईं।
जब खाना खा रहा था, तो एक ने पूछा कि सांकरी जाओगे क्या? मैंने हामी भर ली। उसने कहा कि हम जीप वाले हैं, खाना खाकर हम जायेंगे, आपको भी लेते जायेंगे। उन्होंने फटाफट खाना खाया और चले गये। उनके दस मिनट बाद मैं चला। यहां से आधा किलोमीटर बाद जीप स्टैण्ड है। बीच में एक खतरनाक भू-स्खलन भी पडता है। जब पहुंचा तो वहां कोई नहीं मिला। पहाड पर अक्सर ऐसा देखने को नहीं मिलता कि जीप वाले ने आपसे वादा किया हो और आपको बिना लिये चला जाये।
अब दूसरी जीप की प्रतीक्षा करने के अलावा कोई चारा नहीं था। कुछ गत्ते पडे थे, लेट गया। घण्टे भर तक लेटा रहा, कोई नहीं आया। बीच में झपकी भी लग जाती।
पुनः वापस गांव में गया। इस समय चलना ही मेरे लिये सबसे बडी समस्या थी। उस ढाबे में पहुंचा। कहीं रुकने के बारे में पूछा। उसने कहा कि बेफिक्र रहो। सामने गढवाल मण्डल विकास निगम का रेस्ट हाउस था। उसका मैनेजर कल उसी जीप से यहां आया था, जिससे मैं सांकरी से आया था। मैनेजर उस समय ताश खेल रहा था, मेरे पास भी समय की कमी नहीं थी, उसे डिस्टर्ब नहीं किया।
तभी सुनने में आया कि दो जीपें आई हैं। आईएएस अफसरों का एक दल आया है। खबर सुनते ही मुझसे कहा गया कि दौड पडो। फिर आधा किलोमीटर तक कूद कूदकर जाना पडा। यह चौबीस सदस्यों का दल था। जब मैं पहुंचा, वे एक एक करके उस भूस्खलन को पार कर रहे थे। यह एक ऐसी जगह थी जहां एक बार में केवल एक ही आदमी जा सकता था। मुझे रुकना पडा। मैंने उनसे पूछा भी कि उधर जीप अभी भी है या चली गई। ये अफसर इस दुनिया पर राज तो करते हैं लेकिन इस दुनिया के प्राणी नहीं होते, उन्होंने कहा पता नहीं।
जब उधर गया तो जीपें जा चुकी थीं। सवा छह का समय था, अन्धेरा होने लगा था, यहां दस मिनट भी रुकना ठीक नहीं था, वापस चल दिया। आज ही सांकरी पहुंचना इसलिये आवश्यक था ताकि कल यहां से सांकरी पहुंचने में अनावश्यक देरी न हो। कल सांकरी से कोई जीप आयेगी, घण्टे दो घण्टे यहां रुकेगी और कभी दोपहर को यहां से चलेगी। अगर आज मैं सांकरी पहुंच जाता तो कल दोपहर तक पुरोला पहुंचना और आगे देहरादून पहुंचना और भी आसान हो जाता।
रेस्ट हाउस के मैनेजर ने बताया कि दो बिस्तरों वाला कमरा छह सौ का है और छह बिस्तरों वाला 175 का। छह बिस्तरों वाला डोरमेटरी था। मेरे अलावा आज यहां कोई नहीं रुकने वाला था, इसलिये पूरा कमरा ही मेरा था। बल्कि पूरे रेस्ट हाउस में चौकीदार और मैनेजर के अलावा कोई और नहीं था। और रेस्ट हाउस भी भूत बंगला ज्यादा दिखाई देता था। कोई लाइट नहीं, मुझे भी एक मोमबत्ती दी गई थी। साथ ही मैनेजर ने यह भी कहा कि टॉयलेट में पानी नहीं है, फिर भी आपके लिये एक बाल्टी पानी ला सकता हूं। मैंने मना कर दिया कि एक बाल्टी की भी जरुरत नहीं है।
आईएएस वाले जंगल विभाग के रेस्ट हाउस में रुके। तालुका में हलचल मच गई। हमारे पहाडों के इन दूर-दराज के इलाकों में ढाबे शाम को सांस्कृतिक और सामाजिक केन्द्र बन जाते हैं। जीएमवीएन के रेस्ट हाउस के सामने वाला ढाबा भी अपवाद नहीं था। अफसरों की जमकर आलोचना हो रही थी।
आपका व्यवहार ही आपका चरित्र है। सामने वाले को कीडा मकोडा समझोगे, तो भला इज्जत कैसे मिलेगी? ये वे लोग होते हैं, जिनके मां बाप इनके ‘सपनों’ को पूरा करने के लिये जी-जान लगा देते हैं। एक तिनका तक हाथ से नहीं उठाना पडता। किसी से मिलते जुलते नहीं, मिलते भी हैं तो अपनी ही ‘सोसाइटी’ से। सोसाइटी के अलावा हर आदमी इनके लिये त्याज्य होता है। आप त्याज्य से इज्जत की उम्मीद नहीं कर सकते। मैं रूपकुण्ड यात्रा में इनका बर्ताव देख चुका हूं। हां, गिने-चुने लोग अपवाद होते हैं।
जंगल विभाग के रेस्ट हाउस में स्थान की कमी पड गई। मैनेजर निगम वाले के पास आया। निगम माने गढवाल मण्डल विकास निगम। निगम वाले ने कुछ भी सहायता करने से मना कर दिया। बाद में जब वो चला गया तो निगम वाला हमसे बोला- इन लोगों को हमारे यहां दस दस रुपये में डोरमेटरी और बीस बीस रुपये में कमरा मिलता है। लेकिन सिर्फ तभी जब हमारे पास देहरादून से सूचना आ चुकी हो। पूरा रेस्ट हाउस खाली है, मैं वैसे तो इन्हें जगह दे सकता था लेकिन सुबह इनका काम दो दो बाल्टी पानी से भी नहीं चलेगा। कौन लायेगा इतना सारा पानी? गाली गलौच करने से ये कभी नहीं चूकते और आपको हमेशा जानवर समझते हैं।
पूरे रेस्ट हाउस में बहुत सारा सामान तितर-बितर पडा था। फर्श, दीवारें व सीढियां जगह जगह से टूटे थे। लाइट थी नहीं, लग रहा था कि भूत बंगले में आ गये। इसमें मैं अकेला था। मैनेजर व चौकीदार भी नीचे कहीं सो रहे होंगे।
अगले दिन आठ बजे उठा। बाहर होटल में ही एक जीप वाला भी था, कहने लगा कि नौ बजे के बाद मैं जीप नीचे ले जाऊंगा। मैं नौ बजे वही जीप स्टैण्ड पहुंच गया। यहां जो भू-स्खलन है, उससे गुजरते हुए मुझे हमेशा डर लगा। बडा तीखा ढलान है। आज पैर में काफी आराम था। यह आराम अब धीरे धीरे बढता चला जायेगा।
ग्यारह बजे जब जीप चली तो यह छत तक भर चुकी थी। यह सामान ढोने वाली जीप थी। कम से कम बीस सवारियां तो होंगी ही। जब सही सलामत सांकरी पहुंच गया तो राहत की सांस ली। पौने बारह बज चुके थे। मुझे आज ही देहरादून पहुंचना है। अन्धेरा होने तक विकासनगर भी पहुंच जाऊंगा तो देहरादून और आगे दिल्ली भी चला जाऊंगा। विकासनगर जाने के लिये दो रास्ते हैं- एक पुरोला से दूसरा त्यूनी से। पुरोला वाला रास्ता ज्यादा प्रचलित है। इसलिये मैं भी पुरोला से ही जाऊंगा।
सांकरी पहुंचा तो मोरी की जीप तैयार खडी थी। ज्यादा देर नहीं लगी इसे भरने में। घण्टे भर में मोरी पहुंच गये। यहां पुरोला की जीप तैयार खडी थी, सबसे पीछे बैठना पडा।
हर नदी का अपना एक क्षेत्र होता है। उस क्षेत्र में जितना भी पानी निकलता है, सारा का सारा उसी नदी में आ गिरता है। यह काम कुछ तो वह नदी स्वयं करती है, या फिर उसकी सहायक नदियां करती हैं। दो नदी क्षेत्रों के बीच में एक ऊंची जगह होती है, इसे जल विभाजक कहते हैं। साधारण बोलचाल में इसे जोत, दर्रा भी कह देते हैं। वास्तव में यह जल विभाजक ही होता है जो निर्धारित करता है कि एक तरफ का पानी एक नदी में जायेगा और दूसरी तरफ का दूसरी नदी में।
मोरी टोंस घाटी में स्थित है जबकि पुरोला यमुना घाटी में। हालांकि पुरोला से यमुना बीस किलोमीटर है लेकिन जिस नदी के किनारे पुरोला स्थित है, वह यमुना की सहायक नदी है। जब मोरी से पुरोला जायेंगे तो जल विभाजक पार करना पडेगा। यह जल विभाजक मोरी और पुरोला दोनों से काफी ऊंचाई पर होगा। मोरी से चढाई जारी रहती है। जल्दी ही चीड का जंगल शुरू हो जाता है। मोरी से 18 किलोमीटर पर जरमोला है। जरमोला से भी दो किलोमीटर आगे वो स्थान है जिसे जल विभाजक कहा जा सकता है। यहां वन विभाग का एक नाका है और कमलेश्वर मन्दिर जाने के रास्ते का सूचना पट्ट भी लगा है। यहां से आगे उतराई शुरू हो जाती है। स्थान की ऊंचाई 2000 मीटर के आसपास है।
यह स्थान मुझे बहुत पसन्द आया। जो लोग रानीखेत गये होंगे, उन्होंने देखा होगा वहां का भूदृश्य। बिल्कुल वैसा ही। चीड का जंगल, दूर दूर तक हल्का ढलान, ठण्डी हवा, कोई शोर नहीं। किसी दिन आऊंगा यहां के लिये कुछ राशन और टैण्ट लेकर। मजा आयेगा।
मोरी जाते ही उत्तरकाशी वाली बस तैयार खडी मिली। पता चला कि यहां से अब विकासनगर की कोई गाडी नहीं मिलेगी, नौगांव से मिल जायेगी। बस से नौगांव पहुंच गया।
अभी ढाई बजे थे। विकासनगर की एक जीप खडी थी। मैंने भी चलने को कहा तो उसने सबसे पीछे वाली सीट की तरफ इशारा कर दिया। मैं अगले चार घण्टों के लिये पीछे वाली सीट पर नहीं बैठना चाहता था। मैंने कहा कि आगे वाली या बीच वाली मिलेगी तो चलूंगा, नहीं तो नहीं जाऊंगा। खैर, उसने सबसे आगे बैठने का इंतजाम कर दिया। चार बजे यहां से चला। आठ बजे विकासनगर पहुंचे। हैरत की बात यह रही कि इस दौरान मुझे नींद नहीं आई। बराबर में बैठे एक दस साल के लडके ने उल्टी कर कर के जी खराब किये रखा।
विकासनगर जाते ही उत्तराखण्ड रोडवेज की कालसी से दिल्ली जाने वाली बस खडी मिली। साढे आठ बजे चलेगी। मैंने दिल्ली का ही टिकट लिया। घण्टे भर में देहरादून पहुंच गये। कंडक्टर ने कहा कि साढे दस बजे यहां से चलेंगे, जिसको कुछ खाना पीना हो, बेफिक्र होकर खाये पीये। लेकिन साढे दस से पहले पहले बस में आकर विराजमान हो जाये।
मैं बस अड्डे से बाहर निकल गया। जितनी भी बसें देखो, सभी दिल्ली की। मेला लगा हुआ दिल्ली की बसों का और कोई भी खाली नहीं। हिमाचल रोडवेज की बसें भी दिखाई दीं जो पौण्टा साहिब के रास्ते हिमाचल में प्रवेश करेंगी। एक बस तो केलांग की भी दिखी। और हां, एक सहारनपुर की बस भी थी जिसका कंडक्टर सहारनपुरिया स्टाइल में ‘साणपुर, साणपुर’ की आवाज लगा रहा था। उसकी बस नहीं भर पा रही थी।

गंगाड गांव

रास्ते में भूस्खलन



टोंस नदी पर बना पुल

टोंस नदी

टोंस के बराबर में खतरनाक पगडण्डी

यही है वो जगह जहां से कल मैंने ऊपर धाटमीर वाला रास्ता पकड लिया था। 

तालुका में खतरनाक भूस्खलन



1. हर की दून यात्रा- दिल्ली से गंगाड
2. हर की दून यात्रा- गंगाड से दिल्ली




Comments

  1. US 13-14 Saal ki Sundar ladki ka photo hi daal diya hota Neeraj bhai....

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  2. नीरज भाई , बंगाली और आईएस ..................!!

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  3. यानी दूँन यात्रा अधूरी रह गई ....कारवां गुजर गया और हम गुबार देखते रहे ..

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  4. भाई ये 'trainee' IAS होते हैं, इनकी गलती नहीं है... जब अकेडमी में ट्रेनिंग के दौरान ही ऐसा अफसराना अंदाज़ सिखाया जाएगा तो फिर अकड़ तो आनी ही है.. कालांतर में जब जिले में पोस्टिंग होती है तब जनता के बीच में रह कर सब समझ आ जाता है... ये लोग जो आपको मिले इनमे से कई मेरे मित्र हैं.. उन्हें ये ब्लॉग एड्रेस सेंड कर दिया है... आगे की बात उनसे पूछकर बताऊंगा...लेकिन सरकार को भी सोचना चाहिए देश आजाद हुए इतने साल हो गए अब तो ये अफसरों की इस प्रकार की अफसराना ट्रेनिंग बंद करे... प्राइवेट कम्पनियां इसलिए ही सफल हुई क्यूंकि उनका मालिक (जैसे नारायणमूर्ति) भी उनके साथ बैठकर भोजन कर लेता है... इससे अपनत्व का भाव जागता है... खैर जनता के बीच जायेंगे तो सब सीख जायेंगे....

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  5. नीरज भाई अब पैर केसा है.यह जगह बहुत सुन्दर है.काई नही हर की दुन कभी ओर सही जान ह तो जहान है.

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  6. गजब की पोस्ट है उससे भी गजब की आपकी यात्रा है नीरज़ भाई , मुझे बेहद खुशी होती है आपको पढते हुए , अगर दुनियादारी और घर परिवार के झंझट में न पडा होता तो शायद मेरा भी प्रिय कार्य यही होता , अलबत्ता इतनी बारीकी से शायद ही लिख पाता । दिलचस्प ..हमेशा की तरह

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  7. Neeraj ji, Aap apni posts mein ek shabd aksar istemal karte hein 'Aukaat' ye shabd har jagah istemaaal nahin kiya ja sakta jaise ki uprokt post mein, kyonki 'aukaat' shabd ka matlab bahu nimn straya hota hai, jabki aap to bahut bade khiladi ho, yahan aap 'haunsla rakhta hoon, himmat rakhta hoon, hasiyat rakhto hoon' jaise shabd istemaal kare, jo ki aap ke vyaktitva par bilkul sahi lagta hai.

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  8. नीरज भाई आपकी यात्रा पढ़कर आपको सेल्यूट करने को दिल करता है जय भारत माता की जय वन्दे मातरम

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  9. words hi nahi h kya kahu

    sunder ati sunder

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46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब...