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डायरी के पन्ने- 14

[डायरी के पन्ने हर महीने की पहली व सोलह तारीख को छपते हैं।]

16 सितम्बर 2013, सोमवार
1. एक मित्र ने कहा कि आप दिल्ली में रहते हैं, पढे लिखे हैं फिर भी जातिवाद और अलग-अलग धर्मों की बात करते हैं। अगर कोई छोटी जाति का होगा तो क्या आप उससे बात नहीं करेंगे? या आपके धर्म का नहीं होगा तो क्या आप उसका अपमान करेंगे?
हालांकि मैंने उन्हें इस बात का स्पष्टीकरण दे दिया है, यहां उसका उल्लेख करना आवश्यक नहीं लेकिन इस बात ने मुझे कुछ सोचने को मजबूर कर दिया। वो यह कि मैं नीरज जाट के नाम से लिखता हूं। क्या ‘जाट’ शब्द लगाना अनिवार्य है? इस शब्द से जातिवादिता झलकती है। इसे हटाने का मन बना लिया। सोच लिया कि अब नीरज कुमार के नाम से लिखा करूंगा।
लेकिन नहीं हटा सका। असल में अब इस शब्द से मुझे लगाव हो गया है, बहुत ज्यादा लगाव। अब यह मेरे लिये जातिसूचक नहीं रहा। पांच साल पहले जब मुझे इस दुनिया का कुछ भी नहीं पता था, तब ब्लॉग बन गया, संयोग से। यह भी नहीं पता था कि आगे चलकर इस ब्लॉग के सहारे मैं कहां पहुंचूंगा। बस ऐसे ही बन गया, संयोग था। उस समय नाम के आगे ‘जाट’ लगाने की धुन थी। मेल आईडी बनाता था, उसमें ‘जाट’ लिख देता था। इसी तरह ब्लॉग पर भी ‘जाट’ लिखा गया। तब यह मेरे लिये जातिसूचक शब्द हुआ करता था।
आज... पांच साल बाद... मुझमें जमीन आसमान का परिवर्तन हुआ है। विचारों में परिवर्तन हुआ है। मैं आज पांच साल पहले वाला नीरज नहीं हूं। अब ‘जाट’ के भी मायने बदल गये हैं। अगर पांच साल पहले मैं मजे-मजे में ‘जाट’ की बजाय ‘गोबरसिंह’ लिख देता तो शर्त लगा सकता हूं कि आज ‘गोबरसिंह’ से भी उतना ही लगाव होता, जितना कि ‘जाट’ से है। यह शब्द पांच सालों से मेरे साथ है। इसने मुझे फर्श से अर्श तक पहुंचते देखा है। बडा मुश्किल है यह साथ छूटना।
2. ‘जिप्सी: भारत की विस्मृत संतति’ पढी। चमनलाल द्वारा मूल रूप से अंग्रेजी में लिखी इस शोध पुस्तक का हिन्दी अनुवाद डॉ. सत्यपाल रुहेला ने किया है। ज्यादातर शोध पुस्तकों की तरह यह भी काफी बोर करती है। कभी किसी जमाने में भारत से बहुत से लोग यूरोप की तरफ पलायन कर गये। वे आज भी हैं और वहां खानाबदोश जीवन जीते हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध से पहले उन पर बहुत अत्याचार भी हुए। सभ्य समाज ने उन असभ्यों को अपने यहां से खदेडा। फिर भी वे जीवित रहे। उनका पता उनकी बोलचाल से लगता है। उन्हें रोमनी कहा जाता है। उनकी भाषा में संस्कृत के शब्दों की भरमार है। उनका उल्लेख राहुल सांकृत्यायन ने भी अपनी रूस यात्रा के दौरान किया है।

17 सितम्बर 2013, मंगलवार
1. आज विश्वकर्मा जयन्ती है। प्रत्येक प्रतिष्ठान में इस दिन उनकी पूजा होती है। हमारे यहां भी पूजा का आयोजन हुआ। मैं रात्रि ड्यूटी करके आया था। सो गया। यार दोस्तों ने फोन भी किया लेकिन नहीं उठ सका। एक दावत का नुकसान हो गया।

18 सितम्बर 2013, बुधवार
1. इण्डिया हेबीटेट सेंटर गया। वहां पर्वतारोहियों का एक कार्यक्रम था। आशु एम यानी आशुतोष मिश्रा एक पर्वतारोही हैं। इसी साल जून में वे उत्तरकाशी के तिब्बत से लगते इलाकों में पर्वतारोहण के लिये गये थे। उसी की एक प्रेजेण्टेशन थी आज।
आशु का नाम पहली बार मुझे एकलव्य भार्गव ने बताया। उन्होंने फेसबुक पर अपनी वॉल पर लिखा था कि उन्हें मात्र दो ही इंसान पसन्द हैं- नीरज और आशु। गौरतलब है कि छोटे भाई का नाम भी आशु है। मैं हैरत में पड गया कि इन्हें नीरज पसन्द है, इतना तो ठीक है लेकिन आशु कैसे पसन्द? फिर साहब बंगलौर में रहते हैं, कभी मेरी इनकी बात भी नहीं हुई, इन्हें आशु के बारे में कैसे पता चला। खैर, जल्दी ही स्पष्ट हो गया कि वे पर्वतारोही आशु एम की बात कर रहे हैं।
उन्होंने आशु को राहुल सांकृत्यायन से भी महान बताया। मैंने तब तक राहुल की जीवनी नहीं पढी थी। लेकिन आशु के बारे में जानने के बाद मैंने उनका विरोध भी किया कि राहुल तिब्बत जाया करता था जबकि आशु एक पर्वतारोही है। राहुल पर्वतारोही नहीं था। वह एक घुमक्कड था। दोनों में कोई साम्य है ही नहीं।
मुझे पर्वतारोहण से बहुत डर लगता है। कभी नहीं सोचा कि पर्वतारोहण करूं। हां, ट्रैकिंग अवश्य अच्छी लगती है। आशु इस अभियान में नगुर्चे नामक चोटी पर चढे पूरी टीम के साथ। रास्ते में जनक ताल पडता है। मेरी पहुंच जनक ताल तो है लेकिन उससे आगे नहीं। क्योंकि ताल से लगता ही जनक ग्लेशियर है। ग्लेशियर पर पहला कदम रखना अर्थात पर्वतारोहण का पहला पाठ। दूसरी बात कि पर्वतारोहण एक टीम गेम है। मेरा दो लोगों के साथ होने से ही दम घुटने लगता है। तीसरी बात कि वे नौ लोग गये थे अभियान पर। खर्चा आया लगभग पांच लाख रुपये यानी प्रति व्यक्ति पचास हजार से भी ज्यादा। हे भगवान!
यहीं जयन्त नौटियाल साहब मिले। एक ट्रेक का न्यौता दिया। गढवाल में नीती की तरफ चांगबांग ग्लेशियर चलने का। यह इलाका चीन से लगता हुआ है, इसलिये परमिट की जरुरत होती है। इतना होता तो ठीक था, लेकिन अगर चांगबांग जा रहे हैं तो जोशीमठ से परमिट तब मिलेगा जब कोई गाइड साथ होगा। जयन्त साहब ने एक गाइड से बात भी कर रखी है। लेकिन वह एक हजार रुपये प्रतिदिन के लेगा। साहब को यह रेट महंगा लग रहा है, जाहिर है मुझे भी महंगा ही लगेगा। वे इस महीने के आखिर में निकलने की योजना बना रहे हैं। हालांकि मुझे भी मध्य अक्टूबर से पहले पहले सप्ताह भर की छुट्टियां लेनी पडेंगी, इसलिये उनके साथ जाने के बारे में सोचा जा सकता है।

19 सितम्बर 2013, गुरूवार
1. ‘इकबाल’ फिल्म देखी। आनन्द आ गया। हर अभिभावक को इसे देखना चाहिये। खासकर उन्हें जो अपने बच्चों को अपनी सम्पत्ति समझते हैं- जैसा हम चाहें अपने बच्चों का इस्तेमाल करें। साथ ही एक सीख और मिलती है कि अगर जिन्दगी में आगे बढना है, कुछ करके दिखाना है, अपने मन की करनी है तो अभिभावकों की, जन्म देने व बडा करने वाले मां-बाप की अवहेलना करनी पडेगी। मां-बाप केवल दिखावा करते हैं कि बच्चा जिन्दगी की ऊंचाईयों को छुए। असल में उनका मकसद होता है कि बच्चा हमसे ऊपर न उठ जाये ताकि पूरी जिन्दगी बच्चों से कहा जा सके- मैं तेरा बाप हूं।
2. भगवान के बारे में वैसे तो अमित के विचार बिल्कुल मेरे जैसे हैं। लेकिन उसकी घरवाली गायत्रीणी हैं यानी गायत्री भक्ता हैं। इसलिये उनके कोप से बचने के लिये अमित हमेशा मेरे सामने गायत्री की महिमा करता रहता है, अपनी आत्मा के विरुद्ध जाकर। आज अच्छा खासा वाद-विवाद हो गया।
खाना खाते समय भाभी ने अमित से कहा कि आप भी अधिकतम संख्या में गायत्री मन्त्र लिखो। असल में गायत्री ट्रस्ट वालों की एक योजना है मन्त्र लेखन की। मैंने मन्त्र लेखन का औचित्य पूछा तो भाभी ने बताया- कंठस्थ करने की अपेक्षा किसी बात को अगर लिखा जाये तो वह जल्दी और स्थायी रूप से याद हो जाती है। आपने अपने छात्र जीवन में इस बात को महसूस किया होगा। इसलिये गायत्री मन्त्र लेखन परियोजना शुरू की गई है। जाहिर है मैं इस बात का विरोध ही करूंगा लेकिन विरोध करने के लिये भी तो तर्क चाहिये। मैं चुप रहा और तर्क ढूंढता रहा ताकि धीरे से अपनी दो-चार बातें कह दूं और विस्फोट कर दूं।
अमित ने कहा कि मैं ऑफिस में लिख लिया करूंगा मन्त्र। भाभीजी की आंखें लाल हो गईं- वहां आपका ध्यान अपने काम पर रहेगा, आप कैसे पूर्ण समर्पण से मन्त्र लिख सकते हैं? अमित ने टालने वाले अन्दाज में कहा- मुझे इतना समय मिल जाता है कि मैं निश्चिन्त होकर कुछ समय बैठ सकूं। भाभीजी फट पडीं- नहीं, आप यहां घर में बैठकर एक घण्टे तक मन्त्र लिखा करोगे। इधर मुझे पता है कि अमित घर पर बैठकर अपने कीमती समय को मन्त्र लिखने में नष्ट कभी नहीं करेगा।
जब मामला मेरी समझ में आने लगा तो मैंने कहा- नहीं, कोई औचित्य नहीं है इस तरह मन्त्र लिखने का।
भाभीजी ने जवाब दिया- भैया, आप लेखन की महिमा का कैसे निरादर कर सकते हो? आप स्वयं एक लेखक हो।
-हां, हूं। लेकिन मैं एक ही बात को बार बार नहीं लिखा करता। हर बार कुछ नया लिखता हूं। लेखन बेशक दुनिया की सर्वश्रेष्ठ क्रियाओं में से एक है लेकिन तभी, जब आप कुछ नया करते हो। गायत्री मन्त्र लेखन... मात्र एक लाइन का मन्त्र... हजारों लाइनें लिखे जाओ इसी की... क्या होगा इससे? बच्चा जब लिखना सीखता है तो उसे कापी के एक पृष्ठ पर सबसे ऊपर ‘क’ लिखकर दे दिया जाता है कि बेटा, अब पूरे पृष्ठ पर इस ‘क’ को देखकर लिखे जाओ। अगले दिन मास्टरजी उसे चेक करते हैं। बच्चे को डांटते हैं कि तूने इसकी पूंछ सीधी कर दी, पेट बढा दिया, ऊपर डण्डा भी नहीं लगाया। अगले दिन फिर से वही क्रिया। ... आप इसी तरह गायत्री मन्त्र लिखे जा रहे हो। कल क्या कोई मास्टर चेक करेगा कि आपने ॐ की पूंछ ज्यादा लम्बी कर दी, स्वः में दो बिन्दी नहीं लगाई?
मन्त्र असल में लिखे नहीं जा सकते। उनका केवल सही उच्चारण ही किया जा सकता है। आप गायत्री परिवार से जुडे हो, इस मन्त्र का सही उच्चारण क्या है, आपसे बेहतर कोई नहीं जानता। फिर लिखना क्यों?
मान लो कि लेखन आवश्यक है तो गायत्री मन्त्र लेखन ही क्यों? कोई अंग्रेजी की पुस्तक उठाओ, उसका हिन्दी अनुवाद कर डालो। कोई पुराण उठाओ, उसे अपने तरीके से पुनः लिख डालो। आप एक ग्रामीण महिला हो, लोकगीत ही लिख डालो। आपका ध्यान अगर लेखन से ही केन्द्रित होता है तो यकीन मानो, इनसे भी अच्छा केन्द्रित होगा।
फिर भी अगर गायत्री मन्त्र ही लिखना है तो नई कापी का प्रयोग मत करो। आपको अपने लिखे हुए मन्त्रों को पढना नहीं है, इसलिये पुरानी रद्दी कापी पर भी लिख सकते हो। अखबार पर लिख सकते हो। अखबार उठाओ, वहां मोदी की खबर छपी मिलेगी, अमेरिका की खबर छपी होगी, उनके ऊपर लिख दो। आपको पढना तो है नहीं। नई कापी पर लिखोगे, तब भी नहीं पढना। सोचो, कितना कागज बचेगा!
अगले दिन मुझे उनकी मन्त्र लेखन पुस्तिका हाथ लगी। देखते ही मैं हैरान रह गया- इतना बडा धन्धा चला रखा है इन्होंने? करोडों का काम.. खर्च कुछ नहीं.. मात्र आमदनी ही आमदनी। गायत्री ट्रस्ट ने बाकायदा एक पुस्तिका छपवा रखी है। इसका मूल्य है 108 रुपये। एक पुस्तिका में 2400 बार लिखा जा सकता है और यह भी कहा गया है कि इसे यहीं तक सीमित न मानें। अर्थात पुस्तिकाओं का टीला लगाते जाओ और हमारे खाते भरते जाओ। उन्होंने इस अभियान में 50 लाख भागीदारी की सम्भावना जताई है। अर्थात पचास करोड का सीधा सीधा फायदा। साथ ही एक घिसी-पिटी उक्ति भी लिखी है- बिना दान के जप साधना- मन्त्र लेखन का पुण्य नहीं मिलता। एक अपील भी की है कि इस काम के लिये प्रतिदिन एक घण्टा अवश्य निकालें।
एक घण्टा प्रतिदिन? इतनी बडी समयराशि? लाखों गायत्रीभक्त ऐसे हैं जो अवश्य निकालते होंगे इस समय को। ऐसे लोगों को क्या कहूं जो एक व्यापारी पर बिना प्रश्न उठाये मात्र उसी के लाभ के लिये कार्य करते हैं?
अरे यह क्या? पुस्तिका अभी मेरे सामने औंधे मुंह पडी है। इसके पीछे वाले पृष्ठ पर लिखा है- सहयोग राशि पांच रुपये। फिर वो 108 क्या है?
असल में इस पुस्तिका का मूल्य पांच रुपये है। जब इसका मुखपृष्ठ उलटेंगे तो पहला ही पृष्ठ संकल्प पत्र है जिसमें इन तथाकथित साधकों से संकल्प कराया गया है कि मैं 108 रुपये अनुदान दूंगा। इस निर्वाह में कभी चूक नहीं होगी और इसके स्तर पर मैं क्रमशः प्रगति करने का संकल्प लेता हूं। 7 बैंक खाते नम्बर लिखे हैं, मनीऑर्डर भी कर सकते हैं 108 रुपये को।
हे भगवान! कुछ लोग कितने गिरे हुए हैं जो कभी अपनी अक्ल नहीं लगाते। एक व्यापारी ने एक आदेश दिया और लाखों लोग उस आदेश को बिना प्रश्न उठाये मानते चले जाते हैं। ऐसे लोगों के लिये मेरे पास एक ही शब्द है- मूर्ख।

20 सितम्बर 2013, शुक्रवार
1. पिताजी का फोन आया कि मैं परसों गांव चला आऊं। मां का श्राद्ध है। परम्परा है कि पहला श्राद्ध मुखाग्नि देने वाले पुत्र के हाथों किया जाता है। मैंने हामी भर दी।
अब सोच रहा हूं कि ना जाऊं। इसके कई कारण दिख रहे हैं। ऐसा नहीं है कि मां से मुझे प्यार नहीं था। असल में मुझे आज तक सिर्फ एक ही इंसान से प्यार मिला है। वो थी मां। वह एक नम्बर की स्वाभिमानी महिला थीं। वहीं से मुझमें स्वाभिमान आया है। भीषण तंगी के दिनों में अगर किसी ने उनकी तरफ आंख भी उठा दी हो, वह आज तक उन्हें याद था। उस दौर में हमें हर तरफ से दुत्कारा ही जाता था। गरीबों की कद्र है ही कहां? मां ने हर दुत्कार को याद रखा।
सब मुझे भी याद है। आज जब वो दौर गुजरे जमाने की बात हो गई। हम अपने पैरों पर खडे ही नहीं हुए, बल्कि मजबूती से जम भी गये। आज वही समाज हमारे कन्धे से कन्धा मिलाने में फख्र महसूस करता है, जो उस जमाने में दुत्कारा करता था। मुझे आज भी नफरत है उस समाज से।
पहला श्राद्ध मुखाग्नि देने वाले बेटे के हाथों होना चाहिये, यह नियम भी उसी समाज का बनाया हुआ है। एक कारण यह है इस नियम को न मानने का। दूसरी बात कि धीरज उन्हें मुखाग्नि नहीं दे सका। कम से कम पहला श्राद्ध तो कर ही सकता है। उसकी भी तो मां थी वह।
नहीं जाऊंगा गांव। अगर जाऊंगा तो मुझे ही श्राद्ध करना पडेगा। दो दिन बाद चला जाऊंगा।
2. फेसबुक पर एक कन्या का सन्देश आया, नये प्रोफाइल फोटो को देखकर जिसमें मैं लाल टी-शर्ट पहने कर्नाटक के जोग प्रपात के सामने खडा हूं- “यार तुम अचानक इतने हैण्डसम कैसे हो गये? आज मैं तुम्हारे पिक्स देख रही थी ... के साथ। मेरी तो नजर ही फिसल गई। मुझे लिटरली विश्वास नहीं हो रहा है कि ये तुम हो। ब्यूटोक्स या कॉस्मेटिक सर्जरी कराई है क्या? हमने 30 का कहा था और तुम सीधे 20 के दिखने लगे। ओ माई गॉड! यह सीरियसली तुम्हारी बिना फोटोशॉप की हुई पिक्चर है क्या? लेकिन सारे रिंकल्स कहां गये? अचानक इतना हैण्डसम? राज बताओ। m literally flat over dat pic in red t shirt…”
अंग्रेजी कबाडा कर देती है। अगर मैं ‘लिटरली’, ‘रिंकल्स’ और `flat over’ का अर्थ समझ जाता तो आनन्द और ज्यादा आता। लेकिन इतना तो समझ ही गया कि छोरी मेरी तारीफ कर रही है। जाटराम के इतिहास में शायद पहली बार ऐसा हुआ है कि किसी कन्या ने तारीफ की हो। वाह! मजा आ गया। ऐसी बातें हर दूसरे तीसरे दिन पढने सुनने को मिल जाये तो...।

21 सितम्बर 2013, शनिवार
1. इस महीने मुझे तीन बार ओवरटाइम करना पडा, इसलिये तीन छुट्टियां बन गईं। ये छुट्टियां मुझे अक्टूबर के प्रथम पखवाडे में लेनी पडेंगी। यानी कहीं घूमने जाना पडेगा। मणिमहेश के बारे में सोच रहा था लेकिन आज दिल्ली में बारिश हो गई। अक्टूबर में मैं वैसे तो उच्च हिमालयी क्षेत्रों में घूमना पसन्द नहीं करता, फिर इस बारिश ने और कबाडा कर दिया। दिल्ली में बारिश हो रही है, तो वहां बर्फ ही पड रही होगी।
क्यों न ट्रेन यात्रा की जाये? असोम चलते हैं। योजना बनाई। दो घण्टे लगे मात्र इस बात की योजना बनाने में कि बराक घाटी रेलवे पर यात्रा की जाये। यह मीटर गेज की लाइन असोम के लामडिंग स्टेशन से शुरू होती है और सिल्चर व अगरतला पहुंचती है। दिल्ली से सुबह ही निकलना है इसलिये नॉर्थ ईस्ट एक्सप्रेस से उत्तम ट्रेन दूसरी कोई नहीं। इसमें दिल्ली से गुवाहाटी तक वेटिंग थी लेकिन दिल्ली से इलाहाबाद और इलाहाबाद से गुवाहाटी तक उपलब्ध। मैंने दो खण्डों में आरक्षण कर लिया। वापसी के लिये सीटें दिख रही हैं। अब आराम से बैठकर पूरी योजना को मूर्त रूप दूंगा।

22 सितम्बर 2013, रविवार
1. शंकर राजाराम शाम को मेरे पास आये। उनका एक बैग हमारे यहां रखा हुआ था। वे हाल ही में वैष्णों देवी व स्पीति घाटी से घूमकर लौटे हैं। अब वे एक ग्रुप के साथ अमृतसर जायेंगे। वे साठ साल से ऊपर के हैं, कुंवारे हैं इसलिये कोई पारिवारिक जिम्मेदारी नहीं है। लेकिन यह बात हजम नहीं हो रही कि एक ऐसा इंसान जिसने घूमने में सारी जिन्दगी खपा दी हो, हाल ही में वैष्णों देवी और स्पीति घूमकर लौटा हो, अब एक टूर ऑपरेटर के साथ अमृतसर जायेगा और फिर नौ देवियों के दर्शन करेगा हिमाचल में। एक घुमक्कड के लिये यह अपने बूते की बात है लेकिन अमृतसर जैसी साधारण जगहों के लिये भी गाइड की जरुरत? वे घुमक्कड नहीं हैं। वे एक पर्यटक हैं।

23 सितम्बर 2013, सोमवार
1. एक फिल्म देखी- बैण्ड बाजा बारात। फिल्म की कहानी ही अच्छी नहीं लगी- शादियां करा रहे हैं। लेकिन इस फिल्म में मुझे मेरी भी झलक दिखाई दी। जब लडकी लडके को प्यार करने लगी तो लडके ने कोई भाव नहीं दिया। अपने बिजनेस को बढाने में लगा रहा। लेकिन जब लडकी उससे दूर होने लगी तो उसे होश आया और उसके लिये पागल हो गया। इधर भी कुछ ऐसा ही मामला चल रहा है। एक लडकी जो मुझसे प्यार करती है, मैं उसे कोई भाव नहीं दे रहा हूं। एक दिन ऐसा भी आयेगा, जब वह मुझसे प्यार नहीं करेगी, मुझसे दूर होने लगेगी। आखिर वह गृहस्थी बसाने के लिये मुझे प्यार करती है, जब उसे इसकी सम्भावना नहीं दिखेगी तो उसे इसका विकल्प सोचना पडेगा। अगर फिल्मों में सच्चाई होती है तो तब मेरा हाल फिल्म वाले लडके की तरह हो जायेगा। कितना भयंकर भविष्य है मेरा!

24 सितम्बर 2013, मंगलवार
1. कल अवकाश है इसलिये आज गांव जाऊंगा। डेढ बजे शाहदरा स्टेशन पहुंच गया। इरादा तो बस से जाने का था लेकिन जब निकलते निकलते एक बज गया, पौने दो बजे ट्रेन है तो क्यों बस में साठ रुपये लगाये जायें? पन्द्रह रुपये में जायेंगे। हाल ही में मेरठ रूट पर एक नई ट्रेन चली है दिल्ली-अम्बाला इण्टरसिटी। यह एक एक्सप्रेस गाडी है और इसका समय पैसेंजर से बीस मिनट पहले ही है। यात्रियों के साथ एक पंगा यह है कि सभी यात्री पैसेंजर का टिकट लिये प्लेटफार्म पर खडे होंगे। जब उनके सामने उसी रूट से जाने वाली एक्सप्रेस खडी होगी तो वे बेहिचक उसी में सवार हो जायेंगे। फिर बेचारों पर जुर्माना लगेगा। एक्सप्रेस नई चली है इसलिये किसी को पता भी नहीं होगा इस बारे में। लेकिन एक्सप्रेस मेरठ छावनी पर नहीं रुकती, इसलिये मेरे किसी काम की नहीं। एक्सप्रेस में जितने भी यात्री बैठे थे, ज्यादातर पैसेंजर का टिकट लेकर ही बैठे होंगे। उधर दस मिनट बाद जब पैसेंजर आई तो वह सामान्य से ज्यादा खाली थी।
2. मौसम भयंकर उमस वाला है। शाम को जब बिजली चली गई तो यह और भी भयंकर हो गया। अब कल सुबह छह बजे बिजली आयेगी। ऊपर छत पर खाट बिछा ली, तब जाकर कुछ राहत मिली। सुबह पांच बजे बारिश हुई तो आंख खुली। ठीकठाक बारिश हो गई। मौसम भी ठण्डा हो गया। अगले दिन जब फिर छत पर सोया तो चादर में सर्दी लगी।

25 सितम्बर 2013, बुधवार
1. ताऊजी आये और मुझे अलग कमरे में बुलाने लगे। समझ गया कि क्या बात करेंगे। वही हुआ। कहने लगे कि अब एकदम उपयुक्त समय है विवाह का। रिश्ते भी आ रहे हैं, विलम्ब करेंगे तो रिश्ते आने बन्द हो जायेंगे, कुपत हो जायेगी। तू विवाह क्यों नहीं करना चाहता? मैं चुप रहा। इस प्रश्न का उत्तर दो मिनट में नहीं दिया जा सकता। उत्तर दूंगा तो तुरन्त दस प्रश्न और खडे हो जायेंगे जिनका भी उत्तर देना आवश्यक होगा। उस दिन चार घण्टे लग गये थे जब पहली बार मैंने पिताजी और ताईजी को अपने फैसले से सन्तुष्ट किया था।
ताऊजी फिर बोले- “देख, तेरी निगाह में हो कोई लडकी तो बता दे। बस जाट की होनी चाहिये, फिर आगे हमारा काम। लडकी के घरवाले यहां आ सकें तो ठीक, नहीं तो हमें पता दे देना, हम चले जायेंगे। भला तेरी पसन्द की लडकी और हमारी पसन्द की लडकी में क्या मुकाबला?”
मैं इन मुद्दों पर केवल पिताजी और भाई के साथ बैठकर ही बात करना पसन्द करता हूं। हालांकि ताऊजी एक इण्टर कॉलेज में प्रधानाचार्य हैं। पिताजी के मुकाबले लाख गुने समझदार हैं। पिताजी जहां बात में से बतंगड निकालने में माहिर हैं, वहीं ताऊजी बतंगड में से बात। असली बात तो शाम को खाने से समय पिताजी से करूंगा।
इसके बाद ताऊजी और पिताजी की बैठक हुई। पता नहीं क्या क्या बातें हुईं। शाम को खाना खाने के बाद जब मैंने पिताजी से पूछा कि ताऊ से क्या बात हुई तो साफ मुकर गये कि कोई बात नहीं हुई। मैंने जोर देकर पूछा कि मेरे विवाह के बारे में कुछ बातें हो रही थीं, मुझे पता है, बताओ मुझे। बोले कि कुछ नहीं, बस रिश्ते की बात कर रहे थे। एक मास्टर है उसके कॉलेज में, वो भी तैयार है रिश्ते को। एक और है, उसकी भी लडकी ठीक है। बस, यही बात हो रही थी।
मैंने कहा- नहीं, इससे भी ज्यादा बातें हुई हैं। बताना नहीं चाहते तो मत बताओ। लेकिन अभी मैंने आपको विवाह की स्वीकृति नहीं दी है। फिर भी... अगर ऐसी बात है तो... लडकी मेरी पसन्द की होनी चाहिये। बहुत लडकियां हैं मेरी निगाह में जो मुझे पसन्द हैं। आप अपनी शर्त बताओ।
बोले- शर्त? कैसी शर्त?
मैंने कहा- जैसे कि पहली शर्त है लडकी जाट होनी चाहिये। मान ली। और भी शर्त बताओ जो आप चाहते हो। लडकी ऐसी होनी चाहिये, वैसी होनी चाहिये, इतनी पढी लिखी होनी चाहिये, घर परिवार ऐसा होना चाहिये। मुझे तो पता है कि मुझे क्या चाहिये। बस, आप बता दो तो मेरे सामने चुनाव करने में आसानी रहेगी।
सोच में पड गये। साफ दिख रहा था कि वे क्रोधित हैं। क्रोध को दबाकर बिना मेरी तरफ देखे एक कडवी सी आवाज में धीरे से बोले- लेकिन पूछताछ भी तो करनी पडती है। जाकर भी तो देखना पडता है। जांच-पडताल भी तो करनी पडती है। नहीं तो बाद में पछताना हो जाता है।
उन्होंने साफ साफ इशारा किया था कि तेरी पसन्द हमारी पसन्द नहीं है। मैं पिछले दो ढाई सालों से लगातार जिद पर अडा था कि विवाह नहीं करूंगा। विवाह के बारे में बात भी करना पसन्द नहीं करता था। आज पहला मौका था जब मैं कुछ नरम हुआ। हालांकि मैंने विवाह की स्वीकृति तो नहीं दी लेकिन कुछ नरम तो पडा। मेरी पूर्ण मनाही के दौर में वे केवल मेरी पसन्द पर ही जोर देते थे, यहां तक कि गैर-जाट को भी अपनाने की बात कहते थे। आज जब मैं कुछ नरम पडा तो वे फिर से सत्ताधीश हो गये।
इसके बाद मैंने कुछ नहीं कहा। कुछ कहता तो साफ सन्देश जाता कि लडके का कहीं चक्कर है। इतना तो ठीक था लेकिन मैं एक ऐसे इन्सान से बात कर रहा था जो बतंगड बनाने में माहिर है। पता नहीं क्या क्या कहानियां गढ लें। ‘ठीक कह रहे हो’ ऐसा कहकर चुप हो गया। अब देखना है कि हवा कैसी चलती है। हवा को अपने अनुकूल ढालना मुझे आता है। करूंगा अपने मन की ही।

26 सितम्बर 2013, गुरूवार
1. ग्यारह बजे गांव से निकल पडा। बाईपास से दिल्ली की बस पकड ली और मोहननगर का टिकट ले लिया। डीटीसी की बस थी, बिल्कुल खटारा। पता नहीं दिल्ली परिवहन वाले अपनी पुरानी बसों को कब हटायेंगे?
2. कल किसी राजीव कुमार का फोन आया था कि उन्हें हाल ही में मेरे ब्लॉग का पता चला है। उन्होंने कहा कि उनकी कोई वेबसाइट है, भारतवाणी डॉट इन के नाम से, जिस पर वे मेरे कुछ लेख लगाना चाहते हैं। मैंने पता नहीं किस बला के वशीभूत होकर स्वीकृति दे दी लेकिन साथ ही यह भी कह दिया कि आप वहां मेरे ब्लॉग का लिंक भी लगाओगे और उसकी सूचना मुझे मेल करोगे। उन्होंने हामी भर ली।
आज उनकी मेल आई- डियर, इसमें आपके आर्टिकल हमेशा रहेंगे। नीचे दो लिंक दिये थे- क्रान्ति4पीपल और विजयवाणी डॉट इन के। मैंने दोनों को खोलकर देखा तो मेरा ‘रूपकुण्ड यात्रा की शुरूआत’ लेख दोनों जगह लगा था। एक में मेरे बारे में ब्लॉग से कॉपी-पेस्ट कर दिया था, दूसरे में कुछ नहीं। ब्लॉग का लिंक किसी में भी नहीं लगाया। मैं तिलमिला गया। मैंने जवाब दिया-
“राजीव जी, नमस्कार, आपने bharatvani.in में छापने के लिये अनुमति ली थी, जबकि आपने छाप दिये kranti4people और vijayvani में। दूसरी बात कि मेरे ब्लॉग का लिंक भी नहीं दिया जबकि फोन पर लिंक भी लगाने की बात हुई थी। मैं आपको अपने लेख प्रयोग करने की अनुमति देने के लिये माफी चाहता हूं। कृपया आगे से मेरा कोई भी लेख अपने यहां प्रकाशित मत कीजिये, bharatvani में भी नहीं। आप चाहें तो प्रकाशित हो चुका लेख हटा सकते हैं। धन्यवाद।”
इस पर राजीव का जवाब आया- “नीरज जी, गलती से विजयवाणी की जगह भारतवाणी बोल दिया। कोई बात नहीं लिंक लगा देंगे। डोंट वरी। इतना गुस्सा नहीं होते। क्रान्ति में छप गया तो क्या बेइज्जती हो गई? आपका तो नाम ही हो रहा है ना। लिंक लगा देंगे।”
मैंने इसका कोई जवाब नहीं दिया। गलती मेरी ही थी कि मैंने उन्हें अनुमति दी। आखिरकार गलती सुधर गई और अपनी अनुमति वापस ले ली।

27 सितम्बर 2013, शुक्रवार
1. विजेन्द्र साहब मिलने आये। वे मसिजीवी के नाम से लिखते हैं। उन प्राचीनतम ब्लॉगरों में से एक हैं, जिन्हें पढ-पढकर मैं बडा हुआ हूं। मिलना कभी नहीं हुआ। यहां तक कि कभी बात भी नहीं हुई। काफी समय पहले लक्ष्मी नगर में एक ब्लॉगर सम्मेलन हुआ था, तो बाद में मुझे पता चला कि विजेन्द्र साहब मात्र मुझसे मिलने वहां गये थे। मैं लेट हो गया था, मिल नहीं सके। आजकल फेसबुक पर थोडी बेसी बात हो जाती है।
साहब जाकिर हुसैन कॉलेज में हिन्दी पढाते हैं। इनकी मित्र मण्डली मेरे साथ लद्दाख साइकिल यात्रा के उपलक्ष्य में एक वार्ता करना चाहती है। यह वार्ता किसी रविवार को ही हो सकती है। मैंने 13 अक्टूबर का दिन दे दिया।
2. जब असोम और त्रिपुरा यात्रा का पूरा कार्यक्रम बन गया तो एक समस्या आ गई। मैंने दिल्ली से गुवाहाटी जाने का आरक्षण तो करा रखा है लेकिन बराक घाटी रेलवे और वापसी का आरक्षण नहीं कराया। आज जब आरक्षण करने बैठा तो बराक घाटी रेलवे में वेटिंग दिख गई। इस लाइन पर एक तरफ दिन में और दूसरी तरफ रात में यात्रा करने का विचार था। दिन में तो साधारण डिब्बे में जाया जा सकता है लेकिन रात को कभी नहीं। इस वेटिंग की वजह से इस इलाके की यात्रा रद्द करते देर नहीं लगी।
दूसरा इरादा मणिमहेश जाने का है। कई दिनों से सोच रहा था कि बराक घाटी को रद्द कर दूं और मणिमहेश चला जाऊं। काफी दिन हो गये हिमालय देखे हुए। लेकिन दिल्ली में आजकल बारिश का जो दौर चल रहा है, उससे मणिमहेश जाना भी खटाई में पडता जा रहा है। अक्टूबर में वहां बर्फ पडनी शुरू हो जाती है। तरुण गोयल साहब से बात की तो उन्होंने यही बताया कि वहां जाना अब खतरनाक है, बर्फ पड रही है।
डेढ साल से लगातार योजना बना रहा हूं मणिमहेश की लेकिन बाबा आने नहीं दे रहे। यही एकमात्र स्थान है जहां जाने की इतनी बार योजनाएं बनीं, छुट्टियां भी ले लीं लेकिन ऐन समय पर कुछ गडबड हो जाती है और मणिमहेश छूट जाता है। इस बार भी ऐसा ही होने जा रहा है। फिर से आठ महीनों के लिये बात गई।
गुजरात जाना मन में आया। द्वारका, सोमनाथ, जूनागढ, भुज आदि के अलावा गुजरात उन गिने चुने राज्यों में से एक है जहां तीनों गेज की ट्रेनें चलती हैं- ब्रॉड, मीटर और नैरो। योजना बनाने बैठा, दो घण्टे लग गये लेकिन दस दिनों के लिये योजना नहीं बना पाया। कुछ न कुछ गडबड हो जाती।
फिर सोचा कि दस दिनों का एक पैसेंजर रेल टूर बनाया जाये। इलाहाबाद से शुरू करके जबलपुर, नागपुर, रायपुर, विशाखापटनम, विजयवाडा, तिरुपति, गुण्टाकल, पुणे, मुम्बई और पता नहीं कहां कहां से निकलने की योजनाएं बनीं, लेकिन बोर हो गया और इसे भी अधर में छोडना पडा।
फिर मन में आया कि गुवाहाटी तक का आरक्षण है ही, क्यों न उसी इलाके को देखा जाये। असम न सही, सिक्किम तो है। वापसी का आरक्षण न्यू जलपाईगुडी से कराऊंगा- कल। रोज यही हो रहा है कि कल करूंगा, कल करूंगा। समय खत्म होता जा रहा है। फोकस नहीं बन रहा है।
3. दैनिक जागरण से 1600 रुपये का चेक आया। यह किसी पुराने लेख का था। जागरण भुगतान बहुत देर से करता है।

29 सितम्बर 2013, रविवार
1. दैनिक जागरण में ‘लद्दाख साइकिल यात्रा’ नहीं छपी। इसमें काफी हद तक दोष मेरा भी है। एक तो लेख बहुत विलम्ब से भेजा था। फिर लम्बा भी इतना कि उन्हें एडिट करने में काफी समय लगेगा। शायद अगले महीने छपे। इसका एक लाभ और भी हुआ है कि अगर आज छप जाता तो अगला लेख तैयार करने का दबाव बन जाता मुझ पर। इस बार मनाली से लेह यात्रा ही भेजी थी, लेह से श्रीनगर अभी भेजनी बाकी है। अब महीनेभर का समय मिल गया, आराम से भेजूंगा।
2. भयंकर गडगडाहट के साथ बारिश हुई। बिजली भी बहुत गिरी, पानी भी बहुत बरसा। मणिमहेश बाबा की साफ हुंकार सुनाई दे रही थी कि बेटा, हिमालय के बारे में अभी सोचना भी मत।
3. सारी दुविधाएं खत्म कर दीं। दिल्ली से गुवाहाटी का जो आरक्षण करा रखा था, रद्द कर दिया। नौ दिन की छुट्टियां लगा रखी थीं, वे भी आज हटा दूंगा। असल में इस बार दुविधा ही दुविधा रही कि जाऊं या न जाऊं, कहां जाऊं। बराक घाटी और त्रिपुरा का कार्यक्रम बनाया तो वहां वेटिंग मिली, सिक्किम की भी सोची लेकिन सिक्किम की मुझे कोई जानकारी नहीं है। कहीं जाने का आनन्द तब है जब आपको वहां का कुछ क-ख-ग-घ मालूम हो। मणिमहेश बाबा ने तो सीधे मना कर ही दिया। अभी की यात्रा रद्द, फिर देखेंगे कि कब और कहां का कार्यक्रम बनता है।
ऑफिस पहुंचा तो देखा कि नौ दिन की जो छुट्टियां लगाई थीं, पास हो गई हैं। आज इतवार है, इसलिये खान साहब के यहां ही रखी हुई हैं यानी हमारे ही हाथ में हैं। चाहता तो आसानी से रद्द कर सकता था। लेकिन अपने फैसले पर फिर से पुनर्विचार करने की इच्छा हो गई।
दो तीन दिन घर पर रहूंगा सुकून से। उसके बाद निकलूंगा। माउण्ट आबू चलता हूं। आरक्षण देखा, उपलब्ध था। तभी अमन मलिक साहब याद आ गये। उन्होंने अरसे से कह रखा है झारखण्ड आने को। बोकारो स्टील सिटी में रहते हैं। अमन साहब से बात की तो वे इस दौरान खाली मिले। आने को कह दिया उन्होंने। आरक्षण देखा, वहां भी उपलब्ध था। सात दिन हाथ में रखने का विचार आया, चार दिन ट्रेन में, तीन दिन झारखण्ड में अमन साहब के साथ। कुछ ही देर में पूरा कार्यक्रम बना दिया। इसमें वाराणसी से हावडा और पटना से इलाहाबाद पैसेंजर ट्रेन यात्रा और दिल्ली से मुगलसराय, बोकारो स्टील सिटी से पटना और इलाहाबाद से दिल्ली तक आरक्षण भी कराना पडा। आखिरी आरक्षण में वेटिंग मिली, लेकिन पक्का विश्वास है कि चार्ट बनने से पहले ही कन्फर्म हो जायेगा। 3 अक्टूबर को दिल्ली से निकलूंगा और 10 अक्टूबर की सुबह लौट आऊंगा।
4. ‘गोदान’ पढ रहा हूं। आधी पढ ली है। होरी पर गुस्सा आ रहा है। अपने घर में आग लग जाये, बच्चे भूखे मर जायें, कितना भी कुछ हो जाये; कोई चिन्ता नहीं लेकिन बराबर वाले घर में दीया अवश्य जलना चाहिये। अपने खेत ना जुतें लेकिन पडोसी का खेत जरूर जुतना चाहिये। अति भलमनसाहत कितनी बुरी होती है, गोदान पढने से पता चल रहा है। अच्छा हुआ कि ऊपर वाले ने मेरे अन्दर भलाई का जरा भी अंश नहीं डाला है। सीधी उंगली से कभी घी नहीं निकला करता लेकिन पिघला घी तो टेढी उंगली से भी नहीं निकलता, उंगली जल जरूर जाती है।

डायरी के पन्ने-13 | डायरी के पन्ने-15




Comments

  1. राम राम नीरज जी, अबके रविवार के जागरण में बहुत प्रतीक्षा थी आपके लेख की, कोई बात नहीं, मैं आपके लेख पढता भी हूँ और परिवार वालो को और दोस्तों को भी पढाता हूँ. गर्व होता हैं आप पर. रही बात नाम की, जाट लिखने में कोई बुराई नहीं हैं. हमें तो आपके नाम से ही प्यार हैं.वन्देमातरम..

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  2. यदि नाम बदलने में समाज बदलने की शक्ति होती तो मैं हर दिन एक नया नाम रख लेता। बुराई नाम में नहीं, लोगों के काम में होती है।
    पढ़कर अच्छा लगता है कि आपको डायरी लिखने का समय मिल जाता है, एक वर्ष होने को आया, डायरी सोयी है।

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  3. मेरा दो लोगों के साथ होने से ही दम घुटने लगता है। neeraj kyo??????????????

    YOGENDRA SOLANKI

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  4. जाट शब्द से प्रेम का जनक आप ही हैं, वैसे रेल्वे द्वारा आपको अब आरक्षण के लिये विशेष सुविधा होनी चाहिये ।

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  5. jat vidroh ke mud me he. ghar walo ko tension ho raha he din par din ye ladka hath se niklata ja raha he

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  6. intjaar rhta hai is dairy ka... achaa likha hai aap ne......कुछ कहता तो साफ सन्देश जाता कि लडके का कहीं चक्कर है। इतना तो ठीक था लेकिन मैं एक ऐसे इन्सान से बात कर रहा था जो बतंगड बनाने में माहिर है। पता नहीं क्या क्या कहानियां गढ लें। ‘ठीक कह रहे हो’ ऐसा कहकर चुप हो गया। अब देखना है कि हवा कैसी चलती है। हवा को अपने अनुकूल ढालना मुझे आता है। करूंगा अपने मन की ही।...:)

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  7. यात्रा केवल एक स्‍थान से दूसरे स्‍थान तक जाना भर नहीं होता... भीतर से भी गतिशील होना पड़ता है। पत्‍थर की तरह गए वैसा ही पत्‍थर लौट आए... न कोई खरोंच न घिसाई... ये घुमक्‍कड़ी नहीं। नीरज के यात्री ब्‍लॉगर व पसंदीदा ब्‍लॉगर होने की मेरी घोषणा का आधार यही है...वे पत्‍थर नहीं है बदलते हैं बदलने के लिए तैयार भी। जाट नाम पनुर्विचार व ईमानदार स्‍वीकारोक्ति कि (अभी तक) लगाव इस काम में बाधा है, स्‍वागतयोग्‍य है। वैसे मेरा आकलन है कि नीरजत्‍व किसी जाटत्‍व के बस की पहचान नहीं है... जाटत्‍व का अतिक्रमण तुम्‍हारी नियति है।

    13 अक्‍तूबर की तिथि शायद बदलनी पड़े क्योंकि इस दिन दशहरा घोषित है आयोजन में दिक्‍कत होगी। अगर यात्रा का कार्यक्रम स्‍थगित है तो पहले वरना बाद में रख सकते हैं।

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  8. neeraj ji जाट सब्द likhne मे कोयी बुरायी नही हे क्योकी यह aap का kal or aaj bhi h aur िकसीko यह जात-पात का सूचक लगता हौ तो uska सोचने का नजरीया ही गलत है

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  9. वैसे गायत्री परिवार वाले आपसे कहीं अधिक पढ़े लिखे और तर्कशील हैं....कभी उनकी पत्रिका 'अखंड ज्योति' पढ़ लीजियेगा... एहसास हो जायेगा की 15 रूपये की पत्रिका में इतना ज्ञान मिलना वाकई काबिले तारीफ़ परिश्रम है.... बिना किसी का अध्ययन किये बोलने वाले दिग्विजय सिंह के अनुयायी ही हो सकते हैं...

    आपको जो उचित लगता है वह आप करते हैं जो नहीं लगता वह आप नहीं करते हैं... यह उचित है... लेकिन जो काम आप नहीं करते वह गलत हो जाये, उसे करने वाला मूर्ख हो जाए... इतना निर्णय करने की क्षमता अभी आपमें नहीं ... जितना ज्ञान आप में है, उतना भारत के हर गली कोने में बिखरा है... किसी आदमी के पीछे 1 आदमी साथ नहीं लगता, इसके विपरीत गायत्री परिवार ने जब यज्ञ का आयोजन किया तब 1 लाख यज्ञ वेदियाँ बनायी थी, उसके बावजूद भीड़ ज्यादा रही जिसमे दो तीन राज्यों के मुख्यमंत्री एवं अनेक गणमान्य नागरिक थे...अब वे लाख लोग मूर्ख और अकेला नीरज समझदार .... क्या बात है !!!.. और घोषित भी खुद नीरज ने किया !!!....

    गायत्री परिवार के संस्थापक पंडित श्री राम शर्मा आचार्य थे... उन्होंने किस उद्देश्य से गायत्री मंत्र लिखने का प्रचार किया, यह अध्ययन का विषय है.... घर बैठकर कोई आन्दोलन नहीं चलाता लेकिन गाँधी के सविनय अवज्ञा आन्दोलन में खोट हर कोई निकाल लेता है...
    इस संस्था के वर्तमान अध्यक्ष डॉ. प्रणव पंड्या Ph.D. हैं और आईआईएम सरीखे न जाने कितने ही संस्थानों में व्याख्यान देते रहते हैं... आपके तर्क अभी इतने प्रौढ़ नहीं की आप उनके शिष्यों को भी प्रतुत्तर दे सको.... हाँ दिग्विजय सरीखे तर्कों का कोई तोड़ नहीं...

    मैंने कई मर्तबा देखा है संदीप जी को और आपको भगवानो, संस्थाओं और पैसे के ऊपर तर्क करते... यदि आपके पास पैसे नहीं हैं (भगवान् न करे कभी ऐसा हो) तो इसका मतलब यह नहीं की दुनिया के सारे अमीर चोर हैं... अब उल्लू को दिन में दिखाई न दे इसमें सूरज का क्या दोष... यदि मंदिरों में पैसा देना गलत है... इन संस्थाओं को पैसा देना गलत है तो नीरज जी का 1600 का चेक ले लेना कहाँ तक उचित है... आप कहेंगे हमने मेहनत की... वो भी तो होली दिवाली दशहरा 365 दिन सुबह से शाम भगवान् को नहलाते कपडे पहनाते भोग लगाते रहते हैं... उनका काम वो कर रहे हैं , आपका आप कीजिए...(अब ये कम पढ़े लिखे आर्य समाजियों का तर्क मत देना की मूर्ती पे जल चढाने का क्या औचित्य, मूर्ती पूजा तो विदेशी आक्रमणों के पश्चात धर्म को सुरक्षित रखने के तौर पर हुई.... सिन्धु घाटी सभ्यता और मेसोपोटामिया से भी मिटटी की पकाई मूर्तियों के प्रमाण मिल चुके हैं...)
    आप भिखारियों को भीख नहीं देते यह आपकी इच्छा , लेकिन जो देते हैं वो कोई चोर या पैसा उड़ाने वाले अमीर नहीं (जैसा की अक्सर संदीप जी की बातों से झलकता है), ये उनका सोचना है...
    आखिर आप भी तो कई बार कावड़ लेकर गए हैं... भला हाइवे होते हुए वाहनों से न जाकर, पैदल चलकर महीने पंद्रह दिन सड़कों को जाम करने का क्या औचित्य ??

    एक घंटे गायत्री मंत्र लिखने लाख गुना बेहतर है सालियों से चोंच लड़ाने के या फेसबुक पे लडकियां ताड़ने के...

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    1. रितु शर्मा, उबलने की कोई आवश्यकता नहीं है। विचार परिवर्तनशील होते हैं और मेरे भी विचार समय और अनुभव के साथ बदलते रहते हैं। मैंने गायत्री परिवार और उसकी मान्यताओं पर बिल्कुल भी उंगली नहीं उठाई है। केवल मन्त्र लेखन के औचित्य के बारे में कहा है। पहले मैंने सोचा कि किसी भी कापी वगैरा पर लिख देते होंगे मन्त्र लेकिन जब मुझे वो छपी छपाई पुस्तिका मिली पांच रुपये वाली और उसके पहले ही पन्ने पर संकल्प पत्र है कि मन्त्र लेखक 108 रुपये देने का संकल्प लेते हैं, तो जो विचार मन में आये, लिख दिये।
      भाभीजी से पूछा था मैंने इस बारे में। उन्होंने मुझे ऐसा जवाब दिया कि मुझे अपनी जिज्ञासा के लिये माफी मांगनी पड गई थी। एक और जानकार हैं बल्कि घनिष्ठ मित्र हैं उमेश जोशी जी, जो स्वयं गायत्री साधक हैं। उम्मीद थी कि इसे पढकर वे इस कार्य का औचित्य बतायेंगे। लेकिन उनका भी कोई उत्तर नहीं आया। हमेशा हर पोस्ट पर उनकी टिप्पणी आती थी, आज इस पोस्ट पर नहीं आई। शायद वे भी नाराज हो गये।
      मुझे दो-तीन बातों की जिज्ञासा है कि मन्त्र लेखन का औचित्य क्या है? गायत्री ट्रस्ट द्वारा दी गई पुस्तिका में ही क्यों मन्त्र लिखे जायें? 108 रुपये का संकल्प क्यों कराया जा रहा है?
      मैंने अभी कहा है कि विचार परिवर्तनशील होते हैं। ऐसा नहीं है कि जो धारणा अभी आपने मेरी पढी है, वो परिवर्तित नहीं हो सकती। हद से हद क्या होगा कि कुछ चाद-विवाद हो जायेगा, तर्क-वितर्क हो जायेगा। वाद-विवाद और तर्क-वितर्क बुरे नहीं हैं। गायत्री ट्रस्ट के एक कार्य पर जिज्ञासा करते ही आपका क्रोध क्या प्रदर्शित कर रहा है?

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    2. Aapse naraj nahi hu . Jise ham prem karate he use ham sirf prem karana hi jante he . Aab to the piint mantra lekhan se hamara manobal majbut hota h . Or aapne kabhi mandir or dan dakshina ke bare me bura likha nahi he . 1 2 bar likh liya hoga . Baki sandip bhai ke har lekh me pandit ki burai likhi hoti he . Brahmin pandit vo hote he jo uske pas nahi hota fir bhi aapko aashirvad dete he or vo sach hote bhi dekhe he .1 bat neeraj bhai aap dairy likhte he to vo aapke neeji vichar he usme parivartan ho shakte he . Aap itni durgam yatra karte ho vo aap kese kar shakte ho ? Ham vanchakgan aapkeliye prathna karte he ki hamare neeraj ko kuch na ho .jab aap leh manali gaye the or aapka phone nahi laag raha tha to hamne shree gayatri ma ke pas aapki dua ki prathna ki or mannat bhi mangi thi . Ham naraj nahi he . Trust ke chakkr me ham nahi padte aajkal aap samachar padhte hi he . Vese ae gayatri parivar shudhdha he .

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    3. बंधू कुछ चीजें अनुभव गम्य होती हैं... आप मुझे समझा सकते हैं क्या की मोगरे की खुशबु कैसी होती है.. अंततः इस खुशबु का अनुभव मुझे ही करना पड़ेगा... जब आपने मंत्र लिखे ही नहीं तो आप दुसरे किसी को मूर्ख सिद्ध करने वाले कौन... रही बात 108 रु. की तो यह तो देने वाले की श्रद्धा वो एक लाख दे.. उसके पैसे देने से वो मूर्ख कैसे सिद्ध हो गया... कहने का भाव यही है की भारत में ही लाखों लोग मंत्र लिखते हैं... उनमे अनेकों आपसे कहीं अधिक तर्कशील भी हैं... खुद स्वयं जिन्होंने यह परम्परा शुरू की वो भी समझदार ही रहे हैं... अकेले आप उन सबको मूर्ख कैसे बता सकते हो??... और यदि वो व्यापार भी कर रहे हैं तो व्यापार करना बुरा है क्या... आप भी अपना ज्ञान अखबार वालों को बेच नहीं रहे क्या....

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    4. स्टूडेंट भाई व्यापार करना बुरा नहीं है लेकिन लोगो की आस्था को आधार बनाकर व्यापार करना गलत है। नीरज जी के साथ साथ मेरी भी जिज्ञासा है की 108 ₹ का क्या औचित्य है। इसके लिए आपसे बेहतर तर्क की उम्मीद है।

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  10. मेरे एक मित्र हैं उन्हें भी ऐसा ही जूनून है अपने नाम के आगे राणा जोड़ने का . आज से नहीं स्कूल कॉलेज के समय से .ईमेल में भी राणाजी . वैसे काफी अच्छे पढ़े लिखे हैं आईआईएम अहमदाबाद के पास हैं , लाखों रूपये महिना कमाते हैं मगर फिर भी राणा ही जोड़ते हैं नाम के आगे . न जाने क्या कारण है कभी पूछ नहीं पाया उनसे .

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  11. :) रोचक विवाद।। प्रतिक्रिया देख कम से कम इतना तो तय हो ही जाता है कि गायत्री मंत्र कटुता का शमन नहीं कर पाता उलटा उबाल आ जाता है। :)

    मैंने अब आस्तिकों से विवाद करना छोड़ दिया है कारण साफ है वे तर्क को सत्‍य का मार्ग नहीं मानते... विवाद का आधारभूत औजार तो तर्क ही है। मतलब पूर्वधारणाएं ही नहीं मिल रहीं। बहस के किसी नतीजे पर पहुँचने की कम ही गुंजाइश है। उम्‍मीद है अमित के परिवार में शॉंति है। शुभाकांक्षाएं।

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    1. यह कौन प्रमाणित करता है की आपका तर्क सत्य है... तर्क वह होता है जो प्रश्न उत्पन्न करता है न की निष्कर्ष निकालता है....(जैसा कहा की ऐसे लोग 'मूर्ख' हैं...) ... वैसे नास्तिक होने मात्र से कोई आधुनिक नहीं हो जाता....

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    2. अब आपने ये भी पहचान लिया की किसके मन में कटुता है ...... कटुता होती तो यहाँ आते ही क्यूँ.... किसी विरोधी विचार को व्यक्त करना कटुता हो जाती है क्या.... रही बात गायत्री मंत्र के शांति सिखाने की तो गायत्री मंत्र गाँधी बनना नहीं सिखाता... :P

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  12. अगर सभी साधकों से गायत्री मंत्र का जप करने का संकल्प लिया जाता तो ज्यादा अच्छा था। प्राचीन काल में ऋषि मुनि मंत्र जप ही करते थे।

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46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

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जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब