[डायरी के पन्ने हर महीने की पहली व सोलह तारीख को छपते हैं।]
1 अक्टूबर 2013, मंगलवार
1. आज की शुरूआत ही बडी खराब रही। एक चूहा मारना पड गया। रात जब अच्छी नींद सो रहा था तो उसने पैर में काट खाया। हालांकि दांत नहीं गडे, नहीं तो चार इंजेक्शन लगवाने पड जाते रेबीज के। काटे जाने के बाद मैंने लाइट जलाई तो चूहे को अलमारी में घुसते देखा। अलमारी का दरवाजा जरा सा खुला था। मैंने बिना देर किये दरवाजा पूरा भेड दिया। चूहा अन्दर कैद हो गया। फिर भी पूरी रात कटर कटर की आवाज आती रही। सुबह उठकर देखा तो लकडी की अलमारी में एक छेद मिला। चूहा गायब था। नीचे बुरादा पडा था। वाकई मेहनत काबिल-ए-तारीफ है।
हमारे यहां चूहे आते जाते रहते हैं, गिलहरियां भी। हमारे यहां से निकल जायेंगे तो नीचे वाले के यहां चले जायेंगे, इनका इसी तरह क्रम लगा रहता है। मैं निश्चिन्त था कि कल वो किसी और के यहां होगा।
कुछ देर बाद उसे फिर से अलमारी में घुसते देखा। यानी महाराज अभी यहीं है। दरवाजा पूरा खोल दिया कि भाई, जा, भाग जा। वो अलमारी से निकला और बेड के नीचे घुस गया। कमरे का दरवाजा भी खुला था उसके निर्बाध प्रस्थान के लिये। वो अपने आप नहीं गया। मैं वाइपर उठा लाया। बेड के नीचे घुमाया, कुछ नहीं हुआ। यानी चूहा नीचे नहीं है। तो कहां चला गया? हो सकता है कि भाग गया हो, मुझे दिखाई न दिया हो।
जब मैं बेड के बगल में कुर्सी पर बैठा था, तो तकिये के पास हलचल हुई। अच्छा, तो महाराज यहां छुपे बैठे हैं। अब पहली बार इसे घेरने का विचार आया। असल में मैंने छोटी छोटी चुहियां तो बहुत पकडी हैं। बडे चूहे से डर लगता है, काट खाता है। यह था भी औसत से बडा ही। इसे पकडने का विचार तक नहीं आया था अभी तक।
उसकी छुपने की जगह का मुआयना किया। तकिये की बराबर में एक चादर पडी है। इनसे इस स्थान पर अन्धेरा सा हो गया है। चूहा स्वयं को सुरक्षित मान रहा है। हालांकि दिख नहीं रहा है, लेकिन मैंने घुसते देखा है। अगर मैं कमरे में आवाज भी करता रहूंगा तो वह कहीं नहीं भागेगा, सुरक्षित स्थान पर जो है।
दूसरे कमरे से एक और चादर उठाकर लाया। उसे तकिये पर जाल की तरह फैला दिया। अब मुझे अन्दाजे से उसके छुपने की जगह पर झपट्टा मारना था। अन्दाजा गलत भी हो सकता था। फिर बेड के दो तरफ दीवारें हैं, बीच में चार पांच इंच का गैप है। तकिया गैप के ऊपर ही रखा है। यहां ‘जाल’ किसी काम का नहीं, चूहा आसानी से इस गैप से निकल सकता है।
जैसे ही अनुमानित जगह पर झपट्टा मारा, चूहा बिल्कुल हाथ के बराबर से भागा। ‘जाल’ के नीचे ही था, इसलिये मेरे ऊपर झपटने का सवाल नहीं था। वो गैप में घुस गया, लेकिन आखिरकार उसका दुर्भाग्य था कि पूंछ पर मेरा हाथ पड गया। इससे उसे पलभर की देरी हुई, इतने में पूंछ पर मेरी अच्छी पकड बन चुकी थी। दूसरे हाथ से उसका बाकी शरीर पकडा और पूंछ छोड दी। बडा शक्तिशाली चूहा था, एक झटका मारा और हाथ से छूट गया। फिर से उसका दुर्भाग्य कि तुरन्त ही पकडा भी गया। इस बार पूंछ नहीं छोडी। चादर में अच्छी तरह ऐसे पकडा कि उसके दांत मेरे हाथों तक न पहुंच सकें। फिर उसे अधमरा करने में देर नहीं लगी।
एक रस्सी पडी थी बराबर में। फन्दा बनाकर उसके गले में डाल दिया और फांसी लगा दी। फिर भी नहीं मरा तो आखिरी क्रियाकर्म पानी से हुआ। जब पक्का हो गया कि मर गया है तो एक फोटो खींचा और खिडकी से बाहर फेंक दिया जहां कौवे और बाज तैयार बैठे रहते हैं।
2 अक्टूबर 2013, बुधवार
1. झारखण्ड यात्रा रद्द कर दी। हिमालय का बुलावा था। हर की दून के लिये चल पडा। साथ में टैण्ट व स्लीपिंग बैग भी ले लिये। विस्तार से बाद में बताऊंगा।
7 अक्टूबर 2013, सोमवार
1. हर की दून से वापस लौट आया। देखा कि गायत्री वाले मामले की गूंज दूर-दूर तक पहुंच गई है। वह मामला मैंने डायरी में लिखा था। मैं दो चीजें लिखता हूं- यात्रा वृत्तान्त और डायरी। यात्रा-वृत्तान्त तो सभी के पढने के लिये हैं लेकिन डायरी गोपनीय होती है, सभी के पढने की चीज नहीं होती। उसमें अपने निजी विचार ही लिखे जाते हैं। अगर मैं कापी पर पेन से लिखता और उसे खुले में मेज पर छोड देता हूं तो आगन्तुक को चाहिये कि उसे न पढे क्योंकि उसके ऊपर मोटे मोटे शब्दों में लिखा है- डायरी के पन्ने। यह एक सर्वमान्य बात है कि किसी की डायरी नहीं पढनी चाहिये।
फिर भी... कुछ लोगों ने डायरी पढ ली... उन्हें अच्छा नहीं लगा तो वे घमासान मचाने लगे। मैं किसी यात्रा-वृत्तान्त पर आई टिप्पणी का, आलोचना का, सुझाव का, शिकायत का जवाब देने के लिये तो बाध्य हूं लेकिन डायरी में लिखी किसी भी बात का जवाब देने के लिये बाध्य नहीं हूं। अब जब यह घमासान काफी बढ गया है और इसकी गूंज दूर-दूर तक भी जा रही है तो इस बार मुझे गायत्री मामले का जवाब देना पडेगा।
गायत्री परिवार बहुत बडा है... लाखों करोडों सदस्य हैं इस परिवार के। जाहिर है कि मेरे ब्लॉग को भी इस परिवार के सदस्यों की एक बडी संख्या पढती है। ऐसा नहीं है कि यही एकमात्र परिवार है। और भी बहुत सारे परिवार हैं। आसाराम का परिवार है, निरंकारी बाबा धन धन सतगुरू, मोहन राम, आर्य समाज, ओशो, ब्यास वाले हैं नाम ध्यान नहीं आ रहा... लगभग हर व्यक्ति किसी न किसी परिवार से जुडा है। सभी के अपने नियम कायदे हैं। सदस्य परिवार के नियमों का पालन करते हैं। धार्मिक कार्य करते हैं, भजन कीर्तन करते हैं, नियमों के अनुसार जीवन जीते हैं। कितना आसान है यह सब सोचना! कितनी अच्छी बात है! कितना आदर्श जीवन होता है इनका!
लेकिन... इसके बावजूद अलगाव भी पैदा हो जाता है। मेरा परिवार सर्वोत्तम है- यह भावना हर सदस्य के अन्दर आ जाती है। ये सभी लोग धर्म के साथ विज्ञान को भी जोडते हैं... जोडना पडेगा। लेकिन जब कोई बाहरी व्यक्ति इनकी वैज्ञानिकता पर उंगली उठाता है तो ये हिंसक हो जाते हैं।
मैंने भी गायत्री परिवार की एक मान्यता की वैज्ञानिकता पर उंगली उठाई थी बल्कि जिज्ञासा की थी। मन्त्र लेखन का औचित्य पूछा था। भाभीजी घोर गायत्री भक्ता हैं, उन्होंने लेखन का औचित्य तो बता दिया लेकिन गायत्री मन्त्र लेखन का औचित्य नहीं बताया। जोर देकर पूछा तो उनके गुस्से का सामना करना पडा- आप तो नास्तिक हो, किसी को मानते ही नहीं हो। धर्म कर्म क्या होता है, आपको क्या पता। पूजा पाठ, दान दक्षिणा से तो आपकी दुश्मनी है।
यही बात डायरी में लिख दी। अब बारी थी दूसरे गायत्री भक्तों के उबलने की। एक जिज्ञासा से उनके परिवार की बदनामी हो रही थी। कई लोग मैदान में कूद पडे। बात अब पूरे परिवार पर आ गई- नीरज ने हमारी मान्यता पर कैसे जिज्ञासा की? इसका इतना दुस्साहस!
आओ चलो, कुछ देर के लिये मान लेते हैं कि मैं गायत्री परिवार से जुडा हूं। लाखों लोगों की तरह मेरा भी विचार है कि यह परिवार वैज्ञानिकता और तर्क की बात करता है। नियमित गायत्री पाठ करना, ध्यान साधना करना मेरी दिनचर्या है। मुझ पर कोई संकट आता है, तो गायत्री देवी की और ज्यादा स्तुति कर लेता हूं, संकट टल जाता है। सबकुछ अच्छा चल रहा है।
अब गुरूजी ने एक सुझाव दिया कि मन्त्र पाठ की बजाय अगर मन्त्र लेखन करो, तो ज्यादा अच्छे तरीके से साधना होती है। मैं चूंकि एक ‘वैज्ञानिक और तर्कशील’ परिवार से जुडा हूं तो गुरूजी की बात पर आंख मीचकर यकीन नहीं कर सकता। प्रश्न उठाऊंगा कि ऐसा कैसे हो सकता है। गुरूजी ने उत्तर दिया कि करके तो देखो। मैंने करके देखा, पाया कि गुरूजी सही कह रहे हैं। गायत्री पाठ के माध्यम से साधना करते थे तो नींद आ जाती थी, अब नींद का झंझट खत्म।
कम्प्यूटर का जमाना है। मैं कम्प्यूटर पर लिखा करूंगा मन्त्र... खटर पटर... पूरे दिन। एक साधक के लिये इस खटर पटर में भी संगीत ढूंढना मुश्किल नहीं। संगीत भी और मन्त्र लेखन भी। बाहर रहूंगा तो मोबाइल पर लिख लिया करूंगा। चाहूं तो कॉपी पेस्ट भी कर सकता हूं लेकिन नहीं... काम इमानदारी से होना चाहिये। हर लाइन को अपने हाथों से लिखना है। मन किया तो कभी कभी कागज पेन का इस्तेमाल भी कर लिया करूंगा।
लेकिन नहीं, गुरूजी का अगला आदेश आया कि मन्त्र केवल मन्त्र पुस्तिका में ही लिखना है। इसकी लागत पांच रुपये है, लागत मूल्य पर सभी साधकों को यह पुस्तिका दी जायेगी। मैंने फिर प्रश्न उठाया कि गुरूजी, लिखना ही है तो कहीं भी लिखा जा सकता है, इस पुस्तिका पर ही क्यों लिखूं? गुरूजी ने उत्तर दिया कि बेटा, यह एक पवित्र कार्य है। घर में हवन करते हो, उसकी राख को कहीं भी तो नहीं फेंक देते। वह भी पवित्र होती है। इसी तरह लेखन भी पवित्र होना चाहिये। पुस्तिका भर जायेगी तो उसे बहते जल में प्रवाहित कर देना। इस उत्तर से पूर्ण सन्तुष्टि नहीं मिली। फिर भी सोचा कि पांच रुपये की ही तो बात है, चलो इसी में लिख लेते हैं।
पुस्तिका का पहला ही पृष्ठ खोला- संकल्प पत्र मिला- मैं संकल्प लेता हूं कि 108 रुपये दान दूंगा। मैं चूंकि ‘वैज्ञानिक और तर्कशील’ परिवार से जुडा हूं, इसलिये यहां भी तर्क करूंगा। गया फिर गुरूजी के पास। झिझकते हुए पूछा- गुरूजी, मन्त्र लेखन तो ठीक है, लेकिन 108 रुपये देने का संकल्प क्यों लूं? गुरूजी ने कहा कि बेटा, जबरदस्ती तो नहीं है, मन नहीं है तो मत लो। मैंने कहा- नहीं गुरूजी, ऐसी बात नहीं है। संकल्प लेने में मुझे कोई समस्या नहीं है लेकिन बस जिज्ञासा है कि क्यों लूं संकल्प? इसकी वैज्ञानिकता क्या है? आपने भी कुछ सोचा होगा, दस लोगों के साथ बैठकर विमर्श किया होगा, तभी संकल्प करा रहे हो। मुझे भी अगर पता चल जाये तो आनन्द आ जाये।
गुरूजी इस बात का क्या उत्तर देंगे, बाकी मित्रों पर छोड देता हूं।
रितु शर्मा की टिप्पणी आई, क्रोध साफ झलक रहा था। लग रहा है कि वे भी गायत्री साधक हैं। उन्होंने मन्त्र लेखन के औचित्य के बारे में लिखा- “गायत्री परिवार के संस्थापक पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य थे... उन्होंने किस उद्देश्य से गायत्री मन्त्र लिखने का प्रचार किया, यह अध्ययन का विषय है।” अर्थात उन्हें भी नहीं पता कि वे जो मन्त्र लेखन कर रहे हैं, क्यों कर रहे हैं? क्या ऐसे ही होते हैं वैझानिक और तर्कशील लोग?
उसी टिप्पणी में रितु ने लिखा- “अब ये कम पढे लिखे आर्य समाजियों का तर्क मत देना कि मूर्ति पर जल चढाने का क्या औचित्य...” साफ जाहिर है कि इनकी नजर में पृथ्वी पर एकमात्र पढी लिखी कौम गायत्री कौम ही है, बाकी सब या तो अनपढ हैं या कम पढे लिखे।
आखिर में क्रोध मिश्रित हास्य रस का भी इस्तेमाल किया है- “सालियों से चोंच लडाने या फेसबुक पर लडकियां ताडने से लाख गुना बेहतर है एक घण्टा गायत्री मन्त्र लिखना।”
इसके बाद अपने घनिष्ठ मित्र गायत्री के प्रचण्ड साधक उमेश जोशी जी की टिप्पणी आई। डायरी लिखते समय मुझे लगा था कि इसे पढकर वे क्रोधित हो जायेंगे और तुरन्त फोन करके अपना क्रोध मुझ पर उतारेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। टिप्पणी में मेरे सिर्फ एक ही प्रश्न का उत्तर दिया है- “मन्त्र लेखन से हमारा मनोबल मजबूत होता है।” शायद यह सही उत्तर हो। मनोबल मजबूत करने के लिये इंसान को किसी सहारे की आवश्यकता होती है, वो सहारा मन्त्र लेखन ही सही। लेकिन बाकी प्रश्नों के उत्तर नहीं मिले- उस पुस्तिका में ही मन्त्र क्यों लिखें और 108 रुपये का संकल्प क्यों लें?
बाकी और भी टिप्पणियां आईं लेकिन वे सब तमाशा देखने वाले थे। मेरी आलोचना भी की लेकिन बिना तर्क की आलोचना पर मैं कोई ध्यान नहीं देता।
पता चला कि किसी सन्दीप सचदेवा ने सन्दीप भाई के ब्लॉग पर टिप्पणी की- “अभी कल ही नीरज भाई फंस गये थे गायत्री मन्त्र को लेकर, जवाब भी नहीं बन रहा उनसे...” सब तमाशा देखने वाले हैं। खुद में इतनी तर्कक्षमता तो है नहीं कि मेरी जिज्ञासाओं का जवाब दे सकें। नीरज ने कुछ लिखा, रितु ने यह जवाब दिया, नीरज ने यह जवाब दिया, उसने यह कहा, नीरज फंस गया, उसे कोई जवाब नहीं सूझ रहा। इन लोगों की यही मानसिकता है। इतना ही शौक है दंगल में पडने का तो आओ, करो दो दो हाथ मुझसे। दूर बैठकर दंगल देखना बडा आसान लगता है सचदेवा साहब।
2. जब हर की दून था, उसी दौरान फेसबुक पर विद्या चौधरी का सन्देश आया कि अपने प्रोफाइल में अपना वह फोन नम्बर लिखो, जो चालू रहता हो। वर्तमान नम्बर बन्द है। जाहिर है कि यह हर की दून घाटी में फोन नेटवर्क न होने की वजह से बन्द था। जब नेटवर्क में आया तो मैंने जवाब दे दिया कि अब नम्बर चालू है।
सोचने लगा कि ये मुझसे क्यों बात करना चाहती हैं? उनका प्रोफाइल देखा तो मात्र दो ही व्यक्ति उनकी मित्र सूची में थे, उनमें से एक अपने घनिष्ठ मित्र डॉ करण चौधरी भी हैं। उनकी आयु 48 वर्ष है। मन में पहला ही विचार आया कि गायत्री मामले पर लताड मिलने वाली है। अक्सर व्यक्ति बुजुर्ग होने लगता है तो धर्म-कर्म की ओर अग्रसर होने लगता है। फिर सोचा कि शायद करण ने बताया होगा मेरे बारे में, कहीं रिश्ते विश्ते की बात तो नहीं करनी।
खैर, ना लताड मिली, ना रिश्ते की बात की। वे करण की माताजी हैं। उन्होंने मेरी डायरी पढी तो गायत्री वाला किस्सा भी पढा। उन्हें मेरे विचार तो पसन्द आये लेकिन एक हिदायत भी दी कि किसी को निशाना बनाकर मत लिखो। मैंने हामी तो भर ली लेकिन शायद इस हिदायत पर अमल न कर पाऊं।
3. मुकेश भालसे साहब की एक टिप्पणी देखी- वैष्णों देवी यात्रा पर की थी- ‘‘इस श्रंखला को पढकर लग रहा है कि आपके अन्दर भी पहले कभी आस्था की कोंपलें फूटी थीं लेकिन न जाने क्यों आपने उन्हें पल्लवित, पोषित होने देने के बजाय उनका गला घोंट दिया।”
भालसे साहब इन्दौर में रहते हैं। इनका एक छोटा सा पूर्ण परिवार है। अक्सर धार्मिक स्थलों पर भ्रमण करते रहते हैं। उनका पूरा परिवार मुझे मेरे यात्रा वृत्तान्तों के माध्यम से जानता है। लेकिन इन्हें हमेशा यही शिकायत रही है कि मैं पूजा-पाठ नहीं करता। इतना तो ठीक लेकिन इन कार्यों की आलोचना भी कर देता हूं। यही बात इन्हें आहत कर देती है।
अक्सर मुझे नास्तिक माना जाता है लेकिन मैं नहीं जानता कि मैं आस्तिक हूं या नास्तिक। कभी इन शब्दों के अर्थ पढे थे कि जो भगवान को मानता है, वो आस्तिक और जो नहीं मानता वो नास्तिक होता है। मैं वैसे तो भगवान को मानता हूं लेकिन अगर आस्तिक होने के लिये पूजा-पाठ, धूप-बत्ती, दान-दक्षिणा भी आवश्यक हैं तो मैं नास्तिक कहलाना पसन्द करूंगा। जब मैं किसी मन्दिर में एक रुपया भी देता हूं तो मुझे महसूस होता है कि मैं भगवान को नहीं दे रहा हूं। कभी पूजा करता हूं तब भी महसूस होता है कि भगवान की पूजा नहीं कर रहा हूं। लेकिन उसकी मौजूदगी अपने अन्दर हमेशा महसूस होती है। कदम कदम पर उसका मार्गदर्शन महसूस होता है। उसका प्यार महसूस होता है, उसकी डांट महसूस होती है। कभी पत्थर की मूरत को पूजने की कोशिश भी करता हूं तो महसूस होता है कि वो ऐसा करने से मना कर रहा है। मेरे मन में जो इस तरह के ‘नास्तिक’ विचार आते हैं, सब उसी के हैं। वो अन्दर बैठा मेरे हर क्रिया-कलाप को नियन्त्रित करता है।
हर व्यक्ति को उसने अद्वितीय बनाया है। अरबों व्यक्ति हैं धरती पर लेकिन कोई भी दो व्यक्ति एक जैसे नहीं हैं। हर कोई अद्वितीय है। हर व्यक्ति का सोचने का तरीका भी अद्वितीय है। आप जैसा सोचते हैं, पूरे विश्व में कोई भी दूसरा व्यक्ति वैसा नहीं सोच सकता। अगर समझदारी से काम नहीं लेंगे तो यही सोचने का तरीका मतभेद पैदा कर देता है। यह मतभेद महीन से लेकर बहुत बडा तक हो सकता है।
तो भालसे साहब, चार साल पहले के मेरे विचार आपके विचारों के काफी नजदीक थे, लेकिन आज यह नजदीकी घट गई है। दोनों के मतों में भेद यानी मतभेद बढ गया है। इसका अर्थ यह नहीं है कि चार साल पहले मेरे अन्दर आस्था थी और आज मैंने उनका गला घोंट दिया है। ना, ऐसा बिल्कुल नहीं है। मैं भी सही हूं और आप भी सही हैं। दुनिया में जो भी हो रहा है, उसे स्वीकार करते चलो।
9 अक्टूबर 2013, बुधवार
1. मैंने पहली तारीख से आज तक की छुट्टियां लगाईं थीं। हर की दून से सात की सुबह ही लौट आया लेकिन छुट्टियां रद्द नहीं कराईं। पिछले तीन दिनों से घर पर खाली पडा रहता हूं। पिछले पांच सालों में ऐसा मौका पहली बार मिला है कि मैं बिल्कुल खाली हूं। ना ड्यूटी है, ना कहीं भ्रमण। मौसम भी शानदार है। जबरदस्त आनन्द आ रहा है।
10 अक्टूबर 2013, गुरूवार
1. इस महीने की पहली ड्यूटी। कई बातें नई मिलीं। एक तो विपिन के लडकी हुई है। उन्हें मुबारकवाद दी। आशीष विभागीय लिखित परीक्षा में सफल हो गये हैं, अब बस इण्टरव्यू की बाधा शेष है। यह बाधा भी पार हो जायेगी और वे अभियन्ता से प्रबन्धक बन जायेंगे। उन्हें भी शुभकामना दी। हमारे यहां सात अभियन्ता हैं, कुछ वरिष्ठ कुछ कनिष्ठ। इनमें से पांच ने यह परीक्षा दी थी। मैं चाहता था कि पांचों ही इस परीक्षा को पास कर लें। इसकी वजह थी कि मैं इस परीक्षा में नहीं बैठा था बल्कि बैठने की योग्यता नहीं थी। अगर पांच अभियन्ता यहां से निकलते तो दो बचते और हमारी पूछ जो आज कुछ भी नहीं है, अचानक भयंकर रूप से बढ जाती।
11 अक्टूबर 2013, शुक्रवार
1. सुबह सवा छह बजे बारिश शुरू हो गई। मैंने नाइट ड्यूटी समाप्त ही की थी लेकिन अभी तक ऑफिस में ही था। एक किलोमीटर दूर रहने का ठिकाना है, साइकिल से आना-जाना होता है। बारिश रुक जायेगी, तब चला जाऊंगा।
लेकिन बारिश नहीं रुकी। सात बज गये, आठ बज गये, नौ बज गये और दस भी बज गये। जब भी कम होती, मैं निकलने की सोचता तो फिर बढ जाती। गडगडाहट के बीच बारिश होती ही रही। इतनी देर तक लगातार बारिश होना बहुत कम देखने को मिलता है और अक्टूबर में तो बिल्कुल नहीं। अगर पता होता कि यह रुकने वाली नहीं है तो मैं वहीं सो लेता।
13 अक्टूबर 2013, रविवार
1. आज दशहरा है। हमारे यहां मेट्रो कालोनी में भण्डारा है दोपहर को। लेकिन दोपहर होने से पहले केशव का फोन आया- सर, हमने हलवा-पूरी बनाये हैं। लेकर आ रहा हूं। मैंने मना कर दिया कि नहीं, हमारे यहां भण्डारा है, तू रहने दे। लेकिन वो नहीं माना। प्रताप नगर में रहता है, हमारे यहां से पांच छह किलोमीटर दूर। आज उसका अवकाश था, बावजूद इसके वो हलवा पूरी ले आया। भण्डारा जब घर पर ही आ गया तो नीचे जाने की क्या आवश्यकता?
केशव की गिनती हमारे यहां कुछ विशिष्ट कर्मचारियों में होती है। तीन तरह के बातूनी लोग होते हैं- प्रथम श्रेणी के बातूनी जिन्हें बात करनी है, कोई सुन रहा हो या नहीं। मध्यम श्रेणी के जिन्हें अगर लगता है कि कोई नहीं सुन रहा तो चुप हो जाते हैं, झेंप भी जाते हैं। तीसरे हैं सबसे घटिया श्रेणी के बातूनी जो जबरदस्ती अपनी बात सुनाते हैं। कोई अगर नहीं सुन रहा हो, तो उसे सम्बोधित करते हैं, पकडकर हिलाते हैं, जबरदस्ती।
केशव प्रथम श्रेणी का बातूनी है। एक खास बात और है कि अगर सामने वाला किसी कारण से इसके सामने से हट जाता है और बात बीच में रह जाती है तो भले ही दस दिन बाद मिले, मिलते ही बात ठीक वहीं से शुरू होगी जहां दस दिन पहले रुक गई थी।
2. अभिषेक साहब का फोन आया कि वे आज शाम पांच बजे मिलने आयेंगे। मैं नाइट ड्यूटी करके आया था। दोपहर बाद एक बजे तक भी जगा था, अब अगर सो जाऊं तो पांच बजे उठना और फोन उठाना भी नामुमकिन हो जायेगा, इसलिये पांच बजे तक जग लेता हूं। चार बजे सन्देश आया कि वे नहीं आयेंगे। मैं तुरन्त सो गया। आज फिर नाइट ड्यूटी जाना है।
14 अक्टूबर 2013, सोमवार
1. ‘गोदान’ पढी। प्रेमचन्द ने इसमें जो भी लिखा है, आज से 75 साल पहले की सामाजिक व्यवस्था थी। कुछ भी गलत नहीं लिखा है।
क्या कमी थी होरी के चरित्र में? मेरा बस चले तो मैं उसे भगवान राम के समकक्ष खडा कर दूं- मर्यादा पुरुषोत्तम। भीषण गरीबी में रहा, महाजनों के कर्ज तले रहा, लाठियां भी खाईं लेकिन फिर भी ताउम्र मर्यादायुक्त जीवन व्यतीत किया। भाई ने उसकी गाय को जहर देकर मार दिया और घर छोडकर भाग गया तो उसके परिवार को भी पाला। दाने और कपडे को मोहताज होने के बावजूद भी जरुरतमन्द को अपने घर में शरण दी। कोई ऐसा काम नहीं किया कि सामने वाला उंगली उठा सके।
अब आता हूं मुद्दे पर। उसे कभी कोई इज्जत नहीं मिली- ना घर में ना बाहर। एक नम्बर का मेहनती था, किसी का बुरा नहीं सोचता था, फिर भी हमेशा दुत्कार और लात ही उसके हिस्से आए। क्यों? क्योंकि राम एक राजा के घर पैदा हुआ था, जबकि होरी निपट कंगाली में। धन तय करता है कि आपकी समाज में कितनी इज्जत होनी चाहिये, आपके कार्य नहीं।
दूसरा चरित्र जिसने प्रभावित किया, वो है मालती। वह मेहता से भयंकर प्रेम करती है। मेहता जब उससे विवाह करने को कहता है, तो उसका जवाब था- मित्र बनकर रहना स्त्री-पुरुष बनकर रहने से कहीं अधिक सुखकर है... हमारी पूर्णता के लिये, हमारी आत्मा के विकास के लिये और क्या चाहिये? अपनी छोटी सी गृहस्थी बनाकर, अपनी आत्माओं को छोटे से पिंजडे में बन्द करके, अपने दुख सुख को अपने ही तक रखकर, क्या हम असीम के निकट पहुंच सकते हैं? ... जिस दिन मन में मोह आसक्त हुआ और हम बन्धन में पडे, उसी क्षण हमारी मानवता का क्षेत्र सिकुड जायेगा, नई नई जिम्मेदारियां आ जायेंगी और हमारी सारी शक्ति उन्हीं को पूरा करने में लगने लगेगी।
बिल्कुल सही कहा।
2. दीवाली का बोनस आया- 60 दिन की बेसिक सैलरी- तीस हजार से ज्यादा। पिछले साल 57 दिन की बेसिक सैलरी आई थी, तो साइकिल ले ली थी। इस बार पता नहीं क्या लूंगा। लेकिन एक बात और भी है। पांच साल होने को हैं यहां नौकरी करते करते लेकिन कभी भी लखपति नहीं बन पाया। नब्बे हजार तक भी पहुंच गया बैलेंस लेकिन छह अंकों में कभी नहीं पहुंच सका। भले ही पन्द्रह दिन के भीतर साठ हजार से ज्यादा आमदनी हुई हो, पन्द्रह दिन बाद तीस हजार और तैयार बैठे हैं लेकिन खर्चे भी मुंह बाये तैयार हैं। लखपति बनने का आनन्द पता नहीं कब मिलेगा?
डायरी के पन्ने-14 | डायरी के पन्ने-16
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ReplyDeleteयह काम तो हो गया अब बच्चू चूहों से बच कर रहना, जो जो भी यह फोटो देखेगा तुम्हे काटने की कसम तो लेगा ही , अब इंजेक्शन साथ लेकर चलना सफ़र करना ! और जाओगे भी कहाँ , जहाँ जाइएगा इन्हें पाइयेगा !!
ReplyDeleteसावधान , तुम पहले आदमी हो जिसने किसी चूहे को फांसी पर लटका दिया ....
ख़तरा ही ख़तरा चौधरी !!
ईद के दिन क़ुरबानी की फोटो।
ReplyDeleteआपकी डायरी भ्रमण से भी ज्यादा अच्छी लगती है। सच्चाई , निडरता , ईमानदारी - बहुत अच्छा।
Neeraj baba, aesa ganda kam mat kiya karo . Dekhana bhi achcha nahi lagta . Aap lakhapati pahale se hi ho aapke chahanevale lakho se bhi jyada hoge .
ReplyDeleteमूषकवध के लिए बधाई :) पता कर लेना कहीं आस पास कोई 'गणेश परिवार' से न हो :)
ReplyDeleteहम चूहे के आस पास फंसते तो पलायन ही कर जाते...एक पुरानी पोस्ट याद आई :
http://masijeevi.blogspot.in/2007/02/blog-post_06.html
तुम यार खुद के ब्लॉग पे कमेन्ट पाने के लिए कहीं भी मुंह मारने लग जाते हो....
Deleteareey bhaiya yeh kya kar dala Menka gandhi case kar degi tumhare upar..............
ReplyDeletehata lo is photo ko
bharat ka samvidhan sabhi ko barabari ka adhikar deta hai. aap par dhare 302 keoin na lagayi jayeeeeeeee???????????? jabab chahiye.
ReplyDeletesaja do, saja do.......................... all india mushaak association
Delete"आपकी डायरी भ्रमण से भी ज्यादा अच्छी लगती है" बिल्कुल सही बात कही है सर्वेश जी ने .................
ReplyDeleteएक समय था जब महबूबा के प्रेमपत्र का इंतज़ार रहता था, और अब नीरज की पोस्ट का.......
आप की डायरी पढ कर आन्नद आ जाता है. चुहॉ वध के पिछे की कहानी मजेदार लगी.
ReplyDeleteमुझे इतने बडे चूहों को चप्पलों से मारना आसान लगता है। उसे खुली जगह की तरफ भागने पर मजबूर करता हूं और एक सटीक वार चप्पल का बस। छोटे चूहे चुहिया तो मैं भी हाथ से ही पकडता हूं।
ReplyDeleteबाकि पोस्ट अभी पढ ही रहा हूं।
बिना इजाजत आपकी सरहद में घुसने वाले को ये सजा तुरंत ना दी जाती तो यह बडी जल्दी अपनी तादाद बढा कर आपका जीना मुहाल कर देता।
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ReplyDeleteइन मन्त्र लिखी कापियों को जल में प्रवाहित करेंगे। कभी सोचा है स्याही में कौन से कैमिकल होते हैं और जलीय जन्तु जब उस स्याहीयुक्त कागज को खायेंगे या पानी में घुलने पर उनके शरीर पर क्या प्रभाव पडेगा?
ReplyDeleteभाई चूहे की फोटो देखते समय यह दया भाव रतोंधी से ग्रसित हो गया था क्या....
DeleteGood Work Chuha mar diya.......Yogendra Solanki
ReplyDeleteनीरज लखपति तो बन ही गये हो एक लाख किलोमीटर से ज्यादा रेल यात्रा जो हो गयी है। और हाँ Rs.96000/- से ज्यादा का आकंडा तो हम भी पार नही कर पाये चक्कर तो हम भी लगे ये सँख्या 100000/-के पार पहूँच जाये...
ReplyDeleteलखपति न सही पर लाखों पाठकों के प्रिय अवश्य बनेंगे, निर्बाध मन को व्यक्त करते रहिये, सभी विषयों पर।
ReplyDeleteneeraj babu 1 nov tak sab kharchon ko chuhe ki tarah latka do
ReplyDeletephir dekhen kaun rokega 100000 pahunchne se..............
Chaudhry sahab Naraz hone ki koi aawaksta nahi hai.humne tou aapke blog padne ke liye hee blog banya hai,itna sundar likhte ho bhut accha lagta hai.PAR jo sahi nahi hai uska khul kar veerodh hai,rahi baat Dangal mein utarne kee?.tou bhaiya jee aap ho GOVT ke Damaad ji,aapke paas bhut samye hai. par yanha hai Lala jee ki nokari wanra-tarak vitark bhi kar lete aapse.aapko ek link de raha hoon GYATRI MANTRA ke baare m or kyon likha jaata hai uske baare m bhi,kirpya apni jigaysa shant kare.Dharam shardha ka vishey hai shanka kaa nahi, Shukar karo aap hindu ho,warna fatwa aa jaata.or ho sakta hai inaam dhari bhi ho jaate. ek hi gujarish hai aapse 2 line kam likh liya karo par kisi ka mann mat dukhaaya karo.mein GYATRI MANTRA nahi likhta hoon,naa mein Gyatri Pariwaar se hoon.par itna zaroor jaanta hoon ki iswar ko maanne ki sabki apni-apni bhawanye hai hame unka samman karna chaiye.
ReplyDeletehttp://gayatrisadhana.com/2011/shatabdi-mantralekhan-abhiyan.pdf
http://ajayghayal.wordpress.com/2010/12/07/magical-powers-of-gayatri-mantra-achieve-success-anything/
भाई पता है तुम्हारी किसी और से क्यूँ नहीं बनती..(जैसा कि तुमने ही कहा था...) क्यूंकि तुम कुतर्क करते हो.... डायरी वाली बात यहाँ फिट नहीं बैठी .... क्यूंकि डायरी लिखने वाले डायरी का पम्पलेट बनाकर छपा नहीं करते... यदि पर्सनल है तो ड्राफ्ट बनाकर मेल पे भी लिखी जा सकती है... नासमझ भी समझता है की लाईक पाने का तरीका है ब्लॉग पे छापना...
ReplyDeleteआप खुद तो दंगल कर लो पहले... आपसे तो खुद एक भी बात का जवाब बनते नहीं पडा..... वस्तुतः बात श्रद्धा की नहीं.. बात पैसों की थी... 108 रूपये लिखने के मिल रहे होते तो सारी कापियां ये ही भर देते... पर यहाँ तो उल्टा हो रहा था ... पैसे भी दो और लिखो भी... तो तर्क आड़े आ गया.... जो आदमी यात्रा में भी मंदिरों में फ्री का खाना कबाड़ने की सोचे उससे पैसे माँगना तो घनघोर पाप हो गया.... यह बात इसलिए कही की गोकर्ण वाले मंदिर में पैसों में भोजन सुनकर आपको झटका लगा था ... अब आप जैसे सभी फ्री में खाने पहुँच जाएँ ... और आप ही की तरह पैसा देने वाले को मूर्ख घोषित कर दें... तो फिर पुजारी मंदिर की ईंटें बेचकर तो भोजन कराने से रहा.... और धनदान अन्नदान के बराबर नहीं तो एक बार सौ पचास किलो गेंहू देकर तो देखते... फिर पुजारी सिर्फ पैसे देने पे ही इंसिस्ट करता तो बात होती....
ReplyDeleteछत्तीसगढ़ वाले डब्बू जी की याद दिला दी.... उनके तर्कों के आगे पोस्ट ही डिलीट करनी पड़ गयी थी.....
Deleteघ्रणित। कृपया यह चित्र हटायें। आपके पास अच्छा लिखने के लिए और भी बहुत कुछ है।
ReplyDeleteLajawab Post...Lekhan ka chutila andaaz man moh gaya...Hum bhi aapki tarah ke nastik hain...n jaane kab se...Bahut Badhiya Neeraj ---tum vilakshan ho...
ReplyDeleteyou should be punished for what you did.............bhawan sab dekhta hai
ReplyDeleteyou should be punished for what you did.............bhawan sab dekhta hai
ReplyDeleteचुन्हे चूहे को मारना गलत था मैं कभी चुन्हो को नहीं मारता। बल्कि चूहेदान से चूहों को पकड़कर दूर छोड़ देता हूँ। एक बार चूहों को पकड़ने के लिए मैंने चुहेदन लाग्वाया था अपने ऑफिस में। अगले दिन का अवकाश था। वर्किंग डे में ऑफिस पहुचे तो एक चूहा उसमे मरा पड़ा था। भूख से तड़प तड़प कर मर गया होगा बेचारा। इस घटना से कई दिनों तक परेशां रहा और उसके बाद चुहेदन लगाने से पहले छुट्टी का ध्यान रखा
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