[डायरी के पन्ने हर महीने की पहली व सोलह तारीख को छपते हैं।]
16 जुलाई 2013, मंगलवार
1. ऑल इण्डिया रेडियो से एक फोन आया। वे एक पर्यटन कार्यक्रम में जयपुर के सिटी पैलेस के बारे में मुझसे बात करना चाह रहे थे। मैंने स्वीकृति दे दी तो बोले कि पांच मिनट बाद रिकार्डिंग के लिये पुनः फोन करेंगे। मैंने कहा कि मैं सिटी पैलेस गया जरूर हूं, लेकिन शहरों में घूमने की मेरी प्रवृत्ति नहीं है, इसलिये मैं अभी अचानक सिटी पैलेस के बारे में एक मिनट भी नहीं बोल सकता। मुझे इसके लिये तैयारी करनी पडेगी और आज मेरे पास इतना समय नहीं है कि तैयारी कर सकूं। बोले कि कुछ नहीं बोलना है, बस ऐसे ही कुछ भी कह देना है। मैंने कहा तो ठीक है, रिकार्ड करो- सिटी पैलेस बहुत अच्छी और सुन्दर जगह है। यह पुराने राजाओं द्वारा बनवाया गया एक बहुत बडा महल है। बस। अभी इस समय मैं इससे ज्यादा नहीं बोल सकता। मात्र एक मिनट भी बोलने का अर्थ है कम से कम आधे पेज की सामग्री पढना। हां, हिमालय या ट्रेकिंग या रेल यात्राओं के बारे में अभी का अभी आधे घण्टे तक बोलने को तैयार हूं। सखेद मना करना पडा।
पहले भी एक बार ऑल इण्डिया रेडियो पर इसी तरह मेरी आवाज प्रसारित हो चुकी है। तब उन्होंने मुझे तैयारी करने को एक दिन का समय दिया था। रानीखेत के बारे में था तब।
2. लैपटॉप खराब होने की सूचना जब सार्वजनिक हुई तो विकास चौहान साहब का सन्देश आया कि अपना सम्पर्क सूत्र दो, लैपटॉप ठीक करने वे अपना आदमी भेज देंगे नेहरू प्लेस से। सम्पर्क सूत्र दिया तो पता चला कि आदमी कल आयेगा।
17 जुलाई 2013, बुधवार
1. एक पुस्तक पढी- ‘जंगल बोलते हैं’। डॉ. सुरेश मिश्र द्वारा लिखित और नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित 110 पृष्ठों के इस पेपरबैक का मूल्य 75 रुपये है। यह पुस्तक अधिकतर कान्हा राष्ट्रीय उद्यान के बारे में है लेकिन कई शिकार कथाएं भी इसमें शामिल हैं। चूंकि लेखक शिकार से स्वयं नहीं जुडा है, केवल सुनी सुनाई कहानी को कलमबद्ध किया है, इसलिये जिम कार्बेट को पढ चुके इंसान के लिये उतना मजा नहीं आया। लेखक ने कान्हा के जंगलों में कई वर्षों तक शोध कार्य किया है और समय समय पर अपने लेख पत्रों में भेजते रहे हैं। उन्हीं लेखों को एकत्र करके पुस्तकाकार कर दिया। इसलिये कई बार एक ही बात पढ-पढकर बोरियत भी होती है मसलन कान्हा राष्ट्रीय उद्यान इस वर्ष बना था। इसमें ब्रेंडेरी बारासिंगा निवास करते हैं जो संसार में मात्र कान्हा में ही पाये जाते हैं। एक समय इनकी संख्या पूरी दुनिया में 66 रह गई थी जो अब 500 के आसपास है। मतलब ज्यादातर लेखों की शुरूआत इसी तरह की रूपरेखा से हुई है।
मैं आज तक किसी बडे राष्ट्रीय उद्यान में नहीं घूमा हूं लेकिन पहले भी पता चला था और आज फिर पता चला कि इन उद्यानों में बडा जबरदस्त पैसे का खेल चलता है। कहने को तो राष्ट्रीय उद्यान का अर्थ है जंगल और जंगली जानवरों से कोई छेडछाड न करना, उन्हें उनके ही परिवेश में उन्हीं के तरीके से रहने देना। लेकिन कान्हा में पर्यटकों को बाघ दिखाने के लिये गारा बांधा जाता है। गारा यानी एक नियत स्थान पर भैंसा ताकि बाघ बिना मेहनत किये भरपेट खाने के लालच में उसी नियत स्थान के आसपास रहे और पर्यटकों को शर्तिया बाघ दिख जाये। यह देश के दूसरे राष्ट्रीय उद्यानों में भी होता होगा। यह बहुत गलत प्रवृत्ति है।
2. शाम चार बजे के आसपास विकास जी का भेजा बन्दा आया लैपटॉप देखने। इसकी रैम में समस्या मिली। 2 GB की रैम उसके पास नहीं थी, वो कल पुनः आयेगा 2 GB की रैम लेकर। 2300 की रैम आयेगी और 500 रुपये उसकी सर्विस चार्ज यानी 2800 रुपये। लैपटॉप बूढा हो गया है। बैटरी का बैकअप भी अब दस मिनट तक पहुंच गया है, हार्ड डिस्क में पिछले दिनों समस्या आई थी, अब रैम में समस्या आ गई, अगला नम्बर मदरबोर्ड का है। सोच रहा हूं कि ये छोटे छोटे खर्चे से अच्छा है कि कुछ दिन रुक जाऊं और नया लैपटॉप ही ले लूं।
18 जुलाई 2013, गुरूवार
1. एक पुस्तक पढनी शुरू की- हिमालय का योगी। डॉ. भगवतीशरण मिश्र द्वारा लिखित और प्रकाशन संस्थान द्वारा प्रकाशित हार्ड कवर वाली इस पुस्तक का मूल्य 350 रुपये है। लेखक ने घोषणा की थी कि यह पुस्तक वस्तुतः एक उपन्यास है जो प्रसिद्ध सन्त नीम करौली बाबा पर केन्द्रित है। कुल मिलाकर इसमें 27 चैप्टर हैं, लेकिन मैंने 5 चैप्टर पढने के बाद इसे आगे न पढने का इरादा कर लिया। यह कोई उपन्यास-वुपन्यास नहीं है, एक बाबा के कुछ चमत्कारों से अभिभूत किसी भक्त के मनोभाव हैं। लेखक ने तो यहां तक कह दिया कि प्रकृति बाबा के हाथों की दासी थी। बाबा हाथ उठाकर बादलों से कहते कि बरस जाओ तो वे बरस जाते, कहते कि रुक जाओ तो वे रुक जाते।
लेखक की श्रद्धा का मान रखते हुए अगर मान भी लें कि बाबा के कहने से बादल बरसते थे तो जाहिर है कि यह कुदरत का ही कोई नियम है। सिद्धों के द्वारा ऐसा करना कोई नामुमकिन नहीं है और यह सब प्रकृतिसम्मत है। प्रकृति के कुछ नियमों की जानकारी आम लोगों को है, कुछ की नहीं है तो भविष्य में हो जायेगी। प्रकृति ना किसी की दासी है, न हो सकती है। यह सब उसी के नियम हैं जिन्हें देखकर अन्धभक्त मान लेते हैं कि बाबा ने प्रकृति को साध लिया। केदारनाथ तो महासिद्ध स्थान है, साक्षात शंकर का स्थान है, वहां कौन चला गया दासी प्रकृति को आज्ञा देने? और उन सिद्धों को पता भी होगा कि ऐसा होने वाला है तो क्यों उन्होंने हाथ उठाकर प्रकृति से यह नहीं कहा- रहने दे?
पहले ही 350 रुपये का नुकसान हो गया है, अब इसे पढकर अपने कीमती समय का नुकसान नहीं करना चाहता।
2. नई रैम डलते ही लैपटॉप चलने लगा। 2600 रुपये लगे- 2300 की रैम और 300 सर्विस चार्ज। कल 500 रुपये बता रहा था सर्विस चार्ज, तो अपने 200 रुपये बच गये।
19 जुलाई 2013, शुक्रवार
1. पटना-इलाहाबाद पैसेंजर रेल यात्रा रद्द कर दी। दोनों आरक्षण भी कैंसिल कर दिये- 120 रुपये का नुकसान हो गया। यह यात्रा 24 जुलाई को होनी थी, जो कि मेरा जन्मदिन भी होता है। अपने जन्मदिन को दिल्ली में ही मनाना अच्छा है।
2. निरंजन साहब को आखिरकार एक संस्था मिल ही गई, ताकि वे उत्तराखण्ड में पीडितों के लिये कुछ काम कर सकें। पुणे की यह संस्था धारचूला में काम कर रही है। निरंजन साहब दस दिनों के लिये धारचूला जायेंगे।
पहले भी कुछ मित्रों ने मुझसे इस बारे में आग्रह किया है कि मैं भी उत्तराखण्ड जाऊं, आखिर उत्तराखण्ड का मेरी घुमक्कडी में बडा हाथ है। लेकिन मन नहीं कर रहा जाने का। असल में पिछले साल दिसम्बर में ही मन बन गया था कि इस साल उत्तराखण्ड में कदम नहीं रखना है। यात्राएं हिमाचल और हिमालय पार की धरती पर केन्द्रित होंगी। यह मानसिकता अभी तक बनी है। फिर भी, यह कोई वजह नहीं है न जाने की। कभी कभी स्वयं को धिक्कारता भी हूं, लेकिन पीडितों के लिये काम करना या उनके बीच जाना बडा भारी लगता है। धन्य हैं वे लोग जो वहां दिन-रात काम कर रहे हैं।
3. एक मित्र को आपत्ति है कि मैं भगवान के विरुद्ध लिखता हूं। पूछने लगे क्यों लिखते हो? मैंने कहा यह संवेदनशील मामला है, इस मामले में मैं कुछ नहीं कहूंगा। मैंने उनसे प्रार्थना की कि मैं केवल अपने विचार लिखता हूं, आपके क्या विचार हैं मुझे नहीं पता। मैं आपके विचारों में हस्तक्षेप नहीं करता, आप भी मुझमें हस्तक्षेत मत कीजिये। फिर भी उनके हमले जारी रहे- अगर तुम भगवान को नहीं मानते तो मन्दिरों में क्यों जाते हो? अब उन्हें कैसे समझाऊं कि मैं नास्तिक नहीं हूं, घोर आस्तिक हूं लेकिन भगवान को प्रसन्न करने के तौर तरीकों से नफरत करता हूं।
अगर लड्डू वगैरा खाने से या धूपबत्ती-अगरबत्ती जलाने से भगवान प्रसन्न होता है तो अप्रसन्न कैसे होता है? या तो उसका स्वभाव ही चिडचिडा है या फिर उसे कोई अन्य अप्रसन्न करता है।
22 जुलाई 2013, सोमवार
1. आज गुरू पूर्णिमा है। देखा कि सभी अपने अपने गुरूओं को प्रणाम व वन्दन कर रहे हैं। मेरा कोई एकल गुरू नहीं है, बल्कि बहुसंख्य गुरू हैं। मैंने भी सभी को प्रणाम किया। मैं एकल गुरू का विरोधी हूं। दिन-प्रतिदिन की दिनचर्या में मुझे हजारों लोग मिलते हैं जिनसे हमेशा कुछ न कुछ सीखने को मिलता रहता है, वे सभी मेरे गुरू हैं।
पिताजी भी अपने एकल गुरू के पास नोयडा के एक गांव में गये थे। उसका भी बडा जबरदस्त ठाठ-बाट है। आज भण्डारा था वहां। शाम को पिताजी मेरे पास दिल्ली आ गये।
23 जुलाई 2013, मंगलवार
1. धीरज रांची से आ रहा है। उसकी परसों वहां एक परीक्षा थी। कुछ ही दिन पहले आरक्षण कराया था। दिल्ली से रांची जाने के लिये एक को छोडकर सारी ट्रेनें बिहार के रास्ते जाती हैं, इसलिये उस एक में ही जगह खाली थी। इसी गाडी से वापसी का आरक्षण करा लिया। सुबह सात बजे के आसपास जब यह गाडी एक घण्टे विलम्ब से इलाहाबाद पहुंची तभी मैंने घोषणा कर दी कि यह कम से कम पांच घण्टे देरी से दिल्ली पहुंचेगी। हुआ भी ऐसा ही। रात आठ बजे धीरज दिल्ली आया।
24 जुलाई 2013, बुधवार
1. आज अपना जन्मदिन है। 25 साल पूरे हुए और आज से 26वें बरस में कदम रख दिया। भारतीय धर्मग्रन्थों के अनुसार अब मैं गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कर गया। इसलिये फेसबुक पर लिखा- जिन्दगी का बालकाण्ड समाप्त और गृहस्थ काण्ड शुरू। बहुत से मित्रों ने समझा कि लडका विवाह बन्धन में बंधने जा रहा है। जबकि ऐसा नहीं है। साथ ही गृहस्थ आश्रम के अनुभवी मित्रों ने बताया कि यह आश्रम जिन्दगी का सबसे बुरा आश्रम है। कुछ ने कहा कि अब घुमक्कडी बन्द हो जायेगी।
ऐसा नहीं होगा। जैसा मैं एक दिन पहले तक था, आगे भी ऐसा ही रहूंगा। अपने एक ज्योतिष और पण्डित मित्र उमेश जोशी ने कुछ दिन पहले भविष्यवाणी की थी कि मैं विवाह बन्धन में अवश्य बंधूंगा, इसलिये यह खबर सुनकर उन्हें सर्वाधिक खुशी हुई होगी। यह पढकर सारी खुशी पर तुषारापात हो जायेगा।
2. ललित शर्मा जी का फोन आया। वे रायपुर में रहते हैं, प्रसिद्ध ब्लॉगर हैं और हम एक दूसरे को काफी समय से जानते भी हैं। वे एक पत्रिका निकालने वाले हैं। पत्रिका यात्रा केन्द्रित होगी, नाम होगा- यात्रा एक्सप्रेस। कह रहे थे कि मैं भी उसके लिये एक लेख भेजूं। उनके फेसबुक पेज पर गया तो उन्होंने इस उपलक्ष्य में वहां भी लिखा था। वहां भी उन्होंने यात्रियों से यात्रा लेख भेजने की गुजारिश की थी। सौ के करीब कमेण्ट थे और हर आदमी उन्हें लेख भेजने का इच्छुक था।
खैर, भेजूंगा तो मैं भी एक लेख और वो छपेगा भी, ऐसी पूरी उम्मीद है। मेरी कामना है कि पत्रिका ऊंचाईयों को छुए। वैसे हिन्दी में एक यात्रा पत्रिका और है- ये है इण्डिया। यह महंगी है और इसमें चार या पांच यात्रा लेख ही आते हैं। और तो और ये लोग नेट से दूसरों के यात्रा लेख चोरी करने से भी नहीं चूकते। मेरा एक लेख इन्होंने चोरी ही नहीं किया बल्कि छद्म नाम से छापा भी था। जिसने बाहर की दुनिया ही नहीं देखी, वो क्या यात्रा पत्रिका निकालेगा। जबकि ललित जी के मामले में ऐसा नहीं है। वे स्वयं एक घुमक्कड ही नहीं बल्कि पुरातात्विक ज्ञाता भी हैं। उनके पास स्वयं के ही इतने अनुभव हैं कि बगैर किसी अन्य सहायता के स्वयं के लेखों से ही पत्रिका को सालों तक चला सकते हैं।
3. सुशील छौक्कर साहब आये। मेरे जन्मदिन की खबर सुनकर उन्होंने मुझसे पूछ लिया कि घर पर ही है या बाहर। मैं आज पूरे दिन घर पर ही रहने वाला हूं। उन्हें लक्ष्मीनगर कुछ काम था, आ गये। उनके आने की बात सुनकर मैंने उन्हें कह दिया कि जन्मदिन भले ही हो, लेकिन मैं मनाया नहीं करता, इसलिये कुछ भी मत लाना। काफी देर तक बातें होती रहीं। करीब चार साल बाद हम मिले थे।
4. सांवरमल सांगानेरिया की ‘अपना क्षितिज अपना सूरज’ पढी। शिल्पायन पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स द्वारा प्रकाशित 222 पृष्ठों की इस हार्ड कवर पुस्तक का मूल्य 275 रुपये है।
एक उत्कृष्ट यात्रा वृत्तान्त! यह वृत्तान्त अरुणाचल यात्रा का है जिसे सांगानेरिया साहब से पूर्वी अरुणाचल से शुरू करके पश्चिमी अरुणाचल का तवांग घूमकर खत्म किया। अरुणाचल के बारे में नगण्य पाठ्य सामग्री है, तो यह पुस्तक वाकई एक हीरा है। इस पुस्तक ने मेरी कई धारणाओं को भी बदला। एक तो यह धारणा थी कि अरुणाचल प्रदेश हिमालय की ऊंची ऊंची चोटियों के मध्य स्थित है। जबकि ऐसा नहीं है। एक तवांग जिला ही बर्फीली जगह पर है, बाकी सब छोटी छोटी पहाडियों में हैं जिनकी ऊंचाई हजार मीटर भी नहीं है। पूर्व में तो कब नागालैण्ड की पहाडियां शुरू हो जाती हैं, पता भी नहीं चलता। दूसरी बात पता चली कि अरुणाचल में हिन्दी में पढाई होती है, इसलिये हर आदमी हिन्दी जानता है। हिन्दी में पढाई की आवश्यकता इसलिये पडी कि वहां अनगिनत जनजातियां निवास करती हैं। सबकी अलग बोली है, लिपि किसी की नहीं। सबको एक सूत्र में बांधने के लिये किसी और भाषा के स्थान पर हिन्दी का प्रचलन सरकार ने शुरू किया। ऐसे ऐसे उदाहरण भी हैं कि पति-पत्नी अलग अलग जनजातियों से हैं लेकिन वे एक-दूसरे की मूल भाषा को नहीं समझ सकते तो हिन्दी ही काम आती है। और तीसरी बात कि पूरे अरुणाचल में शिवजी का वास है। जगह जगह शिवलिंग मिलते हैं, कहीं कहीं तो विशालकाय। जनजातियां वैसे तो स्वयं को हिन्दू नहीं कहतीं, कुछ बौद्ध भी हैं और कुछ परिवर्तित होकर ईसाई भी बन गये हैं, फिर भी सभी शिवजी की अपने अपने तरीके से पूजा करते हैं।
पुस्तक को पढकर लगा कि जाना चाहिये मुझे भी अरुणाचल। एक रास्ता तो खोल ही दिया है सांगानेरिया साहब ने। अभी तक मेरे लिये अरुणाचल का अर्थ होता था तवांग, अब यह धारणा बदल गई है।
25 जुलाई 2013, गुरूवार
1. फरीदाबाद से कमल कान्त का फोन आया। मेरी प्रस्तावित कोंकण व पश्चिमी कर्नाटक की ट्रेन यात्रा के कार्यक्रम को पढकर वे भी साथ चलने के इच्छुक हैं। मैंने उनसे कहा कि लगभग पूरी यात्रा पैसेंजर ट्रेनों में होगी। पैसेंजर ट्रेनें हर स्टेशन पर रुकती हैं और इनमें आरक्षण भी नहीं होता। अगर किसी को ट्रेन यात्राएं पसन्द नहीं हैं या ट्रेन यात्राएं नहीं की हैं तो पैसेंजर ट्रेनों में यात्रा करना बडी परेशानी का कारण बन जाता है। बोले कि कुछ भी हो, मुझे इस यात्रा में आपके साथ चलना है। मैंने कहा अगर ऐसी बात है तो पूरा कार्यक्रम आपके सामने है, यात्रा में तीन आरक्षण भी हैं, करा लो और हो जाओ तैयार। लेकिन मैं इस कार्यक्रम को बदलूंगा नहीं। वे सहमत थे। यह बात कुछ दिन पहले हुई थी।
आज उन्होंने बताया कि उन्होंने तीनों गाडियों में आरक्षण करा लिया है। दो में आरएसी मिली है और एक में पक्की बर्थ। पूछने लगे कि क्या क्या कपडे ले जाने चाहिये। मैं कभी भी कपडों के बारे में नहीं सोचा करता और ट्रेन यात्राओं में तो कभी नहीं। मैंने कहा कि मैं तो दो जोडी कपडे ही ले जाऊंगा क्योंकि मैं कई कई दिनों तक गन्दे कपडे पहन लिया करता हूं। आप अपने हिसाब से ले लेना, लेकिन रेनकोट अवश्य लेना। दूधसागर तक पैदल जाने का इरादा है, वहां काम आयेगा अगर बारिश पड गई तो। फिर दवाईयों के बारे में पूछने लगे। मैंने कहा कि मैं कभी भी दवाई नहीं ले जाया करता और मुझे किसी दवाई की जानकारी भी नहीं है।
2. एक पिक्चर देखी- जौली एलएलबी। मैं पिक्चर विक्चर अक्सर नहीं देखता हूं लेकिन अगर अगर कभी कभी देख भी लेता हूं तो मजा ही आता है। दो डायलॉग अच्छे लगे-
“मेरठ का हूं। अपनी औकात पे आ गया ना, तो गां... का गुडगांव बना दूंगा।”
गौरतलब है कि मैं भी मेरठवासी हूं।
दूसरा डायलॉग है जब जज फिल्म के आखिर में अपने मनोभावों को व्यक्त करता हुआ कहता है- “केस की पहली तारीख को मुझे मालूम हो गया था मुजरिम कौन है। मैं यहां बैठा रहता हूं, और एवीडेंस का इंतजार करता रहता हूं। एवीडेंस अब आयेगा, एवीडेंस तब आयेगा। गट्ठर खडा हो जाता है जी, फाईलों पर फाईलें चढती चली जाती हैं, लेकिन एक पेपर मेरे सामने नहीं आता, एक पेपर, जिसको मैं सही मायने में बोल सकूं कि ये एवीडेंस है। एवीडेंस आता नहीं है, मुजरिम छूट जाता है।”
और एक कमी भी लगी। मेरठ और दिल्ली के बीच में पहाड के पहाड खडे हो गये। जबकि इस 70 किलोमीटर के रास्ते में कोई पहाड तो क्या छोटा सा टीला भी नहीं है। फिल्म है तो क्या हुआ? क्या मेरठ को आप हिल स्टेशन बना दोगे?
26 जुलाई 2013, शुक्रवार
1. ‘तहलका’ पत्रिका से फोन आया संजय दुबे साहब का। उन्हें आज ही मेरे ब्लॉग के बारे में पता चला तो इतने प्रभावित हुए कि फोन कर दिया। इतना ही नहीं, पत्रिका के लिये लगातार लेख लिखने का भी आग्रह किया। आग्रह स्वीकार है।
मैंने आज तक जितने भी लेख पत्र-पत्रिकाओं में भेजे हैं, उनमें दैनिक जागरण को छोडकर उन्हीं के आग्रह पर भेजे गये हैं। दैनिक जागरण में मैं स्वयं अपनी मर्जी से लेख भेजा करता था। लेकिन मार्च में भेजा गया चादर ट्रेक वाला लेख जब सिफारिशों से जून में छपा तो मेरा जागरण से मोह भंग हो गया। अब मैंने वहां कोई भी लेख न भेजने का फैसला किया है। आग्रह पर लेख भेजने का आनन्द ही कुछ और है।
27 जुलाई 2013, शनिवार
1. कमल कान्त साहब मिलने आये। वे आगामी कोंकण व पश्चिमी कर्नाटक ट्रेन यात्रा में साथ रहेंगे। जाहिर है उसी के बारे में ज्यादा बातचीत हुई। कुछ भूल सुधार भी हुए जैसे दिल्ली से पाचोरा तक सीधे झेलम एक्सप्रेस से, ना कि मंगला लक्षद्वीप से भुसावल जाकर पुनः गाडी बदलना। असल में जब मैंने कार्यक्रम बनाया था तो केवल स्वयं को ध्यान में रखकर बनाया था, हालांकि प्रशान्त भी जाने वाला है लेकिन वो भी पक्का ट्रेन शौकीन है। उसे मैं जानता हूं कि वह कठिन से कठिन परिस्थितियों में यात्रा कर सकता है। कमल साहब के साथ ऐसा नहीं है। मंगला लक्षद्वीप भुसावल पहुंचती है रात दो बजे। इसके बाद सुबह पांच बजे तक पाचोरा जाने वाली ट्रेन की प्रतीक्षा करनी है। वो जहां तक लग रहा है झेलम एक्सप्रेस ही होगी। अगर आरक्षण कराते समय झेलम में बर्थ मिल जाती तो मैं सीधा दिल्ली से पाचोरा का ही आरक्षण कराता। कमल को शिकायत थी कि इस तरह दो बजे जागने से पूरी रात खराब हो जायेगी। बात जायज है। अब झेलम एक्सप्रेस में तत्काल आरक्षण कराया जायेगा। अगर बर्थ मिल गई तो ठीक, नहीं तो मंगला जिन्दाबाद।
दूसरा परिवर्तन किया गया पाचोरा से कल्याण तक। पहले कुशीनगर एक्सप्रेस में आरक्षण था। अब जलगांव से अमरावती-मुम्बई एक्सप्रेस में कराने का विचार आया। इसमें अभी एक वेटिंग है, जो निश्चित तौर पर कन्फर्म हो जायेगी। कुशीनगर एक्सप्रेस कल्याण पहुंचती है सुबह तीन बजे जबकि दूसरी पांच बजे। यहां भी नींद खराब होने की शिकायत मिली। सवा छह बजे दीवा से कोंकण रेल वाली पैसेंजर है।
जब कमल साहब मुझसे अच्छी तरह घुल-मिल गये तो कहने लगे कि गोवा में कम से कम एक दिन और मिलना चाहिये था। हालांकि पहले ही मेरे कार्यक्रम में दो दिन गोवा के नाम हैं- पहला दिन तटीय गोवा और दूसरा दिन पर्वतीय गोवा यानी दूधसागर। गोवा का आकर्षण ही जबरदस्त है। यही आकर्षण कमल साहब को था, इसलिये चाहते थे कि एक दिन और मिलता तो अच्छा था। पैसेंजर ट्रेन यात्राएं हर किसी को रास नहीं आतीं, और लगातार इन्हीं ट्रेनों में घूमने से वे बुरी तरह बोर हो जायेंगे और सारी बोरियत का नतीजा मुझ पर निकलेगा। मैंने तय किया कि मिराज नहीं जायेंगे। पहले मिराज से हुबली और बिरूर तक पैसेंजर यात्रा थी, अब नहीं करेंगे और इस एक दिन को गोवा में ही कहीं न कहीं एडजस्ट कर देंगे। लेकिन जोग प्रपात व तालगुप्पा अवश्य जाना है। अब कैसे गोवा से वहां जाया जाये? मैं देख लूंगा, ऐसा कहकर मैंने कमल साहब को विदा किया।
उनके जाने के बाद मैं इस काम में जुट गया। गोवा को मैं ज्यादा महत्व नहीं देना चाहता, फिर पहले ही तटीय व पर्वतीय गोवा के लिये दो दिन निर्धारित कर ही चुका हूं, तीसरा दिन तो कतई नहीं करूंगा। सिन्धुदुर्ग व मालवन दिखाई पड गये। दीवा से जब कोंकण पैसेंजर में मडगांव की तरफ आयेंगे तो सिन्धुदुर्ग उतरेंगे। अगले दिन मालवन घूमकर पुनः शाम को इसी ट्रेन से मडगांव जा पहुंचेंगे। मिराज वाला एक दिन यहां लग जायेगा। अब देखना है कि कैसे गोवा से तालगुप्पा जाया जाये।
कर्नाटक में गोवा से 180 किलोमीटर दूर होन्नावर है जहां से तालगुप्पा व शिमोगा ज्यादा दूर नहीं हैं। लेकिन समस्या आई कि शाम को मडगांव से होन्नावर के लिये कोई ट्रेन नहीं है। बस से जायें तो पांच-छह घण्टे से कम नहीं लगेंगे और समय भी मालूम नहीं कि कितने बजे बस मिलेगी। यही हाल होन्नावर से तालगुप्पा पहुंचने का है। अब फिर से ट्रेन पर निगाह गई। वास्को-बंगलुरु लिंक एक्सप्रेस दिख गई। इससे बिरूर जायेंगे, बिरूर से रात तीन बजे तालगुप्पा की ट्रेन मिलेगी। इससे पहले एक दिन दूधसागर के नाम कर देंगे।
कमल साहब दिन का कार्यक्रम देखने से पहले रात रुकने की फिक्र करते थे। कैसल रॉक या कुलेम स्टेशन पर रुकना आवश्यक है। मुझे तो इसकी फिक्र नहीं, लेकिन साहब परेशान हैं। मैं उनकी परेशानी समझता हूं, उनसे कह तो दिया है कि आपकी फिक्र के अनुसार ही कार्यक्रम बनाया जायेगा लेकिन...
... लेकिन उन्हें एक रात प्लेटफार्म पर मच्छरों व कीडे-मकोडों के बीच न सुला दिया तो मैं भी जाटराम नहीं।
28 जुलाई 2013, रविवार
1. नाइट ड्यूटी करके आया। आते ही टुल्ल। चार पांच केले रखे थे, उन्हीं का नाश्ता किया। लंच के समय तो भयंकर नींद का आनन्द ले रहा था। शाम पांच बजे कुछ आवाज सुनकर आंख खुली। देखा दो कबूतर कमरे में विचरण कर रहे हैं। बालकनी वाला जालीदार दरवाजा बन्द था, उन्होंने कूलर की तरफ से अन्दर प्रवेश किया। जब ये कभी अन्दर आ जाते हैं तो इनके पंखे से कटने का डर रहता है, सबसे पहले पंखा बन्द किया, फिर दरवाजा खोलकर बाहर भगाया।
कबूतर प्रजाति दुनिया की सबसे निकृष्ट प्रजाति में से एक होती है, महामूर्ख भी। एक तो हमेशा हगता रहेगा और दूसरे कबूतरी के चक्कर काटता रहेगा। एक कबूतरी उड जायेगी तो नजदीकी दूसरी कबूतरी को अपना भद्दा डांस दिखायेगा। निडर होने का दम्भ भी भरता है। मैं अक्सर बालकनी में कुर्सी पर जा बैठता हूं, हाथ रेलिंग पर रखकर आराम की मुद्रा में बैठ जाता हूं। तो अक्सर यह पक्षी रेलिंग पर घूमता हुआ हाथ के ऊपर से कूद भी जाता है। कभी जब यह कूलर के सामने खिडकी पर आ बैठता है तो मैं इसे भगाने के इरादे से उठता हूं, तसल्ली से चप्पल उठाता हूं। मुझसे यह चार पांच फीट दूर ही होता है, देखता रहेगा लेकिन उडेगा नहीं। और ढंग से पूरी शक्ति लगाकर फेंकता हूं। निशाना बडा अचूक है मेरा, इतना अचूक कि मुझे पता होता है कि लक्ष्य पर बिल्कुल नहीं लगेगा, चार फीट दूर से भी नहीं। जब चप्पल इसके आसपास कहीं दीवार पर टकराती है तब उडता है।
2. सुनील पाण्डेय साहब गुजर गये। मतलब दिल्ली से गुजर गये। वे ट्रेन से भारत परिक्रमा के पुण्य काम पर लगे हैं। कन्याकुमारी से हिमसागर एक्सप्रेस से जम्मू जा रहे हैं, तो आज दिल्ली से निकले। हालांकि यह ट्रेन नई दिल्ली स्टेशन पर ढाई घण्टे रुकती है लेकिन नाइट ड्यूटी होने के कारण मैं नहीं जा सका। जब वे वापस आयेंगे तो दिल्ली में ट्रेन बदलेंगे और सात आठ घण्टों तक हमारा मिलना भी होगा।
3. कुंवारा मर्द अक्सर भूखा रहता है। मैं भी इसका अपवाद नहीं हूं। शाम आठ बजे जब बढिया भूख लगने लगी तो हमेशा की तरह कुछ बनाने का विचार आया। फ्रिज में डेढ किलो दूध व चार सौ ग्राम दही रखी थी, बाकी कुछ नहीं। दूध का निर्वाण समय भी बारह घण्टे पहले निकल चुका था। अब इसे और ज्यादा रखे रखने का अर्थ है कल इसे नाली में प्रवाहित करना पडेगा।
तो इतना विचार आया कि दूध का ही कुछ बनाते हैं। देखा सूजी भी रखी है, रबडी जिन्दाबाद। कढाई में सूजी भूनने लगा। आधी भी नहीं भुनी कि गैस खत्म। इधर उधर से कोशिश भी की आपातकालीन सिलेण्डर की लेकिन असफल। बराबर वाले भले मानुसों ने कहा भी कि दस मिनट में हमारा प्रयोगशील सिलेण्डर ले लेना, लेकिन मैं चाहता था भरा सिलेण्डर लेना। उनसे कह दिया कि आज का खाना तो बन गया है, भविष्य के लिये भरा सिलेण्डर चाहिये। कढाई को ढककर रख दिया।
बाजार गया, दो किलो आम व पन्द्रह केले ले आया। एक लीटर दूध मिलाकर मैंगो शेक बनाई। पेट ऊपर तक भर गया और सुबह नाश्ते की फिक्र भी खत्म।
29 जुलाई 2013, सोमवार
1. आज का दिन बडा ही भावपूर्ण रहा। एक लडकी जो काफी समय से मुझसे प्रेम करती है, शादी का इशारा कर बैठी। वैसे तो मुझे भी वह अच्छी लगती है लेकिन इतनी भी नहीं कि उसके साथ पूरी जिन्दगी बिताने की सोची जाये। एक समय मैं उसके चक्कर में अच्छी तरह पड गया था। उससे विवाह की बात भी की। भला हो मां भगवती का कि उस मौके पर लडकी को सदबुद्धि आ गई और मेरा प्रस्ताव अस्वीकृत कर दिया। जैसा कि प्रेम कहानियों में होता ही है, लडका अल्प समय के लिये परेशान भी रहा। उसके कुछ समय बाद लडके को ज्ञान प्राप्त हुआ और विवाह न करने का फैसला कर लिया। उस लडकी से मिलना तो अक्सर नहीं होता था, बातचीत भी बन्द हो गई।
चूंकि लडकी लडके से प्रेम करती थी, पता नहीं किस लज्जा के वशीभूत होकर उसने प्रस्ताव ठुकरा दिया था। लडके ने बोलचाल भी बन्द कर दी तो लडकी की प्रेम ज्वाला और भडकने लगी। मिलना नहीं होता था, फोन पर भी बातें यदाकदा ही होती थीं, ऐसे में फेसबुक ने अपनी ड्यूटी निभाई।
और जब आज लडकी ने लडके के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा तो वो प्रस्ताव भी ठुकराया जाना ही था। लडके ने कहा कि हम अच्छे मित्र हो सकते हैं। कभी काम पडे, कोई जरुरत पडे तो हरसम्भव तन-मन-धन से सहायता करने को तैयार भी हूं। जिन्दगी में कुछ करने की इच्छा हो, कुछ बनने की इच्छा हो तो तुरन्त बता। रास्ते में आने वाली हर मुसीबत से निकालने की कोशिश करूंगा। मैंने तो अपनी जिन्दगी का निर्णय ले रखा है, देखते हैं वह कब और क्या निर्णय लेती है।
30 जुलाई 2013, मंगलवार
1. दो आरक्षण कराने थे- लोण्डा से बिरूर और बिरूर से तालगुप्पा। ऑनलाइन कराने की कोशिश की तो असफल रहा। बाद में पता चला कि मेरे खाते में पर्याप्त पैसे नहीं हैं। इस काम को करने के लिये कमल साहब भी तैयार थे लेकिन मैंने आरक्षण काउण्टर पर जाने का फैसला किया। सीधे लोण्डा से तालगुप्पा का आरक्षण कराऊंगा और बिरूर में गाडी बदल लूंगा। प्रत्यक्ष फायदा तो यही होगा कि कुछ पैसे बचेंगे। दूसरा फायदा होगा कि बिरूर में पहली गाडी से उतरकर दूसरी के लिये टिकट नहीं लेना पडेगा और तीसरा सबसे बडा फायदा कि अगर बिरूर में पहली गाडी के लेट होने की वजह से आधे घण्टे बाद आने वाली दूसरी गाडी छूट गई तो स्टेशन मास्टर की मोहर लगवाकर उसी टिकट से आरक्षित श्रेणी में किसी तीसरी ट्रेन से तालगुप्पा जा सकता हूं। यह सुविधा ऑनलाइन बुकिंग पर लागू नहीं होती।
अपने निवास शास्त्री पार्क से नकदीकी बुकिंग केन्द्र शाहदरा में है लेकिन वहां हमेशा भीड रहती है। इसलिये मैं सब्जी मण्डी स्टेशन चला गया। सब्जी मण्डी प्रतापनगर मेट्रो स्टेशन की बगल में है। वहां भीड नहीं थी और क्लर्क खाली बैठे प्रतीक्षा कर रहे थे। मैंने आरक्षण प्रपत्र अच्छी तरह भरकर दिया जिसमें लिखा था कि मुझे सीधे लोण्डा से तालगुप्पा का स्लीपर में आरक्षण चाहिये। लोण्डा से बिरूर तक इस ट्रेन में और बिरूर से आगे इस ट्रेन में। क्लर्क ने काफी माथापच्ची कर ली, बाद में कहा यह आरक्षण नहीं हो सकता। आप दोनों ट्रेनों का अलग अलग आरक्षण कराओ। मैंने जब कहा कि यह हो सकता है तो उन्होंने सरकारी कर्मचारी होने का दायित्व निर्वाह करते हुए आरक्षण प्रपत्र फेंक दिया और आंखें दिखाते हुए बोले कि अगर हो सकता है तो नई दिल्ली जाकर कराओ।
मैं इस बात की शिकायत करने वाला था, तभी सोचा कि इसकी अज्ञानता से क्यों अपना दिमाग खराब करूं। शायद इसे जानकारी नहीं है। दूसरी खिडकी पर गया। सामान्य से ज्यादा समय जरूर लगा लेकिन काम हो गया। आखिर में एक समस्या और आई। तीन जनों का आरक्षण कराया था, कुल 840 रुपये लगे जबकि मेरे पास थे मात्र 700 रुपये। मैंने 700 रुपये उन्हें देकर कहा कि मैं अभी बाकी 140 रुपये लेकर आ रहा हूं। उन्होंने बडे अदब से हामी भर ली।
मैं सामने स्थित स्टेट बैंक के एटीएम पर गया। पैसे मांगे तो कहने लगा कि भाई, तेरे खाते में मात्र 100 रुपये हैं, हम इससे ज्यादा नहीं दे सकते। अब क्या करूं? एटीएम ही सबसे भरोसे की चीज होती है, इसमें ही पैसे नहीं हैं तो कहां से लाऊं? अमित को फोन किया, वो मेरी पहुंच से दूर था। फिर प्रतापनगर मेट्रो स्टेशन पर गया। वहां संयोग से स्टेशन नियन्त्रक अपना मित्र अनिल मिल गया। जाते ही पैसे दे दिये महाराज ने। हालांकि शाम तक उसके पैसे लौटा भी दिये।
31 जुलाई 2013, बुधवार
1. आज सुबह सवा चार बजे सुनील पाण्डे साहब की ट्रेन जम्मू से सराय रोहिल्ला पहुंच गई। मेरी आंख भी खुली लेकिन क्या फायदा था इस समय उन्हें फोन करने का। सराय रोहिल्ला का नजदीकी मेट्रो स्टेशन शास्त्री नगर है। वहां शास्त्री पार्क के लिये पहली मेट्रो करीब पौने छह बजे आती है। पांच बजे स्टेशन का गेट खुलता होगा। वे मेट्रो स्टेशन पर प्रतीक्षा करेंगे, इससे तो अच्छा है कि सराय रोहिल्ला पर ही घण्टा भर बैठे रहें।
छह बजे बात हुई। और सात बजे तक वे शास्त्री पार्क पहुंच गये। बडी गरमजोशी से मिले। वे ट्रेन से भारत परिक्रमा कर रहे हैं। बताया कि यह प्रेरणा उन्हें मुझसे मिली। सुनते ही जी खुश हो गया। इसी खुशी में सूजी का हलुवा बना दिया। वे एक अधिवक्ता हैं। मुझे भी खुशी मिली कि मैं भी अधिवक्ताओं का मार्गदर्शन करने लगा। वाह नीरज!
सुनील महाराज छत्तीसगढ के हैं। इसी साल के शुरू में जब मैं अपनी चार दिनी छत्तीसगढ यात्रा करके लौट रहा था तो भाटापारा स्टेशन पर पचास किलोमीटर दूर अपने गांव से इनके बडे भाई व भाभी श्री और श्रीमति सुधीर पाण्डे मिलने आये थे।
मैं छह अगस्त से कोंकण व पश्चिमी कर्नाटक की यात्रा पर निकल रहा हूं। लेकिन यह मूलतः उत्तर पूर्वी आन्ध्र व दक्षिणी छत्तीसगढ की यात्रा थी जो सुनील साहब के कहने पर हो रही थी। लेकिन इसी दौरान उनका कार्यक्रम गुजरात भ्रमण का बन गया और वे इस दौरान दक्षिणी छत्तीसगढ यानी बस्तर यात्रा में मेरा साथ नहीं दे सकेंगे। ऐसा जानकर मैंने अपनी योजना में परिवर्तन कर लिया और वर्तमान कार्यक्रम बन गया।
उन्होंने बताया कि वे जब भी मित्रों के साथ गपशप करते हैं जो ज्यादातर नीरज जाट के बारे में ही बातें होती हैं। कई मित्रों से उन्होंने आज मेरी बात भी कराई। हर तारीफ पर ऊपर से तो मैं हीहीहीही करके दांत दिखा देता लेकिन अन्दर सीना चौडा करके कहता- वाह नीरज वाह! शाब्बाश! लेकिन आदत इतनी खराब है धन्यवाद का एक शब्द भी नहीं निकला।
पौने ग्यारह बजे यहां से चल दिये। निजामुद्दीन से बिलासपुर जाने के लिये उन्हें बारह बजे कलिंग उत्कल एक्सप्रेस पकडनी है। पहले तो मेरा इरादा था कश्मीरी गेट से सीधे काले खां तक बस से जाने का लेकिन जब उन्होंने बताया कि वे आज पहली बार मेट्रो में बैठे हैं तो मेरा इरादा बदल गया। अब हम इन्द्रप्रस्थ तक मेट्रो से जायेंगे और उसके बाद बस से। वे सुबह सवेरे शास्त्री नगर से सीधे शास्त्री पार्क आये थे। यह असली मेट्रो नहीं है। असली मेट्रो है जमीन के अन्दर और कश्मीरी गेट व राजीव चौक स्टेशनों पर एक तल से दूसरे तक पर जाकर मेट्रो बदलना एक यादगार अनुभव होता है। जब हम इन्द्रप्रस्थ गये तो सुनील साहब को दोनों स्टेशनों के अनुभव हो चुके थे।
फिर तो निजामुद्दीन पहुंचना और कलिंग उत्कल एक्सप्रेस में बैठना एक औपचारिकता ही थी।
डायरी के पन्ने-9 | डायरी के पन्ने-11
apne baaten sare karne k leya thnx.
ReplyDeleteआइये, कर्नाटक में आपकी प्रतीक्षा रहेगी।
ReplyDeleteAap ke diary ke panne hamesha se priya rahi hai
ReplyDeleteMe astroloser hu par kabhi bhavishyavani nahi karata . Shree Gayatri ma se aapke liye prathna karata hu . Muze pura yakin he tumhare jarur marriage honge or mere taraf se pura gujarat pekeg hanimoon me free. Aap hamare hiro he . Aesa nahi ke shadi ke bad ghumkkadi band . Vo aapko company denge . Or kya likhe jise jo kam karne ki prathna karte he usise bat karenge. By or kinnar kailash aapke sath jane ki tamnna he vo bhi agale sal BABA puri kar de .
ReplyDeleteकोई न कोई छोरी तो होगी जरुर ! देखता हूँ कब तक जाटनी इन्तेजार करती है इस जाटराम की ! राम राम जी ................!
Deleteaisee ladki bahut kam logon ko milti hai jo unhe pyaar kare.............
ReplyDeleteशानदार पोस्ट, एकदम सही है कि मै हमेशा फेसबुक के द्वारा ही आपके ब्लॉग पर पहुँचता हूँ...
ReplyDeleteग्रहस्थ आश्रम मे प्रवेश कर चुके है,तो ग्रहस्थी चलाने वाली भी ढूंढ लो
ReplyDelete' जिन्दगी में कुछ करने की इच्छा हो, कुछ बनने की इच्छा हो तो तुरन्त बता'-----लड़की को तो यही कहना चाहिए था कि मै थारे बच्चों की माँ बनना चाहूँ हूँ'--- फिर देखते की जाट राम कैसे अपने शब्दों पर अडिग रहते हैं। वैसे हमारा दिल कहता है कि इसी से कर लो।
ReplyDeleteSorry Neeraj ji mujhe nahin maloom tha kI US ullu kay pathay nay service charge bhi liya hai. Jabki meri usay khas warning thi kI 2300 say ek paisa faltoo nahin lega. Abhi uski maa bahan ek karta hoon. Aur appkay 500rs. Premier sahit aapko lota diye jaaynge
ReplyDeleteनहीं विकास जी, कोई बात नहीं। ऐसा मत करना। सर्विस चार्ज तो बनता ही है और दक्षिणी दिल्ली से उत्तरी दिल्ली आकर सेवा देने पर तो और भी ज्यादा।
Deletesundar or vajib jawab
Deleteदिनचर्या में मुझे हजारों लोग मिलते हैं जिनसे हमेशा कुछ न कुछ सीखने को मिलता रहता है - हमारा भी यही मानना है ।
ReplyDeleteWah neeraj jee kaya jindgi ki tasweer utar di hai , fakr hota hai yar
ReplyDeleteये भावपूर्ण बात के चक्कर में जाट भाई असल बात गोल कर गिआ.... बिना गैस के सूजी की खीर कैसे बनाई? और बनाई ते बनाई पर ये दूध वो 28 तारीख का ही इस्तेमाल किया कि फेर से धार काढ़ी ? :)
ReplyDeleteजिन्दगी में कुछ करने की इच्छा हो, कुछ बनने की इच्छा हो तो तुरन्त बता।..
ReplyDeletejo banna chahti hai wo banne nahi dena chahte..
Bahut nazuk faisla hota hai ye zindagi ka.. kuch dil ki bhi sun leni chahie..
gussae aur ahankaar se ye faisle nahi liye jaate..
Very Good
ReplyDeletejay ho
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