इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें।
25 अप्रैल 2013
बशल चोटी के पास बाबाजी के साथ कुछ समय बिताकर वापस सराहन के लिये चल पडा। बाबाजी नीचे कुछ दूर तक रास्ता बताने आये। रास्ता स्पष्ट था, लेकिन धुंधला था। पत्थर ही बेतरतीबी से पडे हुए थे। बाबाजी ने बता दिया था कि नीचे जहां मैदान आयेगा, वहां से रास्ता बायें मुड जाता है। जबकि सीधे शॉर्टकट है। मैं इधर आते समय शॉर्टकट से आया था और मैदान के पास सही रास्ते को पकड नहीं सका था। सोच लिया कि इस बार भी शॉर्टकट से ही उतरूंगा, ज्यादा मुश्किल नहीं है।
मोबाइल में गाने बजाने शुरू कर दिये। पहली बार जंगल में चलते हुए गाने बजा रहा था। अटपटा सा लग रहा था।
मैदान आया। पगडण्डी बायें मुड गई। मैंने इसे छोडकर सीधे चलना ही उपयुक्त समझा। पहली गलती यही हुई।
यह एक शॉर्टकट था। आवाजाही न होने के कारण कोई पगडण्डी या निशान भी नहीं था। बाबाजी ने सलाह दी थी कि अगर शॉर्टकट से जाओ तो एक बडा ऊंचा पेड मिलेगा, उसे पार करते ही बायें मुड जाना और उतरते रहना। यहां देखा तो सारे के सारे पेड ऊंचे ही दिखे। इन स्थानीय लोगों ने उस एक पेड का नाम ‘ऊंचा पेड’ रखा हुआ है, मुझे क्या पता इस नाम का? मैं इसके बाद भी बायें नहीं मुडा, सीधे ही चलता रहा। यही दूसरी और जानलेवा गलती थी।
असल में यहां सर्दियों में खूब बरफ पडती है। अत्यधिक ढलान होने के कारण यह कभी कभी नीचे फिसलने लगती है। पेड होने के कारण यह मनमाने रास्ते से नहीं फिसलती। पगडण्डी की शक्ल ले लेती है। मैं इसी को असली पगडण्डी समझ बैठा। नीचे सूखी घास भी बर्फ फिसलने की वजह से नीचे की ओर मुडी हुई थी। कुदरती नजारे और मनपसन्द संगीत बजने के कारण मैं गलती कर बैठा कि यह आदमी की पगडण्डी है। इसी पर चलता रहा।
ढलान और भी तीव्र हो गया। घास के कारण दो तीन बार फिसला भी लेकिन लाठी व आसपास पौधों के कारण गिरने से बचा रहा। तभी अचानक सामने ‘पाताल लोक’ आ गया। सीधी कम से कम दो सौ फीट की गहराई। इसे देखकर अक्ल आई कि पीछे बायें मुडना था। यहां बायें मुडने की सम्भावना देखी तो असम्भव। ‘पाताल लोक’ की खडी दीवारों पर कैसे उतर सकता था? आगे बढने के दो ही तरीके थे- या तो वापस ऊपर चढो और कहीं उपयुक्त स्थान से वो बायें वाला रास्ता पकड लो, या फिर यहां से दाहिने मुडकर नीचे उतरते जाओ। मैंने नीचे उतरने वाला तरीका अपनाया। तीसरी गलती कर बैठा।
दाहिने मुड गया तो मेरे बायें पाताल लोक हो गया। सामने ढलान और भी तेज हो गया। बडे पेड नहीं थे। झाडियां भी नहीं थीं। लेकिन छोटे छोटे कांटेरहित पौधे अवश्य थे। पैरों के नीचे सूखी घास थी। अगर मैं पौधों का सहारा न लेता तो कई बार फिसल चुका होता। अब तक यकीन हो चुका था कि ये पौधे काफी मजबूती से जमे हैं।
ढलान इतना बढ गया कि खडे होकर उतरना असम्भव होने लगा। बैठना पडा। महेन्द्र कपूर साहब गा रहे थे- चल चला चल। अकेला चल चला चल। सबसे पहले तो कपूर साहब का सुर बन्द किया। काफी तनाव में हो गया था मैं। भालुओं का डर अलग से था, लेकिन सारा ध्यान उतरने और सन्तुलन बनाने पर था, इसलिये भालू याद ही नहीं आये। झाडियां भी शुरू हो गईं।
बैठ-बैठकर उतरना शुरू कर दिया। कमर पर खाली बैग और गले में कैमरा लटका था। बैग में पानी की खाली बोतल थी जो झाडियों में अटक रही थी, इसलिये छोडनी पडी। एक बार तो मन में आया कि बैग को भी छोड देता हूं, सराहन जाकर दूसरा ले लूंगा। हालांकि बैग बच गया।
बायें पाताल लोक अभी भी था लेकिन गहराई लगातार कम होती जा रही थी। अगर इसी तरह सरकता जाऊं तो एक जगह ऐसी आयेगी जहां पाताल लोक खत्म हो जायेगा और मैं जमीन पर पहुंच जाऊंगा, इसलिये दाहिने ही चलते रहना चाहिये। सामने सराहन गांव और मन्दिर भी अच्छी तरह दिख रहे थे।
लेकिन दाहिने चलना भी उतना आसान नहीं था। अत्यधिक ढलान तो था ही, झाडियों ने इसे और भी मुश्किल बना दिया। आखिरकार मैं एक ऐसी चट्टान के ऊपर पहुंच गया जहां से करीब पन्द्रह फीट नीचे जमीन दिख रही थी। मेरी लम्बाई छह फीट के करीब है। अपनी लम्बाई से ढाई गुनी ऊंचाई से नीचे कूदना बडा मुश्किल काम था और वो भी ऐसी जगह पर जहां कूदने के बाद भी ढलान जारी था। कूदकर संभलना असम्भव था। इस चट्टान के ऊपर कंटीली झाडियां भी थीं। ये कंटीली झाडियां न होती तो मुझे इस चट्टान से कूदने की आवश्यकता ही नहीं पडती, ऊपर ही ऊपर किसी तरह सरककर निकल जाता।
कूदें तो कैसे कूदें? आगे मुंह करके कूदना मूर्खता है। पेट के बल उतरना पडेगा, चट्टान की ओर मुंह करके। इसके लिये दोनों हाथ स्वतन्त्र होने जरूरी थे। डण्डा नीचे फेंक दिया, सही सलामत इस चट्टान से उतर जाऊंगा तो पुनः डण्डे को उठा लूंगा।
अब एक हाथ से चट्टान का सहारा लेकर, दूसरे हाथ से पौधों को पकडकर नीचे उतरना है। कंटीली झाडियों को पकड बैठा। पकडते ही नीचे सरक गया। सही सलामत नीचे सरक तो गया, लेकिन बाद में देखा बांयीं हथेली में आठ जगह कांटे चुभ गये। तीन बडे गहरे चुभे।
ढलान तो अब भी था, लेकिन नीचे उतरना मुश्किल नहीं रहा। और जैसे ही सेब का पहला पौधा मिला, खुशी से झूम उठा मैं। सबसे पहले पौधे को चूमकर प्रणाम किया। सेब के पौधे का अर्थ था, यहां आदमी के पैर पडते हैं। पगडण्डी अभी भी काफी नीचे दिख रही थी। जब मैं वहां पहुंचा, एहसास हुआ कि जीटी रोड पर आ गया हूं। कुछ समय पहले मैं भारी मुसीबत में था। खडी ढलान पर जमीन और पौधे पकड-पकडकर धीरे धीरे सरकना पड रहा था। एक बार तो भीमाकाली भी याद आ गई थीं।
जब पगडण्डी सडक में विलीन हुई तो डण्डे को छोडना पडा। इसे भी प्रणाम किया गया। ढलान पर डण्डा बडे काम का होता है।
26 अप्रैल 2013
मुझे कल रात पौने बारह बजे कालका से चलने वाली हावडा मेल पकडनी है। इस प्रकार अपने पास अभी भी पूरे दो दिन हैं। बाहर झांककर देखा तो बारिश हो रही थी। मन बना लिया कि आज यहीं रुकते हैं। कुछ नहीं करना, कहीं नहीं जाना, बस यहीं पडे रहना है। लैपटॉप था ही, मन भी लग गया।
दोपहर को कमरे के एक दिन के पैसे और दे दिये। पता चला कि सुबह छह बजे यहां से रामपुर की बस जायेगी। उसी बस से सुबह निकल पडूंगा।
शाम पांच बजे जब एक ही जगह पडा पडा उकता गया तो कैमरा गले में लटकाकर निकल पडा। दो किलोमीटर दूर रंगोरी वाली सडक पर हवाघर है। यहां से दूर-दूर का नजारा बडा अच्छा लगता है। बिल्कुल सामने श्रीखण्ड बाबा पूरी शान से दिख रहे थे। यहीं जब दिन छिप गया तो वापस लौटा। कल सुबह छह बजे वाली बस पकडनी है।
बाबा की कुटिया |
बाबा और गडरिये |
दूर बीचोंबीच बर्फीले पहाडों में श्रीखण्ड चोटी दिख रही है। |
मुसीबत के दौरान एक भी फोटो नहीं लिया गया। जब सेबों के बीच पहुंचा तो लगा अपनों के बीच आ गया मुसीबत से निकलकर। |
यही पगडण्डी थी जहां पहुंचकर मुझे जीटी रोड पर पहुंचने का एहसास हुआ। |
सेबों के बीच |
भीमाकाली मन्दिर |
रात में मन्दिर |
रंगोरी वाली सडक- हवाघर जाते हुए। |
दूर जो एक चोटी दिख रही है, वही बशल चोटी है, उसी के नीचे बाबाजी की कुटिया है। |
भीमाकाली मन्दिर में लकडी का काम। |
रामपुर वाली बस। |
1. सराहन की ओर
2. सराहन से बशल चोटी तथा बाबाजी
3. सराहन में जानलेवा गलती
4. शिमला-कालका रेल यात्रा
गाने, मोड़, ढलान और मैं..यही शीर्षक उपयुक्त था।
ReplyDeleteचलो भालू से भेंट नही हुई
ReplyDeleteati -uttam vyakhayan..
ReplyDeleteबढिया, लगे रहो। लेकिन संभल कर। शुभकामनाएं
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteभालू भूखे ही रह गए ..
ReplyDeleteमजा आ गया, आप की साथ हम भी घूम लिए, फोटोज के तो क्या कहने, हरहंमेश की तरह बेहतरीन
ReplyDeleteराम राम जी, रात में मंदिर का फोटो गज़ब हैं, अपना ख्याल रखा करो भाई , जिंदगी ही सब कुछ हैं...वन्देमातरम...
ReplyDeleteकाश, ढलान का चित्र भी होता तो कल्पना की उड़ान और ऊँची होती--- गाने सुनने का मतलब यह नहीं की आदमी भूल ही जाए और मौत के मुह में चला जाये ,,,
ReplyDeletePhoto bahut hi natural hain. Jo khas baat aapke photos mein hoti hai, aur logon ka wahan tak pahunchna mushkil hai.
ReplyDelete